माही नदी के किनारे बसा है गांव नरसिंहपुरा। 75 झोपड़ों की इस बस्ती में अलग फूल की एक छोटी –सी झोपड़ी है, जिसमें 60 वर्षीय आदिवासी बुजुर्ग पुना-खीमा डामर रहते हैं। पुनोबा की दिनचर्या का 80 प्रतिशत समय इलाके में प्राकृतिक रूप से पनपे जामुन, सालर, कड़वा, मोजाल, हील, कड़ेन्गी, मुणी, तमच आदि किस्म के हजारों पेड़ों की सुरक्षा में बीतता है।
झाबुआ जिले का पूर्वोत्तर क्षेत्र जिसमें माही नदी बहती है उस इलाके में करीब 10 गांव ऐसे हैं जहां पुनोबा को जंगल के मानसेवी चौकिदार के रूप में बहुत सम्मान दिया जाता है। बरसों पहले झाबुआ जिले के इस सीमावर्ती क्षेत्र में आबादी का घनत्व बहुत कम था। तथा पहाड़ियां प्रचुर वन से आच्छादित थीं। लेकिन अशिक्षा के अंधकार में डूबे तथा भूख व बेरोजगारी के त्रस्त ग्रामीणों ने इस जंगल को नष्ट कर दिया है। करीब तीन दशक पहले जब पुनोबा जवानी के दौर से गुजर रहा था, तब वह भी जंगल को काटने वाले लोगों में शामिल था, लेकिन धीरे-धीरे उसके मने में वृक्षों के प्रति वात्सल्य का भाव जागृत हुआ। और उसने कुल्हाड़ी को हमेशा के लिए त्याग दिया। बस यहीं से इनके जीवन सें सात्विक बदलाव का दौर शुरू हुआ। और एक निर्गुण संत की भांति जंगल बचाने का व्रत उसने ले लिया। ग्राम राजघाटा से लगाकर खाकरियां घाट तक के 10 किमी. के क्षेत्र में चार छोटी नदियों संदली, सामरी, दिवली का खाल तथा साजोदी आदि के किनारे बसे 10 गांव नरवाड़ी, राजघाटा, नरसिंहपुरा, बांकिया, आमलीपाड़ा, नानड़ा, हितरीपाड़ा, खरियाघाट व भीलकोटड़ा आदि में हरियाली लौटाने के लिए पुनोबा के प्रयास अनवरत् जारी हैं। वृक्ष की सेवा को महात्मा कबीर के भक्ति दर्शन से जो़ड़कर देखने वाले इस अनपढ़ आदिवासी बुजुर्ग ने बीस वर्ष में कई बार अपनी जान जोखिम में डालकर पेड़ों को काटने से बचाने का संकल्प पूरा किया और जंगल के दुश्मनों से लोहा लिया। अब तक एक लाख से अधिक वृक्षों को पनपने में मदद कर चुका पुनोबा का जंगल की सेवा करने का यह शौक किसी जुनून से कम नहीं है।
यहां तक कि इसके लिए उन्होंने विवाह भी नहीं किया। अपनी चार बीघा जमीन में गुजारे लायक अनाज पैदा करने में सक्षम पुनोबा आज भी अपने काम के प्रति इतने संदीजा है कि किसी के भोजन के आमंत्रण स्वीकार करना भी जंगल रक्षा के व्रत के पालन में अवरोध पैदा करता है। लोगों में पिछले दो बरस में पुनोबा तथा उनके काम के प्रति सम्मान और श्रद्धा में बढ़ोत्तरी हुई है। विगत चौमासे में जहां पूरे जिले से बादल रूठे रहे। वहीं इन 10-13 गांव में अपेक्षाकृत अधिक बरसात हुई। पुनोबा की शाम ढल गई लेकिन आज भी वृक्षों के लिए फिक्रमंद पुनोबा में खून दौड़ रहा है। उससे प्रेरणा लेकर कई नौजवान लड़के भी जंगल बचाने की मुहिम में शामिल हो रहे हैं।
कोई कुल्हाड़ी तान कर तो दिखाए?
अपने जीवन की ढलती शाम में झाबुआ और धार जिलों को जोड़ने वाले बड़े क्षेत्रफल में वन पनपने और उसकी चौकसी करने को प्रतिबद्ध इस शख्स की पूरी दैनदिनी जंगल बचाने और बढ़ाने की चिंता के इर्द-गिर्द ही घूमती है। मगर उन्हें इस बात का गहरा अफसोस है कि व्यापक स्तर पर पर्यावरण संरक्षण और खासकर जंगल के संवर्धन के लिए ईमानदारी से, गंभीरता से कुछ भी नहीं किया जा रहा है पुनोबा बड़ी मायूसी (जिसमें पर्याप्त मासूमियत घुली हुई थी) से कहते हैं – व्यवस्था के पास न तो अमले का अभाव है न दूसरे संसाधनों का, फिर भी हर साल खूब जमीन से जंगल काटे जा रहे हैं। पुनोबा के दिमाग में जंगल क्षेत्रफल बढ़ाने तथा उसकी सुरक्षा संबंधी कई अभिनव एवं व्यावहारिक विचार हैं, वे बताते हैं आदिम जाति सहकारी साख संस्थाओं के माध्यम से प्रति वर्ष कृषि कार्यों के लिए दिये जाने वाले ऋण के साथ खेत की मेड़ पर प्रति बीघा 10 पौधे प्रति वर्ष पनपाने की शर्त अनिवार्य कर देना चाहिए। उस पर सख्ती से अमल भी होना चाहिए। बल्कि प्रतिवर्ष गांव के वरिष्ठ लोगों के साथ उन पौधों का भौतिक सत्यापन भी होना चाहिए। इसके अलावा वन विभाग द्वारा जो परती भूमि ‘बीट बनाने’ के नाम अधिग्रहित की जा रही है, उस भूमि पर ग्राम वन समितियों के साथ मिलकर पानी, मिट्टी बचाने व जंगल लगाने के सच्चे प्रयास हों।
यह पूछे जाने पर कि इस तरह की किसी भी योजना पर अमल कैसे होगा, जबकि ग्रामीण खुद पेड़-पौधे लगाने को तैयार नहीं हैं तथा स्वयं संरक्षित क्षेत्र में पशु-चराते हैं। पुनोबा बड़े विश्वास और किंचित साहस भरे स्वर में कहते हैं- यह सब संभव है यदि थोड़ी सख्ती और संवेदनशीलता के साथ काम लिया जाए। दरअसल व्यवस्था की प्रवृत्तियों के साथ आम ग्रामीण अनुकूल हो गया है। इसलिए सरकारी फरमान की अनदेखी कर लोग अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। खुद आपना उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि आज माही के तटवर्ती क्षेत्रों में किसी की मजाल है, जो पेंड़ पर कुल्हाड़ी तान सके। यदि मै निहत्था, अकेला आदमी इतना कर सकता हूं तो ‘सरकार’ के पास क्या कमी है। तनिक आवेश में बोले गए, इन संवादों के बाद ठहर कर कुछ दार्शनिक अंदाज में उन्होंने कहा- एक कमी है ईमानदारी से कुछ कर गुजरने की इच्छाशक्ति की, ये तमाम बातें उन्होंने अपनी भीली बोली में ठेठ गंवई अंदाज में कही और साथ में यह भी जोड़ा कि इक्का-दुक्का ही सही परन्तु हर गांव में ऐसे लोग है जरूर जिनके मन, आत्मा में ‘हरियाली’ के लिए जगह है, उनकी सुध लेने की भी जरूरत है। पुनोबा जंगलों की घोर उपेक्षा से भी क्षुब्ध हैं सचमुच यह अफसोस का विषय हैं कि पर्यावरण समृद्धि के तमाम नारों के बीच ग्राम स्तर पर ऐसी लोक –चेतना के अंकुरण के प्रयास तो उसकी परवाह भी किसी को नहीं है।
पुनोबा इस बात को लेकर बुरी तरह चिंतित हैं कि यदि प्रकृति में यह खतरनाक बदलाव का दौर जारी रहा तो आने वाली पीढ़ियों के समक्ष अस्तित्व बचाने का संकट खड़ा हो जाएगा। विगत दो वर्षों से पड़ रहे सुखे को भी इसी बदलाव का नतीजा मानते हुए वे कहते हैं कि पेड़-पौधों का नष्ट करना धरती की गर्मी को बढ़ाता है जो आखिरकार मरुस्थल बनने की प्रक्रिया को जन्म देती है। आज जो परिस्थितियां निर्मित हुई हैं, उसके लिए वे आम लोगों के पानी तथा लकड़ी के उपयोग के प्रति क्रूर व्यवहार (इसे शोषण परक कहना चाहिए) को दोषी मानते हैं।
वे अपने निहायत डुंगरी लहजे में कहते हैं- ‘पाणी ने लाकड़ा नी वपरांत लोक आदा होई ने करी रा है एतराज ई वखा पड़ी रा है’ (पानी और लकड़ी का इस्तेमाल लोग अंधे होकर कर रहे हैं, इसीलिए यह मुसीबत पैदा हुई है।) इस बातचीत के दौरान पुनोबा अनायास ही बड़े बेलाग तरीके से ग्राम वन समितियों के गठन उनकी कार्य पद्धति तथा बन अधिकारियों-कर्मचारियों के उस पर नियंत्रण व हस्तक्षेप को लेकर भी कई गंभीर सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं कि वन कर्मियों की नीयत साफ होती और वन समितियां नियमपूर्वक सावधानी से चलाई गई होतीं तो क्षेत्र में घास का उत्पादन तो दुगुना होता ही वर्षा का पानी संरक्षित करने व भू-कटाव रोकने की दिशा में भी महत्वपूर्ण कार्य हुआ होता। ऊंची-नीची पहाड़ियों के गहरी खाइयों जिन्हें वे नाकी कहते हैं की तरफ इशारा करते हुए वे यहां पानी की हर बूंद को रोकने के लिए भूमि की भौगोलिक अवस्था के अनुसार पत्थर व मिट्टी की संरचना बनाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहते हैं कि वर्षा के पानी को बहने से रोकने का कोई पुख्ता बंदोबस्त हो जाए और खुली चराई पर रोक लग जाए तो प्राकृतिक रूप से उगने वाले खजड़े, तणच, सालर, मुणी, तवड़ा जैसे पेड़ों को संरक्षित करने में काफी सफलता मिल सकती है। बहरहाल, पुनोबा के जंगल बचाने और मिट्टी रोकने के एकाकी प्रयास निरंतर जारी हैं, लेकिन अधिक दिनों तक ऐसे प्रयासों की उपेक्षा हमारे लिए अधिक नुकसानदेह साबित होगी।
जंगल और बूंदों को बचाने वाले इस चलत-फिरते विश्वविद्यालय को हमारा सादर नमन...!
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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