रेगिस्तान में नखलिस्तान बनाने वाले विरले ही होते हैं। ‘जहां चाह वहां राह’ वाली कहावत हकीकत में तब ही साकार होती है जब आदमी संकल्पित होकर कार्य करता है। मलेशिया के जंगलों में पैदा होने वाले रबर के पेड़ यदि कोई मारवाड़ की गर्म जलवायु में पैदा कर दिखा दे तो इससे बड़ा कोई कारनामा हो नहीं सकता। मारवाड़ के एक किसान और पेशे से वैद्य गोपीकृष्ण परिहार ने बंजर भूमि को उपजाऊ बनाकर रबर के पेड़ों के साथ दर्जनों औषधीय पौधे लगाकर एक अनूठा कारनामा कर दिखाया है।मारवाड़ में जहां गर्म जलवायु के कारण कपास, मिर्च व जीरे की खेती करना भी मुश्किल है, वहां औषधीय पौधों की खेती करना एक दुर्गम काम है। मारवाड़ के इस सफल किसान वैद्य गोपीकृष्ण परिहार ने बंजर भूमि पर ‘खोदा पहाड़ और निकली चुहिया’ वाली कहावत को गलत सिद्ध कर दिया। अपनी खून-पसीने की मेहनत से बंजर भूमि पर चमत्कार कर दिखाया। आइए जानते है ऐसे चमत्कारिक और करिश्मावादी व्यक्ति की सफलता की कहानी उन्हीं की जुबानी।
मेरा जन्म 18 अक्टूबर, 1945 को जोधपुर के एक छोटे से गांव बिराई में हुआ। पांचवीं तक की शिक्षा मैंने बिराई की ही प्राथमिक पाठशाला में प्राप्त की। वर्ष 1967 में मैंने सेकण्डरी और 1968 में हायर सेकण्डरी परीक्षा पास की। जीवन में शुरू से ही कुछ विशेष करने की तमन्ना थी। हर पल कुछ नया करने की सोचता रहता था।
मेरी जिंदगी भी आम किसान की ही तरह गरीबी में कट रही थी। मेरे पास न तो एक बीघा जमीन थी और न ही कोई खेती का साधन। मैंने एक योजना बनाकर बिराई से जोधपुर जाने वाले मार्ग के पास पहाड़ी की ढलान में आई करीब पन्द्रह बीघा पथरीली जमीन को बरसों तक मेहनत कर खेती लायक बनाया। इस पन्द्रह बीघा जमीन को मैंने बड़े-बड़े पत्थरों से मुक्त कर दिया।
शुरुआती दौर में मैंने इस जमीन पर जीरा, रायड़ा जैसी सामान्य फसलों के साथ-साथ सब्जियों की खेती की। इस जमीन पर अपनी खून-पसीने की मेहनत के साथ मैंने नित नए प्रयोग किए। मेरी जी-तोड़ मेहनत के साथ किस्मत ने पूरा साथ दिया और पहले ही दौर में इस बंजर और पथरीली जमीन पर विभिन्न रंगों के गुलाब के फूल उग आए। जोधपुर से उद्यान अधिकारियों के सम्पर्क में आकर मैंने कई राष्ट्रीय प्रशिक्षणों में भाग लेना शुरू किया। अपने जीवन में औषधीय पौध उगाने का सपना संजोए रखा था। गुलाब के फूल अपनी जमीन पर उगे हुए देखकर मेरा हौसला बढ़ गया।
एक प्रशिक्षण से लौटते हुए देहरादून से एक रबर का पौधा लाया और उसे खेत में रोप दिया। आज उसने एक विशाल रूप ले लिया है। विभिन्न प्रदेशों की नर्सरियों से सीख लेकर मैंने अनेक प्रकार के औषधीय पौधे पनपा दिए। केरल से मैंने काली मिर्च की पौध लाकर लगायी जिसके बेहतर परिणाम सामने आए।
औषधीय पौधों के इस उद्यान का नाम है ‘धनवन्तरि उद्यान’। आज इस उद्यान में सागवान, रबर, काली मिर्च, पलाश, श्यामतुलसी, गूलर, सर्पगन्धा, अश्वगन्धा, ग्वारपाठा, मालकांगणी, चम्पा, फुअर, अनार, बादाम, सन्तरा जैसे दर्जनों औषधीय और फलदार पौधे उग चुके हैं। मेरे इस उद्यान के बेर तो कई राष्ट्रीय प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त कर चुके हैं।
मैंने इस उद्यान को पनपाने में बून्द-बून्द सिंचाई पद्धति का ही उपयोग किया ताकि कम पानी से पौधे की जरूरत के मुताबिक सिंचाई हो सके। इस उद्यान में मैंने जैविक खाद का प्रयोग किया। कड़ी मेहनत और लगन से मैंने इस उबड़-खाबड़, कंकरीली और पथरीली जमीन को कृषि योग्य बना दिया।
बागवानी के प्रति प्रेरित होकर मैंने मरू विकास योजना के अन्तर्गत गोला किस्म के बेर के पौधे लगाए। उद्यान विभाग ने कलस्टर योजना के तहत 100 पौधे बेर के सेव और गोला किस्म के लगाए। देखते ही देखते मेरे उद्यान के बेर का उत्पादन बढ़ गया। मुझे अपनी मेहनत से जो बेर का अप्रत्याशित फायदा हुआ, उसकी कल्पना भी नहीं की थी। बेर की फसल तीन माह की अवधि में पककर तैयार हो गई। प्रत्येक पेड़ पर 80 किलो के हिसाब से 160 क्विंटल बेर का उत्पादन हुआ।
बेर का उत्पादन देखने कई समीपवर्ती किसान आने लगे। देखते ही देखते मेरा बेर का उद्यान सभी के आकर्षण का केन्द्र बन गया। बेर के उत्पादन से मुझे तीन माह की अवधि में करीब सवा लाख रुपए की आय हुई। इसमें से तीस से चालीस हजार रुपए सिंचाई, खाद व सुरक्षा पर खर्च करने के बाद भी सत्तर हजार रुपए की शुद्ध बचत हो गई। मैंने अपनी 21 बीघा भूमि में से 10 बीघा जमीन पर बेर और शेष 10 बीघा पर अनार, नींबू, चीकू, करौंदा, गूदां, शहतूत, सागवान, रोहिड़ा के पौधे लगाए।
1. 1991 में जोधपुर में आयोजित जिला स्तरीय फल-सब्जी के प्रदर्शनों में वैद्य के बेर को प्रथम पुरस्कार।
2. 1992 में राष्ट्रीय उद्यान मेला नई दिल्ली में आयोजित फल प्रदर्शनी में वैद्य जी के बेर को एक साथ तीन पुरस्कार।
3. 1993 में हरियाणा के कैथल में आयोजित बेर प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार।
4. 1994 में चंडीगढ़ में आयोजित राष्ट्रीय बेर प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार।
5. 1995 में जयपुर में आयोजित राज्यस्तरीय फल प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार।
6. 2000 में अखिल भारतीय बेर प्रदर्शनी में पुनः प्रथम पुरस्कार।
बंजर भूमि पर सुन्दर उद्यान सुशोभित करना वास्तव में किसी भागीरथी प्रयास से कम नहीं है। मुझे मेरी इस कामयाबी के लिए अब तक कुल 80 पुरस्कार मिल चुके हैं जिसमें से 60 बेर पर मिले हैं।
मैंने 1971 से 1978 के बीच निखिल भारतवर्षीय आयुर्वेद विद्यापीठ, नई दिल्ली से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की।
1. फरवरी 2010 में विज्ञान भवन, नई दिल्ली में कृषि मन्त्री, भारत सरकार श्री शरद पवार के करकमलों से हार्वेस्ट ऑफ होप पुरस्कार से सम्मानित।
2. मार्च 2010 में राज्यस्तरीय कृषक सम्मान समारोह में मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत द्वारा सम्मानित।
3. 2002 में गणतन्त्र दिवस पर जोधपुर जिला प्रशासन द्वारा तत्कालीन ऊर्जा मन्त्री डॉ. चन्द्रभान द्वारा सम्मानित।
4. 1998 में महात्मा ज्योतिबा फुले सैनी मेमोरियल ट्रस्ट ऑफ इण्डिया दिल्ली में सम्मानित।
5. 1994 में नागौर में आयोजित राजस्थान वैद्य सम्मान के प्रान्तीय अधिवेशन में सम्मानित।
6. 2001 में सालासर में आयोजित राजस्थान वैद्य सम्मेलन के प्रान्तीय अधिवेशन में आयुर्वेद मन्त्री द्वारा आयुर्वेद की उपाधि प्राप्त।
7. 2002 में किसान दिवस पर कृषि विभाग जोधपुर द्वारा किसान सम्मान से विभूषित।
कर्मयोगी वैद्य गोपीकृष्ण परिहार ने धनवन्तरि उद्यान विकसित करके पर्यावरण प्रेमियों के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। परिहार के इस उद्यान को देखने कई विशेषज्ञ, प्रकृति प्रेमी और किसान आते हैं। हाल ही में फरवरी 2010 में भारत के प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक और हरित क्रान्ति के जन्मदाता प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन ने इनके धनवन्तरि उद्यान का अवलोकन किया और वैद्य जी को सम्मानित किया।
आज वैद्य गोपीकृष्ण परिहार की बहुमुखी प्रतिभा को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। ये जाने-माने वैद्य ही नहीं है अपितु राष्ट्रीय पहचान रखने वाले फल उत्पादक किसान भी है। इन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा हर जगह मनवाया। वे जहां भी अपने द्वारा तैयार किए गए फलों को लेकर गए, उन्होंने वहां ढेरों पुरस्कार अपनी झोली में डाल दिए।
‘रंग लाती है हिना पत्थर पर घिस जाने के बाद’ यह कहावत बिराई के वैद्य गोपीकृष्ण परिहार पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। कितनी दिलचस्प बात है कि देखते ही देखते अपनी मेहनत से वैद्य पंडित से उद्यान पंडित बन गया।
गोपीकृष्ण परिहार की इस सफलता की यात्रा में जो शख्स हर जगह इनके साथ रहा और हर मुकाम पर इनका भागीदार बना, वो है इनका पुत्र युवा, कर्मठ और पेशे से वैद्य खिंवराज परिहार। युवा सफल किसान खिंवराज परिहार ने देश की कई शीर्षस्थ संस्थाओं से औषधीय पौधों पर प्रशिक्षण प्राप्त किया।
धनवन्तरि उद्यान, जो आज विकसित अवस्था में है, उसके पीछे खिंवराज परिहार की ही खून-पसीने की मेहनत छिपी हुई है। बहुत कम आयु में ही वैद्य खिंवराज परिहार को ढेरों पुरस्कार और सम्मान बागवानी में कीर्तिमान स्थापित करने के लिए मिल चुके हैं।
समाज सेवा की ललक रखने वाले वैद्य खिंवराज परिहार हर सामाजिक मदद में तैयार खड़े रहते हैं। इनकी अद्भुत समाज सेवा के लिए इन्हें कई बार पुरस्कार दिया जा चुका है। पिता-पुत्र की यह सफलता की कहानी निश्चित ही एक आदर्श कहानी है जिससे हमारे प्रदेश के उद्यमी किसान प्रेरणा प्राप्त करेंगे और बागवानी में नया आयाम स्थापित करेंगे।
(लेखक दूरदर्शन कृषि कार्यक्रम में प्रोडक्शन सहायक हैं।)
ई-मेल: virandrapariharddk@rediffmail.com
मेरा जन्म 18 अक्टूबर, 1945 को जोधपुर के एक छोटे से गांव बिराई में हुआ। पांचवीं तक की शिक्षा मैंने बिराई की ही प्राथमिक पाठशाला में प्राप्त की। वर्ष 1967 में मैंने सेकण्डरी और 1968 में हायर सेकण्डरी परीक्षा पास की। जीवन में शुरू से ही कुछ विशेष करने की तमन्ना थी। हर पल कुछ नया करने की सोचता रहता था।
मेरी जिंदगी भी आम किसान की ही तरह गरीबी में कट रही थी। मेरे पास न तो एक बीघा जमीन थी और न ही कोई खेती का साधन। मैंने एक योजना बनाकर बिराई से जोधपुर जाने वाले मार्ग के पास पहाड़ी की ढलान में आई करीब पन्द्रह बीघा पथरीली जमीन को बरसों तक मेहनत कर खेती लायक बनाया। इस पन्द्रह बीघा जमीन को मैंने बड़े-बड़े पत्थरों से मुक्त कर दिया।
शुरुआती दौर में मैंने इस जमीन पर जीरा, रायड़ा जैसी सामान्य फसलों के साथ-साथ सब्जियों की खेती की। इस जमीन पर अपनी खून-पसीने की मेहनत के साथ मैंने नित नए प्रयोग किए। मेरी जी-तोड़ मेहनत के साथ किस्मत ने पूरा साथ दिया और पहले ही दौर में इस बंजर और पथरीली जमीन पर विभिन्न रंगों के गुलाब के फूल उग आए। जोधपुर से उद्यान अधिकारियों के सम्पर्क में आकर मैंने कई राष्ट्रीय प्रशिक्षणों में भाग लेना शुरू किया। अपने जीवन में औषधीय पौध उगाने का सपना संजोए रखा था। गुलाब के फूल अपनी जमीन पर उगे हुए देखकर मेरा हौसला बढ़ गया।
एक प्रशिक्षण से लौटते हुए देहरादून से एक रबर का पौधा लाया और उसे खेत में रोप दिया। आज उसने एक विशाल रूप ले लिया है। विभिन्न प्रदेशों की नर्सरियों से सीख लेकर मैंने अनेक प्रकार के औषधीय पौधे पनपा दिए। केरल से मैंने काली मिर्च की पौध लाकर लगायी जिसके बेहतर परिणाम सामने आए।
धनवन्तरि उद्यान
औषधीय पौधों के इस उद्यान का नाम है ‘धनवन्तरि उद्यान’। आज इस उद्यान में सागवान, रबर, काली मिर्च, पलाश, श्यामतुलसी, गूलर, सर्पगन्धा, अश्वगन्धा, ग्वारपाठा, मालकांगणी, चम्पा, फुअर, अनार, बादाम, सन्तरा जैसे दर्जनों औषधीय और फलदार पौधे उग चुके हैं। मेरे इस उद्यान के बेर तो कई राष्ट्रीय प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त कर चुके हैं।
प्रयोग बून्द-बून्द सिंचाई का
मैंने इस उद्यान को पनपाने में बून्द-बून्द सिंचाई पद्धति का ही उपयोग किया ताकि कम पानी से पौधे की जरूरत के मुताबिक सिंचाई हो सके। इस उद्यान में मैंने जैविक खाद का प्रयोग किया। कड़ी मेहनत और लगन से मैंने इस उबड़-खाबड़, कंकरीली और पथरीली जमीन को कृषि योग्य बना दिया।
अभूतपूर्व बेर उत्पादन
बागवानी के प्रति प्रेरित होकर मैंने मरू विकास योजना के अन्तर्गत गोला किस्म के बेर के पौधे लगाए। उद्यान विभाग ने कलस्टर योजना के तहत 100 पौधे बेर के सेव और गोला किस्म के लगाए। देखते ही देखते मेरे उद्यान के बेर का उत्पादन बढ़ गया। मुझे अपनी मेहनत से जो बेर का अप्रत्याशित फायदा हुआ, उसकी कल्पना भी नहीं की थी। बेर की फसल तीन माह की अवधि में पककर तैयार हो गई। प्रत्येक पेड़ पर 80 किलो के हिसाब से 160 क्विंटल बेर का उत्पादन हुआ।
बेर का उत्पादन देखने कई समीपवर्ती किसान आने लगे। देखते ही देखते मेरा बेर का उद्यान सभी के आकर्षण का केन्द्र बन गया। बेर के उत्पादन से मुझे तीन माह की अवधि में करीब सवा लाख रुपए की आय हुई। इसमें से तीस से चालीस हजार रुपए सिंचाई, खाद व सुरक्षा पर खर्च करने के बाद भी सत्तर हजार रुपए की शुद्ध बचत हो गई। मैंने अपनी 21 बीघा भूमि में से 10 बीघा जमीन पर बेर और शेष 10 बीघा पर अनार, नींबू, चीकू, करौंदा, गूदां, शहतूत, सागवान, रोहिड़ा के पौधे लगाए।
बेर पर पुरस्कार
1. 1991 में जोधपुर में आयोजित जिला स्तरीय फल-सब्जी के प्रदर्शनों में वैद्य के बेर को प्रथम पुरस्कार।
2. 1992 में राष्ट्रीय उद्यान मेला नई दिल्ली में आयोजित फल प्रदर्शनी में वैद्य जी के बेर को एक साथ तीन पुरस्कार।
3. 1993 में हरियाणा के कैथल में आयोजित बेर प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार।
4. 1994 में चंडीगढ़ में आयोजित राष्ट्रीय बेर प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार।
5. 1995 में जयपुर में आयोजित राज्यस्तरीय फल प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार।
6. 2000 में अखिल भारतीय बेर प्रदर्शनी में पुनः प्रथम पुरस्कार।
बंजर भूमि पर सुन्दर उद्यान सुशोभित करना वास्तव में किसी भागीरथी प्रयास से कम नहीं है। मुझे मेरी इस कामयाबी के लिए अब तक कुल 80 पुरस्कार मिल चुके हैं जिसमें से 60 बेर पर मिले हैं।
मैंने 1971 से 1978 के बीच निखिल भारतवर्षीय आयुर्वेद विद्यापीठ, नई दिल्ली से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की।
अन्य पुरस्कार
1. फरवरी 2010 में विज्ञान भवन, नई दिल्ली में कृषि मन्त्री, भारत सरकार श्री शरद पवार के करकमलों से हार्वेस्ट ऑफ होप पुरस्कार से सम्मानित।
2. मार्च 2010 में राज्यस्तरीय कृषक सम्मान समारोह में मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत द्वारा सम्मानित।
3. 2002 में गणतन्त्र दिवस पर जोधपुर जिला प्रशासन द्वारा तत्कालीन ऊर्जा मन्त्री डॉ. चन्द्रभान द्वारा सम्मानित।
4. 1998 में महात्मा ज्योतिबा फुले सैनी मेमोरियल ट्रस्ट ऑफ इण्डिया दिल्ली में सम्मानित।
5. 1994 में नागौर में आयोजित राजस्थान वैद्य सम्मान के प्रान्तीय अधिवेशन में सम्मानित।
6. 2001 में सालासर में आयोजित राजस्थान वैद्य सम्मेलन के प्रान्तीय अधिवेशन में आयुर्वेद मन्त्री द्वारा आयुर्वेद की उपाधि प्राप्त।
7. 2002 में किसान दिवस पर कृषि विभाग जोधपुर द्वारा किसान सम्मान से विभूषित।
कर्मयोगी वैद्य गोपीकृष्ण परिहार ने धनवन्तरि उद्यान विकसित करके पर्यावरण प्रेमियों के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। परिहार के इस उद्यान को देखने कई विशेषज्ञ, प्रकृति प्रेमी और किसान आते हैं। हाल ही में फरवरी 2010 में भारत के प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक और हरित क्रान्ति के जन्मदाता प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन ने इनके धनवन्तरि उद्यान का अवलोकन किया और वैद्य जी को सम्मानित किया।
आज वैद्य गोपीकृष्ण परिहार की बहुमुखी प्रतिभा को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। ये जाने-माने वैद्य ही नहीं है अपितु राष्ट्रीय पहचान रखने वाले फल उत्पादक किसान भी है। इन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा हर जगह मनवाया। वे जहां भी अपने द्वारा तैयार किए गए फलों को लेकर गए, उन्होंने वहां ढेरों पुरस्कार अपनी झोली में डाल दिए।
‘रंग लाती है हिना पत्थर पर घिस जाने के बाद’ यह कहावत बिराई के वैद्य गोपीकृष्ण परिहार पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। कितनी दिलचस्प बात है कि देखते ही देखते अपनी मेहनत से वैद्य पंडित से उद्यान पंडित बन गया।
गोपीकृष्ण परिहार की इस सफलता की यात्रा में जो शख्स हर जगह इनके साथ रहा और हर मुकाम पर इनका भागीदार बना, वो है इनका पुत्र युवा, कर्मठ और पेशे से वैद्य खिंवराज परिहार। युवा सफल किसान खिंवराज परिहार ने देश की कई शीर्षस्थ संस्थाओं से औषधीय पौधों पर प्रशिक्षण प्राप्त किया।
धनवन्तरि उद्यान, जो आज विकसित अवस्था में है, उसके पीछे खिंवराज परिहार की ही खून-पसीने की मेहनत छिपी हुई है। बहुत कम आयु में ही वैद्य खिंवराज परिहार को ढेरों पुरस्कार और सम्मान बागवानी में कीर्तिमान स्थापित करने के लिए मिल चुके हैं।
समाज सेवा की ललक रखने वाले वैद्य खिंवराज परिहार हर सामाजिक मदद में तैयार खड़े रहते हैं। इनकी अद्भुत समाज सेवा के लिए इन्हें कई बार पुरस्कार दिया जा चुका है। पिता-पुत्र की यह सफलता की कहानी निश्चित ही एक आदर्श कहानी है जिससे हमारे प्रदेश के उद्यमी किसान प्रेरणा प्राप्त करेंगे और बागवानी में नया आयाम स्थापित करेंगे।
(लेखक दूरदर्शन कृषि कार्यक्रम में प्रोडक्शन सहायक हैं।)
ई-मेल: virandrapariharddk@rediffmail.com
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