अधिकांश विस्थापितों ने अपने पुराने गाँवों को लौट आने में ही अपनी भलाई देखी। उनके वापस आने का पहला कारण तो यह था कि उनके लिए अपने पुनर्वास से खेतों तक रोज-ब-रोज आना जाना मुमकिन नहीं था। उसमें भी जो गाँव तटबन्ध से ठीक लगे हुये नदी की तरफ थे उन्हें तटबन्धों के बाहर वहीं पुनर्वास भी तटबन्धों के बाहर उतनी ही दूरी पर मिला मगर जो गाँव तटबन्ध से जितना दूर था उसका पुनर्वास भी तटबन्धों के बाहर उतनी ही या उससे अधिक दूरी पर मिला।
सरकार के सारे आश्वासनों और दावों के बावजूद कोसी परियोजना में पुनर्वास के काम की रफ्तार बड़ी ढीली थी। बैद्यनाथ मेहता ने विधान सभा में एक बड़ी मार्मिक अपील की, उन्होंने कहा कि, “...अब आप पाकिस्तान से आये लोगों की व्यवस्था करते हैं (तो) जो लोग इस काम के चलते परेशान हो रहे हैं और जिन लोगों नें आप को सहयोग दिया था, सहयोग ही नहीं दिया बल्कि श्रमदान करके बिना पैसे के उन्होंने तटबन्ध को बनवाया जिससे उनको काफी नुकसान हो रहा था... सिर्फ एलेक्शन के वक्त आप लोगों के पास जाते है और तरह-तरह के वादे करते हैं कि तुम हमको वोट दो, तुम्हारी मालगुजारी माफ हो जायेगी और जो जमीन की तुम्हें दिक्कत है वह दूर हो जायेगी, घर के बदले तुम्हें घर बना देंगे, ... लेकिन एलेक्शन के बाद आप सारी बातें उल्टी करने लगते हैं।1970 तक कोई 6650 परिवारों को तटबन्धों के बाहर लाकर बसाया गया जिसका मतलब था कि लगभग 35,000 परिवार तब भी कोसी तटबन्धों के बीच ही रह रहे थे। एक ओर जहाँ सरकार के सामने जमीन के अधिग्रहण की समस्या थी वहीं लोग एक दूसरे किस्म की त्रासदी झेल रहे थे। उनके पुनर्वास के स्थल अब उनके खेतों से काफी दूर थे और वह इस दूरी को संभाल नहीं पा रहे थे। खेती की जमीन से सम्पर्क जीवन्त बनाये रखना लोगों के लिए मुश्किल हो रहा था क्योंकि वहाँ तक पहुँचने के लिए कोसी की कई धारों को पार करना पड़ता था जिसके लिए जिन “यथेष्ट संख्या में नौकाओं का प्रबन्ध” करने की बात कही गई थी वह नौकाएँ वहाँ थी ही नहीं। लेकिन सरकार के मुताबिक जो ज्यादा अहम बात थी वह यह थी कि लोग अपने बाप-दादों की सम्पत्ति, अपना घर-द्वार, अपना परिवेश, अपनी नदी-नाले, अपने बाग-बगीचे, अपने मन्दिर-मस्जि़द, अपने तालाब-पोखरों, अपने पेड़-पौधों का मोह भुला नहीं सके और उन से दूर रहना उनको गवारा नहीं हुआ। परमेश्वर कुँअर (1968) को सरकार की इस पैतृक सम्पत्ति और बाप-दादों के प्रति अनुराग वाले सिद्धान्त पर विश्वास नहीं था।
अपने गाँव तरही की मिसाल देते हुये उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि, “...वहाँ के लोगों की पुनर्वास की समस्या हल नहीं हो पाई है। ईश्वर के भरोसे उन्हें छोड़ दिया गया है। वहाँ से 4-5 मील पश्चिम दरभंगा जिला में बसने को कहा जाता है किन्तु वहाँ के लोग बसना नहीं चाहते हैं। जब सिंचाई मंत्री श्री चन्द्रशेखर सिंह हुये तो वहाँ के लोगों की दिक्कत को देखते हुये दूसरी जगह जमीन का अर्जन करने के लिए आदेश दिया किन्तु आज तक कुछ नहीं हो पाया है। आज यदि लोग अफसर के यहाँ जाते हैं तो कहा जाता है कि मिनिस्टर साहब के यहाँ जाइये और मिनिस्टर साहब के यहाँ जाते हैं तो कहा जाता है कि अफसर के यहाँ जाइये। 1,200 बीघा जमीन जो अच्छी जगह पुनर्वास के लिए दी गई है उस पर बसने नहीं दिया जा रहा है। आज इसके कारण तरही गाँव के लोग परेशान हैं ... और उलटे कहा जाता है कि लोग गाँव की मोह-माया नहीं छोड़ना चाहते हैं।” इसके अलावा लोग भावना में न बह कर अगर व्यावहारिक भी रहे होते तब भी उनके लिए पुनर्वास के गाँवों में रहना मुमकिन नहीं था क्योंकि समय के साथ वहाँ पानी लग गया और बहुत से पुनर्वास स्थल जल-जमाव से घिर गये। ऐसी अधिकांश जगहों में रिहाइश मुमकिन ही नहीं थी।
बिहार विधान सभा की एक लोक लेखा समिति के अनुसार 1958 से 1962 के बीच करीब 12,084 परिवारों को तटबन्धों के बाहर रिहायशी जमीन का आंवटन किया गया और उनको घर बनाने के लिए पहली किस्त की शक्ल में 16.73 लाख रुपयों का भुगतान किया गया। लेकिन जब काम में कोई प्रगति नहीं हुई तब परियोजना अधिकारियों द्वारा यह तय किया गया कि लोगों को नये आवास स्थलों पर जाने के लिए मनाया जाय और वह अगर फिर भी नहीं मानते हैं तो उनके खि़लाफ अनुदान की वापसी की कार्यवाही करने की समिति ने सिफारिश की।
बिहार विधान सभा की एक दूसरी समिति ने इसी समस्या को एक दूसरे दृष्टिकोण से देखा। इसका कहना था कि तटबन्धों के निर्माण में जिन लोगों के हितों की पूरी तरह से कुर्बानी हो गई वह साल के पाँच महीनें खानाबदोशों की जि़न्दगी जीते हैं। समिति लिखती है, “... सचमुच यह दुःखद विषय है। कोसी योजना में सालों-साल हजारों आदमियों की नियुक्ति होती है तथा लाखों रुपये की लूट ठीकेदार लोग करते हैं, किन्तु उक्त सम्बंधित व्यक्तियों की नियुक्ति अथवा ठीकेदारी में प्राथमिकता मिलने के बजाय उन्हें उपेक्षा ही मिलती है। स्थायी कर्मचारियों की तो बात ही दूर रहे, आठ-दस हजार कार्यभारित कर्मचारियों में भी इस क्षेत्र के लोगों की संख्या नगण्य है।” समिति ने आगे लिखा है कि, “...अभी जो पुनर्वास योजना चल रही है वह बिलकुल ही अनुपयुक्त है।
वर्तमान योजना के अन्दर किसानों एवं खेतिहर मजदूरों को केवल बसने के लिए ही जमीन दी जाती है। उनके जीवन-यापन के लिए न तो जमीन दी जाती है और न ही इस इलाके में कोई उद्योग ही खड़ा किया जाता है। उन्हें केवल बसने के लिए दो कट्ठे जमीन दे दी जाती है और फूस के मकान के लिए थोड़े से पैसे दे दिये जाते हैं। इस पैसे का भी अधिकांश भाग इन पैसों को लेने में खर्च हो जाता है।” इस समिति की रिपोर्ट के अनुसार प्राक्कलित 2,12,67,390/- रुपयों में से 1972-73 तक मात्रा 1,75,28,392/- रुपये खर्च हुये थे। 32,540 परिवारों को दिये गये अनुदान में मात्र 10,580 को अनुदान की दूसरी किस्त मिली और एक भी परिवार को तीसरी और अंतिम किस्त नहीं मिल पाई क्योंकि उनका घर पूरा नहीं बना था। पुनर्वास का काम पुनर्वास विभाग देखता था जबकि घरों की मापी का काम कोसी प्रोजेक्ट के इंजीनियर करते थे जिसकी वजह से लोगों को कई बार अलग-अलग जगहों पर दौड़ना पड़ता था।
अधिकांश विस्थापितों ने अपने पुराने गाँवों को लौट आने में ही अपनी भलाई देखी। उनके वापस आने का पहला कारण तो यह था कि उनके लिए अपने पुनर्वास से खेतों तक रोज-ब-रोज आना जाना मुमकिन नहीं था। उसमें भी जो गाँव तटबन्ध से ठीक लगे हुये नदी की तरफ थे उन्हें तटबन्धों के बाहर वहीं पुनर्वास भी तटबन्धों के बाहर उतनी ही दूरी पर मिला मगर जो गाँव तटबन्ध से जितना दूर था उसका पुनर्वास भी तटबन्धों के बाहर उतनी ही या उससे अधिक दूरी पर मिला। उससे पुनर्वास और खेतों के फासले बेसम्भाल दूरी पर हो गये और खेती कर पाना नामुमकिन सा होने लगा। इसके अलावा समय के साथ पुनर्वास स्थलों में बहुत सी जगहों पर पानी लग गया क्यों कि जो पानी स्वभाविक रूप से नदी में चला जाता था या जहाँ से छोटी नदियाँ या नाले कोसी में प्रवेश करते थे उनके मुहाने तटबन्धों ने बन्द कर दिये थे। तीसरी बात जो कि उतनी ही महत्वपूर्ण थी कि लोगों का अपनी पैतृक सम्पत्ति और अपने गाँव से स्वाभाविक लगाव था जिसके कारण लोग वापस अपने गाँवों को चले गये। इस वापसी की वजह से सरकार की पुनर्वास की फाइलें बन्द होने लगीं और सरकार यह मानने लगी कि इस नैसिर्गिक लगाव के कारण लोग अपने गाँव-घर और जर- जमीन के पास ही रहना पसन्द करते हैं।
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