पूरी सिंचाई क्षमता का उपयोग न होने के कारक

सिंचाई समिति ने अर्जित सिंचाई क्षमता का पूरा-पूरा उपयोग न कर पाने के कई कारण बताये-

1. मुख्य नहर के बीच में बिजली घर का निर्माण


मुख्य नहर के हेड-वर्क्स और अंतिम छोर के बीच नहर के बेड-स्लोप के निर्धारण के बाद कोई 4 मीटर का अन्तर बचता था। इसलिए यह तय किया गया था कि मुख्य नहर में ही एक पनबिजली घर बना लिया जाय और पानी के 4 मीटर के उपलब्ध दबाव का फायदा उठा लिया जाय। इसके लिए 4 टरबाइनें बैठाई गईं जिनमें प्रत्येक के लिए 106 क्यूमेक पानी की व्यवस्था की गई। इस तरह से नहर में उसके रूपांकित प्रवाह 425 क्यूमेक पर यह चारों टरबाइनें चलतीं और इससे कुल मिला कर 20 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता। टरबाइनों से निकलता हुआ पानी फिर मुख्य नहर में बहता और सिंचाई के काम आता। सिद्धान्त रूप में यह बात बिलकुल ठीक थी किन्तु व्यावहारिकता यह थी कि अगर किसी कारण से टरबाइनें काम न करें तो बिजली घर भी बन्द रहेगा और नहर में भी पानी नहीं जायेगा। ऐसा अक्सर होता था और नहर या तो बन्द रहती थी या कम क्षमता पर चलती थी जिससे सिंचाई में कमी आती थी। सिंचाई को विद्युत उत्पादन से मुक्त रखने के लिये समिति ने एक बाइ-पास नहर के निर्माण को यथाशीघ्र पूरा करने की सिफारिश की। मुख्य नहर में अवस्थित होने के कारण जब तक सारे जेनरेटर स्थापित न किये जाएँ तब तक नहर की पूरी क्षमता 425 घनमेक का उपयोग नहीं किया जा सका। जब आंशिक रूप से विद्युत गृह से हो कर पानी गुजारा गया तब पानी के साथ काफी मात्रा में बालू आने लगा और काँस, पटेर और जलकुंभी आदि घासें भी पानी के साथ आ कर जेनरेटरों को जाम करने लगीं और तब विद्युत गृह को बन्द कर देना पड़ा। इस विद्युत गृह का निर्माण 1964 में शुरू हुआ और यह 1965 में पूरा किया जाना था परन्तु 1965 में पाकिस्तान से लड़ाई के दौरान जापान से आ रहे यंत्रों को पाकिस्तान द्वारा जब्त कर लेने के कारण इसके निर्माण में बाधा आई। जैसे-तैसे 1971-72 में विद्युत उत्पादन शुरू हुआ पर यह पाया गया कि इन चार जेनरेटरों से 4 मीटर (13 फीट) के प्रपात पर मात्र 215 घनमेक का ही निस्सरण हो पाता था अतः कालान्तर में एक बाइ-पास नहर का निर्माण करना पड़ा जिससे विद्युत गृह की अनदेखी कर के सिंचाई के लिए नहरों से पानी उपलब्ध करवाया जा सके।

किसी भी जल-विद्युत योजना में जिसमें नहर के साथ विद्युत उत्पादन का भी समायोजन होता है, हमेशा सिंचाई और विद्युत उत्पादन को यथासम्भव एक दूसरे से मुक्त रखा जाता है, यह एक बुनियादी तरीका है पर पता नहीं कोसी योजना के इंजीनियरों को यह समझ शुरू में ही क्यों नहीं आई? लोकसभा की 68वीं प्राक्कलन समिति (चौथी लोकसभा) ने इस प्रश्न को कोसी योजना अधिकारियों के सामने रखा था तब ऐसा बताया गया कि इस विषय पर विषद चर्चा हुई थी और यह तय पाया गया था कि बाइ-पास नहर के निर्माण में 20 लाख रुपये की अतिरिक्त लागत आती अतः यह विचार छोड़ दिया गया था। इसके आगे भी सफाई दी गई कि “...यह सच है कि विद्युत गृह के मुख्य नहर में होने के कारण पहले वर्ष में आंशिक रूप से ही सिंचाई की व्यवस्था की जा सकी तथा बाद के वर्षों में भी दो बाइ-पास नहरें बनानी पड़ीं। यह नहीं कहा जा सकता है कि विद्युत गृह का बाइ-पास चैनेल में अवस्थापन और उसका निर्माण समुचित योजना के अभाव में हुआ है। सत्य यह है कि हर कदम पर, जैसे निर्माण कार्यों की डिजाइन तैयार करना और जेनरेटरों के लिए आर्डर देना, इत्यादि सब जगह अभूतपूर्व देर हुई और सबके ऊपर जेनरेटरों के जरूरी कल-पुर्जे पाकिस्तान द्वारा 1965 के युद्ध के दौरान जब्त कर लिये गये। यह सब घटनाएँ अप्रत्याशित थी।’

इन सारे तर्कों के बावजूद 20 लाख रुपये बचाये नहीं जा सके और अन्ततः बाइ-पास नहरों का निर्माण करना ही पड़ा।

2. इलाके की जमीन बलुआही है और इससे होकर पानी की बहुत बड़ी मात्रा जमीन में रिस कर बर्बाद हो जाती थी। यह रिसाव योजना बनाते समय लगाये गये अनुमान से कहीं ज्यादा था।
3. नहरी पानी में सिल्ट/बालू का प्रवाह कोसी के अनुरूप ही बहुत ही ज्यादा था जिससे नहरों में बालू भर गया और उनके मुहाने जाम हो गये।
4. सिंचाई उपलब्ध हो जाने के बाद जिस फसल पद्धति की कल्पना योजना बनाने के समय की गई थी, किसानों ने उसे नकार दिया।
5. नहर के कमान क्षेत्र में रबी के मौसम में भी 1,24,300 हेक्टेयर जमीन में जल-जमाव पाया गया जो कि खरीफ के मौसम में और भी अधिक था। जल निकासी की समुचित व्यवस्था न होने से कृषि और सिंचाई दोनों पर फर्क पड़ा।
6. चकबन्दी के अभाव में खेतों तक पानी पहुँचाना मुश्किल काम था।
7. कोसी नहर के कमान क्षेत्र में करीब 3.07 लाख हेक्टेयर जमीन ऊँची-नीची थी जिसे समतल किये बगैर सब जगह पानी पहुँचाना नामुमकिन था।
8. फील्ड चैनेल और फील्ड ड्रेन्स का निर्माण न होना।
9. नहरों के समुचित रख-रखाव का अभाव।
10. नहरों के संचालन में गड़बड़ी।
11. किसानों में सिंचित क्षेत्र में फसल उगाने के अनुभव और ज्ञान का अभाव, तथा
12. कैनाल रेट का निर्धारण और उसकी वसूली में किसानों को होने वाली परेशानियाँ।

समिति ने इन खामियों को दूर करने की सिफारिश अपनी रिपोर्ट में की। इन सिफारिशों में से कितनी सिफारिशों को गंभीरतापूर्वक लिया गया और उन पर कुछ सुधारात्मक काम किया गया यह तो इसके बाद की सिंचाई की तरक्की से ही जाहिर हो जाता है। हाँ, ‘कोसी क्रान्ति’ नाम से एक नौटंकी एमरजेन्सी के बाद 1977-1979 के बीच जरूर हुई। यह समय जनता पार्टी की सरकार और ‘दूसरी आजादी’ का था। इसके प्रणेता विख्यात पत्रकार और समाजकर्मी बी.जी. वर्गीज थे और स्थानीय राजनीति की धुरी मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर थे।

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Post By: tridmin
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