पत्तों के बिना

patta
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पत्तों पर ओस जमने लगी है। वे सूरज की किरण पड़ते ही ऐसे चमकते हैं, जैसे किसी ने उन पर हीरे तराशकर रख दिये हों। दिन चढ़ते ही ये हीरे खो जाते हैं। हरे-उजले पत्तों पर खिंची पीली रेखाओं को देखो तो लगता है जैसे वृक्ष की छोटी-छोटी खाली गदेलियां हों। वृक्षों की शाखाओं को डुलाती हवा में पत्ते इस तरह हरहराते रहते हैं जैसे, तालियां बजा रहे हों। वे धरती पर पड़ती अपनी चंचल छाया से रोशनी को दिन भर नचाया करते हैं।

वृक्षों की पहचान उनके पत्तों से ही होती है। किसी वृक्ष पर पत्ते न हो तो यह बताना मुश्किल हो जाता है कि उसका नाम क्या है। अनेक वृक्ष तो लंबी उमर पाते हैं पर उनकी शाखाओं पर पत्तों का जीवन थोड़ा ही होता है। पतझर के मौसम में पत्रहीन वृक्ष तपती धूप में ऐसे दिखाई देते हैं, जैसे मन ही मन अपने आपसे पूछ रहे हों कि मैं कौन हूं और मेरा नाम क्या है? उनका यह तप जल्दी ही उन पर रंग ले आता है। वर्षा आते ही वृक्ष की शाखाओं में बसी पत्तों की यादें पीक उठती हैं। हर वृक्ष अपना नाम बताने लगता है।

जब कागज नहीं बना था, हमारे नाम पत्तों पर ही लिखे जाते थे। हमारे शब्दों के लिये सबसे पहले जगह पत्तों ने ही दी। हमने पत्तों पर लिख-लिखकर अपनी पोथियां बांची। अब तो हम समूचे वृक्ष को ही काटकर उसका कागज बना लेते हैं। वृक्षों की छह कोटियां मानी जाती हैं-जो वृक्ष बिना बौर आये फलते हैं उन्हें वनस्पति, जो फलों के पक जाने पर नष्ट हो जाते हैं उन्हें औषधि, जिनमें पहले फूल आते हैं और फिर फल लगते हैं उन्हें द्रुम, जो आश्रय लेकर बढ़ते हैं उन्हें लता, जो धरती पर ही फैलते हैं उन्हें वीरुध और जिनकी छाल कठोर होती है वे वृक्ष त्वक्सार कहलाते हैं। जिस संसार में हम रहते हैं उसे भी एक वृक्ष के रूप में देखा जाता है जिसकी जड़ आसमान में है और वेदों की ऋचायें उसके पत्तों जैसी हैं।

संसार की पूजा पत्तों के बिना नहीं होती। याद करें, भादो के महीने में ऋषि पंचमी आती है, उस दिन कुलवधुयें चंदन से पान के पत्तों पर ऋषियों के नाम लिखती हैं। ब्याह का मंडवा आम, पलाश, जामुन, गूलर, महुआ, बांस और बेरी के पत्तों और उनकी लकड़ियों के बिना कहां बनता है! सुहागिन नारियां हरतालिका तीज पर शिव-पार्वती की पूजा करती हैं, निर्जला व्रत रखती हैं और बेलपत्र खोजती फिरती हैं। शिव को सिर्फ बेलपत्र ही नहीं, धतूरा और अकौआ के पत्ते भी चाहिये। पत्तों के बिना दीपावली के मंगलकलश का श्रृंगार कितना अधूरा लगता है!

हम अपने घर के द्वारों का खालीपन दूर करने के लिये आम के पत्तों के वन्दनवार सजाते हैं। देवताओं के भोग के लिये दोने और पत्तलें भी उन्हीं से बनती हैं। अगर पत्ते न हों तो जीवन और देवताओं का सौंदर्य ही खो जाये। पत्तों के बिना प्रकृति और परमेश्वर अधूरे हैं। पार्वती की तपस्या पत्तों की याद जैसी है। वे शिव को पाने के लिये पत्ते खाती हैं। फिर पत्ते खाना भी छोड़ देती हैं तो अर्पणा कहलाती हैं। पार्वती की तपस्या ग्रीष्म में बार-बार झुलसती हुई प्रकृति की ही तपस्या है, जिसके नश्वर पत्ते हर बार झर जाते हैं और प्रकृति अपनी देह की शाखाओं पर उनके हर बार पीक उठने का सपना देखती है। तभी तो आम के वृक्ष पर हरी-हरी पत्तियों के बीच बौर के रूप में शिव प्रकट होते हैं, पार्वती का वरण करते हैं।

हवा में हरहराते पत्तों की आवाज सुनो तो लगता है कि वे कोई कीर्तन कर रहे हैं। कभी वे हौले से होठों की तरह कांपते हैं जैसे कोई मंत्र बुद-बुदा रहे हों और कभी इतने शांत और स्थिर दिखाई पड़ते हैं, जैसे समाधि में लीन हों। उन्हें जब भी देखो वे कोई न कोई भजन कर रहे होते हैं। पत्तों को झरते हुए और मिटते हुए देखकर अपने क्षणभंगुर जीवन का अहसास होता है। तभी तो इन्हीं पत्तों को देखकर महात्मा कबीर गा उठते हैं- ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूं किधर गिरेगा, लगा पवन का रेला। उड़ जायेगा हंस अकेला, जग दरसन का मेला।‘ पत्ते झरते हैं और उड़-उड़कर हमें चारों तरफ से घेर लेते हैं। वे हमारा पीछा करते हैं और कभी इतने शांत हो जाते हैं, जैसे आखिरी सांस ली हो। कभी-कभी लगता है कि वे जिस टहनी से झरते हैं, उसी में पीकते हैं। पत्तों में अपनी शाखा की स्मृति बसी होती है। रोशनी में झिलमिलाती पत्तियों को देखो तो वे समय की पलकों जैसी लगती हैं।

हमारे समय की पलकें धूल से भरती जा रही हैं। राह के किनारे और बगीचों में पत्तों पर धूल जमी रहती है। पत्तों की सांस लगातार रुंध रही है। गौर से देखो तो पत्तों पर दुख का रंग पीला होकर झलकता है। कोई पत्ता किसी एक कोने से पीला होने लगता है, जैसे इच्छामृत्यु का वरण कर रहा हो और एक दिन पूरा पीला होकर झर जाता है। छाया का अर्थ तो पत्ते ही खोलते हैं।

हम तरह-तरह की छायायें भले ही रचते हों, अपने लिये छत्रछाया खोजते हों। पर हमारी रची हुई सारी छायायें हमारा पीछा करती हैं, हमें बांधती हैं लेकिन पत्तों की शीतल छाया हमें सदा मुक्त करती है। तपती दुपहर में राह चलते किसी वृक्ष की छाया ऐसे मिल जाती है, जैसे हमारा कोई पुरखा हमें दुलार रहा हो।

हमें ऐसी शहरी जीवनचर्या ने आ घेरा है कि हम वृक्षों की ऊंचाई घटाकर उन्हें गमलों में रोप लेते हैं। जब वृक्षों के पास उनकी पूरी काया ही नहीं तो उनके पत्तों की छाया हम पर कैसे होगी? सीमेंट-कंक्रीट से उपजे शहरी जंगलों में घर तपते हैं और उन घरों में ठिगने वृक्षों की काया झुलसती रहती है। प्रकृति से दूर होती जाती दुनिया में बौनी कायायें ही बढ़ती जा रही हैं और ऊंचाई से झरती छायाओं का अहसास खोता जा रहा है। दीवाली पर प्लास्टिक के पत्ते और फूल खूब बिके। उन पर प्लास्टिक की ओस की बूंदें भी झलकती दिखाई दीं। जब वे कभी मुरझायेंगे ही नहीं, तो यह बोध कैसे जगायेंगे कि जीवन और उसका उत्सव क्षणभंगुर है। जीवन एक त्योहार की तरह ही तो आकर बीत जाता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे एक सजीव पत्ते पर चमकती हुई ओस की बूंद ढरक जाती है। जैसे एक डाल से टूटे हुए पत्ते को पवन उड़ा ले जाता है- 'पत्ता टूटा डाल से, ले गया पवन उड़ाय। अबके बिछुड़े कब मिलेंगे, दूर पड़ेंगे जाय।‘

जिनके जीवन में प्लास्टिक के पत्ते और फूल आ गये हों, वे जीवन्त रूपों से आने वाली खुशबुओं को कैसे पहचानेंगे? उन्हें कैसे पता चलेगा कि हमारे ऊपर झुकी हुई हरी-भरी टहनी का अर्थ क्या है? वे फूलों से हंसना और भौंरों से गाना कैसे सीखेंगे? वे सीख नहीं पायेंगे, फलों से लदी डालियों की तरह अपने शीश को झुकाना। पत्तों, फूलों और फलों के बिना जीवन की पूजा कितनी अधूरी लगती है!

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