पश्चिमी तटबन्ध का समानी और घोंघेपुर कटाव (1987)

इसी तरह की घटना 1987 में पश्चिमी कोसी तटबन्ध पर समानी और घोंघेपुर गाँवों के पास घटी। तटबन्ध के आखिरी छोर पर होने के कारण इन गाँवों में वैसे भी पानी भरा ही रहता था। तटबन्ध के टूटने की घटना ने थोड़ी तबाही और बढ़ा दी। लेकिन यहाँ लोग उतने भाग्यशाली नहीं थे जितने कि डलवा या बहुअरवा में थे। यहाँ लोगों को तटबन्ध टूटने की त्रासदी झेलनी ही पड़ी थी।

पश्चिमी कोसी तटबन्ध का जोगिनियाँ (नेपाल) कटाव (1991)


तटबन्ध अगर कट जाता है और नदी के पानी का लेवल आस-पास की जमीन से ऊपर रहता है तो नदी तटबन्ध तोड़ कर बाहर निकल आयेगी और उसका पानी अपनी मर्जी की राह चुनेगा और कहाँ-कहाँ तबाही मचायेगा यह कह पाना मुश्किल है। इस बात को न केवल बिहार सरकार के इंजीनियर जानते थे बल्कि आस-पास रहने वाले लोग भी अच्छी तरह समझते थे। तटबन्ध की सुरक्षा सुनिश्चित करना इंजीनियरों का काम था जिसकी वजह से उन पर बहुत ज्यादा दबाव था।

तटबन्ध के कटाव की यह अपने तरह की अब तक की आखिरी घटना है यद्यपि उस तरह की दुर्घटना पहले भी डलवा, बहुअरवा और भटनियाँ में हो चुकी थी मगर इस घटना ने राज्य में एक राजनीतिक भूचाल खड़ा कर दिया। घटनाक्रम कुछ इस प्रकार है। कोसी प्रोजेक्ट तो वैसे भी प्रदेश के राजनीतिज्ञों, इंजीनियरों और ठेकेदारों की चरागाह के तौर पर मशहूर था और अभी भी बहुत कुछ बदला नहीं है। कोसी के अलावा भी प्रान्त की बहुत सी नदियों पर बने तटबन्ध आये दिन टूटा करते हैं और यह कभी भी न रुकने वाला सिलसिला है। 1990 में प्रान्त में लालू प्रसाद की सरकार बनी और उनके काबीना में जल संसाधन विभाग के मंत्री ने बाढ़ नियंत्रण पर किये जाने वाला वार्षिक खर्च को पहले के मुकाबले काफी घटा दिया गया और कई बार उन्होंने सार्वजनिक रूप से भी इस आशय के बयान दिये कि वह उन सारे छेदों को बन्द कर देंगे जिनसे होकर बाढ़ नियंत्रण का पैसा बह जाया करता था।

यहाँ तक तो सब ठीक था मगर उनसे सिर्फ एक गलती हो गई। भावातिरेक में उन्होंने एक बार 1991 में विधान सभा में यह बयान दे दिया कि अगर कोई तटबन्ध टूटता है तो वह अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। इस तरह का बयान देकर वह अव्यावहारिकता की सीमा में काफी अन्दर तक घुस गये। निश्चित रूप से उनके मन में यह बात रही होगी कि अपने प्रयासों से वह प्रान्त के सारे तटबन्धों की सुरक्षा सुनिश्चित कर लेंगे और उन्हें किसी ने विश्वासपूर्वक यह समझा दिया था कि तटबन्ध केवल भ्रष्टाचार के कारण ही टूटते हैं जबकि सच यह है कि तटबन्ध तकनीकी कारणों से भी टूटते हैं और ऐसे हालात बन जाते हैं कि पूरी निष्ठा, मेहनत और ईमानदारी से बनाये गये तटबन्ध को भी ध्वस्त होते देर नहीं लगती। भ्रष्टाचार तटबन्ध टूटने की घटनाओं को बढ़ाता जरूर है और उनकी बारम्बारता सुनिश्चित करता है मगर वह तटबन्ध टूटने का अकेला कारण नहीं हो सकता है। यही वजह है कि इंजीनियरों का एक अच्छा खासा तबका सैद्धान्तिक रूप से तटबन्धों के माध्यम से बाढ़ नियंत्रण किये जाने का विरोध करता है। यह बात उनको शायद किसी ने समझाई नहीं और न ही एक अतिवादी बयान देने से उन्हें रोका। तटबन्ध का टूटना मृत्यु की ही तरह एक शाश्वत सत्य है जिसे औषधि-उपचार कर के टाला तो जा सकता है मगर रोका नहीं जा सकता है। किसी की मृत्यु कब और कहाँ होगी यह कोई नहीं जानता और ठीक उसी तरह कोई तटबन्ध कब और कहाँ टूटेगा, यह भी निश्चित नहीं है। तटबन्ध मिट्टी की जगह अगर लोहे का भी बना दिया जाय तो भी 1954, 1955, 1968, 1971,1984, 1987, 1998, 2000 या 2004 जैसा प्रवाह नदी में आने पर पानी तटबन्ध के ऊपर से बह निकलेगा और उतना ही नुकसान पहुँचायेगा जितना कि मिट्टी का तटबन्ध टूटने से पहुँचाता है। हाँ! लोहे का तटबन्ध जरूर अपनी जगह पर खड़ा रहेगा। तटबन्ध टूटने की यह अनिश्चितता तब और ज्यादा बढ़ जाती है जब मुकाबले में कोसी जैसी उच्छृंखल स्वभाव वाली नदी हो। खुद बिहार में जून से लेकर नवम्बर तक और घाघरा से लेकर महानन्दा तक तटबन्ध टूटने का एक लम्बा इतिहास उपलब्ध है और यह सारी दरारें केवल भ्रष्टाचार या लापरवाही के कारण नहीं पड़ी होंगी।

इतना कह लेने के बाद हम जोगिनियाँ चलते हैं। जोगिनियाँ नेपाल में भारदह के पास स्थित एक गाँव है जिसके बगल से कोसी का पश्चिमी तटबन्ध (बराज से कि. मी.) गुजरता है। नेपाल में कोसी नदी के तटबन्धों के रख-रखाव का जिम्मा बिहार के जल-संसाधन विभाग का है। यहाँ नदी ने 14 जुलाई 1991 से ही तटबन्ध पर दबाव बना रखा था और 16 जुलाई 1991 को कोसी इसी 3 से 4 कि. मी. के बीच तटबन्ध से सट कर बहने लगी थी। नदी ने अपने किनारों का उल्लंघन तो नहीं किया मगर तटबन्ध से सट कर बहने के कारण तटबन्ध का कटाव शुरू कर दिया। इस दिन नदी का प्रवाह 6660 क्यूमेक (2,35,070 क्यूसेक) था और पानी की सतह आस पास की जमीन से सिर्फ 25 सेन्टीमीटर (प्रायः 10 इंच) नीचे थी। बांध की सुरक्षा की दृष्टि से यह स्थिति खतरनाक थी क्योंकि अगर नदी के पानी का लेवल बढ़ने लगे और कटाव जारी रहे तो तटबन्ध की खैर नहीं थी। तटबन्ध अगर कट जाता है और नदी के पानी का लेवल आस-पास की जमीन से ऊपर रहता है तो नदी तटबन्ध तोड़ कर बाहर निकल आयेगी और उसका पानी अपनी मर्जी की राह चुनेगा और कहाँ-कहाँ तबाही मचायेगा यह कह पाना मुश्किल है। इस बात को न केवल बिहार सरकार के इंजीनियर जानते थे बल्कि आस-पास रहने वाले लोग भी अच्छी तरह समझते थे। तटबन्ध की सुरक्षा सुनिश्चित करना इंजीनियरों का काम था जिसकी वजह से उन पर बहुत ज्यादा दबाव था। उधर स्थानीय लोगों में घर बैठे-बिठाये जल-प्रलय की आशंका का आक्रोश था। ऊनती नदी, कटाव के प्रति आशंकित नेपाली जनता और उनकी सुरक्षा के लिये जिम्मेवार भारतीय इंजीनियर, यह सारे लोग एक ही जगह मौजूद थे जहाँ तटबन्ध के बचाव का काम चल रहा था। इस वजह से माहौल काफी तनावपूर्ण बन गया था। शाम को साढ़े चार बजे नेपाल क्षेत्र के इंजीनियर-इन-चीफ ने स्थल का निरीक्षण किया। उनके साथ नेपाल क्षेत्र के प्रमुख जिला पदाधिकारी, राज बिराज के एस. पी. और डी. एस. पी. तथा नेपाल के दो वरिष्ठ इंजीनियर भी थे। इंजीनियर-इन-चीफ के चले जाने के बाद शाम को 7 बजे नेपाल के सारे अधिकारी साइट से चले गये। अब वहाँ केवल तीन नेपाली पुलिसकर्मी मौजूद थे जो कि किसी भी अप्रिय घटना को रोकने में असमर्थ थे।

जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे स्थानीय लोग ज्यादा से ज्यादा तादाद में वहाँ इकट्ठा होने लगे। फिर नारेबाजी और हंगामे के हालात पैदा हो गये। ‘‘ काफी उत्तेजना थी। कोई कह रहा था कि जान-बूझ कर बांध तुड़वाया जा रहा है। किसी की शिकायत थी कि पिछले तीन चार वर्षों में किये गये कार्यों का भुगतान नहीं किया जा रहा है। जब बाढ़ आती है विभाग कह-सुन कर, झूठा वादा कर काम करा लेता है बाद में इसके भुगतान को बोगस कह कर फण्ड नहीं देता है, इस बार कोई लोकल आदमी साथ नहीं देगा। देखें कहाँ का ठेकेदार आकर काम करता है और बांध बचाता है। कुछ लोग कह रहे थे कि नजदीक में ही बहुत से ठेकेदारों का बोल्डर और क्रेट पड़ा है, उसे ले लिया जाय।’’48 रात 8 बजे के आस-पास नेपाली श्रमिकों और ट्रक वालों ने काम बन्द कर दिया। एक तरफ यह असहयोग, दूसरी ओर आक्रोशित भीड़ और तीसरी ओर तटबन्ध के कटाव ने स्थिति बहुत तनावपूर्ण बना दी। रात को 2 बजे (17 जुलाई की सुबह) नेपाली पुलिस ने भारतीय इंजीनियरों को बताया कि स्थिति नाशुक है और वह स्थल छोड़ कर चले जायें।

17 जुलाई 1991 को नेपाल के अधिकारी एक बार फिर कार्य स्थल पर आये और बीरपुर से चीफ इंजीनियर भी साइट पर पहुंचे। इस समय तक तटबंध का नदी की तरफ वाला ढाल कट चुका था। साइट पर पहुंचने से पहले चीफ इंजीनियर की गाड़ी पर राज बिराज चैक पर स्थानीय लोगों ने पथराव किया था। इसमें चीफ इंजीनियर तो बच गये थे मगर उनकी गाड़ी क्षतिग्रस्त हो गई। उसी दिन नेपाल के जल संसाधान मंत्री और नेपाल में भारत के राजदूत ने भी कटाव स्थल का दौरा किया और 11 बजे के करीब बिहार के जल संसाधन सचिव और गंगा फ्लड कंट्रोल कमीशन के अध्यक्ष ने हवाई जहाज से काफी नीची उड़ान भरते हुए कटाव को देखा। इस समय लगभग 300 मीटर लंबाई में तटबंध का ढाल कट चुका था और शाम होते-होते तटबंध के शीर्ष का भी आधा हिस्सा कट गया। नदी लेकिन अभी भी अपने दायरे में थी। भारतीय अधिकारियों ने पर्याप्त सुरक्षा के अभाव में काम करना उचित नहीं समझा और भारदह से बीरपुर चले गये।

18 जुलाई 1991 को जोगिनियां में तटबंध टूटने को लेकर बिहार विधान सभा में जल संसाधन मंत्री के इस्तीफे की मांग की गई। सदस्यों ने जल संसाधान मंत्री को याद दिलाया कि उन्होंने इसी सदन में कुछ दिन पहले कहा था कि ‘इस साल यदि राज्य में कहीं भी तटबंध टूटेगा तो वह अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। अतः नैतिकता, मंत्री की वचन बद्धता तथा सदन की मर्यादा का हवाला देते हुए जल संसाधन मंत्री से मांग की गई कि वह अपना त्यागपत्र दें।’ इस्तीफा मांगने वालों में विपक्ष के साथ-साथ सत्ताधारी पार्टी के भी सदस्य थे। सदस्यों ने यह भी आरोप लगाया कि ‘तटबंध कल शाम में टूटा है और निर्मली सहित सहरसा जिले के अनेक भागों में पानी आ गया।’ विपक्ष के नेता ने मंत्री पर आरोप लगाया कि प्श्चिमी तटबंध पर खतरा पिछले एक साल से मंडरा रहा था तब सरकार क्या कर रही थी? मुख्य मंत्री लालू प्रसाद उस दिन सदन में नहीं थे और जल संसाधन मंत्री ने भोजनावकाश के पहले अपना त्यागपत्र दे दिया और सदन छोड़ कर चले गये।

अपना त्यागपत्र देने के पहले जल संसाधन मंत्री ने सदन को बताया कि ‘‘ जिस स्थान पर तटबंध टूटने की बात कही जा रही है वहां पानी का दबाव 14 जुलाई से महसूस किया जा रहा था और इसकी जानकारी बिहार सरकार को थी, लेकिन वह स्थान नेपाल में है और उसकी अनुमति के बगैर हम कोई काम नहीं कर सकते थे। तटबंध की सुरक्षा के लिए पर्याप्त लोहा, पत्थर हमने वहां इकट्ठा कर लिया था। हमारे अधिकारी मौजूद थे। सारी तैयारी थी, मगर ठेकेदारों ने हमें कोई काम करने नहीं दिया। न तो बिहार सरकार काम करवा सकी और न नेपाल सरकार-ठेकेदारों को वहां प्रतिवर्ष साढ़े चार करोड़ रुपए चाहिए और जो उन्हें इतनी राशि नहीं देगा, उसे काम नहीं करने देंगे। ठेकेदारों को यह रकम सालों-साल दी जाती रही है। यदि ऐसा नहीं होगा तो बांध तोड़े जाएंगे।’’

हमारे खेत, बाग-बगीचे और गांव, सब कुछ कोसी तटबंध के बीच थे। हमारे पास जो कुछ भी था वह नदी की धारा बदलते रहने के कारण खत्म हो गया और जो बाकी बचा था वह इस कटाव में चला गया। नदी 1991 में तटबंध के बहुत पास आ गई थी जोगिनियां में। यहां तटबंध पर कोई स्पर नहीं था इसलिए तटबंध पर खतरा बढ़ गया। अगर इस तटबंध को तोड़ कर पानी बाहर आ गया होता तो नेपाल के बहुत से गांव साफ हो जाते। बात यहीं खत्म नहीं होती। कोसी और तिलयुगा के बीच में भारत में बसे गांवों का भी यही हाल होता।

मंत्री ने यह भी कहा कि, ‘‘उसी दिन (14 जुलाई) सहरसा के जिलाधिकारी सहित जल संसाधन विभाग के तमाम वरिष्ठ अधिकारी कटाव स्थल की ओर कूच कर गए, लेकिन ठेकेदारों ने उस क्षेत्र में अधिकारियों को घुसने नहीं दिया। तब से आज तक ठेकेदार उस क्षेत्र पर कब्जा जमाए बैठे हुए हैं ... कटाव स्थल पर काबिज ठेकेदारों का कहना है कि बचाव कार्य के लिए उनसे बोल्डर्स खरीदे जाएं जबकि उसी स्थल के निकट राज्य सरकार की ओर से एक लाख घन फुट बोल्डर एंव 80 मीट्रिक टन तार (जिससे क्रेट बनाए जाते हैं) मौजूद है। उन ठेकेदारों ने स्थानीय करीब दो-ढाई हजार नेपाली नागरिकों के साथ नेपाली कटाव स्थल को घेर रखा है और सौदेबाजी के लिए अड़े हुए हैं। ... भारतीय मूल के करीब 20-22 ठेकेदारों ने धमकी दे रखी है कि बिहार सरकार डेढ़ करोड़ रुपए दे तो बचाव करने देंगे अन्यथा नहीं। ... पिछले साल नेपाल में उसी तटबंध पर मरम्मत के काम में वर्षो से जारी ‘लूट’ को रोका गया था और उससे राज्य सरकार ने ढाई करोड़ रुपयों की बचत की थी। उसी रुपए से इस साल बारिश आने से पूर्व ही मरम्मत के तमाम कार्य पूरे किए गए।’’

18 जुलाई 1991 को ही दोपहर बाद से जोगिनियां के कटाव स्थल पर नेपाली पुलिस और शाही सेना पहुंच गई जिनके संरक्षण में भारतीय इंजीनियरों ने फिर से काम करना शुरू किया। रिटायर्ड लाइन निर्माण कार्य में भी हाथ लगा और कुछ दिनों में यह काम पूरा कर लिया गया।

पटना में ग़ुबार लेकिन अभी भी शांत नहीं हुआ था। जल-संसाधन मंत्री ने इस्तीफा जरूर दे दिया था और अब यह करीब-करीब निश्चित हो गया था कि तटबंध टूटा हो या कटा हो, उससे कोई नुकसान नहीं हुआ था और यह भी तय हो गया था कि सहरसा तथा मधुबनी जिलों तक पानी फैलने की खबर सिर्फ अफवाह थी। इसकी पुष्टि जय प्रकाश नारायण यादव, राज्य मंत्री, जल संसाधन विभाग के एक बयान से हुई। अब बहस ‘तटबंध टूटने’ और ‘तटबंध क्षतिग्रस्त’ होने के शब्द विन्यास की ओर मुड़ गई। मान्यता यह बनती दिखाई पड़ती थी कि अगर तटबंध से होकर नदी का पानी बाहर आने लगे तो तटबंध टूटा हुआ है और अगर ऐसा न हो तो क्षतिग्रस्त कहलाता है। विधायक रघुनाथ झा फिर भी मानने को तैयार नहीं थे कि बांध के कटाव के बावजूद पानी बाहर नहीं गया। उनका कहना था कि, ‘‘ हम सभी लोग जानते हैं कि जब नदी के बांध का कटाव होगा, पानी जाएगा ही दूसरी तरफ , इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।’’ सच यह था कि भटनियां और बहुअरवा में भी इसी तरह की घटना हुई थी जबकि तटबंध कटा था मगर पानी बाहर नहीं गया था और तब न किसी मंत्री का इस्तीफा मांगा गया और न उसने दिया। 1968 में जब जमालपुर के पास पांच जगह तटबंध टूटा था तब प्रांत में राष्ट्रप्ति शासन था। डलवा में जरूर तटबंध कटने के बाद कुछ पानी बाहर गया था। मगर इस बार तटबंध टूटे या क्षतिग्रस्त जो भी रहें हों, जल संसाधन मंत्री ने तो त्यागपत्र दे ही दिया था। मामला शांत तब हुआ जब विधान सभा अध्यक्ष ने पूरे प्रकरण की जांच के लिए एक विशेष 11 सदस्यीय समिति का गठन किया। इस समिति ने अपना प्रतिवेदन 30 मार्च 1993 को दिया और तटबंध को ‘क्षतिग्रस्त’ पाया और लिखा कि, ‘‘ यदि दिनांक 16 व 17 जुलाई 1991 को अप्रिय घटना कार्यस्थल पर नहीं घटती तो इस बात की पूरी संभावना थी कि युद्ध स्तर पर कार्य कर कोसी तटबंध को क्षतिग्रस्त होने से बचाया जा सकता था। यह दुख की बात है कि कि विभागीय क्षमता तथा सामग्री की उपलब्धता होते हुए भी, अपरिहार्य कारण से घटना स्थल पर कार्य संपन्न नहीं कराया जा सका। जब नेपाल सरकार के पदाधिकारियों और भारतीय अभियंताओं में और अधिक समन्वय हो गया तब कार्य रेकार्ड अवधि में पूरा कर लिया गया।’’

जोगिनियां का तटबंध कटा था, टूटा नहीं था। यह महज इत्तिफाक था कि नदी का लेवल अपने किनारों से नीचे बना रहा और कोई विपत्ति नहीं पड़ी। अगर यह लेवल 30 सेंटीमीटर नीचे बने रहने के बजाय 30 सेंटीमीटर ऊपर रहता तो हालात एकदम अलग होते। वैसी परिस्थिति में नेपाल में सप्तरी जिले के बरसाइन, कोइराली, हनुमान नगर, मधेपुरा, डलवा, रमपुरा, जोगिनियां, परसाही, बभनगामा, तिलाठी, भेलही, इनरवा, लोनियां, सरबुहा, कुसहर और परसा डीह जैसे गांव भयंकर दुर्घटना के शिकार होते। पानी सिर्फ इन्हीं गांवों को बर्बाद नहीं करता वह नीचे जाकर मधुबनी और सुपौल जिलों के गांवों में भी तबाही मचाता और वापस नदी में जाने की कोशिश में कम से कम एक जगह तटबंध को कहीं और तोड़ता। गंगा प्रसाद यादव, ग्राम जोगिनियां, पो0 हनुमान नगर, जिला सप्तरी, नेपाल का कहना है कि, ‘हमारे खेत, बाग-बगीचे और गांव, सब कुछ कोसी तटबंध के बीच थे। हमारे पास जो कुछ भी था वह नदी की धारा बदलते रहने के कारण खत्म हो गया और जो बाकी बचा था वह इस कटाव में चला गया। नदी 1991 में तटबंध के बहुत पास आ गई थी जोगिनियां में। यहां तटबंध पर कोई स्पर नहीं था इसलिए तटबंध पर खतरा बढ़ गया। अगर इस तटबंध को तोड़ कर पानी बाहर आ गया होता तो नेपाल के बहुत से गांव साफ हो जाते। बात यहीं खत्म नहीं होती। कोसी और तिलयुगा के बीच में भारत में बसे गांवों का भी यही हाल होता।’

वास्तव में गांवों में रहने वाले लोग पानी के प्रवाह की दिशा और उसकी गहराई को बहुत अच्छी तरह पहचानते हैं और वह बिना किसी डम्पी लेवल या थियोडोलाइट के यह बता सकते हैं कि किस जगह पर तटबंध टूटने पर नदी का पानी कहां-कहां तक जायेगा और कितना नुकसान पहुंचायेगा। लेकिन तटबंध क्षतिग्रस्त हो जाने के बाद केवल अनुमान के आधार पर इस तरह की खबरें अखबारों में आने लगी थीं जो सच्चाई से काफी परे थीं। इस तरह की एक घटना पहले भी अगस्त 1988 में बिहार-धरान भूकम्प के समय हुई थी। 21 अगस्त को आये इस भूकम्प में एक दिन समाचार पत्रों में यह खबर आई कि भूकम्प के कारण भुतही बलान के तटबंध में दरार पड़ गई है। इतनी खबर सच्ची थी मगर जब दूसरे दिन यह खबर आई कि इस दरार की वजह से फलां-फलां गांव में पानी भर गया है और भीषण तबाही हुई है तब लोगों की भवें तनीं क्योंकि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। घटना कुछ यूं हुई कि भूकंप के कारण भुतही बलान तटबंध के ऊपर लंबाई में दरार पड़ी जबकि तटबंध सलामत था। अब क्योंकि पहले दिन तटबंध में दरार की खबर आ गई थी और उसमें उस जगह का भी जि़क्र था जहां यह दरार पड़ी थी तो दूसरे दिन संवाददाता ने आगे की खबर बिना इलाके के निरीक्षण के ही बना दी। वह जानता था कि जिस जगह दरार पड़ी है वहां से पानी अगर निकल जाता है तो वह किन-किन गांवों में फैलेगा। बस बन गया समाचार। ऐसा ही कुछ जोगिनियां में हुआ था। इस तरह की अफवाहें केवल समाचार पत्रों तक ही सीमित नहीं रहतीं, बहुत से जिम्मेवार लोग न केवल इन बातों पर विश्वास करते हैं बल्कि उन्हें फैलाने का भी कार्य करते हैं। जोगिनियाँ में तटबन्ध के कटाव की चर्चा नेपाल की एक पत्रिका में कुछ इस तरह से हुई ‘‘नेपाल में समाचार पत्रों में इस तरह की खबरें छपी हैं कि हनुमान नगर के पास प्श्चिमी तटबंध में 400 मीटर चौड़ी पड़ी एक दरार के कारण सप्तरी जिले के 12 गांवों के 50,000 लोगों का विस्थापन हुआ है। इसके साथ ही दबी जबान में यह इशारा भी किया गया है कि क्योंकि इस घटना की जिम्मेवारी भारत की है अतः आगे की व्यवस्था भी उसे ही करनी चाहिये। यह एक दिलचस्प बात है कि नेपाली समाचार पत्रों में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि इस प्रलय में सहरसा और मधुबनी जिलों में भी कोई 1,50,000 लोग बेघर हो गये।’’ जाहिर है न तो 1988 की भुतही बलान के तटबन्ध से भूकंप में हुई तबाही की घटना सच्ची थी और न ही 1991 में जोगिनियां में तटबन्ध टूटने से सहरसा और मधुबनी जिले में 1,50,000 लोग बेघर हुये। सहरसा तो वैसे भी जोगिनियाँ के कटाव से किसी भी हालत में प्रभावित नहीं हो सकता।

नेपाल में कोसी तटबंधों की मरम्मत में लगे ठेकेदारों की बात किये बगैर इस पूरे प्रकरण को समाप्त कर देना ठीक नहीं होगा। उनका पक्ष रखते हैं हनुमान नगर, जिला सप्तरी, नेपाल के दुर्गानन्द झा जिनका कहना है कि, ‘ भारत सरकार की दो समितियां है जो कि यहां किये जाने वाले काम के बारे में फैसला करती हैं। इनमें से एक टेकनिकल एडवाइजरी समिति है और दूसरी हाई लेवल कमिटी है। इन दोनों समितियों के सदस्यों का दौरा यहां सूखे मौसम में होता है जिसकी वजह से बरसात के मौसम में यहां हाल किस तरह बदल जाता है उसका उन्हें अहसास ही नहीं होता। यहां के इंजीनियर जो कुछ भी प्रस्ताव करते हैं यह समितियां उन्हें अस्वीकार कर देती हैं। 2002 में यहां कोसी प्रोजेक्ट के इंजीनियरों द्वारा 2.25 किलोमीटर पर एक स्पर का प्रस्ताव किया गया जिसे समिति ने खारिज कर दिया। नदी आजकल प्श्चिमी कोसी नहर के बहुत पास आ गई है और यहां जल्दी ही कटाव-रोधी काम किये जाने चाहिये मगर कहां कुछ हो रहा है? हम लोग कोई सुझाव देने की हैसियत ही नहीं रखते। 1998 में 9वें किलोमीटर पर हालात बिगड़ चले थे। बहुत से ठेकेदार मैदान छोड़ कर चले गये। मैंने 1989 में 5.80 किलोमीटर पर काम करवाया था मगर आज तक (2004) उसका भुगतान नहीं हुआ। 1988 में भी मैंने भारत-नेपाल सीमा पर कुनौली के पास काम करवाया था उसका भी पैसा नहीं मिला है। सौ से ऊपर मजदूरों ने काम किया होगा। हम लोगों ने चीफ इंजीनियर, सुपरिटेंडेंट इंजीनियर और एक्जीक्यूटिव इंजीनियर से बीरपुर जाकर मिलने का प्रयास किया मगर कोई नतीजा नहीं निकला। 1988 से आज तक पैसा नहीं मिला। बड़े ठेकेदारों का कोई काम नहीं अटकता मगर हम छोटे लोग हमेशा मारे जाते हैं।’’

गंगा प्रसाद यादवगंगा प्रसाद यादवइसका यह मतलब कतई नहीं है कि जोगिनियां की घटना को हल्के से लिया जाये। इस ‘क्षतिग्रस्त’ हुए तटबंध की मरम्मत पर ही 5 करोड़ 17 लाख रुपए खर्च हुए और 19.80 लाख रुपए का मुआवजा नेपाल में स्थाई और अस्थाई भूमि के अर्जन, पेड़ों तथा फसल की क्षतिपूर्ति और मकान हटाने के खर्च के रूप में भारत को अदा करना पड़ा था। मुआवजे की यह रकम नेपाल में सरकारी बैंक खाते में जमा कर दी गई और इसका भुगतान नेपाल सरकार को अपने नागरिकों को करना था। इस भुगतान में हुई देरी का नतीजा भी भारतीय इंजीनियरों को 1992 के मरम्मत कार्य के समय भोगना पड़ा था जिसमें उनकी कोई गलती नहीं थी। इंजीनियरों को जो मानसिक प्रताड़ना और जिस दुव्र्यवहार का सामना करना पड़ा वह इन सबसे अलग था। यहां बिहार में जल संसाधन मंत्री को जो त्यागपत्र देना पड़ गया वह भी अपने आप में अभूतपूर्व था। यह एक अलग बात है कि दो साल के अनुभव ने 1993 में तटबंधों के प्रति उनकी मान्यता बदल दी। ...’’ अगर 3,700 किलोमीटर लम्बे तटबंधों में दो एक जगह दरार पड़ जाती है तो आप इसे यह तो नहीं कह सकते कि हम तटबंधों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं। आखि़रकार, हम हर खतरे से निपट लेने की व्यवस्था तो नहीं बना पाये हैं। अगर ऐसा करना है तो जो खर्च आयेगा उसे संभालना मुश्किल होगा।’’ सच यह है कि यह दरारें कभी भी इक्का-दुक्का न पड़ कर थोक में पड़ती हैं और यह भी गलत नहीं है कि इनमें से अधिकांश घटनाएं विभागीय लापरवाही और अकर्मण्यता के कारण पड़ती हैं।

कहते हैं कि कोसी प्रोजक्ट में ठेकेदारी करना कोई व्यवसाय नहीं है महश आमदनी का एक जरिया है जिसे कुछ राजनैतिक परिवारों का संरक्षण प्राप्त है। राजनीति चलाने के लिए संसाधन चाहिये और वह इसी तरह के किये या न किये गये कामों से जुटते हैं। जो जनता है वह यह समझती है कि यह योजनाएं उसके लाभ के लिए बनी हैं, कागजों और प्रोफाइलों में लिखा भी यही जाता है मगर जो नियंता है वह इन योजनाओं को एक दुधारू गाय की तरह से देखता है जिसकी सारी देखभाल का एकमात्रा उद्देश्य गाय को दुह लेना होता है। कौन सा काम कितना जरूरी है यह व्यवस्था तय करती है। किसी काम से जनता को और निहित स्वार्थों को कितना फायदा होता है, यह इसी निर्णय में निहित होता है और इस निर्णय पर न तो कोई अंकुश है और न ही फ रियाद या सुझाव की गुंजाइश। जल संसाधन मंत्री 1991 में भी 2.5 करोड़ रुपया बचा लेना चाहते थे मगर जितना बचा नहीं, उसका दुगुना खर्च करना पड़ गया। इसे कहते हैं चौबे जी गये छब्बे बनने और दुबे बन कर लौटे। इसलिए तटबंधों की मरम्मत का काम अपनी रफ्तार से चल रहा है और भविष्य में भी चलता रहेगा। 1993 में विधान सभा में बाढ़ पर हुई बहस में बोलते हुये डॉ. जगन्नाथ मिश्र ने कहा था कि, ‘‘सिंचाई मंत्री ने सदन में ऐलान किया था कि तटबंध टूटे नहीं थे जबकि समिति की रिपोर्ट में था कि तटबंध टूटे थे। मैं इस विवाद में नहीं जाना चाहता हूं ... पहले यह व्यवस्था हुआ करती थी कि 24 घंटे तक तटबंध की हिफाजत की जाती थी और तटबंध पर विभाग का शिविर लगाया जाता था, पुलिस की व्यवस्था हुआ करती थी लेकिन हम देखते हैं कि वह मुस्तैदी न सिंचाई विभाग से हुई और न जिला प्रशासन की तरफ से ही हुआ... अब अगर आगे तटबंध टूटेगा अगस्त और सितंबर में तो हम किसी को माफ नहीं करेंगे और विधान सभा भी मुख्यमंत्री और सिंचाई मंत्री को माफ नहीं करेगी।’’

सच यह है कि सारे सिंचाई विभाग, पुलिस व्यवस्था, जिला प्रशासन की मौजूदगी में और सभी पार्टियों की सरकारों के दौरान तटबंध टूटते थे, आज भी टूट रहे हैं और भविष्य में भी टूटते रहेंगे। नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप, आश्वासन, प्रशासन और इंजीनियरों को जिम्मेवार ठहराना, माफी मांगना/मंगवाना, इस्तीफा देना/दिलाना-यह सब व्यावहारिक राजनीति के अंग हैं। इनका आम आदमी के योग-क्षेम से कोई लेना देना नहीं होता। जहां तक कोसी तटबंधों का सवाल है डलवा, जमालपुर, भटनियां, बहुअरवा, हेमपुर, समानी-घोंघेपुर या फिर जोगिनियां की घटना तो सिर्फ तबाही के रास्ते की शुरुआत भर है, इनमें से कोई भी घटना आखिरी नहीं है। नदी अगर मेहरबान होगी तो कुनौली, बहुअरवा और जोगिनियां दुहराया जायेगा और नदी की नामेहरबानी की हालत में डलवा, जमालपुर, भटनियां, हेमपुर और समानी-घोंघेपुर की पुनरावृत्ति होगी। कोसी के दोनों तटबंधों पर दर्जनों की संख्या में कमजोर बिंदु हैं जहां हर साल अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ती है, कभी रेलवे के इंजीनियरों की मदद से तो कभी सेना की मदद से। तटबंध अगर सलामत रह जाता है तो यह जनता के भाग्य से होता है और अगर टूट जाता है तो उसके पीछे किन-किन लोगों की दुआओं का असर होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। हमारा जल संसाधन विभाग शुद्ध भारतीय परंपरा के अनुसार तटबन्ध रक्षा का कर्म करेगा और फल की प्राप्ति भगवान पर छोड़ देगा और जनता ‘जाहि विधि राखै राम ताहि विधि रहिये’ का भजन तब तक गाती रहेगी जब तक वह जागरूक नहीं होगी।

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Post By: tridmin
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