पर्यावरण की समस्या, राजनैतिक ज्यादा

पर्यावरण की समस्या, राजनैतिक ज्यादा
पर्यावरण की समस्या, राजनैतिक ज्यादा

दीपावली के मौके पर रस्मी तौर पर वायु प्रदूषण को लेकर चिंतित होने की परंपरा रही है। क्योंकि दीपावली के बाद केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसको लेकर आंकड़े जारी करता है, जिसमें कोशिश सरकार द्वारा वायु प्रदूषण को रोकने के उपायों को प्रभावी और सफल दिखाए जाने की होती है। आंकड़ों के लिहाज से दक्षिणी राज्यों की स्थिति बेहतर है, पर यह प्रकृति की मेहरबानी से ज्यादा सरकार की वजह से कम है। सरकार है तो जाहिर है सत्ता और उसका खेल भी होता है। आंकड़ों की बाजीगरी होती है व असहज करने वाले आंकड़े गायब हो जाते हैं। अक्सर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राज्य सरकारों और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों में अदावत देखने को मिल जाती है। एक बात और करता चालू प्रदूषण के बारे में कि सरकारें इसको लेकर बयानबाजी वा राजनीति भले कितनी भी करें, पर परेशान बिल्कुल नहीं होतीं।

प्रदूषण की जड़ में हमारी जीवन शैली है, क्योंकि प्रकृति के पास अपने असंतुलन को ठीक कर प्रदूषण को नियंत्रित करने की क्षमता होती है पर उसकी प्रक्रिया को बाधित कर हम उसे अपना काम नहीं करने देते हैं। न ही उससे सीखते हैं कि एक का अपशिष्ट दूसरे के लिए संसाधन हैं। हमें है। लगता है प्रकृति केवल हमारे लिए हैं। जो हमारे लिए उपयोगी नहीं है तो अपशिष्ट है, यहां भी हमारी सोच फौरी लाभ वाली होती है। प्रकृति में दीर्घकालीन प्रक्रिया के द्वारा चीजों को रिसाइकिल करने वाले वेटलैंड और कीड़े- मकोड़े हमें बेकार और हानिकारक लगते हैं। हम इन्हें तथाकथित रूप से उपयोगी बनाने में जुट जाते हैं जबकि ऐसी प्रौद्योगिकी उपलब्ध है, जो अपशिष्ट को लाभकारी संसाधन के रूप में बदल देती है।

औद्योगिक इकाइयां जिम्मेदार 

प्रदूषण के सबसे बड़े गुनहगार शहर और औद्योगिक इकाइयां हैं, जो योजना बनाते समय बृहत्तर समुदाय के बारे में नहीं सोचते जिनका जीवन उनकी सुविधा की कीमत चुकाएगा। वैसे तो दिल्ली में यमुना की वजह से जल प्रदूषण, अत्यधिक दोहन और भूमिगत जल प्रदूषण का मामला भी दिखता है। पर भौगोलिक कारणों से वायु प्रदूषण को लेकर दिल्ली की स्थिति दयनीय हो जाती है। भौगोलिक व मौसमी वजहों से दक्षिण में वायु प्रदूषण का मामला नियंत्रण में है। पर जल प्रदूषण के मामले में वहां भी स्थिति चिंता करने योग्य है। खासकर बेंगलुरु, हैदराबाद और चेन्नई जैसे बड़े शहरों की दिल्ली व उत्तर भारत में आम लोग धार्मिक व राजनीतिक वजहों से कावेरी और गोदावरी को तो जानते हैं। पर दक्षिण भारत के तमिलनाडु में वशिष्ठी, नोबल, कूचम और पेनार जैसी नदियां आम उत्तर भारतीय के लिए अज्ञात होती हैं। ये अचानक से उनके सामने तब उपस्थित होती हैं, जब निर्माण गतिविधियों के कारण वशिष्ठी अचानक से भारत की सबसे प्रदूषित नदी बन जाती है या फिर नोयल का प्रदूषण कावेरी के जल से सिंचाई करने वाले किसानों के लिए खतरा बनता है। तीन नदियां पलर, सेप्यार और वेगवती से सज्जित हिन्दुओं की सप्तपुरियों में शामिल कांचीपुरम में आज ये नदियां अपनी दुर्दशा पर रो रही हैं।दक्षिण के राज्यों में जल स्रोतों और जल प्रबंधन को लेकर पुराने समय से जागरूकता रही है। उरैर अभिलेख में इसका प्रमाण मिलता है। कावेरी, गोदावरी के अतिरिक्त भी तमिलनाडु में बहने वाली अनेक नदियां कर्नाटक व आंध्र प्रदेश से होकर आती हैं। ये अपने बेंगलुरू व हैदराबाद जैसे शहरों का प्रदूषण भी अपने साथ लेकर आती हैं। इसको लेकर इनमें टकराव भी रहा है। एक बार तमिलनाडु ने इस मामले में केंद्र सरकार को शामिल करते हुए मुकदमा भी दर्ज किया था। तमिलनाडु का आरोप था कि कर्नाटक सरकार कावेरी और तेन फेनार नदियों में असंशोधित कचरा डालकर यहां के लोगों के स्वच्छ जल हासिल करने के अधिकार का हनन कर रही है और केंद्र सरकार तमिलनाडु को उसका अधिकार दिलाने की जिम्मेदारी नहीं निभा रही है। हैदराबाद की मूसी नदी फार्मास्यूटिकल्स उद्योग के बोझ की वजह से प्रदूषित हो गई है। वहीं गोदावरी और कृष्णा नदी अवैध खनन की वजह से कोर व त्रिपुर के टेक्सटाइल उद्योग की वजह से नोयल खुद तो प्रदूषित है ही, कावेरी को भी प्रदूषित कर रही है

दक्षिण से सबक लेने की चीजें

ऐतिहासिक सांस्कृतिक रूप से दक्षिण में जल स्रोतों व जल प्रबंधन को लेकर अत्यंत विकसित परंपरा और प्रणाली रही है। कभी यहां नदियों के जल की स्वच्छता और पवित्रता का क्या स्तर रहा होगा इसकी झलक पालार, वेल्लार, हेमावती और चित्रावती जैसी कई छोटी नदियों के नाम से मिलती है। पाल का अर्थ तमिल में दूध होता और बेल का श्वेत होता है, हेम का अर्थ स्वर्ण और चित्र का अर्थ सुंदर होता है। इससे इन नदियों की प्राचीन स्थिति का अंदाजा आप लगा सकते हैं। अगर आप राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोड़ों की पड़ताल करने बैठेंगे तो पता चलेगा कि अनेक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोड़ों के मुखिया राजनीतिक वजहों से बनाए गए हैं, और जो सरकार व उद्योगपतियों के हित के बीच सुविधाजनक संतुलन बनाने में भूमिका निभाते हैं। पर्यावरण व प्रदूषण से उनका कुछ खास लेना देना नहीं रहता। बोर्ड़ों में टेक्निकल स्टाफ की भी घोर कमी होती है और वे अपारदर्शी तरीके से काम करते हैं। उनकी बैठकों में लिए गए फैसलों व जनसुनवाई के बारे में जानकारों सार्वजनिक दायरे में बहुत कम होती है। अनेक राज्यों में इनके दफ्तरों के पते के बारे में भी आम लोगों को बहुत कम जानकारी होती हैं। मीडिया के लिए भी यह निम्न प्राथमिकता वाली चीजें होती है। यह खबरों व सूर्खियों में तभी होती है, जब कोई हादसा हो जाए और विधि व्यवस्था का प्रश्न बन जाए। या फिर कोई ऐसा घोटाला हो जिससे लोकराय सत्ता के खिलाफ जा सकती हो। दक्षिण में राज्य प्रदूषण बोर्ड ज्यादा पारदर्शी हैं।

दक्षिण के जल स्रोत और जल प्रबंधन 

मंदिरों और ग्राम पंचायतें जल स्रोतों की देखभाल में काफी रुचि लेती हैं। आज भी लगभग सभी बड़े मंदिरों में बड़े-बड़े तालाब होते हैं। मंदिरों में स्थल वृक्ष को परंपरा व औषधीय पौधों का सरक्षण देखने को मिलता है। यहां छोटे तालाब को कुलम और बड़े को एरी कहा जाता है। अनेक जगहों के नाम में कुलम जुड़ा हुआ होता है। मूर्तियों को लेकर वहां पर्यावरण की दृष्टि से स्वस्थ परंपरा देखने को मिलेगी। गणेश पूजा के मौके पर आप लोगों को कच्ची मिट्टी की मूर्ती खरीद पाएंगे, जिन्हें प्राकृतिक नीजों के सहारे सजाया जाता है। दुर्गा पूजा के अवसर पर घरों में गोलू रखने का रिवाज है, जिसमें मिट्टी की मूर्तियां रखी जाती हैं। पर्यावरण स्वच्छ रहे इसके लिए प्राकृतिक परिमार्जक स्कैचेंजर कौए के स्वास्थ्य का खास खयाल रखने की परंपरा है। भोजन पकने के समय उसके लिए अलग से भोजन रखा जाता है, पर ऐसा नहीं है कि प्रदूषण को लेकर वर्तमान में कुछ नहीं हो रहा है। अडयार और कुवम को साफ करने के लिए उसके किनारे अतिक्रमण को हटाया जा रहा है। ब्ल्यू पलंग बीच को प्लास्टिक कचरे से मुक्त करने के सिर्फ एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने के साथ मंजलाइ जैसी योजनाओं को लागू किया जा रहा है जिनमें वेंडिंग मशीन से आप भुगतान कर कपड़े का थैला ले सकते हैं। 

धर्मपुरी स्थित रामक्कल झील उदाहरण है कि बड़ी झीलों को बचाने के लिए सक्रियता है, चेन्नई में भी झीलों को प्रदूषण से बचाने के लिए सीवेज को साफ करने के बाद ही उसे झील में डाला जा रहा है। केरल का साइलेंट वैली आंदोलन कई पर्यावरण आंदोलन के लिए प्रेरणा स्रोत बना तो तमिलनाडु औद्योगिक प्रदूषण के खिलाफ दो सफल आंदोलन गवाह है। कोडैकेनाल में मरकरी प्रदूषण फैलाने वाली इकाई के खिलाफ आंदोलन और कड़ी में प्रदूषण फैलाने वाले तांबे की फैक्ट्री के खिलाफ आंदोलन केरल कोला कंपनियों द्वारा अत्यधिक भूजल दोहन व प्रदूषण फैलाने के खिलाफ सफल आंदोलन को गवाह है कोडईकेनाल। कर्नाटक में अपिको आंदोलन और पंडालुर झील के प्रदूषण को लेकर सफल आंदोलन चला है।


स्रोत -  हस्तक्षेप, 4 नवम्बर 2023, राष्ट्रीय सहारा
 

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Post By: Shivendra
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