आज का युग पर्यावरणीय चेतना का युग है। हर व्यक्ति अपने पर्यावरण के प्रति चिंतित है। ज्ञान और विज्ञान की हर शाखा के विद्वान, चिन्तक पर्यावरण की सुरक्षा और संचालन के प्रति जागरूक हैं। आज हर व्यक्ति स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त पर्यावरण में रहने के अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगा है और अपने दायित्वों को समझने लगा है। पर्यावरण का अर्थ है- परि + आवरण, परि अर्थात चारों ओर आवरण अर्थात ढका हुआ वे सारी स्थितियाँ, परिस्थितियाँ जो किसी भी प्राणी या प्राणियों के विकास पर चारों ओर से प्रभाव डालती हैं, वह उसका पर्यावरण कहलाती हैं। वास्तव में पर्यावरण में वह सब कुछ सम्मिलित है, जिसे हम अपने चारों ओर देखते हैं, जल-स्थल, वायु, मनुष्य, पशु (जलचर, थलचर, नभचर), वृक्ष, पहाड़, घाटियाँ एवं भू-दृश्य आदि सभी पर्यावरण के भाग हैं। अगर पर्यावरण के एकीकृत रूप को देखा जाए तो हम देख सकते हैं कि प्रत्येक पर्यावरण घटक में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मानव का हस्तक्षेप निश्चित है आज ज्ञान-विज्ञान की ऐसी कोई भी विषय शाखा नही हैं, जिसमें पर्यावरण संबंधी समस्याओं की चर्चा न हो।
पर्यावरण ईश्वर द्वारा एक अमूल्य उपहार है जो संपूर्ण मानव समाज का एक महत्वपूर्ण एवं अभिन्न अंग है। अगर हम मन में विचार करें कि हमारे चारों ओर किस तरह का आवरण है? वे कौन-कौन सी चीजें हैं, जिनसे हम घिरे हैं? तो हम पाएंगे कि हमारे चारों ओर हवा है, पेड़-पौधे हैं, पशु-पक्षी हैं, मिट्टी है, पानी है, और ऊपर चाँद-सितारे हैं अतः ये सारी चीजें हमारे पर्यावरण के अंग हैं और इन्हीं से मिलकर बना है हमारा पर्यावरण। जब वैज्ञानिकगण पर्यावरण की बात करते हैं, उसकी सुरक्षा और संतुलन के प्रति चिंता व्यक्त करते हैं तो उनका तात्पर्य प्रकृति के संतुलन से होता है।
शायद तुम सोचते होंगे कि ये सारी चीजें तो हमारे आस-पास सदियों से पाई जाती हैं, फिर चिंता किस बात की है? दरअसल, चिंता की बात यह है कि ये सारी चीजें जिस रूप में और जितनी मात्रा में पहले पाई जाती थीं, वैसे अब नहीं मिलती। पुराने जमाने में अपने देश में ढेर सारे जंगल थे। जंगलों में ऋषि-मुनियों के आश्रम हुआ करते थे। इन आश्रमों के आस-पास शिकार खेलना मना था। अनेक प्रकार के पशु-पक्षी और मृग निर्भय होकर घूमा करते थे गांवों और कस्बों के मनोरम बागों में चिड़ियाँ चहचहाया करती थीं, बुलबुल और कोयलें गाया करती थीं।
यह सब अब सपना सा हो गया है। कोयल की कूक सुनने को मन तरस जाता है, मोर का नाच देखे बिना ही बरसात बीत जाती है। बाघ, चीता, हिरन, खरगोश आदि जंगलों के बजाय चिड़ियाघरों की शोभा बढ़ाने लगे हैं। हमने अपनी बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जंगल काट डाले हैं, वन्य-जीवों का आवास उजाड़ रहे है। यही घोर चिंता का विषय है।
सच तो यही है कि :
‘प्रकृति को बुरा भला न कहो उसने अपना कर्तव्य पूरा किया, तुम अपना करो।- मिल्टन’
पर्यावरण के अंग्रेजी शब्द इन्वायरन्मेंट का उद्भव फ्रांसीसी भाषा के इनविरोनिर शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ है घेरना इन्वायरन्मेंट का समानार्थक शब्द हैबिटैट है जो लैटिन भाषा के हैबिटायर शब्द से निकला है। हैबिटेट शब्द पर्यावरण के सभी घटकों को स्थानीय रूप से लागू करता है। इसका प्रभाव आवास स्थल तक सीमित है जबकि एनवायरनमेंट शब्द हैबिटैट की तुलना में अधिक व्यापक है।
पर्यावरण को दो प्रमुख घटकों में विभाजित किया जा सकता है। पहला जैविक अर्थात् बायोटिक जिसमें समस्त प्रकार के जीव-जन्तु व वनस्पतियां (एक कोशिकीय से लेकर जटिल कोशिकीय तक) दूसरे प्रकार के घटक में भौतिक अर्थात अजैविक जिसमें थलमण्डल, जलमण्डल व वायुमण्डल सम्मिलित हैं। इन सभी घटकों में सृष्टि ने मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ जीव के रूप में उत्पत्ति की है। अतः मानव सम्पूर्ण जीव जगत का केन्द्र बिन्दु है। वस्तुतः अनुवांशिकी एवं पर्यावरण ये दो महत्वपूर्ण कारक मानव जीवन को प्रभावित करते हैं।
समस्त जीवों में सर्वश्रेष्ठ जीव होने के नाते मनुष्य ने प्रकृति की प्राकृतिक सम्पदाओं का सदियों से भरपूर दोहन किया है। लेकिन वर्तमान दौर में बढ़ती जनसंख्या, पश्चिमी उपभोक्तावाद एवं वैश्विक भूमण्डलीकरण के मकड़जाल में फँस कर मनुष्य प्रकृति के नैसर्गिक सुख को खोता जा रहा है। वह नहीं जान पा रहा कि कंकरीट का शहर बसाने की चाहत के बदले में वह अपना भविष्य दाँव पर लगा बैठा है। जैव मंडल में मौजूद संसाधनों में जल सर्वाधिक मूल्यवान है क्योंकि यह केवल मानव ही नहीं अपितु सभी जीवों तथा वनस्पति के लिये भी उपयोगी है।
चिंता की बात यह भी है कि हमारी जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ अन्य जीवों, पशु-पक्षियों और पौधों के विलुप्त हो जाने की आशंका बढ़ती जा रही है, जैसे-जैसे हमारी जनसंख्या बढ़ रही है, उद्योग-धंधों का विकास हो रहा है, वैसे-वैसे हमारे पर्यावरण को खतरा बढ़ते जा रहे है।
हमारा पर्यावरण हमारे रवैये और अपेक्षाओं का आइना होता हैं
अर्ल नाइटेंगल
कल-कारखानों से निकलने वाली विषैली गैसें हमारे वायुमंडल को जहरीला बना रही हैं, इन कारखानों से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थ हमारे नदी-नालों और मिट्टी को प्रदूषित कर रहे हैं। इस प्रकार हम मनुष्यों के ही स्वास्थ्य और जीवन के लिए खतरा होता जा रहा है।
प्रकृति में जल तीन रूपों में विद्यमान है ठोस, तरल एवं गैस ठोस के रूप में बर्फ जल का शुद्ध रूप है। इसके बाद वर्षा का जल, पर्वतीय झीलें, नदियां एवं कुएं शुद्धता क्रम में आते हैं। धरातल पर प्रवाहित तथा झीलों, तालाबों आदि के रूप में उपलब्ध स्वच्छ जल की मात्रा केवल 7 प्रतिशत है लेकिन बढ़ती जनसंख्या बहुमंजिला इमारतों खेती में रसायनों का उपयोग तथा रासायनिक फैक्ट्रियों से निकला पानी नदियों, तालाबों, झरनों को प्रदूषित कर रहा है, जो मानव जाति सहित जीव-जन्तुओं के स्वास्थ्य के लिये भी हानिकारक साबित हो रहा है। जल को प्रदूषित करने वाले तत्व जल में मौजूद ऑक्सीजन के स्तर को कम कर जल को पीने योग्य नहीं रहने देते।
प्रकृति के समस्त संसाधन प्रदूषण की चपेट में हैं। हवा, जल और मिट्टी जो हमारे जीवन के आधार हैं जिनके बिना जीवन की कल्पना ही बेमानी है। आज मौलिक स्वरूप एवं गुण खोते जा रहे हैं। पर्यावरण की छतरी अर्थात ओजोन परत जो हमें सौरमंडल से आने वाली घातक किरणों से बचाती है, उसमें छेद होना, वातावरण में बढ़ती कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा से उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग की समस्या दिनों-दिन घातक बीमारियों का प्रादुर्भाव व स्वास्थ्य संकट ये सब मानव के समक्ष एक विकराल दानव का रूप ले चुके हैं जो समस्त मानव जाति का विनाश करने को आतुर हैं, जिससे सावधान होना बहुत जरूरी है।
औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण के युग में प्रकृति पर अत्याचार होने लगा है, परिणामस्वरूप पर्यावरण में प्रदूषण अशुद्ध वायु, जल की कमी, बीमारियों की भरमार दिन-प्रतिदिन एक गंभीर चर्चा का विषय बनी हुई हैं, जिससे मनुष्य न तो प्रकृति को बचा पा रहा हैं और न ही खुद को। आज जहाँ मानव समाज विलासितापूर्ण जीवन की चाह लिए हुए प्रकृति का अति दोहन करता जा रहा है, वहीं वह अज्ञानतावश स्वयं की जान का भी दुश्मन बन चुका है।
वायुमण्डल
पृथ्वी के चारों ओर गैसों का घेरा है जिसे वायुमण्डल कहते हैं। यह वायुमण्डल विभिन्न प्रकार की गैसों का मिश्रण है जिसमें लगभग 73 प्रतिशत नाइट्रोजन 21 प्रतिशत ऑक्सीजन एवं 03 प्रतिशत कार्बन-डाई-ऑक्साइड है। ये सभी तत्व पर्यावरण संतुलन को बनाये रखने में सहायक हैं। पृथ्वी पर मौजूद पेड़-पौधे वायुमण्डल में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड को अवशोषित कर प्रकाश की उपस्थिति में एवं जड़ों के माध्यम से जल एवं आवश्यक खनिज लवण लेकर अपना भोजन तैयार करते हैं। बदले में ऑक्सीजन उत्सर्जित करते हैं यही ऑक्सीजन वायुमण्डल में मिलकर मानव जाति के लिये प्राणवायु का काम करती है। मनुष्य व जीव-जन्तु भी जब वातावरण से ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं तो कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं जो कि पेड़-पौधों के लिये भोजन बनाने में सहायक होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पर्यावरण में मौजूद सभी घटक सिम्बायोटिक तरीके से एक दूसरे से सम्बद्ध हैं और इस प्रकार पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। लेकिन विकसित देशों की प्रभुता की लालसा ने अंधाधुंध परमाणु हथियारों का जखीरा खड़ा करने एवं रासायनिक हथियार बनाने की होड़ ने मनुष्य को अंधा बना दिया है एवं बढ़ती जनसंख्या के कारण मनुष्य ने वनों को काटकर कंक्रीट की बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर ली हैं। वायुमण्डल में मौजूद कार्बन-डाई-ऑक्साइड वातावरण के तापमान को भी नियंत्रित करती है। पेड़ों के कटने के कारण वायुमण्डल में कार्बन डाई ऑक्साइड की निरंतर बढ़ती मात्रा से वातावरण का तापमान दिनों-दिन बढ़ाता जा रहा है, जो अप्रत्यक्ष रूप से वर्षा, सर्दी, गर्मी के चक्र को भी प्रभावित कर रही है। निकट भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र का जलस्तर इस हद तक बढ़ जायेगा कि समुद्र के किनारे बसे समूचे शहरों को और अधिक खतरा बढ़ जायेगा।
पर्यावरण का विषय-क्षेत्र इन सारी चिंताओं को अपने आप में समेटे हुए है। पर्यावरण संबंधी चिंताओं ने समूचे मानव समुदाय को झकझोर कर रख दिया है। कहा जाता है कि मानव इस जगत में सबसे बुद्धिमान जीव है। शायद यह कहना सच भी है, लेकिन पर्यावरण की समस्या ने मानव बुद्धि को चकरा दिया है। पर्यावरण संरक्षण में वृक्षों का सबसे अधिक महत्व है। जिस तरह आज औद्योगिकीकरण के युग में वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, वहाँ आज मानव सरकार एवं समाजसेवी संस्थाओं को जन-चेतना को जागृत और प्रोत्साहित करते हुए वृक्षारोपण को एक अनिवार्य गतिविधि बनाना होगा।
पर्यावरण के इस असंतुलन की जिम्मेदार हमारी समस्त मानव जाति है यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो विनाश अवश्यंभावी है। हम चाहे कहीं भी रहें, पर्यावरण की देखभाल करना हमारे लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
छोटे स्तर पर काम शुरू करें। दस या बीस मित्रों के साथ पृथ्वी दिवस ( 22 अप्रैल) मनायें। अगले वर्ष यह बहुत बड़ा समूह हो जायेगा और उसके बाद यह जागरूकता विश्व भर में फैल जायेगी। -सूसन किसकिस, अमेरिकी नागरिक
स्रोत - प्रवाहिनी, 2011-2012, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की
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