कदम कदम पर लिंगभेद की चुनौती
महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक ताकत को एक ढांचागत रूप देने के उद्देष्य से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून (नरेगा) में कुछ स्पष्ट व्यवस्थाएं बनाने और हकों को कानूनी रूप से परिभाषित करने की कोशिशें हुई हैं। पश्चिम बंगाल के पश्चिम दरिकापुर गांव की जानकी भक्ते दिन भर मछली और केकड़े पकड़कर गांव के बाजार में बेचकर 25 से 30 रूपये कमाती हैं। और इसी से उसके परिवार के पाँच सदस्यों की जिन्दगी चलती है। वह रोजगार गारंटी कानून के बारे में जानती है और 75 रूपये की न्यूनतम मजदूरी के बारे में भी। फिर भी वह नरेगा में काम नहीं करती क्योंकि उसे हर रोज मेहनत करके कमाकर पैसा घर में लाना होता है, तभी बच्चों को खाना मिलता है। वह 30 दिन तक मजदूरी के लिए इंतजार नहीं कर सकती है। उत्तार महिन्द्रापुर गांव की ज्योत्सना घराई ने 25 दिन का काम मांगा, इसमें से तीन दिन के लिये काम मिला पर जॉब कार्ड में 6 दिन की मजदूरी की प्रविष्टि की गई। उसने फिर काम मांगा पर नहीं मिला। एक अध्ययन बताता है कि 92 प्रतिशत महिलाओं को बेरोजगारी भत्तो के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
रोजगार का यह कानून सामाजिक अंकेक्षण और पारदर्शिता को व्यवस्था का वैधानिक हिस्सा बनाता है ताकि मजदूर केवल हितग्राही न बनें बल्कि वे यह भी देखें कि इस योजना का उसके मूल मंतव्यों के साथ क्रियान्वयन हो रहा है। परन्तु पश्चिम बंगाल में इस तरह की व्यवस्था की स्थापना के लिये कोई ठोस पहल हुई नहीं दिखती है। यहां सरकार से ज्यादा राजनैतिक विचारधारा का दबाव है जो यह नहीं चाहता है कि ऐसी व्यवस्था के जरिये मौजूदा सत्ता सम्बन्धों में कोई बदलाव हो। इसीलिये राज्य में सामाजिक अंकेक्षण को अब तक अनिवार्य बनाने की कोशिशें नहीं हुई औपचारिकता पूरी करने के लिये कुछ दस्तावेज पंचायतों द्वारा तैयार कर लिये जाते हैं और अब तक किसी भी सामाजिक अंकेक्षण में जनसमुदाय की कोई भूमिका स्थापित करने की पहल नहीं हुई। सब कुछ राजनैतिक प्रतिबध्दताओं से बंधा हुआ है और पंचायत प्रधान को राजनैतिक अधिकार मिला हुआ है कि वह काम नहीं आया या राशि नहीं आई है का वाक्य कह कर किसी का भी अधिकार सीमित कर सकता है। सवाल-जवाब की स्थिति में प्रशासन जनसमुदाय के खिलाफ कार्रवाई करता है। गरीबी के चक्र में रहने वाले परिवारों के लिये नरेगा बेहद उपयोगी और महत्वपूर्ण व्यवस्था साबित हो सकती थी; खासतौर पर बंगाल के गांवों में महिलाओं की स्थिति बदलने के लिये पर विचारधारा के लिये यह बदलाव अभी उतना मायने नहीं रखता।
दक्षिण 24 परगना में मछली पालन सबसे बड़ा सामुदायिक व्यवसाय है किन्तु इसे विकसित करने में राज्य सरकार सफल नहीं रही है। एशियाई विकास बैंक (2003) की रिपोर्ट भी कहती है कि यहां मजदूरों की उपलब्धता जरूरत से ज्यादा है इसलिये मछुआरा व्यवस्था को विकसित किये जाने की जरूरत है। चूंकि मछली पालन के व्यवसाय से बहुत आय नहीं होती है इसलिये मछुआरा परिवारों के पुरूष तो रोजगार के लिये पलायन कर जाते हैं और महिलायें मछली के बीजों के उत्पादन से लेकर उसे बाजार तक पहुंचाने का काम करती हैं, इस काम में उन्हें 20 से 60 रूपये तक की आय हो पाती है। काकद्वीप में मछुआरा महिलायें मछली पकड़ने का महीन जाल बुनने का काम करती हैं 10 घंटे की मेहनत के बाद उन्हें ज्यादातर 10 से 15 रूपये की मजदूरी मिल पाती है।
नरेगा कई मायनों मे प्राकृतिक संसाधन आधारित सामुदायिक व्यवसायों को विकसित करने का अवसर देता है। पश्चिम बंगाल के 60 फीसदी से ज्यादा ग्रामीण परिवारों के कच्चे झोपड़ों के सामने पानी का एक-एक छोटा सा तालाब जरूर होता है जिसमें वे मछली पालते हैं और जीवनयापन करते हैं। नरेगा के अंतर्गत इस आजीविका के साधन को विकसित करने के पूरे अवसर राज्य सरकार को मिलते हैं किन्तु पश्चिम बंगाल में नरेगा में सालाना और पांच साल की विकास कार्ययोजना बनाने के काम को राजनैतिक तत्परता के साथ लागू नहीं किया गया। दिगम्बर अंगीकार संगठन के अध्ययन के मुताबिक दक्षिण 24 परगना में मछली पालन का व्यवसाय करने वाली जनसंख्या 43.7 प्रतिशत महिलायें हैं यदि इस व्यवसाय को आधार दिया जाता तो महिलाओं को सबसे ज्यादा फर्क पड़ता। यह इसलिये भी जरूरी है क्योंकि 76 प्रतिशत महिलायें हिंसा की शिकार हैं। गरीबी के कारण वे परिवार के बाहर और भीतर शोषण सहने के लिए मजबूर हैं। सुंदरबन के इस इलाके में हर तरफ खाना-पानी है जिसमें 8 से 9 घंटे खड़े रहकर महिलायें, प्रोन मछली, केकड़े और कुछये पकड़ती हैं, जिसके ऐवज में उन्हें 20-40 रूपये की मजबूरी के चलते कई तरह की त्वचा सम्बन्धी बीमारियाँ होती हैं और आगे चलकर इसी कारण उनके बच्चों के साथ स्कूल और आंगनबाड़ी में भेदभाव किया जाता है।
पश्चिम बंगाल के अन्य इलाकों की तरह ही सुन्दरबन (दक्षिण 24 परगना) इलाके में प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता कम होते जाने के कारण लोगों की निर्भरता मजदूरी और मछली पालन पर बढ़ी है। मजदूरी के अवसर कम होने के कारण आज वहां पर पुरूषों को 50 रूपये तो महलिओं को 30 रूपये की मजदूरी मिलती है। ऐसे में नरेगा के अंतर्गत तय 75 रूपये की सरकारी न्यूनतम मजदूरी उनके लिये बेहद महत्व रखती है। आश्चर्यजनक है कि पश्चिमबंगाल में भी सरकरी योजनाओं में महिलाओं को पुरूषों की तुलना में कम मजदूरी का भुगतान किया जाता है। हांलाकि कुछ वामपंथी कार्यकर्ता यह तर्क भी देते हैं कि इस राज्य में ग्रामीण लोग स्थाई आजीविका को तवज्जो देते हैं और मजदूरी नहीं करना चाहते हैं, पर सवाल यह है कि फिर मछली पालन करने वाले दलित परिवारों की आजीविका के लिये नरेगा में कार्ययोजनायें क्यों नही बनी! मध्यप्रदेश में रोजगार गारंटी योजना में रेशम उत्पादन, बागवानी, नर्सरी स्थापना जैसे खूब काम हुये पर पश्चिम बंगाल में सरकार बंद पड़े चाय बागानों को चालू करके चाय पत्ती तोड़ने के काम को नरेगा में शामिल करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेज कर जवाब का इंतज़ार कर रही है। उल्लेखनीय है कि बंद पड़े चाय बागानों के कारण राज्य में 500 से ज्यादा भूख से मौतें हो चुकी हैं।
नरेगा में बेहद स्पष्ट शब्दों में उल्लेख है कि इस योजना में रोजगार 33 फीसदी अवसर महिलाओं के लिये सुरक्षित होंगे, किन्तु दक्षिण 24 परगना में पूरा कानून और पूरी योजना सत्ता नायकों के खूंटो पर टंगी हुई है। वहां अब तक कुल 17.3 लाख मानव दिवस का रोजगार दिया गया है जिसमें से केवल 1.52 लाख दिन का काम यानी 8.77 प्रतिशत काम महिलाओं को मिल पाया है। इसी तरह उत्तर 24 परगना में तो 6.44 प्रतिशत रोजगार महिलाओं के खाते में गया है। मसला केवल 24 परगना जिलों तक ही सीमित नहीं है। पश्चिम बंगाल में वृहद पैमाने पर नरेगा में महिला अधिकारों की अनदेखी की गई है। राज्य में 393.35 लाख मानव दिवस रोजगार में से केवल 79.52 दिन का काम (20.22 प्रतिशत) महिलाओं को दिया गया। वृंदा करात कहती हैं कि केन्द्र सरकार से राशि का आवंटन नही हो रहा है इसीलिये वर्धमान जिले में नरेगा के लिये जिला परिषद कोष से ऋण लेकर काम करना पड़ रहा है।
बेहद आश्चर्यजनक लगता है कि जब हम देखते हैं कि मध्यप्रदेश में नरेगा के क्रियान्वयन में अब तक 2126.42 करोड़ रूपये की राशि खर्च हुई है जबकि पश्चिम बंगाल में 881.59 करोड़ के आवंटन में से 446.53 करोड़ रूपये की राशि खर्च हुई है। देश में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को रोजगार का अधिकार दिलाने और विकास की प्रक्रिया में तंत्र से ज्यादा लोक को तवज्जो देते हुये राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून के लिये जनसंघर्ष हुआ, तब मजदूरों के हकों में वामपंथी ताकतों ने बेहद अहम् और रचनात्मक भूमिका निभाई। जब इस हक को कानूनी जामा पहनाया गया तब सबसे ज्यादा उम्मीद थी कि पष्चिम बंगाल में मजदूर हकों की समर्थक विचारधारा के सत्ता में होने के कारण न केवल मजदूरों के हकों को एक ठोस रूप मिलेगा बल्कि वहां विकास की सहभागी प्रक्रिया भी सबसे ज्यादा लोकोन्मुखी होगी किन्तु रोजगार गारण्टी कानून के प्रावधानों के उल्लंघन की कहानियाँ तमाम उम्मीदों को तार-तार कर रही हैं। उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल में वामपंथी राजनैतिक दल अपने सशक्त कैडर के माध्यम से गांव-गांव तक बेहतर प्रभावशाली पहुंच रखते हैं पर संकट यह है कि इस व्यवस्था के भ्रष्ट होने के कारण अब मजदूरों और गरीबों की राजनीति करने वाली विचारधारा अपनी धार खोती नज़र आ रही है।
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