पतित पावनी, गंगे!

पतित पावनी, गंगे!
निर्मल-जल-कल-रंगे!

कलकाचल-विमल धुली,
शत-जनपद-प्रगद-खुली,
मदन-मद न कभी तुली
लता-वारि-भ्रू-भंगे!
सुर-नर-मुनि-असुर-प्रसर
स्तव रव-बहु गीत-विहार
जल-धारा-धाराधर-
मुखर, सुकर-कर-अंगे!

रचनाकाल : 16 जनवरी, 1950। ‘अर्चना’ में संकलित

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