सदियों से किताबों में प्रमुखता पाने वाला प्रदूषण का मुद्दा पिछले कुछ सालों से वैश्विक, राष्ट्रीय और कहीं-कहीं क्षेत्रीय राजनीति के केंद्र के तौर पर उभरा है, तो इसके पीछे कई कारण हैं। एक जो सबसे बड़ा कारण है कि आज प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन कई छोटे द्वीपीय देशों और बड़े देशों के तटीय कस्बों के लिए अस्तित्वगत संकट के तौर पर सामने आया है। दूसरा समान महत्व का मुद्दा यह है कि भूतकाल की यह सोच कि पर्यावरण और प्रदूषण का मुद्दा अकेले वैज्ञानिक खोजों द्वारा ही हल हो सकेगा, काफी हद तक गलत साबित होती दिखाई दे रही है। यही वजह है कि आज के समय में देखें तो जलवायु परिवर्तन को धीमा करने या रोकने के लिए विज्ञान के साथ-साथ विधान को भी बराबर प्रधानता दी जा रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण जलवायु परिवर्तन को लेकर 2015 में विश्व के 195 देशों के बीच हुआ पेरिस समझौता है। इसके तहत सभी देशों ने अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर प्रतिबद्धता जताई, लक्ष्य निर्धारित किए और उन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कदम उठाने की बातें रखीं।
वैश्विक तौर पर जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के खिलाफ प्रयासों को गति देने की दिशा में पेरिस समझौता ऐतिहासिक कदम है। समझौते का अनुच्छेद 12 शामिल सभी देशों से आग्रह करता है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर शिक्षा और प्रशिक्षण को बढ़ावा देंगे जिससे कि जलवायु परिवर्तन के न्यूनीकरण को लेकर जागरूकता बढ़ाई और सार्वजनिक भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। अनुच्छेद 12 स्पष्ट करता है कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई सरकार, उद्योग या राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि आम जनता की भागीदारी से भी यह जीती जा सकती है।
प्रदूषण की चर्चा सर्दियों में ज्यादा
इस अनुच्छेद के संदर्भ में भारत की स्थिति को देखें तो भारत में पिछले कुछ वर्षों में प्रदूषण की सबसे अधिक चर्चा सर्दी के दिनों में दिल्ली की हद से ज्यादा खराब हवा के कारण होती है। कोरोना काल के दौरान लगे लॉक-डाउन के समय को छोड़ दें तो हालिया समय में दिल्ली में कोई भी वर्ष ऐसा नहीं बीता है, जब प्रदूषण के कारण दिल्ली की जनता पर पड़ने वाले स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभाव का मुद्दा न उठा हो लेकिन दुर्भाग्य से यह चर्चा सृजनात्मक से ज्यादा आलोचनात्मक और राजनातिक दोषारोपण तक सीमित रह जाती है। इसका परिणाम यह हुआ कि न तो केंद्र और न ही राज्यों की सरकारों आत्मावलोकन करते हुए अपने हिस्से का काम किया और न ही दिल्ली की जनता को उसकी पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी का अहसास कराया गया।
किसी भी समस्या के समाधान का पहला कदम उसके कारणों को समझना होता है। इस दृष्टि से दिल्ली में प्रदूषण की समस्या के कारकों को समझें तो भारत सरकार द्वारा बड़े महानगरों में हवा की गुणवत्ता और मौसम की जानकारी के लिए शुरू की गई पहल सफर (वायु गुणवत्ता और मौसम पूर्वानुमान और अनुसंधान प्रणाली), जो पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अधीन आती है, की कोविड से पहले लाई गई एक रिपोर्ट के अनुसार 2020-21 के बीच दिल्ली में प्रदूषण के ट्रेंड में काफी बदलाव आया।सफर का कहना है कि 2010 से दौरान प्रदूषण 15 फीसद बढ़ गया है। इन कारकों को अलग-अलग करके देखें तो परिवहन, उद्योग और ऊर्जा उत्पादन से होने वाले प्रदूषण में वृद्धि हुई है, वहीं रिहायशी क्षेत्रों में निर्माण और धूल से होने वाले प्रदूषण में कमी आई है। पराली जलाने को छोड़ दें तो बाकी कारक मौसम विशेष से नहीं जुड़े हैं। ठंड के दिनों में प्रदूषण की समस्या बढ़ने के पीछे सीधे-सीधे एक भौगोलिक कारण है कि इस मौसम में हवा की गति कम होती है जिसकी वजह से प्रदूषक तत्व दिल्ली से बाहर नहीं जाते यानी दिल्ली में प्रदूषण से निपटना है तो दिल्ली के भीतर की वैसी सभी प्रदूषणकारी गतिविधियों को या तो बंद अथवा कम या फिर परिवर्तित करना होगा।
सार्वजनिक परिवहन को मिले बढ़ावा
पेरिस समझौते की भावना के अनुरूप उदाहरण के तौर पर देखें तो दिल्ली के अंदर वाहनों के धुएं को कम करने में सरकार और जनता, दोनों की भागीदारी जरूरी होगी। जहां सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि दिल्ली की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था बेहतर हो वहीं आम जन को भी कोशिश करनी होगी कि वो इस व्यवस्था का ज्यादा से ज्यादा उपयोग कर दिल्ली के भीतर कार्बन उत्सर्जन को कम करे। दरअसल, वाहनों का प्रदूषण कम करने के लिए पिछले कई सालों से विकसित हुई कार संस्कृति को बदलना होगा। कोयले का इस्तेमाल दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के उद्योगों में खुल कर होता है। करीब 3000 से ज्यादा उद्योगों की वायु प्रदूषण में हिस्सेदारी 18 फीसदी के लगभग है। जब भी वायु प्रदूषण बहुत ज्यादा हो जाता है तो उस आपातकाल के स्थिति में कोयले का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को बंद कर दिया जाता है। लेकिन बाकी समय में ये काम करते हैं, जिससे काफी मात्रा में प्रदूषण होता है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 300 से ज्यादा ईंट भट्ठे हैं, जो कोयला इस्तेमाल करते हैं, यहां प्रदूषण कम करने का कोई उपकरण नहीं होता और इनका धुआं सीधा वातावरण में जाता है, और प्रदूषण फैलाता है। ढाबों और आयोजनों में भी कोयले का इस्तेमाल तंदूर से लेकर खाना बनाने तक में किया जाता है जो प्रदूषण का बड़ा कारण बनते हैं। कोयले के इतने दुष्परिणाम होने के बावजूद इसको लेकर न तो सरकारी तौर पर कोई नीति या सख्ती दिखती है, न जनता में जागरूकता जबकि अगर ये दोनों हों तो जहां एक ओर बड़े संयंत्रों और उद्योगों को उत्सर्जन कम करने वाले उपकरणों को खरीदने और लगाने के लिए बाध्य और छोटे उद्योगों को इसके भी संभव मदद हो सकेगी। दरअसल, समझना होगा कि प्रदूषण की समस्या वृहद् और सर्वस्पर्शी समस्या है जिसका निदान भी उतना ही वृहद् और सर्व-समावेशी प्रयास से संभव होगा। सर्वसमावेशी प्रयास तभी हो पाएगा जब जन-जागरूकता को बढ़ावा दिया जाए और सभी हितधारकों के बीच परस्पर काम करने की जरूरत और आयाम की समझ विकसित हो। जागरूकता ही एकमात्र समाधान नहीं होगा, बल्कि सभी को परिणामोन्मुख प्रयास भी करने होंगे। कहा जा सकता है कि स्वस्थ पर्यावरण के लिए जनता और सभी हितधारकों को अपनी जीवन शैली और रहन-सहन की आदतों में बदलाव करने और ऐसे समाज का निर्माण करने की आवश्यकता है, जो पर्यावरण हितैषी हो।
लेखिका समीरा जेएनयू में शोधार्थी हैं।
स्रोत - हस्तक्षेप, 4 नवम्बर 2023, राष्ट्रीय सहारा
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