पशुपालन

तालाबों और पोखरों की उपेक्षा से मछलियों के उत्पादन में कमी आई है। मधुबनी जिले में, उदाहरण के लिए, कभी 25,000 तालाब हुआ करते थे जिनका क्षेत्रफल लगभग 40,000 हेक्टेयर होता था। अकेले इन तालाबों से 4,00,000 टन मछलियों का उत्पादन संभव था जिसकी मालियत 2000 करोड़ रुपयों तक होती थी। इस क्षमता के बावजूद इस जिले में मछली अब आन्ध्र प्रदेश से आती है। इस इलाके के बाशिन्दों का एक महत्वपूर्ण पेशा पशुपालन हुआ करता था लेकिन कोसी तटबन्धों के बीच इस पर बहुत बुरा असर पड़ा है। तटबन्धों से लगे बाढ़ से तथाकथित रूप से सुरक्षित क्षेत्र में भी ऐसा ही हुआ है। बालू/मिट्टी के जमाव, नदी द्वारा कटाव तथा जल-जमाव के कारण इस इलाके के चरागाह अगर पूरी तरह खत्म नहीं हुये तो निश्चित रूप से बहुत ही सिकुड़ गये हैं। 1950 के दशक तक सहरसा में तीन कम्बल बुनकरों की सहयोग समितियाँ हुआ करती थीं जो कि धीरे-धीरे बन्द हो गईं क्योंकि भेड़ों के चरागाह खत्म हो गये। कमला नदी के क्षेत्र में झंझारपुर में एक घी का कारखाना हुआ करता था जो कि इसी दौरान बन्द हुआ। कृषि क्षेत्र में मशीनीकरण के चलन ने बैलों की उपयोगिता समाप्त कर दी और किसान इन्हें कसाईखाने में भेजे जाने से रोक नहीं पाये। इस इलाके से जानवर बांग्लादेश तक निर्यात होने लगे। बांग्लादेश के चपाई नवाबगंज जिले में पद्मा और महानन्दा के संगम पर बसा गोदागाड़ी घाट एक बहुत बड़ा पशु बाजार है जहाँ भारत से चोरी छिपे नदी मार्ग से जानवर पहुँचाये जाते हैं जहाँ से इनकी पूरे बांग्लादेश में आपूर्ति की जाती है। जल-जमाव के कारण इस पूरे क्षेत्र में पशुओं के अस्तित्व पर चोट पहुँची है और उनकी जिन्दा बचने की दर में कमी आई है। बरसात के मौसम में दूर-दूर तक सूखी जमीन न होने के कारण इन्हें पानी में ही खड़े रह जाना पड़ता है जिससे उन्हें आभा (Foot And Mouth Disease) हो जाती है। बरसात के समय चारा न मिल पाने के कारण पशुओं को अखाद्य वनस्पति खानी पड़ती है जिससे उनकी पाचन क्रिया पर भी बुरा असर पड़ता है और तब वह बड़ी संख्या में मरते हैं। पशुओं के लिए दवाओं की उपलब्धता की स्थिति उतनी ही बुरी है जितनी वह आम आदमियों के लिए है।

मत्स्य पालन


तटबन्ध और बराज के निर्माण के बाद इलाके में मत्स्य पालन भी प्रभावित हुआ है और मछलियों की प्रजातियों की संख्या घटी हैं। मछलियों के प्रवाह की दिशा में आने वाली बाधाओं के कारण ऐसा हुआ है। ग्राम कठघरा पुनर्वास प्रखण्ड सलखुआ, जि॰ सहरसा के राजेन्द्र चौधरी बताते हैं, “.. .हम लोगों ने गरीबी देखना शुरू किया 1970 से, जब से हमारा गाँव कटना शुरू हुआ। उस वक्त तक हमारे यहाँ रोहू, गागर, गोलहा और बोआरी मछलियाँ बहुत होती थीं। इनमें सबसे हलकी मछली का वजन पाँच किलोग्राम होता था। आषाढ़ महीने में इन मछलियों की लम्बी कतार पानी में चलती थी जिसे स्थानीय भाषा में पेंगर या उजहिया कहते थे। अब यह मछलियाँ दिखाई भी नहीं पड़ती। इसके साथ ही कोकचा, कउआ, ढेल्लै, अरुआरी, बेलौनी, सेरन और रेवा आदि मछलियाँ भी समाप्त हो गईं। बड़े-बड़े केकड़े हुआ करते थे, वह भी अब गायब हैं।’’

तालाबों और पोखरों की उपेक्षा से मछलियों के उत्पादन में कमी आई है। मधुबनी जिले में, उदाहरण के लिए, कभी 25,000 तालाब हुआ करते थे जिनका क्षेत्रफल लगभग 40,000 हेक्टेयर होता था। अकेले इन तालाबों से 4,00,000 टन मछलियों का उत्पादन संभव था जिसकी मालियत 2000 करोड़ रुपयों तक होती थी। इस क्षमता के बावजूद इस जिले में मछली अब आन्ध्र प्रदेश से आती है। फ्रान्सिस बुकानन ने जब उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में कोसी क्षेत्र का दौरा किया था तब उन्होंने यहाँ मछलियों की 134 प्रजातियों का जिक्र किया था। इस तरह से एक तरफ जहाँ मछलियों की उपलब्ध प्रजातियों की संख्या घटी है वहीं मछलियों को प्रजनन के लिए दूसरे ठौर खोजने पड़े हैं। हिलसा मछली कभी ऋषिकेश के ठण्डे पानी में अंडे देती थी मगर फरक्का बराज के निर्माण से समुद्र की ओर से इन मछलियों के आवागमन में बाधा पड़ी है। गंगा मुक्ति आन्दोलन के अनिल प्रकाश बताते हैं कि, “... (फरक्का बराज के निर्माण के कारण) समुद्र से आने वाली मछलियों की आमद रुकी है। हिलसा, झींगा और बनास जैसी मछलियों की प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर पहुँच गई हैं। आठ राज्यों का पानी मिल कर गंगा में आता है। इन राज्यों में गंगा के जरिये मछलियाँ फरक्का होते हुये पहुँचती हैं। फरक्का बराज के कारण तीन चौथाई मछलियाँ नष्ट हो जाती हैं जिससे देश को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। करीबन डेढ़ करोड़ मछुआरों की जीविका इस तरह से समाप्त हो गई है।’’

ईंधन


तटबन्ध निर्माण के पहले पुआल, खर, कंडे, लकड़ी और ढैंचा आदि मुख्य ईंधन के स्रोत हुआ करते थे। पेड़ पौधों की बहुतायत थी और ईंधन वर्ष के अधिकांश भाग में उपलब्ध रहता था। केवल बरसात के मौसम में ही थोड़ी बहुत दिक्कत ईंधन के लिए हुआ करती थी। तत्कालीन ग्रामीण परिवेश में यह ईंधन प्रायः मुफ्त उपलब्ध होता था। तटबन्धों के निर्माण से पेड़ों की बहुत-सी प्रजातियाँ इतना ज्यादा जल-जमाव और बालू का दबाव बर्दाश्त नहीं कर पाईं और धीरे-धीरे समाप्त हो गईं। इससे ईंधन की किल्लत होना शुरू हुई और पुराने ईंधन के स्थान पर मिट्टी का तेल, कोयला, आयातित लकडि़यों और मनिजरा का दखल इस क्षेत्र में बढ़ा। इस तरह से तटबन्ध-निर्माण के पहले जो ईंधन की कमी केवल बरसात के मौसम में महसूस की जाती रही वह अब पूरे साल की समस्या बन गई। इस समस्या का सबसे परेशान करने वाला पहलू यह है कि इसकी कीमत पैसा देकर चुकानी पड़ती है। आज के समय एक औसत आकार का परिवार महीने में 400-500 रुपये ईंधन पर खर्च करने के लिए मजबूर है। अब जरूरत इस बात की है कि ईंधन के लिए वनस्पतियों की वह किस्में खोजी जायें जो कि जल्दी तैयार हों और उन पर बालू जमाव और लम्बे समय तक रहने वाले जल-जमाव का बुरा असर न पड़े।

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Post By: tridmin
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