पर्यावरण के दुश्मन सैनेटरी पैडस

पर्यावरण के दुश्मन सैनेटरी पैडस
पर्यावरण के दुश्मन सैनेटरी पैडस

टेलीविज़न पर विज्ञापनों द्वारा इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किया जाता है। विज्ञापन एजेंसियां इस प्रचार पर करोड़ों रुपया खर्च करती हैं, लेकिन इनके सही निस्तारण के साथ पर्यावरण और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इनके हानिकारक प्रभावों से बचाव की दिशा में अब तक किसी कम्पनी ने कोई कदम नहीं उठाया है। मोटे तौर पर एक महिला हर महीने 12-14 सैनेटरी पैड्स का उपयोग करती हैं और इस तरह अपने जीवन में लगभग 16,800 सैनेटरी पैड्स का इस्तेमाल कर सकती हैं। अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि देश की 58.64 करोड़ महिलाओं, यदि इनमें 5.6 करोड़ वृद्ध महिलाओं की संख्या घटा दी जाए, तो उनके मासिक धर्म के दौरान उपयोग किये गये डिस्पोजेबल नैपकिन्स या कपड़े का सही निस्तारण न किया जाना भविष्य में पर्यावरण के लिए कितना घातक सिद्ध हो सकता है।

यदि देखा जाए तो हमारे देश में मासिक धर्म स्वच्छता एक बड़ी समस्या है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, 57.6 प्रतिशत भारतीय महिला सैनेटरी पैड का उपयोग करती हैं जबकि 62 प्रतिशत अभी भी कपड़ा, राख, घास, जूट व अन्य सामग्रियों पर निर्भर हैं। 24 प्रतिशत किशोरियां अपने पीरियड्स के दौरान विद्यालय में अनुपस्थिति दर्ज कराती हैं। लेकिन सवाल ये भी उठता है कि क्या जिन सैनेटरी पैड्स का इस्तेमाल महिलाओं द्वारा स्वच्छता और सुरक्षा के नाम पर किया जा रहा है, क्या वह पूरी तरह से सुरक्षित भी हैं या नहीं?

"मैं पीरियड्स के दौरान सेनेटरी नेपकिन्स का इस्तेमाल नहीं करती, क्योंकि पर्यावरण को ये बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। में बायोडिग्रेडेबल नैपकिन्स का इस्तेमाल करती हूं, जो कि सौ प्रतिशत प्राकृतिक है। इसी कारण मैंने कभी सैनेटरी नैपकिन्स का विज्ञापन नहीं किया।" -दिया मिर्जा एन्वायरॉन्मेंट गुडविल एम्बेसडर, यूएन

महीने के असहज दिनों में कोई भी महिला अपना सबसे अच्छा दोस्त सैनेटरी नैपकिन्स को मानती है। लेकिन अधिकतर महिलाओं को इस बात का अंदाजा भी नहीं होता कि उनके पर्सनल हाइजीन से जुड़ी इस चीज़ से वह परेशानी में भी पड़ सकती हैं, क्योंकि सैनेटरी नैपकिन्स मासिक धर्म स्राव को सोखकर दाग लगने की परेशानी से तो बचा लेते हैं, लेकिन ये लंबे समय तक प्रयोग किये जाने के कारण सेहत के लिए ख़तरा भी पैदा कर सकते हैं। इस दौरान हवा का सम्पर्क कम हो जाने से जीवाणु पनप सकते हैं। यही जीवाणु कुछ दिनों बाद एलर्जी या संक्रमण की वजह बन सकते हैं।

स्वास्थ्य के लिए जोखिम

मासिक धर्म के दौरान, एक महिला ज्यादातर सैनेटरी पैड पर निर्भर करती है। पैड्स, भारी प्रवाह को अवशोषित करने की क्षमता रखते हैं और इसलिए वे महिलाओं की पहली पसंद होते हैं, लेकिन वे इनसे होने वाले जोखिम से अंजान रहती हैं। आज बाज़ार में बिकने वाले सैनेटरी पैड्स महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए जोखिम पैदा कर सकते हैं। सैनेटरी पैड में कॉटन का इस्तेमाल भारी मात्रा में किया जाता है। असल में कॉटन को सबसे पहले ब्लीच से चमकदार और सफेद बनाया जाता है। इस ब्लीच के अंश से त्वचा को नुकसान पहुंचा सकते हैं। पैड्स को खुशबूदार बनाने के लिए इसमें आर्टिफिशियल परफ्यूम का इस्तेमाल किया जाता है, ये रसायन स्वास्थ्य के लिये सुरक्षित नहीं माने जाते। इसके कारण गर्भ न धारण कर पाने जैसी गंभीर समस्या तक आ सकती है और बांझपन या जन्म दोष हो सकता है कई बीमारियों और संक्रमण का कारण बन सकते हैं। सैनेटरी नैपकिन निर्माण में उपयोग में होने वाले रसायन कई बीमारियों और संक्रमण का कारण बन सकते हैं। जैसे डाइऑक्सिन प्रजनन अंगों में असामान्य ऊतक वृद्धि का कारण बन सकते हैं। रेयान जो पुनर्जीवित सेलूलोज से निर्मित एक फाइबर है, पैड की अवशोषित क्षमता को बढ़ाने के लिए उपयोग किया जाता है, इसमें डाइऑक्सिंस होते हैं। सैनेटरी नैपकिन में सिंथेटिक सामग्री भी होती है, जो गीलापन और तापमान को रोकती है, जिससे फफूंद और जीवाणुओं का विकास होता है। पैड्स को एक चिकनी सतह देने वाला थैलेट्स, जिसे प्लास्टिसाइज़र्स भी कहा जाता है, महिलाओं के अंग को क्षतिग्रस्त कर सकता है।

" देश भर में करीब 43.2 करोड़ उपयोग किए गए सैनेटरी नैपकिन हर महीने फेंक दिए जाते हैं। भविष्य में यह संख्या तेजी से बढ़ सकती है। सेनेटरी नेपकिन का सही ढंग से निपटारा न होने से चुनीतियां खड़ी हो सकती हैं क्योंकि उपयोग किए गए सैनेटरी नेपकिन में कई तरह के रोगाणु होते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी नुकसानदायक हो सकते हैं। कई बार उपयोग के बाद सेनेटरी नेपकिन इधर-उधर फेंक देने से जल निकासी भी बाधित हो जाती है। "        -                    डॉ. राकेश कुमार निदेशक, सीएसआईआर-नीरी

हानिकारक प्रदूषक डाइऑक्सिंस

सैनेटरी पैड्स में पाये जाने वाले डाइऑक्सिन को आम भाषा में 'ह्यूमन कार्सिनोजेन' कहा जाता है। यह पैड्स के क्लोरीन ब्लीचिंग प्रोसेस के दौरान निकलता है। वास्तव में डाइऑक्सिंस पर्यावरण प्रदूषक हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, ये तत्व ग्रुप-ए कार्सिनोजेनिक हैं, जो विकास, जन्म दोष और इम्यून सिस्टम कमजोर करने की समस्या भी पैदा कर सकते हैं। डाइऑक्सिन का रासायनिक नाम 2,3,7,8 - टेट्रा क्लोरो डाई बेंजो पैरा डाइऑक्सिन है। अभी तक कुछ 419 प्रकार के डाइऑक्सिंस से संबंधित यौगिकों की पहचान की गई है, लेकिन इनमें से केवल 30 को ही विषाक्त माना जाता है, जिसमें सैनेटरी पैड्स में प्रयोग किये जाने वाला डाइऑक्सिस सबसे अधिक विषाक्त है।

वैज्ञानिक प्रयोगों से पता चला है कि डाइऑक्सिंस अत्यधिक विषाक्त क्षमता के कारण मनुष्य के कई अंगों और प्रणालियों को प्रभावित करते हैं। एक बार जब डाइऑक्सिंस शरीर में प्रवेश करते हैं, तो उनकी रासायनिक स्थिरता और वसा ऊतक द्वारा अवशोषित होने की क्षमता के कारण वे लंबे समय शरीर में संग्रहीत रहते हैं। विषेशज्ञों का मानना है कि एक बार इस रसायन के संपर्क में आने से यह शरीर में लगभग 20 साल तक बने रहते हैं, जो शरीर को भारी नुकसान पहुंचा सकते हैं। पर्यावरण में, डाइऑक्सिस खाद्य श्रृंखला में जमा होते हैं। पशु जितना अधिक भोजन श्रृंखला में उच्च होता है, डाइऑक्सिंस की सांद्रता उतनी ही अधिक होती है।
डाइऑक्सिस के उच्च स्तर के लिए मनुष्य के अल्पकालिक जोखिम के परिणामस्वरूप त्वचा के घाव हो सकते हैं। लंबे समय तक एक्सपोज़र प्रतिरक्षा प्रणाली, तंत्रिका तंत्र, अंतःस्रावी तंत्र और प्रजनन कार्यों की कमजोरी का कारण बन सकता है। जानवरों के डाइऑक्सिंस के लगातार संपर्क में आने से कई प्रकार के कैंसर दर्ज किये गये हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के विकासशील भूण डाइऑक्सिन जोखिम के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील हैं।

नवजात शिशु, तेजी से विकसित अंग प्रणालियों के साथ, कुछ प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील भी हो सकते हैं। इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर (आईएआरसी) द्वारा टीसीडीडी अर्थात् डाइऑक्सिस पर किये गये अध्ययन के अनुसार इसे ज्ञात मानव कार्सिनोजेन के रूप में वर्गीकृत किया गया है। हालांकि, यह आनुवंशिकता को प्रभावित नहीं करता है।

“वेलेट्स एक किस्म का केमिकल्स होता है, जिनका इस्तेमाल प्लास्टिक को फ्लेक्सिबल ड्यूरेबल, सॉफ्ट और ट्रांसपेरट बनाने के लिए किया जाता है। डिस्पोजेबल पेट्स बनाने में उपयोग किया जाने वाला यह रसायन त्वचा के संपर्क में आने से किडनी और लंग्स की समस्या के साथ प्रोडक्टिव सिस्टम में दिकत लाकर फर्टिलिटी इश्यूज़ तक को प्रभावित करने की क्षमता है और कैंसर जैसी ख़तरनाक बीमारियों का कारण बन सकता हैं।"-   डॉ. पूजा त्रिपाठी पाण्डेव ब्रांड एम्बेस्डर ऑफ हेल्थ क्विन इंडिया

पर्यावरण के दुश्मन थैलेट्स

सैनेटरी पैड्स में पाये जाने वाले अन्य रसायन हैं थैलेट्स, जिन्हें प्लाटिसाइज़र्स भी कहते हैं। ये वे पदार्थ हैं जिन्हें प्लास्टिक में लचीलापन, पारदर्शिता, टिकाऊपन बढ़ाने और दीर्घायु के लिए मिलाया जाता है। इन्हें मुख्य रूप से पॉलीविनाइल क्लोराइड (पीवीसी) को नरम करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय संघ में कई उत्पादों से थैलेट्स को स्वास्थ्य संबंधी कारणों को लेकर चरणबद्ध तरीके से हटा दिया गया है। वे प्लास्टिक जिसमें थैलेट्स को मिलाया जाता है, के साथ किसी प्रकार का कोई सहसंयोजक बंध न होने के कारण थैलेट्स को आसानी से पर्यावरण में मुक्त किया जा सकता है। जैसे-जैसे प्लास्टिक पुरानी होती है और टूटती है, थैलेट्स का पर्यावरण में होने वाला रिसाव भी बढ़ता जाता है। उपयोग के बाद कूड़े में फेंके गये सैनेटरी पैड्स में थैलेट्स रिस कर आसानी से पानी और भोजन या वातावरण में घुलते रहते हैं और इस प्रकार कोई भी व्यक्ति इनके प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रदूषण का शिकार बन सकता है।

बढ़ता पीरियड कचरा

एक अध्ययन के अनुसार, एक महिला द्वारा पूरे पीरियड के दौरान इस्तेमाल किए गए सैनेटरी नैपकिन्स से लगभग 125 किलो नॉन बायोडिग्रेडेबल यानी प्राकृतिक रूप से ख़त्म न होने वाला कचरा बनता है। अगर मान लिया जाए कि एक महिला 12 से 45 वर्ष की उम्र के बीच मासिक धर्म से गुजरती है तो वह हर पीरियड साइकिल के दौरान उपयोग किये गये पैड्स के आधार पर वह अपने जीवन में लगभग 8,000-10,000 पैड्स को फेंकती हैं। एक शोध के मुताबिक भारत में हर महीने 9000 टन मेंस्ट्रुअल बेस्ट उत्पन्न होता है, जो सबसे ज्यादा सैनेटरी पैड्स से आता है। इतना नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरा हर महीने ज़मीन और पर्यावरण को दूषित कर रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक प्लास्टिक पदार्थ से बने नैपकिन स्वास्थ्य के लिए कई बार काफी खतरनाक होते हैं। इन सैनेटरी पैड्स के निस्तारण की जानकारी के अभाव में अधिकांश महिलाएं इसे कचरे के डिब्बे में फेंक देती हैं, जो अन्य प्रकार के कचरे में मिल जाता है और इसे रिसाइकिल नहीं किया जा सकता। खुले में ऐसा कचरा उठाने वाले लोगों के स्वास्थ्य को भी इस कचरे से ख़तरा रहता है।

बेसिक शिक्षा विभाग द्वारा जूनियर हाई स्कूलों में इनसीनेरेटर का निर्माण करवाया जा रहा है, ताकि बालिकाएं उपयोग किये गये सेनेटरी पेस का उचित निस्तारण कर सकें। महिला स्वच्छता एवं स्वास्थ्य जागरूकता की दिशा में स्कूलों की मीना मंच बालिकाएं अपना विशेष योगदान दे रही हैं।" -रुफिया खान गर्ल्स चाइल्ड मोटिवेटर

समस्या का निदान

स्वास्थ्य की दृष्टि से भी सैनेटरी पैड्स हानिकारक होते हैं क्योंकि ये देर तक खून को संचित करने में तो सक्षम होते हैं, जिससे दाग लगने या बार-बार पैड बदलने की समस्या से छुटकारा मिल जाता है, लेकिन इस संचित खून में ई. कोलाई जैसे कई जीवाणु जमा होते हैं, जिससे कई तरह की संक्रामक बीमारी होने की संभावना बढ़ जाती है। वहीं दूसरी ओर, इन जीवाणुओं के मरने पर ये और कई सारी खतरनाक बीमारियों के रूप में तब्दील हो जाते हैं। वहीं दूसरी ओर, इनसे निकली प्लास्टिक पर्यावरण के लिए ख़तरा साबित होती है क्योंकि एक पारंपरिक पैड चार औसत आकार के प्लास्टिक बैग के बराबर होता है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि प्लास्टिक सैनेटरी पैड के विल्कप तैयार किये जाएं जो कि बायोडिग्रेडेबल हों।

प्लास्टिक फाइबर से निर्मित हानिकारक सैनेटरी पैड्स से निजात पाने के दो विकल्प हो सकते हैं। पहला, प्राकृतिक फाइबर यानी केले के पेड़ के रेशे से बनाए जाने वाले पैड ये पैड आसानी से इस्तेमाल के बाद स्वतः नष्ट हो जाते हैं। सबसे खास बात यह है कि ये नष्ट होते ही खाद और बायोगैस की तरह उपयोग में आ सकते हैं और इनके निस्तारण और जलाने से उत्पन्न होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की समस्या नहीं रहती। दूसरे, प्लास्टिक सैनेटरी पैड के कचरे से निजात पाने के लिए अब दोबारा इस्तेमाल होने वाले सैनेटरी कप, कपड़े के पैड, बायोडिग्रेडेबल नैपकिन्स के इस्तेमाल पर जोर दिया जाने लगा है।

भारतीय शोधकर्ताओं ने 'ग्रीनडिस्पो' नामक एक ऐसी पर्यावरण हितैषी भट्टी का निर्माण किया है, जो सैनेटरी नैपकिन और इसके जैसे अन्य अपशिष्टों के निपटारे में मददगार हो सकती है। इस भट्टी का निर्माण हैदराबाद स्थित इंटरनेशनल एडवांस्ड रिसर्च सेंटर फॉर पाउडर मैटलर्जी एंड न्यू मैटीरियल्स (एआरसीआई), नागपुर स्थित सीएसआईआर-राष्ट्रीय पर्यावरणीय अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) और सिकंदराबाद की कंपनी सोबाल एरोथर्मिक्स ने मिलकर किया है। ग्रीनडिस्पो में 800 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर अपशिष्टों का त्वरित दहन किया जाता है, जो सैनेटरी नैपकिन और इस तरह के दूसरे अपशिष्टों के सुरक्षित निपटारे के लिए आवश्यक माना जाता है। इसकी मदद से उपयोग किए गए सैनेटरी नैपकिन एवं इस तरह के अन्य अपशिष्टों को न्यूनतम गैसों के उत्सर्जन से पूरी तरह सुरक्षित तरीके से नष्ट किया जा सकता है। हानिकारक गैसों के उत्सर्जन को रोकने के लिए इस भट्टी में 1050 डिग्री सेल्सियस तापमान पैदा करने वाला एक अन्य चैंबर भी लगाया गया है।

सैनेटरी पैड्स के मानक

सैनेटरी पैड का काम सिर्फ ब्लीडिंग को सोखना नहीं है, इसे हाइजीन के पैरामीटर पर भी खरा उतरना चाहिए। सामान्यतः जब हम सैनेटरी पैड खरीदने जाते हैं तो ब्रांड वैल्यू पर विश्वास करके खरीद लेते हैं, जो कि गलत है। सैनेटरी पैड खरीदते समय उसका पीएच स्तर जरूर देखना चाहिए। पिछले वर्षो अहमदाबाद स्थित कंज्यूमर एजुकेशन एंड रिसर्च सेंटर ने एक टेस्ट किया था, जिसमें उन्हें बाज़ार में बिकने वाले 19 सैनेटरी ब्रांड्स में धूल और अन्य जीवांश मिले। सरकार ने इसके लिए मानक तय कर रखे। हैं। इंडियन ब्यूरो स्टैंडर्स ने सैनेटरी पैड के लिए पहली बार 1980 में मानक तय किए, जिसमें समय-समय पर बदलाव भी किए गए हैं। तय मानक के अनुसार-

  • सैनेटरी पैड बनाने के लिए अब्सॉर्बेट फिल्टर और कवरिंग का सबसे अधिक ख्याल रखना होता है।
  • फिल्टर मैटेरियल सेल्युलोज़ पल्प, सेल्युलोज अस्तर, टिशूज़ या कॉटन का होना चाहिए। ध्यान रहे इसमें गांठ, तेल के धब्बों, धूल और किसी अन्य चीज़ की मिलावट नहीं होनी चाहिए।
  • कवरिंग के लिए भी अच्छी क्वालिटी के कॉटन का इस्तेमाल होना चाहिए। 

जानकारी के अभाव में आज भी अधिकांश किशोरियां इस प्राकृतिक क्रिया से तब तक अनजान हैं जब तक वह प्रथम मासिक धर्म के क्रम से नहीं गुजरतीं। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश महिलाएं आज भी इस इस प्राकृतिक क्रिया को गंदा मानती हैं या शर्मनाक मानती हैं। अतः ऐसी भ्रातियों का अंत होना चाहिए और उचित समय पर उचित उपाए अपनाना चाहिए, जो पर्यावरण मित्र हों।

डॉ. इरफान ह्यूमन रिसर्च न्यूज़ चैनल 67 अन्टा, निकट मोहनी स्कूल, शाहजहाँपुर 242001 ई-मेल: research.rog@redffimail.com

स्रोत :- विज्ञान प्रगति , जून 2021  हिंदी 

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Post By: Shivendra
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