‘पतित-पावनी’ वैगैई

अगर मदुराई के जैसा इतिहास प्रसिद्ध नगर और तीर्थ-स्थान उसके किनारे पर नहीं होता तो वैगैई नदी की ओर मेरा ध्यान ही नहीं जाता। कृष्णा, गोदावरी, तुंगभद्रा, कावेरी आदि दक्षिण के विख्यात नदियों के साथ वैगैई नदी का नाम कभी सुना नहीं था। लेकिन मदुराई जैसी संस्कृतिधानी जिस नदी के तट पर विराजमान है उसके महत्त्व का इन्कार कौन करेगा? उज्जयिनी जैसी नगरी के कारण ही क्षिप्रा नदी को महत्त्व मिला और कवियों ने उसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। मैं तो कहूंगा कि हिमालय के उस पार से आनेवाली सरयू या घाघरा नदी का महत्त्व भी आयोध्या के कारण ही इतना बढ़ा है। किसी ग्रामकन्या का स्वीकार जब राजा करता है तब वह रानी बनती है, उसके सारे कुल का उद्धार होता है। यही न्याय नदियों के बारे में भी है। किसी विख्यात नगरी या तीर्थधाम के कारण नदी का माहात्म्य एकदम बढ़ता है। द्वारिका के कारण गोमती जैसी तुच्छ नदी का भी नाम यात्रियों में मशहूर हो गया।

यूं भी वैगैई नदी काफी लम्बी है। उसका उद्गम-स्थान तुंगभद्रा के जैसा ही सुन्दर है। पलणी जैसे सुन्दर और उत्तुंग पहाड़ के पानी से वैगैई का बाल्यकाल समृद्ध हुआ है। लेकिन दुर्दैव इस नदी का, कि बाद में उसे कहीं से भी विशेष मदद नहीं मिली हैं। जब नदी के पास जीवन-समृद्धि होती है तब वह अपने प्रवाह में तपस्या के लिए बैठे हुए विशालकाय पत्थरों को अपने प्रवाह में डुबो देती है और इस पुण्यकर्म का आनन्द अपने कलकल ध्वनि से और फेनधवल हास्य से व्यक्त करती है। लेकिन वैगैई इतनी क्षीण स्रोत है कि पत्थरों के बीच में से उसको अपना रास्ता ढूंढ़ते देखकर उसके प्रति मन में करुणा का भाव ही पैदा होता है।

दो खिंड के पानी के प्रवाहों को एकत्र करके वैगैई जन्म लेती है और उत्तर की ओर बहती है। वहां पलणी का पहाड़ उसे सलाह देता है कि उत्तर की अपेक्षा ईशान की दिशा ही उसके लिए अनुकूल है। तुरन्त वह ईशान की नहीं, लेकिन पूर्व की दिशा लेती है और उसमें भी स्थिर न रहकर सोचती है कि जब पूर्वी समुद्र के संगम के लिए जाना ही है तब अग्निदिशा होकर मदुराई-निवासिनी मीनाक्षी के दर्शन के लिए जाना ही अच्छा है।

मदुराई से आगे बढ़कर वैगैई रामनाथ के प्रदेश में जाकर रामेश्वर की यात्रा करने का सोचती है, लेकिन उसे सलाह मिलती है कि समुद्र उसका वहां स्वीकार नहीं करेगा। उसे तो पूर्व की ओर ही जाना चाहिये।

अपने उद्गम से मदुरा तक आते सौ मील की यात्रा और वहां से उसके मुख तक सौ मील की यात्रा ऐसी दो सौ मील की यात्रा पूरी करके वैगैई अपना सारा कारभार पूर्वी समुद्र को देती है।करीब सौ बरस होने आये हैं वैगैई के भाग्य में एक पुण्यकर्म आया लेकिन उस पुण्य के कारण भी उसका जीवन समृद्ध न हो सका।

त्रावणकोर के राज्य में पेरियार नाम की एक छोटी सी नदी है। इतनी छोटी कि उसे कोई नदी कहने के लिए राजी नहीं होगा। सह्याद्रि के दक्षिण सिरे से निकलकर दौड़ते-दौड़ते पश्चिम सागर में कूद पड़ना यही था उसका पुरुषार्थ। लेकिन पूरे सौ बरस भी नहीं हुए होंगे, चन्द पुरुषार्थी अग्रेज पेरियार के उद्गम तक पहुंच गए और उन्होंने सोचा कि पेरियार के उद्गम से लेकर मुख तक सारे प्रदेश में इतनी बारिश होती है फिर भी पेरियार का पानी न कोई खेती के लिए काम में लेता है, न बगीचे की समृद्धि बढ़ाने के लिए। पहाड़ का मीठा पानी खारे समुद्र में पहुंचाकर बिगाड़ देने के लिए पेरियार का जन्म है? अंग्रेजों को उसकी दया आयी। उन्होंने सोचा कि इस पर्वत कन्या के लिए अगर पहाड़ में से विवर खोद दिया जाय तो यह नदी अपना कल्याण-जल सह्याद्रि की पूर्व की ओर के उर्वर प्रदेश को दे देगी और जहां अनाज नहीं उगता है वहां की भूमि को शस्यशालिनी बना देगी। उन्होंने बारह फुट चौड़ा और आठ फुट गहरा प्रवाह पूर्व की ओर ले जाने के लिए एक लम्बा-चौड़ा करीब एक मील से भी ज्यादा लम्बा-विवर खोदा और पश्चिमवाहिनी पेरियार को पूर्ववाहिनी बना दिया।

पूर्व की ओर बहने का रास्ता तो हो गया। लेकिन पश्चिम की ओर उसका प्रवाह रोके बिना वह पूर्व की ओर क्यों कर जायेगी? इन अंग्रेजों ने पेरियार के प्रवाह में पौने दो सौ फुट का एक ऊंचा बांध बांध दिया। और पेरियार के उद्गम में ही एक बहुत बड़ा सरोवर बना दिया। हाथ की उंगलियां जैसे फैलती हैं अथवा सप्तपर्णी के पत्ते जैसे अनेक दिशा में फैलते हैं, उसी तरह परियार का यह मनुष्य कृत सरोवर पहाड़ में 5-7 दिशाओं में फैल गया है।

पानी का इतना खजाना मिलते ही वृक्ष-वनस्पति सन्तुष्ट हो गए। उनका आश्रय पाकर हाथी, बाघ आदि वन्य पशु भी वहां आराम से रहने लगे। ऐसे वन्य पशुओ का दर्शानानंद पाने के लिए मनुष्य ने इस सरोवर के इर्द-गिर्द के जंगलों को अभयारण्य बनाया और वह स्थान अब भारत की अनेकानेक सौंदर्य भूमियों में से एक हो गया है।

और पेरियार नदी पूर्व वाहिनी बनकर समुद्र की ओर चली। जाते-जाते बीच में उसे वैगैई नदी मिली। उसके पात्र का भी उपयोग करने का मनुष्य को सूझा। वैगैई नदी ने खुशी से यह पुण्यकार्य अपनाया और पूर्ववाहिनी पेरियार को एक नहर के रूप में पूर्व की ओर की जमीन को उपजाऊ करने की सेवा करने का मौका दिया।

एक जफे जब मैं मदुराई गया था तब वैगैई के किनारे करीब-करीब उसके पात्र में बंधे हुए मंदिर में कई हरिजनों को और हरिजन-सेवकों को मिलने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। उन दिनों मैं रात्रीभोजन तो करता ही नही था। लेकिन भोजन में केवल दूध, दही और फल ही खाता था। उन दिनों का वह मेरा व्रत था। मंदिर की दिवाल के और छत के पत्थरों में बड़ी-बड़ी मछलियां खोदी हुई थीं। समुद्र जीवी आदिवासियों के भगवान का शायद वह मंदिर होगा। वार्तालाप के बाद हरिजन भाइयों ने अपने साथ बैठकर खाने का मुझे आग्रह किया। मैंने उन्हें अपने व्रत की बात समझाई। वे समझ तो गये, लेकिन उनके चेहरे पर संतोष दीख न पड़ा। वे जानते थे कि मैं ब्राह्मण हूं। ब्राह्मण बड़ी-बड़ी बातें करने में चतुर होते हैं। लेकिन युक्ति-पर्युक्ति से अपना ‘धर्म’ भी संभालते हैं। मैंने वैगैई के किनारे मंदिर में बैठे हुए ईश्वर की प्रार्थना की और प्रेरणा मांगी। जवाब मिलते ही मैं उन हरिजनों के बर्तनों में से पका हुआ दाल का एक दाना अपने मुंह में डाला। तुरन्त हरिजनों के चहरे प्रसन्नता से खिल उठे। मैंने मन में सोचा आत्मशुद्धि के लिए और सेवाशक्ति बढ़ाने के लिए जो व्रत लिया उसका यत्किंचित् भंग हुआ तो भले हो। लेकिन इन उपेक्षित और बहिष्कृत मानवता का आशा-भंग और विश्वासभंग नहीं होना चाहिये। उन हरिजनों की प्रसन्नता देखकर मुझे विश्वास हुआ कि हरिजनों के हाथ का पका हुआ दाल का एक दाना खाने से मेरा पुण्य बढ़ा ही होगा।

उस दिन की वह पुण्यस्मृति वैगैई नदी के प्रवाह के साथ जुड़ी हुई है। जब-जब मदुरा जाता हूं तब-तब वैगैई नदी का दर्शन किये बिना संतोष नहीं होता। तामिल संस्कृति की वह माता है, पांड्य और चोल राजाओं का वैभव उसने देखा है, तिरुमल नाईक जैसे राजाओं के वैभव को उसने परिपुष्ट किया है। स्थान-स्थान पर राज्य करने वाले पाळीगारों न्यायनिष्ठा और प्रजावात्सल्य उसने पैदा किया है। मीनाक्षी देवी के अवतार-लीला की वह साक्षी है और वैगैई की पुण्य प्रेरणा से ही भारत में हरिजनों को सबसे पहले मंदिर प्रवेश का अधिकार मिला। गांधी जी के अस्पृश्यता निवारण के प्रयासों को सबसे पहली और सबसे बड़ी सफलता वैगैई के किनारे मीनाक्षी के मंदिर में ही मिली। उसके बाद अस्पृश्यता-निवारण का काम बड़ा आसान हुआ। मीनाक्षी के मंदिर में हरिजन जा सके इसके फलस्वरूप सुदूर कन्याकुमारी के मंदिर में हरिजनों को प्रवेश मिल सका।

“आज मैं वैगैई को पतितपावनी कहता हूं क्योंकि उसने सवर्णों जैसे पतितों को सद्बुद्धि देकर पावन किया। उसका माहात्म्य गंगा और यमुना के माहात्म्य से कम नहीं है। जय-जय वैगैई!”

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