पुनर्जीवित हुआ ढाई सौ साल पुराना तालाब

मीठा तालाब
मीठा तालाब

"जिस दौर में ये तालाब बने थे, उस दौर में आबादी और भी कम थी। यानी तब जोर इस बात पर था कि अपने हिस्से में बरसने वाली हरेक बूँद इकट्ठी कर ली जाये और संकट के समय में आसपास के क्षेत्रों में भी उसे बाँट लिया जाये। वरुण देवता का प्रसाद गाँव अपनी अंजुली में भर लेता था।

और जहाँ प्रसाद कम मिलता है? वहाँ तो उसका एक कण, एक बूँद भी भला कैसे बगरने (व्यर्थ बहना) दी जा सकती थी...इसी बात को समाज ने गुनते हुए कई तालाब बनाए। तालाब नहीं तो गाँव कहाँ? जहाँ आबादी में गुणा हुआ और शहर बना, वहाँ भी पानी न तो उधार लिया गया, न आज के शहरों की तरह कहीं और से चुराकर लाया गया। शहरों ने भी गाँव की तरह ही अपना इन्तजाम खुद किया।

स्वेच्छा से श्रमदान करने पहुँचे लोगस्वेच्छा से श्रमदान करने पहुँचे लोगदेश के जाने-माने पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने अपनी किताब 'आज भी खरे हैं तालाब' में आज से बीस साल पहले पानी की चिन्ता करते हुए यह बात कही थी। लेकिन हमने शहरों में सैकड़ों साल पुराने तालाबों पर गौर नहीं किया बल्कि नई तकनीक से पाइपलाइन से पानी पहुँचाने के नाम पर सदानीरा नदियों को ही सूखने की कगार पर ला खड़ा कर दिया। ऐसा ही वाकया मध्य प्रदेश के देवास का है, जहाँ के समाज ने ढाई सौ साल पुराने तालाबों से नाता तोड़कर नर्मदा, क्षिप्रा, लखुन्दर और गम्भीर नदियों से अपनी प्यास बुझाने की कोशिश की लेकिन अन्ततः तालाब की शरण में ही लौटना पड़ा।

बीते सालों में समाज ने अपनी गलती स्वीकार की। इस बीच कुछ तालाब खत्म हो चुके थे। फिर भी जो बचे थे, समाज ने उनकी चिन्ता शुरू कर दी। गर्मियों के दिनों में पसीना बहाने वाला समाज बरसात में यहाँ नीले पानी की लहरों को देखकर मुग्ध हो जाता है।

इस बार भी गर्मियों में पूर्व रियासतदारों के परिवार से लेकर अफसरों, नेताओं और आम जनता तक ने शहर के ढाई सौ साल पुराने रियासतकालीन तालाब को पानीदार बनाने के लिये श्रमदान किया और कम बारिश के बावजूद अब इसमें नीला पानी ठाठे मार रहा है। यह कहानी हमें सन्देश देती है कि तालाबों की सुध लेने वाला समाज कभी भी पानी के लिये घाटे में नहीं रहेगा।

तालाब से मिट्टी निकालते श्रमदानीतालाब से मिट्टी निकालते श्रमदानीपानी की किल्लत और देवास का बहुत पुराना नाता रहा है। साठ-सत्तर के दशक तक यहाँ की जलवायु सुखद और सेहतमन्द हुआ करती थी तब यहाँ शुद्ध आबोहवा तथा पर्याप्त पानी हुआ करता था। बीते पाँच सालों से यहाँ पर्याप्त बारिश नहीं हुई है।

करीब 40 साल से यहाँ के लोग पानी की परेशानी का सामना करते रहे हैं। देवास शहर की प्यास बुझाने के लिये कभी ट्रेन से पानी लाना पड़ा तो कभी कई किलोमीटर दूर नदियों से पानी लाना पड़ा। बावजूद इसके अब तक कभी शहर को यथोचित पानी नहीं मिला।

प्रदेश के मालवा इलाके में पचास साल पहले तक कभी पानी का संकट नहीं हुआ करता था, लेकिन आज हालात दूसरे हैं। गाँव से लेकर शहरों तक में पानी की हाहाकार मची है। देवास जैसा शहर जिसकी अपनी जलस्रोतों की रियासतकालीन समृद्ध परम्परा रही हो, वहाँ पानी की जबरदस्त किल्लत साफ बताती है कि इधर के सालों में हमने अक्षम्य गलतियाँ की हैं।

17वीं शताब्दी में मराठा काल में शिवाजी महाराज के अग्रिम सेनापति साबूसिंह पवार ने इसे बसाया था।

माता टेकरी के आसपास बसा यह शहर बाद में दो रियासतों में बँट गया। एक सड़क दोनों रियासतों को जोड़ती थी। बड़े भाई की रियासत सीनियर और छोटे की जूनियर। दोनों रियासतों में टेकरी से आने वाले बारिश के पानी को रोकने के लिये तालाब तथा अन्य जल संरचनाएँ बनी हुई थीं। छोटे से शहर में पाँच बड़े तालाब, बावड़ियाँ और कुएँ-कुण्डियाँ भरे रहते थे। मीठा तालाब आज भी मौजूद है।

देवास नगर बसाने वाले साबूसिंह पवार ने माता टेकरी से बारिश में बहकर आने वाले पानी को सहेजने के लिये सन 1750 के आसपास इस तालाब का निर्माण कराया था। इसका उल्लेख यहाँ के रियासती दस्तावेजों में मिलता है। कुछ दिनों पहले एक और तालाब के बचे हुए छोटे से हिस्से मेंढकी तालाब का जीर्णोंद्धार भी बीस साल पहले कर इसे सहेज लिया गया है। बाकी हिस्से पर बड़ी-बड़ी इमारतें बन चुकी हैं।

दो साल पहले इस तरह होती थी जलकुम्भीदो साल पहले इस तरह होती थी जलकुम्भीबुजुर्ग बताते हैं कि सन 1942 में जूनियर रियासत के तत्कालीन राजा सदाशिव राव पवार ने जन-सहयोग से प्राकृतिक रूप से बने इस तालाब का जीर्णोंद्धार करवाकर इसे एक नया आकार दिया था, खुद राजा ने भी श्रमदान किया था। जीर्णोंद्धार के बाद 'मुक्ता सरोवर' के नाम से इसे पहचाना जाने लगा।

देवास रियासत की नई बसाहट में उस समय तालाब, कुएँ, बावड़ियों के निर्माण कराए गए। रियासतों के बँटवारे के बाद दो प्रमुख कुओं से दोनों रियासतों में जल आपूर्ति की व्यवस्था की गई। 18वीं सदी के अन्त तक देवास सीनियर बड़ी पाँती में 30 तालाब, 636 कुएँ और बावड़ी और 60 ओढ़ियाँ थीं। जिनमें 3300 एकड़ जमीन सिंचित की जाती थी, देवास जूनियर में 49 तालाब, 236 कुएँ और 22 बावड़ी एवं 156 ओढ़ी द्वारा 850 एकड़ जमीन को सिंचित किया जाता था।

पचास साल पहले सत्तर के दशक में औद्योगिक शहर हो जाने से इसकी आबादी तेजी से बढ़ी और जलस्रोतों का अपमान होने लगा। पाइपलाइन से घर-घर नलों में पानी आने लगा तो किसी ने जलस्रोतों की परवाह नहीं की। तीन बड़े तालाब पाटकर उन पर बाजार बना दिया गया। बचा रह गया सीनियर रियासत का मीठा तालाब।

संयोग से शहर के इस कोने पर तथाकथित विकास कम हुआ और यह बचा रहा। हालांकि लगातार गाद जम जाने, बरसाती पाने लाने वाली नलियों के रुक जाने, सफाई नहीं होने, प्रतिमाओं और पूजन सामग्री के विसर्जन और जल कुम्भी आदि के कारण यह तालाब भी जल्दी ही सूखने लगा।

तालाब का गहरीकरणतालाब का गहरीकरणदेवास के लोगों को जब अपनी गलती का अहसास हुआ तो उन्होंने बचे हुए जलस्रोतों को सहेजने का मन बनाया। खासकर मीठा तालाब को। खुशी की बात थी कि यह तालाब आज भी उसी रूप में मौजूद है। प्रशासन और आम लोगों ने मिलकर श्रमदान किया। कई संस्थाएँ इस काम में आगे आईं और स्वेच्छा से तालाब को सँवारने में जुट गईं।

श्रमदान में करीब तीन सौ से ज्यादा हाइवा (बड़ा डम्पर) गाद निकाली गई, तीन सौ ट्रॉली कचरा हटाया गया और एक हजार से ज्यादा लोगों ने चिलचिलाती धूप और भीषण गर्मी में पानी के लिये अपना पसीना बहाया। बीते सालों से यहाँ प्रतिमाओं के विसर्जन पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया है। प्रशासन सख्ती से इसका पालन करवाता है। इससे पहले तक यहाँ हर साल गणेश और दुर्गा की दस हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी प्रतिमाएँ विसर्जित की जाती रही हैं।

यह तालाब काफी बड़ा है और शहर के नजदीक होने से अब इसे पर्यटन केन्द्र के रूप में भी विकसित किया है। इस तालाब का पानी मीठा होने की वजह से इसका नाम मीठा तालाब पड़ गया और आज भी इसे इसी नाम से पहचाना जाता है। इसका पानी गर्मियों की शुरुआत तक भरा रहता है। इसके पानी में माता टेकरी का अक्स देखना बहुत अच्छा लगता है।

यह शहर की करीब 25 से ज्यादा मुहल्लों के जलस्तर को बढ़ाने में सहायक होने के साथ लोगों के लिये शाम की प्राकृतिक सैर का बहाना भी है। तालाब के बीचों-बीच दो टापूनुमा आईलैंड भी बनाये गए हैं। यहाँ से लोग शाम के समय अप्रतिम सौन्दर्य को निहारते हैं। एक किनारे पर वाटिका भी विकसित की गई है। सुन्दर पक्के घाट भी बने हैं। तालाब अब पक्षियों का नया बसेरा बन गया है।

सुबह और शाम के समय पक्षियों का कलरव सुनाई देता है। अब तो यहाँ प्रवासी पक्षी भी आने लगे हैं। माता टेकरी से भी इसका नजारा अलग ही दिखता है। टेकरी से देखने पर ऐसा लगता है कि किसी बड़ी परात में दूध भर कर रखा हो। रात के समय टेकरी से चाँदनी रातों में इसकी छटा देखते ही बनती है।

मीठा तालाब के साथ एक और बड़ा नाम जुड़ा है अंग्रेजी साहित्य के नामचीन लेखक ईएम फास्टर का। उन्होंने इसके किनारे सागर महल में रहते हुए महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखे, जिनमें तब के भारतीय जन-जीवन की छाप मिलती है। बाद के दिनों में ये उपन्यास विश्व साहित्य में खासे चर्चित भी हुए।

ए पैसेज टू इण्डिया (a passage to india) तो नोबल पुरस्कार के लिये भी नामांकित हुआ। द हिल ऑफ देवी (the hill of devi) में उन्होंने देवास का विस्तार से जिक्र किया है। उन्हीं के लिखे हुए से देवास की प्राकृतिक सुन्दरता को सुदूर विदेशों तक पहचान मिली। जब तक फास्टर देवास में रहे, वे हमेशा इसी तालाब के किनारे सागर महल में रहे।

पक्षियों का बसेरापक्षियों का बसेराइसी महल की बुर्ज से उन दिनों प्रकृति का ऐसा नजारा दिखता था कि फास्टर इसके मुरीद बन गए। सामने अपार जलराशि समेटे मीठा तालाब और उस पर नेपथ्य में हरी-भरी माता टेकरी का अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य। एडवन मार्गन फास्टर की रचनाएँ तब के भारत की प्रवेश द्वार मानी जाती है यानी दुनिया के लोगों ने भारत के प्राकृतिक वैभव उसकी विविधता, सुन्दरता, जनजीवन और उनकी जिजीविषा को इन्हीं की किताबों के जरिए जाना-समझा।

उन दिनों देवास आज की तरह फैला हुआ शहर नहीं हुआ करता था, बल्कि टेकरी और उसके आसपास बसा छोटा-सा कस्बा हुआ करता था। यह इलाका सीनियर रियासत में आता था। तब यह बहुत सुन्दर हुआ करता था। सघन पेड़ पौधों से आच्छादित साफ-सुथरा तालाब और माता टेकरी की वजह से यह कस्बा हिल स्टेशन की तरह लगता था।

ख्यात शास्त्रीय गायक कुमार गंधर्व को टीबी की बीमारी हो जाने से उनका एक फेफड़ा खराब हो गया था तब उन्हें ताजी प्राकृतिक हवा के लिये सुदूर कर्नाटक से देवास भेजा गया था। यानी तब देवास का नाम देश में प्राकृतिक सेनेटोरियम के रूप में जाना जाता था। स्वस्थ होने के बाद कुमारजी को देवास इतना पसन्द आया कि वे यहीं के होकर रह गए।

सागर महलसागर महलफास्टर को 23 दिसम्बर 1912 के दिन इन्दौर क्लब में मेजर लुआर्ड ने देवास के तत्कालीन राजा तुकोजीराव पवार तृतीय से मिलवाया था। क्रिसमस यानी 25 दिसम्बर की दोपहर वे इन्दौर महाराजा की मोटर से 23 मील का सफर तय करके पहली बार देवास पहुँचे थे। राजकीय अतिथि के रूप में तब उन्हें गेस्ट हाउस यानी सागर महल में ठहराया गया।

फास्टर इसके प्राकृतिक वैभव के इस तरह दीवाने हुए कि उनका लेखक मन यहीं रमने लगा। पहली बार वे केवल 10 दिन यहाँ रुके पर बाद में 1921 में वे यहाँ 6 माह से ज्यादा समय तक रहे। इन्हीं दिनों उन्होंने 'द हिल ऑफ देवी' लिखा, जिसमें तब के देवास की झलकियाँ नजर आती है। यहीं रहकर उन्होंने ए पैसेज टू इण्डिया लिखा, जो भारत की आजादी के बाद 1953 में प्रकाशित हुआ और खासा चर्चित भी हुआ। उन दिनों साहित्य के नोबल के लिये भी इसका नाम चला था हालांकि बाद में इसे नोबल नहीं मिल सका।

यहाँ रहते हुए ही उन्होंने मारिस उपन्यास भी लिखा, जिस पर कई आरोपों के चलते उनके जीवन पर्यन्त प्रतिबन्ध लगा रहा। बताते हैं कि चाँदनी रातों में फास्टर सागर महल की बुर्ज से तालाब की लहरों को देर तक निहारते रहते या वे मार्निंग वाक के बाद अक्सर पाल पर खड़े होकर तालाब से बतियाते रहते।

मीठा तालाब का वर्तमान स्वरूपमीठा तालाब का वर्तमान स्वरूपदेवास का समाज अब जागरूक हो गया है। उन्हें लगा कि बरसाती पानी को थामने में ही समझदारी है। यह प्रायश्चित था अपनी उन गलतियों के लिये, जिनमें उन्होंने धरती की छाती से पानी उलीचकर उसे सूखा देने की कगार तक पहुँचा दिया था या परम्परागत जलस्रोतों को भूला दिया था। वे अच्छी तरह समझ चुके थे कि तालाबों और जल संरचनाओं को सहेज कर ही हम पानी के संकट को दूर कर सकते हैं।

देवास को बसाने के साथ ही तब के चेतनाशील समाज ने बरसाती पानी को यहीं रोक लेने के लिये पाँच बड़े तालाबों की एक भरी-पूरी शृंखला तैयार की थी। टेकरी से बरसाती पानी की निकासी के लिये जगह-जगह जल संरचनाएँ तथा पानी को रोकने के लिए प्राकृतिक तंत्र विकसित किया गया था।

मीठा तालाब का विहंगम दृश्यमीठा तालाब का विहंगम दृश्यदेवास के लोगों का कहना है कि यही काम हमारे पूर्वज सैकड़ों सालों से करते आये हैं, इसीलिये तो वह समाज पानीदार बना रहा लेकिन हमने इसे भूला दिया था और यह मान लिया था कि पानी की सम्पदा पर हमारा एकाधिकार है। हमने इसका मनमाना दोहन प्रारम्भ कर दिया। हम अपना कर्तव्य ही भूल गए थे। यह तालाब पानी के प्रबन्धन के लिहाज से देवास के लिये बहुत जरूरी है। मीठा तालाब देवास शहर की एक बड़ी धरोहर है। यहाँ के समाज को इसकी निरन्तर चिन्ता करते रहना होगा।

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