पूर्वी गौला पारः भाबर म्वाव

नैनी क्षेत्र का हल्द्वानी विकासखण्ड के अन्तर्गत एक भाग गौलापार उर्फ भाबर उर्फ म्वाव है, जो काठगोदाम शहर के पास ही गौला बैराज से शुरू होकर गौला नदी से पूर्व दिशा में फैला है। यह भाग भीमताल व ओखलकाण्डा विकास खण्ड की अन्तिम सीमा बनाता हुआ, चोरगलिया क्षेत्र की सीमा तक फैला है। सम्पूर्ण क्षेत्र की उत्तर से दक्षिण तक लम्बाई 25 किमी. व चौड़ाई पूर्व से पश्चिम तक करीब 16 किमी. तक होगी। चारों ओर से घने जंगल से घिरा यह क्षेत्र केवल 8 किमी. लम्बी व 6 किमी. चौड़ी सीमा तक में ही अपना जीवन निर्वाह करता है। अर्थात इसी सीमा के भू-भाग पर मानव का अपना निवास-स्थान है, यह क्षेत्र अतीत से काफी विकासशील है।

वर्तमान समय में इसे तीन नामों से जाना जाता है, जिसमें एक नाम पूर्व गौलापार नाम की उत्पत्ति इसलिए हुई कि यह, हल्द्वानी शहर के पूर्वी दिशा व गौलानदी के पार स्थित है, पर यह शब्द आधुनिक है, इसे राजकीय एवं गैर राजकीय संस्थानों मे ही जाना जाता है। मूल निवासियों का इस खण्ड से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। इसी शब्द का पर्याय भाबर है। भाबर शब्द की उत्पत्ति प्राकृतिक भाग की विशिष्टता के कारण हुई है। ऐसे क्षेत्र न तो पूर्ण तराई अथवा मैदानी और न ही पूर्ण पर्वतीय होते हैं, ये भाग पहाड़ों की तलहटी पर स्थित होते हैं। इन भागों की उत्पत्ति का कारण पहाड़ी नदियों को माना जाता है। इस प्रकार के प्राकृतिक भाग गढ़वाल मण्डल में- जौनसार भाबर, कोटद्वार, दून-घाटी व चकरौता आदि हैं। कुमाऊँ मण्डल में इस क्षेत्र के अलावा कोटा-भाबार, रामनगर, बैल-पड़ाव, चोरगलिया व टनकपुर के कुछ क्षेत्र इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। नैनी क्षेत्र के तीन प्राकृतिक भागों में यह भी एक भाग है, इस शब्द का प्रयोग केवल शासकीय संस्थानों में होता है। आम जनता इसका मूलभूत अर्थ नहीं जानती। न ही यह शब्द यहाँ के मूल निवासियों का किसी प्रकार का जिक्र करता है, मूल निवासियों का यहाँ रहने का मुख्य व अन्तिम उद्देश्य क्या था। इसकी पुष्टि इन दो शब्दों से नहीं होती, क्योंकि अतीत काल में ऐसे क्षेत्रों में रहना खुद को गड्ढे में गिराना होता था। तब इन क्षेत्रों में हैजा, प्लेग व चेचक जैसी महामारी की चिकित्सा असम्भव थी। लेकिन तब से ही मानव इस क्षेत्र का प्रेमी रहा है। जिसकी पुष्टि इतिहास से हो जाती है।

भाबर शब्द का पर्यायवाची ही म्वाव शब्द है। यह शब्द यहाँ के मूल निवासियों द्वार निर्मित है। इस शब्द से ही इस क्षेत्र की विशिष्टता ज्ञात होती है। आज कितने बूढ़े निरक्षर नर-नारी इस क्षेत्र को म्वाव शब्द से ही सम्बोधित करते हैं। इसलिए म्वाव शब्द गौण न होकर प्रमुख शब्द है। जिसकी पुष्टि इस प्रकार से की जाती है:-

‘म्वाव’ शब्द की उत्पत्ति कुमाऊँनी ‘म्व’ शब्द से हुई है। म्व का अर्थ शहद से होता है। इस (म्व) शब्द में आव प्रत्यय लगाने पर (मव+आव=म्याव) शब्द की उत्पत्ति होती है, जो वस्तु विशेष का नाम हो जाता है, शहद जिस प्रकार हमारे लिये हितकारी होता है, उसी प्रकार अतीत में यह क्षेत्र भी किसी न किसी प्रकार मनुष्य का हितकारी रहा होगा। जिससे उन्होंने इस क्षेत्र को म्व शब्द से ही सम्बोधित किया। इसकी पुष्टि निम्न प्रकार से हो जाती है:-

अतीत काल में जब हमारे पर्वतीय परिवेश में आधुनिकता का साम्राज्य न था, तब पर्वतीय क्षेत्रों का मानव जीवन अत्यन्त कठोर था, शीत के दिनों, ये लोग ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से उठकर सितम्बर व अक्टूबर माह के मध्यान्तर तक पहाड़ की तलहटी में उतर आते। वहीं अपने-अपने पशुओं को लाकर, अस्थाई झोपड़ी बनाकर कुछ माह का प्रवास करके शीत से बचने और मार्च व अप्रैल के मध्यांतर अपने मूल निवासों अर्थात पहाड़ों के शिखर पर आ जाते थे। क्योंकि ग्रीष्म में इन जगहों में मच्छरों व हैजा- चेचक जैसी महामारियों का प्रकोप हो जाता था। तब ये लोग इन जगहों पर विशेष खेती न करते थे। हालाँकि आबादी में जंगल का एक बड़ा भू-भाग घिरा था। खेती के नाम पर तम्बाकू व कुछ अनाज बो देते, लेकिन उससे किसी प्रकार की आय न थी। तब ये सारा भू-भाग असिंचित था। यही हाल फसल का पहाड़ों पर होता था। पाँच-छः माह बाद जैसी फसल होती, उसी पर सन्तोष करते थे। तब खेती के सम्बन्ध में चल गई तो गाड़ी, नहीं तो अनाड़ी कहावत चरितार्थ होती थी। तब मुख्य धन्धा पशुपालन था। सवारी व माल ढोने का काम खच्चर व घोड़े करते थे। तब मनमानी थी, ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ वाली कहावत को अपनाकर प्रतिवर्ष आदमी जगह-जगह अपने प्रवास को बदलते, किसी की रोक-टोक न होती थी।

जब उन्नीसवीं सदी के मध्य में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित हुआ, तब ये लोग कुर्मांचल की ओर भी बढ़े, उन्होंने इस क्षेत्र में वन सम्दा को ही प्रमुख देखा, जो औद्योगिक विकास के लिए जरूरी थी। उन्होंने वन विभाग बना कर जगह-जगह वन रक्षक चौकियाँ स्थापित की और पशुपालकों के अधीनस्थ भू-भाग को छोड़कर, शेष सारे वन भू-भाग को शासकीय घोषित कर दिया था। साथ ही शासकीय वन सीमा भी निर्धारित कर ली गई। वन सीमा को पत्थरों की दीवालों से घेर कर उसके अन्दर प्रवास अवैधानिक घोषित कर दिया गया। उन पत्थरों की दीवालों खण्डहर अभी भी मौजूद है। यह वही समय था। जब हमारे पर्वतीय क्षेत्र में भी पाश्चात्य छाप उभरने लगी, और मानव समाज चुस्त होने लगा था।

वनों की घेराबन्दी हो जाने से पशुपालक काफी चिन्तित हुये। उनकी मनमौजी अब समाप्त हो चुकी थी, उनके पास अब एक निश्चित भू-भाग था, जिसके फलस्वरूप आम पशुपालक भी भू-भाग की घेरा बन्दी करने लगे। जो पशुपालक चतुर थे। उन्होंने आठ-दस एकड़ भू-भाग घेर डाला, इस प्रकार म्वाव का यह क्षेत्र छोटे-बड़े टुकड़ों में विभिन्न व्यक्तियों के नाम पंजीकृत हो गया। जो ब्रिटिश साम्राज्य में कानूनी था। तभी से पशुपालक म्वाव व पहाड़ों के घेरे भू-भाग की सुरक्षा के लिये जंगल से कँटीली झाड़ियाँ लाकर चकबन्दी करने लगे। तब तक कँटीले लोहे के तार पर्वतीय परिवेश में प्रचलित न थे।

म्वाव व पहाड़ का भू-भाग विभिन्न व्यक्तियों के अधिकार में हो जाने पर मानव समाज बड़े पधान, छोटे पधान खेतिहर मजदूरों में वर्गीकृत हुआ। जिन लोगों ने म्वाव का कोई भू-भाग न घेरा, वे केवल सर्दी में आकर बड़े-छोटे पधानों के संरक्षण में रहते और उन्हीं के यहाँ मजदूरी भी करते, ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने प्रतिनिधि, गाँवों में थोकदार, की पदवी कुछ परिवारों को देकर उन्हें किसी थोक का मुखिया घोषित कर दिया, ये थोकदार लोग गाँवों की घटनाओं का विवरण शासन को देते थे।

तब म्वाव के बड़े पधान काफी चतुर थे। ये लोग अपने हाथ से खेती न करते, अपने खेतों को वे मजदूरों को साझे में दे देते, तब के समय से यहाँ नेपालियों का आवागमन था, अभी भी इस क्षेत्र में 10 प्रतिशत नेपाली प्रवास करते हैं, ये सारे नेपाली खेतिहर महदूर थे। ग्रीष्म लगते ही छोटे-बड़े पधान सपरिवार पर्वतीय क्षेत्रों में चले जाते, मजदूर वर्ग ही ग्रीष्म व बरसात में मच्छरों के शिकार होते, यही लोग हैजा, चेचक व मलेरिया जैसी महामारियों का शिकार होकर स्वर्ग सिधारते या शारीरिक रूप से अक्षम हो जाते।

अंग्रेज लोग काफी शराब पीते थे, उनके साम्राज्य में शराब का काफी विकास हुआ, तब म्वाव में भी नेपाली व अन्य प्रधान लोग शराब का निर्माण करने लगे, शराब पीने से मलेरिया का प्रकोप कम होने लगा, क्योंकि शराब के विष से मलेरिया के रोगवर्द्धक जीवाणु (पैरासाइट) अक्षम हो जाते थे। तभी से शराब पीना म्वाव के आदमियों के लिए एक अनिवार्य कृत्य बन गया। वह परिपाटी अभी भी ज्यों की त्यों है, आज भी यहाँ की 95 प्रतिशत जनता शराब के शिकार में बँधी है और सामाजिक जीवन में अभिशाप बन चुकी है, हालाँकि अब मलेरिया की चिकित्सा सामग्री उपलब्ध है और शराब मानव के लिए अनिवार्य नहीं रह गई है।

तब हल्द्वानी एक साधारण जगह थी। पक्के मकान यहाँ उपलब्ध नहीं थे, केवल झोपड़ियाँ थी। दिन-दोपहर आतंक और शेरों का भय छाया रहता। तब पर्वतीय क्षेत्र का मुख्य बाजार रामनगर था। इनमें भी यातायात साधन शून्य था।

पशुपालक लोग खेती से हल्दी, मिर्च, आलू पैदा करते, इन्हीं को बेचकर यह अपनी आय करते, जो लोग दूरदर्शी थे, उन्होंने पहाड़ व म्वाव में बराबर अधिकार जमाये रखा। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में काफी प्राकृतिक आपदायें आईं, जिसमें मलेरिया, हैजा, चेचक व सूखा प्रमुख थे। उधर विश्व में काफी अशांति थी। चीजों के दाम बढ़ने लगे। आम आदमी परेशान होने लगा। इसके फलस्वरूप बहुत से लोगों ने म्वाव के भूभाग को छोड़ दिया या सस्ते दामों में बेच दिया और खुद पहाड़ों में स्थाई निवास करने लगे। तब पहाड़ों में आलू व मिर्च की पैदावार होती थी। कुछ क्षेत्रों में फल उत्पादन भी होने लगा। यहाँ का कृषक इसी से तेल, नमक व लत्ते कपड़े की व्यवस्था करता था। तब म्वाव के लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता था।

ब्रिटिश साम्राज्य जब कूमाँचल क्षेत्र से अच्छी तरह अवगत हो गया, तब हल्द्वानी व नैनीताल शहरों का आधुनिकीकरण होने लगा। यातायात के साधन सुलभ होने लगे। उनकी दृष्टि में आम आदमी व क्षेत्र की समस्या आने लगी। तभी म्वाव का क्षेत्र भी उन्होंने उपयोगी समझा और काठगोदाम के पास ही तीन पोषक नहरों का निर्माण किया गया, जिनकों हल्द्वानी गौलावार व गौलापार पोषक नहर के नाम से जाना जाने लगा। पानी आ जाने के कारण म्वाव में चैन की बंशी बजने लगी। तब हल्द्वानी शहर काफी विकसित हुआ। यहाँ पर आम आदमी को हर सौदा मिलने लगा, म्वाव में गेहूँ, जौ, लाही, सरसों, चना व धान की पर्याप्त खेती होने लगी। पर रासायनिक खाद व उन्नतशील बीजों का प्रचलन न था। गन्ने की खेती बहुत कम होती थी। पैदावार साधारण थी, कृषि औजार पुराने थे। रहने के लिए पक्की घास की झोपड़ी बनी थी। सड़क पूर्णरूप से कच्ची थी, ट्रैक्टर बिल्कुल नहीं थे, यातायात में इक्के-ताँगे व बैलगाड़ी प्रचलन में थे। मलेरिया आदि कुछ बीमारियों का इलाज होने लगा। लेकिन इस क्षेत्र में कोई चिकित्सालय न था। तब से पर्वतीय व भाबरी कृषक अलग-अलग जीने लगे। हालाँकि अब भी कुछ कृषक दोनों क्षेत्रों पर अधिकृत थे, तब आम आदमी का जीवन-स्तर अपेक्षाकृत काफी निम्न था।

अब यह क्षेत्र काफी प्रगति पर है, आम, लीची, अमरूद व पपीता जैसे फलों व बैंगन, मूली, कटहल जैसी सब्जियों का और अधिक उत्पादन कर छोटे कृृषकों का जीवन स्तर ऊँचा उठाया जा सकता है, लेकिन इसके लिये यहाँ पर पर्याप्त मात्रा में सिंचाई की व्यवस्था करनी होगी। आने वाले कुछ दिनों में यह क्षेत्र प्रगति की चोटी पर होगा, क्योंकि आज प्रत्येक कृषक प्रगतिवाद का हिमायती है, चेचक अब निर्मूल है तथा अन्य रोगों पर नियंत्रण है। आज इस क्षेत्र में बसने को प्रत्येक जन लालायित है। इसलिये यह आज फिर ‘म्वाव’ का काम कर रहा है। म्वाव शब्द की उत्पत्ति सार्थक हो गई है।भारत स्वतंत्र हुआ तो देश के हर भाग में जागृति आई। देश में पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत नियोजित कार्य होने लगे। शिक्षण संस्थाओं का विकास किया गया। तब म्वाव क्षेत्र में भी सोने के हल चलने लगे, कहीं-कहीं ट्रैक्टर शब्द भी सुनाई देने लगा, खेतों की घेराबन्दी लोहे के तारों से होने लगी, गाँव में गुड़ बनने लगा था। गन्ने की खेती में प्रगति होने लगी, कृषक भूमि व खेती की महत्ता समझने लगा और दीवानी केसों की प्रचुरता होने लगी, आम कृषक अदालतों के दरवाजे खटखटाने लगे, तब रासायनिक खाद का प्रचलन न था, केवल गोबर की खाद द्वारा ही उपज ली जाती थी। पशु अपेक्षाकृत अतीत में काफी थे, लेकिन नस्ल कोई उन्नतशील न थी, न ही पौष्टिक चारे के बारे में पशुपालक को जानकारी थे, देशी नस्ल की गाय व भैंस ही पायी जाती थी। दूध का बाजार शून्य था।

उन्हीं दिनों भारत में से पाकिस्तान एक भिन्न राष्ट्र के रूप में उभरा। विस्थापितों के रूप में मुण्डे व कृपाणधारी सरदार यू.पी., राजस्थान, दिल्ली व हरियाणा आदि क्षेत्रों की तरह नैनीताल क्षेत्र की तराई के एक बड़े भू-भाग पर बसे, ये लोग काफी मेहनती थे। म्वाव क्षेत्र में इन्होंने वहाँ के मूल निवासियों के जीवन का अध्ययन किया और देखा की सामान्य पहाड़ी कृषक घोर रूढ़िवादी, आलसी व आपसी मतभेदों और फूट से घिरा बैठा है, शुरू में इन लोगों ने यहाँ पर मेहनत मजदूरी की। फिर धीरे-धीरे पहाड़ी कृषक को रूपये का लोभ देकर पूरे म्वाव क्षेत्र का 1/25 वाँ भाग खरीद डाला। पहाड़ी कृषक निरक्षर व ईमानदार थे। भरपेट तक के कार्य पर ही संतुष्ट रहते थे। उसका प्रतिफल वे वर्तमान की विषम परिस्थितियों के रूप में देख रहे हैं।

विस्थापित लोग मेहनती थे। उन्होंने खेती करने के नये तरीके अपनाये, जमीन को कभी खाली न रखा। खेतों में खूब हरे व पौष्टिक चारे बोये, पशुओं में हरियाणा व मुर्रा जाति के ही गाय व भैंस पाले, साथ ही खूब मेहनत करके दूध का उत्पादन बढ़ाया। दूध का काफी सेवन करने के साथ ही वे मीट (गोश्त) व शराब के भी शौकीन थे, खेती के लिए ट्रैक्टर, अन्य मशीनें व रासायनिक खाद का पर्याप्त मात्रा में उपयोग करते, जिसके फलस्वरूप एकड़ों के हिसाब की खेती करना, उनके बाँये हाथ का खेल हो गया। पहाड़ी कृषक की अपेक्षा वे कई गुनी ज्यादा पैदावार लेने लगे। काफी रूपये कमाकर पक्के मकानों में उच्चस्तरीय जीवन-यापन करने लगे।

उसी समय यहाँ के मूल कृषक की आँखे खुलीं। उनकी पैदावार को देखकर इन लोगों ने भी उन्नतशील बीज, नये औजार व रासायनिक खाद का प्रयोग खेती में शुरू किया। लेकिन अपनी पैदावार उनके समकक्ष ले जाने में उन्हें अभी भी सफलता नहीं मिल पायी है। हालाँकि 90 प्रतिशत कृषक इस प्रतियोगिता में सफल हो चुके हैं, आज यहाँ के मूल कृषकों के पास भी काफी ट्रैक्टर व अन्य मशीनें हैं। रासायनिक खाद की खपत काफी बढ़ चुकी है, गन्ना मिलों के सदस्य बनकर वे गन्ने की खेती में चौमुखी विकास कर रहे हैं, प्रत्येक फसल में उन्नतशील बीज बोकर उनके रोगों की रोकथाम हेतु दवा का भी सफल प्रयोग किया जा रहा है, 37.5 प्रतिशत परिवार पक्के मकानों में निवास कर रहे हैं, जबकि 1950 से पूर्व यह आँकड़ा 1 प्रतिशत था, पशुओं की नस्लों में सुधार हो रहा है, लेकिन दूध की पैदावार अभी भी सोचनीय है, हालाँकि चारा बीज के अन्तर्गत बरसीम, जई, मक्का, चरी व जौ की बहुत थोड़ी पैदावार होने लगी है, यह कहना अनुचित न होगा कि हरित क्रांति की ज्वाला म्वाव में भी फूट चुकी है।

पहले की अपेक्षा कच्ची सड़के अब नहीं हैं, अब पूरी म्वाव में दानीबंगर से दो पक्की सड़कें हैं, जो कुछ दूर जाकर फिर एक हो जाती हैं, काठगोदाम तक बनी हैं, काठगोदाम में गौला नदी को पार करने हेतु एक पक्का सेतु बना है, जिस पर आसानी से मोटर-गाड़ी आर-पार होती है, आधे म्वाव क्षेत्र में बिजली आ चुकी है, सम्पूर्ण म्वाव दो ग्राम सेवक क्षेत्रों व तीन लेखपाल क्षेत्रों में वर्गीकृत हैं, चार पशु औषधालय व कृत्रिम गर्भाधान तथा एक पशु चिकित्सालय केन्द्र कुँवरपुर में स्थित है, एक होम्योपैथिक चिकित्सालय दौलतपुर में बना है, दौलतपुर व कुँवरपुर में सरकार द्वार मान्यता प्राप्त दो इण्टर कालेज भी हैं, पूरे म्वाव क्षेत्र में 8 प्राइमरी स्कूल तथा एक पब्लिक नर्सरी स्कूल पद्मपुरी व एक शिशु मन्दिर किसनपुर में (व्यक्तिगत संस्थान) हैं। खेड़ा में एक जूनियर हाई स्कूल व एक सहकारी दुग्ध संकलन केन्द्र भी है। रेशमबाग में एक सरकारी रेशम उद्योग भी है। व्यक्तिगत रूप में 6 धान कूटने व गेहूँ पीसने की मिलें भी हैं। 4 सरकारी पनचक्कियाँ हैं, जिनको सरकार लीज में देकर अपनी आय करती हैं।

वर्तमान समय में यहाँ पर यातायात के साधन प्रायवेट बस सेवा, ताँगे तथा साइकिलें व रिक्शे हैं, कुछ लोग ट्रैक्टर व बैलगाड़ी में भी आते जाते हैं, लेकिन इनमें सवारी बलात नहीं हो सकती है। गाँवों में अपराध रोकने हेतु कुँवरपुर में एक पुलिस चौकी भी कायम है।

अब यह क्षेत्र काफी प्रगति पर है, आम, लीची, अमरूद व पपीता जैसे फलों व बैंगन, मूली, कटहल जैसी सब्जियों का और अधिक उत्पादन कर छोटे कृृषकों का जीवन स्तर ऊँचा उठाया जा सकता है, लेकिन इसके लिये यहाँ पर पर्याप्त मात्रा में सिंचाई की व्यवस्था करनी होगी। आने वाले कुछ दिनों में यह क्षेत्र प्रगति की चोटी पर होगा, क्योंकि आज प्रत्येक कृषक प्रगतिवाद का हिमायती है, चेचक अब निर्मूल है तथा अन्य रोगों पर नियंत्रण है। आज इस क्षेत्र में बसने को प्रत्येक जन लालायित है। इसलिये यह आज फिर ‘म्वाव’ का काम कर रहा है। म्वाव शब्द की उत्पत्ति सार्थक हो गई है।

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