पुनर्वास के लिए आन्दोलन

अपने समय के इन स्वनामधन्य नेताओं को तटबन्धों के प्रभाव की जानकारी नहीं थीं, यह अपने आप में जितने बड़े आश्चर्य की बात है उतनी ही अविश्वसनीय भी है। एक नेता होने के नाते उन्हें इन सारे पक्षों की जानकारी होनी चाहिये थी। इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह सारे लोग सारी बातों को समझते-बूझते हुये भी हवा का रुख देख कर खामोश रह गये हों। जैसे-जैसे लोगों पर तटबन्धों का प्रभाव जाहिर होने लगा वैसे-वैसे प्रभावित लोगों के बीच असंतोष भी सुलग रहा था। सहरसा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अध्यक्ष भूषण गुप्ता की अध्यक्षता में 1956 के मध्य तक एक जन-आन्दोलन की शुरुआत हो चुकी थी। उन्होंने उन लोगों की तरफ से आवाज उठाई जो तटबन्धों के बीच में फंसने वाले थे और जिनकी जमीन तटबन्धों के हत्थे चढ़ने वाली थी और अब यह लोग हमेशा-हमेशा के लिए तटबन्धों के कारण कोसी की समग्र धारा के सामने पड़ने वाले थे।”...गुप्ता का मानना था कि नेताओं ने लोगों को आश्वासन दिया था कि उन्हें अगर किसी भी किस्म का खतरा होगा तो उन्हें घर के बदले घर और जमीन के बदले जमीन दे दी जायेगी। अब यह शब्द नेता बड़ा भ्रामक है। उस समय तो कोई भी नेता कुछ भी भाषण दे दिया करता था। इनमें से कइयों को तो इस तरह का बयान देने का कोई हक भी नहीं था। जिनको यह अधिकार प्राप्त था वह भी यह जानते थे कि उनकी बातों का कोई मतलब नहीं है और उनको यह तो जरूर मालूम रहा होगा कि ऐसे आश्वासनों का भी कोई मतलब नहीं होता। श्री गुप्ता के अनुसार कई अधिकारियों ने भी आश्वासन दिया था कि गड़बड़ कुछ भी नहीं होगा। यह एकदम अलग सवाल है। पुनर्वास के बारे में किसी भी आश्वासन, भले ही उसे लागू करने की कोई भी नीयत न रही हो, की कुछ कीमत हो सकती है मगर जिस किसी ने भी यह कहा हो कि गड़बड़ कुछ नहीं होगा वह सच तो नहीं ही बोल रहा था।”

यहाँ एक गंभीर सवाल खड़ा होता है। जनता को तो एक बार मान लें कि वह अनपढ़ है, गँवार है उसे इंजीनियरिंग की समझ नहीं है, वह प्रोजेक्ट के फायदे को नहीं समझ सकती मगर क्या हमारे नेताओं को भी यह पता नहीं था कि जब कोसी पर बराज और तटबन्ध बन जायेगा तब नदी का सारा पानी तटबन्धों के बीच से होकर ही गुजरेगा? क्या उनको भी नहीं पता था कि बाढ़ की वह समस्या जो पूरे कोसी क्षेत्र को भोगनी पड़ती थी वह अब सघन रूप से इन तटबन्ध के मारों के हिस्से में आ जायगी? क्या हमारे विशेषज्ञों को वह सब दिखाई नहीं पड़ा जो ह्नांग हो नदी में चल रहा था जिसे वह खुद देख कर आये थे? क्या उनको नहीं पता लग पाया कि ह्नांग हो तटबन्धों के कारण चीनी लोगों की नाक में दम था और उन्होंने इन विशेषज्ञों के चीन जाने के पहले ही रूसी इंजिनियरों को इस समस्या ने निबटने के लिए अपने यहाँ बुला रखा था? क्या पूना प्रयोगशाला के इंजीनियरों को नहीं पता था कि कोसी तटबन्धों के बीच जमीन का ढाल पश्चिम की तरफ था और नदी का पानी औसत के सिद्धान्त को नहीं मानेगा और केवल चार इंच की समान गहराई से नहीं बहेगा? क्या भारत सेवक समाज के पुरोधाओं को, जिन्हें ‘जड़ता के पहाड़ों को हिला देने और तोड़ देने’ का मैण्डेट हासिल था, यह नहीं मालूम था कि तटबन्ध पीड़ितों को उनके गाँवों से हटा कर दूसरी जगह बसाना पड़ेगा? इन सभी सवालों का एक ही जवाब है कि यह सारी बातें सबको पता थीं। ब्रज नन्दन ‘आजाद’ (1956) का कहना था कि, “...शुरू-शुरू में तो इस मामले को इसलिए दबा कर रखा गया कि अगर आवाजें उठेंगी तो परियोजना की लागत ही बढ़ जाने का अंदेशा था जिससे उसके खारिज हो जाने का डर था। अब वह खतरा टल गया है। अब सम्बद्ध अधिकारियों को यह चाहिये कि वह लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जायें।” आजाद के विचारों को बल मिला विधयक एम. एम. प्रसाद (1956) की बात से जिन्होंने कहा कि, “...बिहार का यह हक बनता है कि वह बिहार सरकार से पूछे कि क्या उसे अभी भी इस बात का एहसास है कि उसने और केन्द्रीय सरकार ने जनता के भाग्य और भविष्य के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं किया और सच यह है कि कोताही बरती गई है... इनकी सही संख्या 1.91 लाख है, जिनके 45,291 घर हैं जिनमें से 2,528 पक्के हैं, जिनके खेती का रकबा 46,331 हेक्टेयर है और इसमें से आधे पर धान पैदा होता है। .... केन्द्रीय जल, विद्युत और सिंचाई आयोग के अध्यक्ष इस बात को स्वीकार करते हैं कि 2 लाख क्यूसेक (5,670 क्यूमेक) की बाढ़ पर ही नदी अपने किनारों को तोड़ कर बह निकलती है... और जब तक पानी के इस फैलाव से राहत नहीं मिलती है... तब तक पानी का यह फैलाव जान-माल के लिए खतरा पैदा करेगा और असह्य परिस्थितियाँ पैदा करेगा। ...अगर लोगों को पूना प्रयोगशाला में होने वाले प्रयोगों की मेहरबानियों पर छोड़ देना है तो उनका भविष्य क्या होगा-यह सभी जानते हैं।”

पूना की जिस प्रयोगशाला की उन दिनों इतनी तूती बोलती थी उस प्रयोगशाला की वैज्ञानिक खोज-बीन के बारे में टी. पी. सिंह (1957) की एक टिप्पणी है। उनका कहना है कि, “...मॉडल टेस्ट में जो सिल्ट की परिस्थिति बनती है, उसे हू-ब-हू उतारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि तटबन्धों के बीच बहुत से गाँवों के बारे में अप्रत्याशित रूप से हालात बदतर दिखाई पड़ते हैं। करीब 20 गाँव ऐसे हैं जिनके बारे में मॉडल टेस्ट में पाया गया था कि 9 लाख क्यूसेक के प्रवाह पर भी उनको कोई नुकसान नहीं पहुँचेगा वह 1956 की बाढ़ में, जबकि केवल 1.90 लाख क्यूसेक पानी ही आया था, बुरी तरह डूबने उतराने लगे। इस साल 2,66,000 क्यूसेक के प्रवाह पर ही करीब 24 गाँवों में जिन्दगी दुश्वार हो गई तटबन्धों से लगे कुछ गाँव तो कट भी गये हैं। तटबन्धों पर नदी के हमले की जगहें भी हर साल बदलती रहेंगी। इस पृष्ठभूमि में अगर जनता यह मांग करती है कि उनके बचाव के लिए कुछ किया जाना चाहिये तो इससे इन्कार नहीं किया जा सकता।”

बिहार विधान सभा का सदस्य होने के नाते मुरली मनोहर प्रसाद ने यह मसला सदन में भी उठाया और कहा कि, “... और मैं सिंचाई मंत्री का ध्यान कोसी समस्या की ओर ले जाना चाहूँगा जिससे लगभग डेढ़ लाख लोग परेशान हैं और यह समस्या पूना की शोध प्रयोगशाला में हल नहीं की जा सकती। कोसी एक धारा बदलने वाली नदी है और इसमें आने वाला अधिक प्रवाह लोगों के लिए काफी दिक्कतें पैदा करता है। इस समस्या का सामाधान जितनी जल्दी खोज लिया जाय उतना ही लोगों और सरकार के हक में बेहतर होगा। आप लोगों की तमाम कोशिशों के बावजूद समस्या जस की तस बनी हुई है।”

आर्यावर्त के सम्पादक के नाम लिखे गये एक पत्र में लहटन चौधरी, कामता प्रसाद गुप्ता, भोला सरदार और खूब लाल महतो (1956) ने कहा कि, “...दोनों तटबन्धों के बीच पड़ने वाले लाखों लोग अपने भाग्य पर रोते हैं और उनमें अजीब भय उत्पन्न हो गया है। किन्तु इतना ही नहीं हुआ। सरकार ने भी उनके भय और आशंकाओं को घटाने के बदले अत्यधिक बढ़ा दिया। सरकारी अधिकारियों की ओर से कोसी क्षेत्र के लोगों को सूचना दी गई कि उनके ऊपर खतरा है और उन्हें किसी क्षण तटबन्ध से बाहर आने के लिए तैयार रहना चाहिये। फलस्वरूप लोगों ने अपनी जमीन को, जिस जमीन में कुछ उपज हो भी सकती है, परती छोड़ दिया ...एकाएक रिलीफ कार्य को बन्द कर दिया। ...बांध के बाहर के अनेकों गाँव वर्षा के पानी से अनवरत डूबे रहते हैं और उनकी हालत और भी गई बीती है।”

अपने समय के इन स्वनामधन्य नेताओं को तटबन्धों के प्रभाव की जानकारी नहीं थीं, यह अपने आप में जितने बड़े आश्चर्य की बात है उतनी ही अविश्वसनीय भी है। एक नेता होने के नाते उन्हें इन सारे पक्षों की जानकारी होनी चाहिये थी। इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह सारे लोग सारी बातों को समझते-बूझते हुये भी हवा का रुख देख कर खामोश रह गये हों। क्यों ऐसी परिस्थितियाँ पैदा की गईं कि कोसी परियोजना के निर्माण के फलस्वरूप अच्छी खासी तादाद में लोगों को अपनी किस्मत पर रोना पड़े? जब लोग अपनी किस्मत ठोंक रहे थे तो इलाके के नेता और इंजीनियर किस तरह से आश्वासनों की झड़ी लगाते थे उसकी एक झलक हमने पहले के अध्यायों में देख रखी है।

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Post By: tridmin
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