यह पुस्तक एक संकलन है। यह संकलन अनुपम मिश्र द्वारा सम्पादित ‘गाँधी मार्ग’ द्वैमासिक पत्रिका में छपे लेखों का सुन्दर नमूना है। शुरुआत विनोबाजी के एक व्याख्यान से होती है। गाँधीजी ने ‘सत्याग्रह’ शब्द पर जोर रखा, विनोबा जी ने ‘सत्याग्रही’ होने के साथ ‘सत्यग्राही’ होने की शर्त भी जोड़ दी। इस संकलन के आलेख दोनों दृष्टियों से खरे हैं, वे ‘सत्याग्रही’ और ‘सत्यग्राही’ दोनों हैं।
विनोबाजी न केवल समाजसेवी हैं अपितु कई भाषाओं के जानकार, शब्द पारखी और गणितज्ञ भी। वे प्रायः शब्दों से खेलते मिलेंगे। एक को छोड़ वे वेदान्त के बृहत त्रयी और लघुत्रयी के व्याख्याता हैं। ब्रह्म सूत्र की उनकी अपनी अलग व्याख्या भी है। ‘अज्ञान भी ज्ञान है’ शीर्षक से वे बहुत कुछ कहना चाहते हैं। ईशोपनिषद में जिस अज्ञान की बात आई है, वह ज्ञान विरोधी अज्ञान नहीं है अपितु ज्ञान की पूरकता वाला अज्ञान है। किसी श्लोक के आधे भाग से अनर्थ हो सकता है। पूरा श्लोक है-
‘विद्यां च अविद्यां च, यस्तद्वेदोभयं स ह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया मृतमशनुत,
विद्या एवं अविद्या दोनों को जो जानता है वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमृत को चखता है। ऐसी अविद्या को सामान्य अर्थ में प्रचलित ज्ञानविरोधी अज्ञान नहीं समझा जा सकता। इसे तो संस्कृत में प्रचलित न.. समास वाला, ‘कुछ कम ज्ञान’ अर्थ वाला अज्ञान समझना श्रेयस्कर होगा, नहीं तो मृत्यु को पार करने जैसे बड़े लक्ष्य वाला अज्ञान/अविद्या, जो अमरता देने वाले ज्ञान/विद्या से कुछ कमतर है वह ज्ञानविरोधी अज्ञान या मूर्खता का पर्यायवाची हो जाएगा। विनोबाजी जैसा विद्वान जब शब्दों की गेंद से खेलने लगे तो हमें भी उसे समझना ही होगा। समझने के लिये उन्होंने ईशोपनिषद का सन्दर्भ दे ही दिया है। वहाँ इसका पूरा स्पष्टीकरण है।
अज्ञान भी ज्ञान है (इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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इस संकलन में एक से एक नए पुराने लोग शामिल हैं- विनोबा भावे से लेकर वर्तमान पीढ़ी के कुमार प्रशान्त, सोपान जोशी, इरपिन्दर भाटिया और सुरेन्द्र बांसल के जैसे लोगों के आलेख सम्मिलित हैं। देशी ही नहीं विदेशी लोगों ने भी तो गाँधी और भारत के साथ अपनापन रखा है। इस बात को अनुपम जी कैसे नहीं समझेंगे इसलिये इसमें आइजैक असिमोव भी सम्मिलित हैं। सभी के कार्य क्षेत्र अलग-अलग फिर भी समय तथा समाज से जुड़े हुए। एक भविष्य की कल्पना भी है, जब ईंधन नहीं रहेगा, वह तो और मजेदार है, साथ ही वर्तमान की नींद से जगाने वाला।
इस संकलन के आलेख अद्भुत रचनात्मकता, त्याग-तप और सामाजिक अभिक्रमों की सफलता की गौरव गाथा से भरे हैं। इसमें वर्णित परिणाम थोड़ी देर के लिये असंगत जैसे और चमत्कारी भले ही लगें लेकिन लेखकों ने कार्य-परिणाम सम्बन्धों को रहस्यमय न रखकर त्याग, तप, सुलझी हुई दृष्टि, सामाजिकता, संगठन तथा धैर्य एवं निरन्तरता जैसी बातों को उनके प्रायोगिक एवं वास्तविक परिवेश में ही स्पष्ट किया है। पहली बार तो लगता है कि यह कैसे सम्भव हो सका लेकिन विवरण एवं वर्णन से पूरी बात जब खुल कर सामने आती है तब पाठक को लगता है कि हाँ, यह तो सच में और इस प्रकार सम्भव है।
सुदूर एक गाँव में दिल्ली सरकार का आना चमत्कारी लगता है और वह सम्भव होता है गाँव से लेकर शहर तक के अनेक लोगों की सामूहिकता और तप से। इस विषय को आसानी से ‘मेंढा गाँव की गल्ली सरकार’ में पढ़ा जा सकता है। आज के विद्यालय और विश्वविद्यालय दोनों ही संसाधनों की प्रमुखता वाले होते जा रहे हैं। संसाधनों का आकर्षण और भ्रम इतना हावी हो रहा है कि बिना भारी भरकम संसाधनों और बजट के हम विद्या की बात सोच ही नहीं पाते, जबकि इसके विपरीत प्राइवेट ट्यूशन का उदाहरण भी साथ में है। मुझे दो शिक्षकों वाली संस्कृत पाठशाला और एक शिक्षक वाली संगीत पाठशाला का अनुभव है, जिसमें आरम्भिक से लेकर स्नातकोत्तर तक की शिक्षा दी जाती थी। ऐसी संगीत पाठशालाएँ तो अभी भी हैं। लेकिन श्री सुरेन्द्र बांसल पंजाब के ऐसे महाविद्यालय का विवरण दे रहे हैं, जिसमें हजारों छात्राएँ पढ़ रही हैं सचमुच दस-पाँच शिक्षकों की मदद से और उनकी परीक्षा को भी सरकार से मान्यता प्राप्त है। वहाँ नकल की क्या जरूरत? वहाँ तो स्वावलम्बन और स्वरोजगार सिखाया जाता है।
धर्म, समकालीनता, परम्परा और भावी दृष्टि जैसे गूढ़ गम्भीर विषय पर कुमार प्रशान्त जी ‘धर्म की देहरी और समय देवता’ का दर्शन करा रहे हैं। गाँधीजी की दृष्टि एवं पक्ष को बड़े ही सुन्दर तरीके से स्पष्ट किया है। भारतीय परम्परा में नियम एवं चलन को भी ‘समय’ कहते हैं। साहित्य की चलन को ‘अभिसमय’ और समाज के व्यापक नियम-कायदों को ‘समयाचार’ भी कहा गया है। क्रान्तिकारी सिद्ध साधक उसमें परिवर्तन लाते रहे हैं।
सवाल केवल पिछली पीढ़ियों से ही क्यों? अगली पीढ़ियों से भी तो पूछा ही जा सकता है। नर्मदा को लेकर दावे जो हों अनेक असमानताएँ, उलझनें और समस्याएँ हम पिछली पीढ़ियों के लिये छोड़ रहे हैं तो उन्हें आज की बिजली की भविष्य में पूरी की जाने वाली कीमत से सचेत कराना तो बनता ही है। किसी भी दावे का कोई उत्तर देने वाला नहीं है तो प्रश्न अगली पीढ़ी तक स्वयं खिसक जाता है।
दांडी सत्याग्रह की कथा लगभग सभी सुन चुके हैं लेकिन उस आन्दोलन के भीतरी प्रसंगों तथा घोर अन्याय को जानने वाले कम ही हैं। लोग समझते हैं कि नमक मामला केवल गुजरात का था, जबकि यह तो पूरे देश में नमक के उत्पादन तथा उपभोग से रहा है। ब्रिटिश सरकार के झूठे षडयंत्रकारी रूप पर एक विस्तृत शोधपरक अध्ययन की प्रस्तुति है- ‘चुटकी भर नमक - और पसेरी भर अन्याय’।
‘जल का भण्डारा’ बड़ा ही सुन्दर नाम है। तालाब बनाने-सँवारने का काम पूरे समाज का काम है और लाभ भी सबको मिलता है। पीने का पानी, सिंचाई के लिये पानी, नहाने-धोने के लिये ही नहीं, पशुओं चिड़ियों तक के लिये जल और क्या-क्या नहीं होता? पता नहीं कितने प्रकार के जीव-जन्तुओं की जल की व्यवस्था? वही तो सेवा भाव से और पुण्य भाव से भण्डारा हो जाता है। इस बात को विस्तार से समझाया है श्री मनीष राजनकर ने। ठीक इससे उलट हाल है सरकारों का, अभी तो जलनीति में मनुष्य के लिये पेयजल प्राथमिकता पर है, हो सकता है कल की नीतियों में सिंचाई ही नहीं पेयजल भी अन्तिम प्राथमिकता हो जाये और उद्योग या व्यापार के लिये जल पहली प्राथमिकता।
यह जो बाजार और उसका अन्धा समर्थन करने वाली सरकारों के दरबार रूपी धृतराष्ट्र-दुर्योधन के दरबार हैं, उनका फैलाव राजधानी से बढ़कर अनेक स्थानों तक हो गया है। इसके लिये जनता और उसकी मान-मर्यादा ही नहीं, सर्वस्व की कैसे लूट हो रही है, इस बात पर आचार्य राममूर्ति ने साफगोई की है।
ये चिड़ियाँ भी कमाल की हैं। वे तो पुराने जमाने का चलता फिरता खाद कारखाना हैं। इसीलिये तो उनका स्वागत होता रहा है। श्री सोपान जोशी की खोजी पत्रकारिता यहाँ भी जारी है। प्रायः ढूँढ कर छुपी बातें लाते हैं। कौन सोच पाता है कि चिड़िया की बीट और अमोनियम नाइट्रेट के साथ हिंसा तथा युद्ध के बाजार का क्या रिश्ता है? इस पर अधिक कह कर मैं आपका मजा खराब नहीं करना चाहता। आप इस पर सावधानी से स्वयं विचार कर लें।
ध्रुब ज्योति घोष आज के जमाने के भीषणतम संकट शहरी सीवर जल के प्रदूषण के संकट का कोलकाता महानगर के सन्दर्भ में मछुआरों द्वारा किये गए समाधान की कथा सुना रहे हैं। मछली, सब्जी और धान के लिये पानी का उपयोग और मलयुक्त जल का समाधान, वह भी मछुआरों द्वारा। इस वर्णन में लेखक बड़ा ही ईमानदार है- “मुझे वहाँ एक पूरी व्यवस्था दिखी, जो खुद से ही चल रही थी। बिना किसी विश्वविद्यालय के शोध के, बिना किसी तकनीकी मदद के, बिना किसी सिविल इंजीनियर के ज्ञान के।”
‘संस्थाएँ नारायण परायण बनें’ इस शीर्षक से आजादी के बाद की गाँधीवादी संस्थाओं के लिये एक दृष्टि पत्र जैसी प्रस्तुति विनोबा जी द्वारा की गई है। सर्वोदय, गणसेवकत्व आदि के भाव तथा प्रयोग एवं इतिहास के प्रयोगों की समीक्षा सब एकत्र पढ़ने को मिलता है। और मैलविल डि मैलो महात्मा गाँधी की अन्तिम यात्रा का आँखों देखा मार्मिक विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं, जो बिलकुल ताजा-ताजा सजीव जैसा महसूस होता है।
आइजैक असिमोव उस समय की कल्पना कर रहे हैं जब ईंधन नहीं बचेगा। हम भी तो जरा उनकी कल्पना के साथ अनुभव करने का साहस जुटाएँ तब शायद प्रकृति के अन्धाधुन्ध दोहन और विलासिता भरी जिन्दगी पर नितान्त भौतिक दृष्टि से ही सही, कुछ विचार कर सकेंगे।
कुल मिलाकर गजब का संकलन है, और क्या कहूँ?
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Post By: RuralWater