तो क्या पुस्तकें केवल ज्ञान प्रदान करती हैं? इसके अलावा और क्या करती हैं? यह सवाल अक्सर कुछ लोग पूछते रहते हैं। यदि दो पुस्तकों का जिक्र कर दिया जाए तो समझ में आता है कि पुस्तकें केवल पठन सामग्री या विचार की खुराक मात्र नहीं है, ये समाज, सरकार को बदलने और यहाँ तक कि भूगोल बदलने का भी जज्बा रखती हैं।
जब गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान ने ‘आज भी खरे हैं तालाब’ को छापा था तो यह एक शोधपरक पुस्तक मात्र थी और आज 20 साल बाद यह एक आन्दोलन, प्रेरणा पुंज और बदलाव का माध्यम बन चुकी है। इसकी कई लाख प्रतियाँ अलग-अलग संस्थाओं, प्रकाशकों ने छाप लीं, अपने मन से कई भाषाओं में अनुवाद भी कर दिए, कई सरकारी संस्थाओं ने इसे वितरित करवाया, स्वयंसेवी संस्थाएँ सतत् इसे लोगों तक पहुँचा रही हैं।
परिणाम सामने हैं जो समाज व सरकार अपने आँखों के सामने सिमटते तालाबों के प्रति बेखबर थे, अब उसे बचाने, सहेजने और समृद्ध करने के लिए आगे आ रहे हैं।
‘रेगिस्तान की रजत बूँदें’ पुस्तक द्वारा समाज व भूगोल बदलने की घटना तो सात समुन्दर पार दुनिया के सबसे विकट रेगिस्तान में बसे देश से सामने आई है। याद होगा कि भारत के रेगिस्तानी इलाकों में पीढ़ियों से जीवंत, लोक-रंग से सराबोर समाज ने पानी जुटाने की अपनी तकनीकों का सहारा लिया है।
बेहद कम बारिश, जानलेवा धूप और दूर-दूर तक फैली रेत के बीच जीवन इतना सजीव व रंगीन कैसे है, इस तिलिस्म को तोड़ा है गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के मशहूर पर्यावरणविद तथा अभी तक हिन्दी की सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के लेखक अनुपम मिश्र ने। उन्होंने रेगिस्तान के बूँद-बूँद पानी को जोड़ कर लाखों कण्ठ की प्यास बुझाने की अद्भूत संस्कृति को अपनी पुस्तक -‘राजस्थान की रजत बूँदें’ में प्रस्तुत किया है।
यह पुस्तक काफी पहले आई थी, लेकिन तालाब वाली पुस्तक की लोकप्रियता की आँधी में इस पर कम विमर्श हुआ। हालांकि इस पुस्तक की प्रस्तुति, उत्पादन, भाषा, तथ्य, कहीं भी तालाब वाली पुस्तक से उन्नीस नहीं हैं। बारिश का मीठा पानी यदि भूजल के खारे पानी में मिल जाए तो बेकार हो जाएगा। मानव की अद्भुत प्रवीणता की प्रमाण रेगिस्तान की कुईयाँ रेत की नमी की जल बूँदों को कठोर चट्टानों की गोद में सहेज कर रखती हैं।
हुआ यूँ कि गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में आने वाली एक शुभचिन्तक एनी मोनटाॅट ने ‘रेगिस्तान की रजत बूंदें’ पुस्तक को देखा और इसका फ्रेंच अनुवाद कर डाला। जब उनसे पूछा कि फ्रेंच अनुवाद कहाँ काम आएगा तो जवाब था कि सहारा रेगिस्तान के इलाके के उत्तरी अफ्रीका के कई देशों में फ्रांसिसी प्रभाव रहा है और वहाँ अरबी, स्थानीय बर्बर बोली के अलावा ज्ञान की भाषा फ्रांसिसी ही है। कुछ दिनों बाद यह फ्रेंच अनूदित पुस्तक मोरक्को पहुँची।
वहाँ के प्रधानमन्त्री इससे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के एक साथी को वहाँ बुलवा भेजा। उन्हें हेलीकाॅप्टर से रेगिस्तान दिखाया गया और भारत के रेगिस्तान की जल संरक्षण तकनीकी पर विस्तार से विमर्श हुआ। उस 10 दिन के दौरे में यह बात स्पष्ट हो गई कि भारत की तकनीक वहाँ बेहद काम की है। इसके बाद इस पुस्तक की सैंकड़ों प्रतियाँ वहाँ के इंजीनियरों, अफसरों के बीच बँटवाई गईं।
उन पर विमर्श हुआ और आज उस देश में कोई एक हजार स्थानों पर राजस्थान के मरूस्थल में इस्तेमाल होने वाली हर बूँद को सहजने व उसके किफायती इस्तेमाल की शुद्ध देशी तकनीक के मुताबिक काम चल रहा है। यह सब बगैर किसी राजनयिक वार्ता या समाझौतों के, किसी तामझाम वाले समारोहों व सेमीनार के बगैर चल निकला। जिरया बनी एक पुस्तक। आज उस पुस्तक के बदौलत बनी कुईयों से बस्तियाँ बस रही हैं, लोगों का पलायन रुक रहा है।
यहाँ याद दिलाना जरूरी है कि सहारा रेगिस्तान की भीषण गर्मी, रेत की आँधी, बहुत कम बारिश वाले मोरक्को में पानी की माँग बढ़ रही है क्योंकि वहाँ खेती व उद्योग बढ़ रहे हैं। जबकि बारिश की मात्रा कम हो रही है, साथ ही औसतन हर साल एक डिग्री की दर से तापमान भी बढ़ रही है। यहां कई ओएसिस या नखलिस्तान हैं, लेकिन उनके ताबड़तोड़ इस्तेमाल से देश की जैव विविधता प्रभावित हो रही है।
सन् 1997 में पहले विश्व जल फोरम की बैठक भी मोरक्को में ही हुई थी। वहाँ की सरकार पानी की उपलब्धता बढ़ाने को विकसित देशों की तकनीक पर बहुत व्यय करती रही, लेकिन उन्हें सफलता मिली एक पुस्तक से। पता चला है कि फरवरी -2015 के आखिरी दिनों में मोरक्को का एक बड़ा प्रतिनिधि मण्डल भारत आ रहा है जो अनुपम बाबू की पुस्तकों के प्रयोगों का खुद अवलोकन करेगी।
यह बानगी है कि पुस्तकें एक मौन क्रान्ति करती हैं जिससे हुआ बदलाव धीमा जरूर हो, लेकिन स्थायी व बगैर किसी दवाब के होता है।
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