पर्यावरण प्रदूषण से जूझते बुग्याल

औली बुग्याल, उत्तराखंड में एक घास का मैदान। (फोटो सौजन्य: विकिमीडिया कॉमन्स, फोटो - संदीप बराड़ जाट)
औली बुग्याल, उत्तराखंड में एक घास का मैदान। (फोटो सौजन्य: विकिमीडिया कॉमन्स, फोटो - संदीप बराड़ जाट)

वर्तमान में हम खतरनाक रूप की समस्या से घिरे हुए हैं और यह समस्या भविष्य में हमारे लिये जानलेवा भी हो सकती है। इस भयंकर पर्यावरणीय समस्या के मुख्य कारण हैं- औद्योगीकरण, शहरीकरण, वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाने वाले उत्पाद जो सामान्य जीवन की दैनिक जरूरतों के रूप इस्तेमाल किए जाते हैं। पेट्रोल और डीजल गाड़ियों का अत्याधिक उपयोग होने और उनसे निकले धुएँ से प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होती है। प्रदूषण के बहुत से प्रकार होते है जिनमें मुख्य रूप से जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, भू-प्रदूषण, रेडियोधर्मी और ध्वनि प्रदुषण शामिल हैं। बड़े पैमाने पर उद्योगों में उत्पादन की प्रक्रिया में केमिकलों, विषैले पदार्थों और गैसों का उपयोग किया जाता है जो मानवीय स्वास्थ के लिए हानिकारक होते हैं। इससे वातावरण में ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन जैसी विभिन्न प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। पिछले एक दशक में वातावरणीय प्रदूषण का स्तर बहुत बढ़ा है।

सभी प्रकार के प्रदूषण बेशक पूरे पर्यावरण और पारिस्थितिकी को प्रभावित कर रहे हैं। मनुष्य की गलत क्रिया-कलापों से पृथ्वी पर स्वाभाविक रूप से सुंदर वातावरण दिन-ब-दिन बिगड़ता जा रहा है। प्रदूषण के दुष्प्रभावों के बारे में विचार करें तो ये बड़े गंभीर नजर आते हैं। प्रदूषित वायु में साँस लेने से फेफड़ों और श्वास-संबंधी अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और प्रदूषित जल पीने से पेट संबंधी रोग फैलते हैं। गंदा जल, जल में रहने वाले जीवों के लिए भी बहुत हानिकारक होता है। ध्वनि प्रदूषण मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। इससे बहरापन, चिंता, अशांति जैसी समस्याओं से गुजरना पड़ता है।

इस पूरे ब्रह्माण्ड में केवल पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है जहाँ जीवन जीने हेतु सभी संसाधन उपलब्ध हैं। हम दशकों से पृथ्वी को प्रदूषित कर रहे हैं लेकिन हम अपनी दैनिक दिनचर्या के चलते इतने व्यस्त हो गए कि प्रकृति के प्रति हम अपनी जिम्मेदारियों को ही भूल गए। साफ पानी और शुद्ध हवा हमारी स्वस्थ जिंदगी के लिए बहुत जरुरी है लेकिन आज के आधुनिक युग में इन दो में से एक भी संसाधन साफ और शुद्ध नही। आज के आधुनिक युग में हमने औद्योगिक विकास तो कर ही लिया है लेकिन प्राकृतिक विकास हम नही कर पा रहे हैं। औद्योगिक विकास करने की दौड़ में हम प्रकृति को ही भूल गए। औद्योगीकरण की वजह से जीवन रक्षा प्रणाली तेजी से जीवन विनाशी प्रणाली में परिवर्तित होती दिखाई दे रही है।

प्रकृति ने हमें हरे-भरे जंगल व बुग्याल, बर्फीले पहाड़, कलकल करती अविरल बहती नदियाँ, झीले और प्राकृतिक सौन्दर्यता को मनोरंजन के साधन के रूप में प्रदान किया है लेकिन आज के इस मौज मस्ती भरे मानवीय क्रिया-कलापों से इन संसाधनों का अस्तित्व बढ़ते प्रदूषण के कारण संकट में आ गया है। आज ये प्राकृतिक संसाधन धीरे- धीरे प्रदूषित हो रहे हैं। इसी प्रदूषण को झेलते सुनहरे बुग्यालों का भविष्य संकट की ओर जाता दिखाई दे रहा है।

उत्तराखंड के प्रमुख बुग्याल

वैसे तो छोटे-छोटे घास के मैदानों को बुग्याल कहा जाता है। उत्तराखंड में हिमशिखरों की तलहटी में जहाँ पेड़ों की पत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं, वहाँ से विशालकाय घास के मैदान (Grasslands) आरम्भ होते हैं, बुग्याल कहलाते हैं। विश्व में इन बुग्यालों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे एशिया में स्टेपीस (Steppes), नार्थ अमेरिका में प्रेरीज (Prairies), साउथ अमेरिका में पम्पास (Pampas), अफ्रीका में सवाना और वेल्ड्स (Savannas and Velds), ऑस्ट्रेलिया में रेंजलैंड्स (Rangelands) और उत्तराखंड में बुग्याल (Bugyal)। बुग्याल एक प्रकार के निवास स्थान (Habitat and Biome) है जो कि विभिन्न प्रकार के घास, शाकीय पौधे और अनेक प्रकार के फूलों से सुशोभित होते हैं और जहाँ पर बड़े वृक्षों और झाड़ियों की किस्मों का बहुत कम बिखराव रहता है। सामान्यतः बुग्याली क्षेत्र समुद्रतल से 2800 मीटर की ऊँचाई से शुरू होकर 4000-4500 मीटर या उससे ऊपरी सीमा तक होते हैं। हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड में अनेक प्राकृतिक लुभावने बुग्याली क्षेत्र हैं जिनमे औली, फूलों की घाटी, मनणी एवं बेदिनी बुग्याल (चमोली जनपद), मदमेश्वर बुग्याल, तुंगनाथ-चोपता बुग्याल (रुद्रप्रयाग), मासरताल बुग्याल, जौराई बुग्याल (टिहरी), हर की दून बुग्याल, दयारा बुग्याल (उत्तरकाशी), मुनस्यारी (पिथौरागढ़) और पखवा बुग्याल (बागेश्वर) शामिल हैं।

सितम्बर 2014 के दैनिक अखबार अमर उजाला में प्रकाशित शीर्षक "राजजात में तबाह हुआ उत्तराखंड का स्विट्जरलैंड (बेदिनी बुग्याल)" में बताया गया कि 14 साल बाद सकुशल संपन्न हुई माँ नंदा राजजात यात्रा से सभी श्रद्धालु ओर राज्य सरकार बेहद खुश थी लेकिन खुशियों और उत्साह के इस माहौल के बीच एक वेदना की टीस भी चुभने लगी। जिसमें एशिया के सुन्दरतम बुग्यालों में से एक चमोली जनपद के विश्व प्रसिद्ध बेदिनी बुग्याल का दर्द को दर्शाया गया था। चमोली जनपद के अंतिम गाँव 'वाण' से 10 कि.मी. आगे बेदिनी बुग्याल की जान हरी घास को खासा नुकसान पहुंचा जिनकी तस्वीर ही बदल गयी थी। क्योंकि हरी चादर पीली पड़ गई जबकि कई जगह मिट्टी उखड़ गई थी।

करीब सवा लाख यात्रियों के कदम, एक हजार से अधिक टेंटों और प्लास्टिक कचरों के ढेरों का बोझ लिए बेदिनी जिस हाल में दिखाई दे रहा था उससे माना जा रहा था कि अपने मूल रूप में लौटने में उसे पांच साल का वक्त लगेगा।

इसके अलावा यात्रियों ने भी छोटे-बड़े टेंट लगाए थे। पानी के बचाव के लिए टेंट के चारों ओर गड्ढे खोदे गए लेकिन टेंट हटाने के बाद उनको भरा नहीं गया। इस तरह बेदिनी से जैसे-जैसे यात्रा अगले पड़ावों कि ओर बढ़ती गई पीछे बदहाली के निशान छोड़ती गई। तम्बुओं वाली जगहों पर थर्माकोल के प्लेटों, ग्लासों, प्लास्टिक कि थैलियों और खाली बोतलों के ढेर पड़े हुए थे लेकिन कचरे को साफ करने कि जहमत किसी ने नहीं उठाइ। सितम्बर 2017 में लेखक द्वारा सर्वे हेतु बेदिनी बुग्याल का निरीक्षण किया गया जिसमें देखा गया कि बुग्यालों में वे धड़ले से पर्यटकों का आवागमन हो रहा है। यहाँ तक कि प्लास्टिक निर्मित सामग्री, मादक पेय पदार्थों के पात्रों (containers), को बिखरी अवस्था में देखा गया। साथ ही साथ घोड़े की लीद के निबटान हेतु कोई व्यवस्था नहीं थी चूँकि घोड़े की लीद बुग्यालों में घास की वृद्धि में कोई विशेष योगदान नहीं देती है। इस भयावह स्थिति के बारे में वन विभाग के कर्मचारियों को भी अवगत कराया गया और बेदिनी के संरक्षण हेतु कठोर नियमों को लागू करने की बात राखी गई। यही हाल रुद्रप्रयाग के बहुचर्चित चोपता- तुंगनाथ का भी है। चोपता बुग्याल सड़क से कम पैदल दूरी पर होने के कारण यहाँ पर 12 महीने पर्यटक आते रहते हैं। अपने साथ कई तरह की खाद्य सामग्री को साथ में लाकर उनका बेधड़ले से और लापरवाही से उपयोग करते रहते हैं। चोपता के अधिकाँश क्षेत्रों में बाहर से आए थे। पानी के बचाव के लिए टेंट के चारों ओर गड्ढे खोदे गए लेकिन टेंट हटाने के बाद उनको भरा नहीं गया। इस तरह बेदिनी से जैसे-जैसे यात्रा अगले पड़ावों कि ओर बढ़ती गई पीछे बदहाली के निशान छोड़ती गई। तम्बुओं वाली जगहों पर थर्माकोल के प्लेटों, ग्लासों, प्लास्टिक कि थैलियों और खाली बोतलों के ढेर पड़े हुए थे लेकिन कचरे को साफ करने कि जहमत किसी ने नहीं उठाइ। सितम्बर 2017 में लेखक द्वारा सर्वे हेतु बेदिनी बुग्याल का निरीक्षण किया गया जिसमें देखा गया कि बुग्यालों में वे धड़ले से पर्यटकों का आवागमन हो रहा है। यहाँ तक कि प्लास्टिक निर्मित सामग्री, मादक पेय पदार्थों के पात्रों (containers), को बिखरी अवस्था में देखा गया। साथ ही साथ घोड़े की लीद के निबटान हेतु कोई व्यवस्था नहीं थी चूँकि घोड़े की लीद बुग्यालों में घास की वृद्धि में कोई विशेष योगदान नहीं देती है। इस भयावह स्थिति के बारे में वन विभाग के कर्मचारियों को भी अवगत कराया गया और बेदिनी के संरक्षण हेतु कठोर नियमों को लागू करने की बात राखी गई। यही हाल रुद्रप्रयाग के बहुचर्चित चोपता- तुंगनाथ का भी है। चोपता बुग्याल सड़क से कम पैदल दूरी पर होने के कारण यहाँ पर 12 महीने पर्यटक आते रहते हैं। अपने साथ कई तरह की खाद्य सामग्री को साथ में लाकर उनका बेधड़ले से और लापरवाही से उपयोग करते रहते हैं। चोपता के अधिकाँश क्षेत्रों में बाहर से आए संख्या आदि) पर हानिकारक प्रभाव पड़ जाएगा। 

उत्तराखंड में हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय के उच्च शिखरीय पादप कार्यिकी शोध केंद्र (हैप्रेक) के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ आर. के. पुरोहित बताते हैं कि "पिछले कुछ दशकों से बुग्यालों में बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप एवं असीमित क्रिया-कलापों से प्रदूषण की समस्या निरंतर बढ़ी है जिसको निकट भविष्य में नियंत्रण करना किसी चुनौती से कम नहीं होगा। साथ ही शोध के लिए पौधों की विभिन्न प्रजातियों का मिलना भी दुष्कर हो जाएगा और इसका सीधा प्रभाव पेड़-पौधे एवं जीव-जंतुओं की एक दूसरे पर होने वाली निर्भरता पर भी पड़ेगा। इससे बचाव हेतु असीमित पर्यटन को नियंत्रित या कुछ समय के लिए रोकना हितकारी होगा"।

बुग्यालों में बढ़ते प्रदूषण को कम करने का एकमात्र उपाय सामाजिक जागरूकता है। प्रचार माध्यमों के द्वारा इस संबंध में लोगों तक संदेश पहुँचाने की आवश्यकता है। सामुहिक प्रयास से ही इस बढ़ती विश्वव्यापी समस्या को नियंत्रित किया जा सकता है। इसे गंभीरता से निपटने की जरूरत है अन्यथा इसमें कोई संकोच नहीं कि हमारी आने वाली पीढ़ी को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। हमेशा याद रखे, जब तक हम स्वयं बुग्यालों के संरक्षण हेतु कोई कदम नही उठाते तब तक इस समस्या से निजात पाना असंभव है।

इसके अलावा बुग्यालों के प्रति सजगता और इनकी महत्तता को समझते हुए प्रत्येक व्यक्ति को सजग होने की अति आवश्यकता है और प्रदूषण पर नियंत्रण करते हुए बुग्यालों को भावी पीढ़ी के लिए संजोकर रख सकते हैं। हरे-भरे प्राकृतिक आवासों में अपने अनियंत्रित क्रिया-कलापों को करने से स्वयं को रोकने का प्रयास करें और स्वयं अपने साथ-साथ जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों का आवास समझकर इसे सवारने का प्रयास करें तो निश्चित ही हम सुनहरे और मनमोहक बुग्यालों के भविष्य की कल्पना कर सकते हैं।

संपर्क - श्री प्रवीन जोशी एवं डॉ. प्रेमप्रकाश, (विभागाध्यक्ष-वनस्पति विज्ञान), राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय द्वाराहाट, अल्मोड़ा - 263 653, (उत्तराखंड)
[मो.: 07830032944 एवं 9412036076;
ई-मेल:: Praveenjoshipj88@gmail.com]

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Post By: Kesar Singh
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