पर्वतीय क्षेत्रों में कम लागत तकनीक द्वारा वर्षा जल संग्रहण

पर्वतीय क्षेत्रों में कम लागत तकनीक द्वारा वर्षा जल संग्रहण
पर्वतीय क्षेत्रों में कम लागत तकनीक द्वारा वर्षा जल संग्रहण

खाद्य संकट से छुटकारा एवं स्थिर आर्थिक विकास के लिये जल एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। ज्ञातव्य है कि कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक जल का उपयोग किया जाता है लेकिन निकट भविष्य में इस दशक के अंत तक इसमें प्रयोग होने वाले जल की कुल मात्रा में से 10-15 प्रतिशत की कमी होने की सम्भावना जताई जा रही है। सिंचाई के स्थिर एवं यथाक्रम विकास के साथ- साथ भारतवर्ष में विकास की विभिन्न योजनाओं के द्वारा सम्भावित सिंचाई का क्षेत्रफल 226 लाख हैक्टेयर (सन् 1951) से बढ़कर 988.4 लाख हैक्टेयर (2004-05) हो गया है।

 देश के सिंचित क्षेत्रों में कृषि उत्पादन ने एक लम्बी छलांग लगाते हुए महान उपलब्धि प्राप्त कर ली है। जबकि कुल खेती योग्य भूमि (1420 लाख हैक्टेयर) का लगभग 63 प्रतिशत भाग (895 लाख हैक्टेयर) वर्षा पर आश्रित है। एक अनुमान के अनुसार सिंचाई की सम्पूर्ण सम्भावनाओं के विकास के बाद भी सन् 2010 तक लगभग 600 लाख हैक्टेयर भूमि फिर भी असिंचित या वर्षा पर आश्रित रहेगी। इस भूमि का अधिकतम भाग पहाड़ी प्रदेशों में है जहां केवल बारानी खेती के कारण फसलोत्पादन बहुत कम एवं अस्थिर रहता है।

हिमाचल प्रदेश में सिंचाई की सुविधा बहुत कम होने के कारण 82 प्रतिशत खेती योग्य भूमि पर बारानी खेती की जाती है। यद्यपि प्रदेश में पर्याप्त वार्षिक वर्षा होती है, फिर भी यहां पानी की बहुत कमी है। सिंचाई की सुविधायें नदी, घाटियों और झरनों के आसपास ही उपलब्ध होकर सीमित रह जाती हैं। इसके अतिरिक्त भारत के उत्तरी-पश्चिमी राज्यों के शिवालिक क्षेत्र से कुल वर्षा का लगभग 50 प्रतिशत भाग व्यर्थ बह जाता है। इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि हमें वर्षा जल की प्रत्येक बूंद को संचित करना चाहिए और इस तरह से सचित जल का सदुपयोग करके सिंचित क्षेत्रफल में वृद्धि करनी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कम लागत तकनीक द्वारा निर्मित प्रक्षेत्र तालाब जो कम घनत्व वाली पतली चादर से मंडित होते हैं, एक कम संसाधन से युक्त किसान जिसके पास कम जमींन के अलावा बिखरे हुए खेत हैं, के लिए एक आदर्श संरचना है। ज्ञातव्य है कि इस तरह से निर्मित प्रक्षेत्र तालाब के निर्माण के लिए किसी विशेष योग्यता एवं संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती है और बनाने में आसान होने के साथ- साथ यह भूस्खलन प्रतिरोधी भी होता है।

वर्षा जल संग्रहण क्या है?

वर्षा जल संग्रहण, बहते हुए जल को इकट्ठा करने की एक प्रक्रिया है जिसमें बरसती हुई प्रत्येक बूँद को भूमि की सतह पर या रिचार्ज के रूप में भूमिगत भण्डारण किया जाता है जो बाद में उपयोग में लाया जाता है। दूसरे शब्दों में वर्षा जल को इकट्ठा करना, भण्डारण करना एवं पुनः शोधन करके कृषि, घरेलू एवं औद्योगिक प्रयोग में लाने को वर्षा जल संग्रहण कहते हैं। वास्तव में वर्षा जल की प्रत्येक बूँद को इक्ट्ठा करने की प्रक्रिया ही जल संग्रहण का मौलिक सिद्धांत है। यह सर्वविदित है कि वर्षा ही समस्त जल स्त्रोतों का प्राथमिक आधार है। अन्य स्रोत जैसे नदियाँ, नाले, झरने, कुएँ, झीलें एवं तालाब इत्यादि भी अन्तोगत्वा वर्षा पर ही निर्भर रहते हैं।

साधारणतयः मुख्य जल स्त्रोतों का संरक्षण एवं रखरखाव ही सहायक जल स्त्रोतों को सुचारू रूप से संचालन करने के लिए आवश्यक होता है। वर्षा जल संग्रहण एक विशाल अर्थ लिए हुए अपने आप में एक शब्दावली है। यह केवल वर्षा जल का ही एक मात्र संग्रहण नहीं है बल्कि वर्षा जल के साथ-साथ बर्फीले जल एवं अन्य सहायक जल स्त्रोतों का भी सम्मिलित संरक्षण है।

वर्षा जल संग्रहण आवश्यक क्यों?

  •  विभिन्न वर्गों की मांग को पूर्ण करने के लिये प्रवाह जल की अपर्याप्त मात्रा तथा भूमिगत जल पर बढ़ती निर्भरता।
  •  बढ़ते शहरीकरण के कारण वर्षा जल अन्तः स्पंदन में अत्यधिक कमी होने से भूमिगत जल स्तर में भारी गिरावट।
  •  शहरों, उद्योगों तथा कृषि में आधुनिकीकरण एवं मनुष्य की जीवन शैली में परिवर्तन इत्यादि के कारण जलापूर्ति के लिए बढ़ती स्पर्धा।

वर्षा जल संग्रहण के उद्देश्य

  • कुल उपलब्ध जल में बढ़ोतरी।
  • जल की बढ़ती मांग की आपूर्ति करना।
  • वर्षा जल प्रवाह को कम करना।
  • भूमिगत जल स्तर को सामान्य लाना।
  • मृदा कटाव / क्षयकरण में कमीं करना।
  • ग्रीष्मकाल एवं सूखे की स्थिति में आवश्यक जलापूर्ति।

वर्षा जल संग्रहण के लाभ

  • सूखे के प्रभाव को कम करने में सक्षम तथा पर्यावरण की दृष्टि से भी सर्वोत्तम। 
  • विद्यमान जलापूर्ति योजनाओं पर दबाव कम करके उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में सक्षम।
  • भूमिगत जल को प्रयोग में लाने के लिए प्रयुक्त जलकल (हैंडपंप) में कमीं।
  • उत्तम गुणवत्ता, मृदु एवं कम स्वनिज तत्वों से युक्त जल की उपलब्धता।
  • भूमिगत जल की गुणवत्ता में बढ़ोतरी करना।
  • मृदा कटाव को रोकने में सक्षम तथा प्रयुक्त उर्वरकों का हास कम करने में सहायक।
  • फसलोत्पादन में प्रयुक्त लागत की उपयोग क्षमता में वृद्धि।
  • मेहनती किसानों को प्रोत्साहन देने में सक्षम तथा कम लागत के कारण सभी की पहुँच के अंदर।

वर्षा जल संग्रहण के तरीके

वर्षा जल संग्रहण दो तरीकों से किया जाता है जिनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार से हैं:

1. यथास्थान में वर्षा जल संग्रहण:

वास्तव में अधिकतम लाभ के लिए वर्षा जल के नुकसान को रोकना एवं इसका संचयन करना और विशेष रूप से उसी जगह पर उसको इकट्ठा करना एवं भण्डारण करना जहां पर यह प्राप्त हो रहा है, एक उचित प्रक्रिया है। इस तरह का अभ्यास मुख्य रूप से कृषि में जलापूर्ति के लिए किया जाता है। इस विधि द्वारा जल संग्रहण करने के लिये किसी विशेष लागत की आवश्यकता नहीं होती है। इस विधि द्वारा फसल एवं पौधों को केवल जीवन रक्षक सिंचाई उपलब्ध कराकर सूखे से बचाया जा सकता है। इसमें प्रयुक्त तरीकों में विभिन्न छायावरणों का प्रयोग, भूमि का समतलीकरण, परिवेश मेड़, चौकीदार चौरस खेत, नाली एवं मेड़ बनाना तथा अन्तःपक्ति या अन्तः भूखण्ड इत्यादि प्रमुख हैं।

2. परिवर्तित स्थान पर वर्षा जल संग्रहणः

वर्षा जल परिक्षेत्र में विभिन्न प्रकार की संरचनाओं जैसे बांध बनाना, छत के पानी को किसी तालाब या टंकी में डालना, नालों में बांध बनाना एवं जल मार्ग नियंत्रक इत्यादि का निर्माण करके जल भण्डारण की प्रक्रिया को परिवर्तित स्थान पर जल संग्रहण कहते हैं। भविष्य में आने वाली परिस्थितियों के अनुकूल जल के अधिकतम लाभ के लिए एवं रूक-रूक कर जल प्रवाह की स्थिति में यह विधि और भी उपयोगी हो जाती है। परिवर्तित स्थान पर जल संग्रहण एवं संचयन तकनीक किसी स्थान विशेष की स्थिति से सम्बंध रखती हैं। अतः घरेलू एवं कृषि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जल प्रबन्ध में प्रयुक्त लागत को कम करने के लिए इस विधि का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है। यह विधि विशेषतः मुख्य सिंचाई के साथ जीवन रक्षक सिंचाई की जलापूर्ति के लिए प्रयोग में लाई जा सकती है। वर्षा जल संग्रहण की यह विधि दोनों सूक्ष्म एवं वृहद पोषक अवाह क्षेत्रों के आधार पर कार्यान्वित की जाती है। सूक्ष्म पोषक क्षेत्र पद्धति में समीपवर्ती क्षेत्रों से जल इकट्ठा किया जाता है जबकि वृहद पोषक क्षेत्र पद्धति में बड़ी-बड़ी नदियों, झरनों, नालों एवं कूहल का जल प्रवाह दिशा बदल कर संग्रहित कर के शेष जलापूर्ति के लिए प्रयोग में लाया जाता है या इसका भण्डारण किया जाता है। परिवर्तित स्थान पर जल संग्रहण का आरम्भः

क) स्थानीय और समीपवर्ती पोषक क्षेत्रों,
ख) घरों की ऊपरी छत ग) झरनों, 
ग) झरनों, 
घ) मौसमी या चिरस्थायी जल प्रवाह, एवं
ड.) जलागम प्रबन्धन तकनीक द्वारा कर सकते हैं।, 

वर्षा जल संग्रहण क्षमता

वर्षा जल संग्रहण क्षमता, वर्षा जल, पोषक / अवाह क्षेत्र जिस पर वर्षा जल गिरता है एवं धरातल की दशा (जल प्रवाह गुणक) इत्यादि पर निर्भर करती है। वर्षा जल के रूप में प्राप्त जल की कुल मात्रा जो एक क्षेत्र विशेष पर गिरता है उसे उस क्षेत्र विशेष का वर्षा जल समर्पण कहते हैं। वर्षा जल समर्पण का वह भाग जो कार्य साधन रीति से संग्रहित किया जा सके उसे सम्भावित जल संग्रहण कहते हैं। इसको निम्नलिखित तरीके द्वारा मापा जाता है।

जल संग्रहण क्षमता (घन मीटर)=र्षा जल (मी.) x पोषक / अवाह क्षेत्रफल (वर्ग मीटर) X जल प्रवाह गुणक

वर्षा जल संग्रहण के अंग

  1.  वर्षा जल संग्रहण एवं भण्डारण।
  2.  संग्रहित जल का क्षमताशाली उपयोग।
  3. प्राकृतिक जल संसाधनों में वृद्धि।

1. वर्षा जल संग्रहण एवं भण्डारण:

वर्षा जल संग्रहण एवं भण्डारण बड़े बड़े सार्वजनिक जलाशयों या व्यक्तिगत किसान द्वारा निर्मित छोटे-छोटे प्रक्षेत्र तालाबों (100-200 घन मीटर क्षमता) में सफलतापूर्वक किया जा सकता है। इसके अलावा प्रक्षेत्र विशेष पर ही विभिन्न छायावरणों, भूमि का समतलीकरण एवं अंतः क्षेत्र द्वारा भी जल संग्रहण किया जा सकता है। इसका चुनाव मुख्य रूप से इसके उद्देश्यों, कृषि परिस्थितियों एवं व्यक्ति विशेष की इच्छा शक्ति और सहभागिता पर निर्भर करता है। पहाड़ी क्षेत्रों में जहा भू-भाग छोटे और बिखरे हैं तथा कृषक संसाधनों की कमी है, वहां छोटे-छोटे एवं कम लागत से निर्मित प्रक्षेत्र तालाब वर्षा जल संग्रहण के लिये बहुत ही प्रायोगिक और व्यवहार्य है।

पॉलीथीन चादर से मंडित प्रक्षेत्र तालाब में जल संग्रहण

प्रक्षेत्र तालाब एक छोटी संरचना है। घरों की ऊपरी छत, खेतों, पोषण / अवाह क्षेत्र, सड़कों एवं अन्य गौण जल स्त्रोत जैसे सोता, चश्मा, धारा एवं मौसमी जल प्रवाह जो अपने कम बहाव के कारण सिंचाई के उद्देश्य को पूर्ण करने में अव्यवहार्य हो जाते हैं इत्यादि से प्रभावित जल छोटे-छोटे तालाबों में इक्ट्ठा किया जा सकता है। इस तरह के तालाबों का निर्माण करने के लिये किसी विशेष योग्यता एवं संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती है। ये भूकम्प के हल्के झटकों को बर्दाश्त करने में भी सक्षम होते हैं। इनका बड़ी आसानी से एक छोटे भूखण्ड (5-6 मी. चौड़े) पर भी निर्माण किया जा सकता है। इन प्रक्षेत्र तालाबों का आकार धरातलीय स्थिति, जलवायु एवं जल स्त्रोत के ऊपर निर्भर करता है।

प्रक्षेत्र तालाब की रूपरेखा

प्रक्षेत्र तालाब के विधिवत रूपांकन के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाता है।

  1.  अवस्थान भू-खण्ड का चुनाव।
  2. प्रयुक्त सामग्री का ब्यौरा।
  3. आकार, परिमाप एवं भण्डारण क्षमता का निर्धारण।
  4. . तालाब की निर्माण विधि।

1. अवस्थान भू-खण्ड का चुनाव:

प्रक्षेत्र तालाब के लिये स्थान का चुनाव करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जाता है:

क) तालाब के लिये प्रस्तावित भूखण्ड अधिक से अधिक प्रवाहित जल प्राप्त कर सकें।
ख) कम से कम खुदाई द्वारा अधिक से अधिक प्रवाहित जल भण्डारण क्षमता प्राप्त कर सकें।
ग) सख्त चट्टान की उपस्थिति को ध्यान में रखते हुए भूखण्ड का चुनाव करें जिससे अधिक समय एवं वर्च से बचा जा सके।
घ) सिंचाई योग्य भूमि के ऊपरी हिस्सों पर तालाब बनायें जिससे गुरुत्वाकर्षण का लाभ उठाते हुए सिंचाई सुविधाओं को कम लागत में ही उपलब्ध करा सकें।
ड.) चयनित भूखण्ड चश्में या जल स्त्रोत से दूर हो जिससे तालाब की खुदाई करते समय जल प्रवाह की दिशा एवं मात्रा क्षतिग्रस्त न हो।

2. तालाब का आकार, परिमाप एवं भण्डारण क्षमता का निर्धारण:

तालाब का आकार मिट्टी की बनावट के ऊपर निर्भर करता है जिसके द्वारा स्थायी ढालू सतह का ज्ञान होता है। सामान्यतयः तालाब समलम्ब चतुर्भुज आकार का बनाया जाता है जिसके किनारों की ढलान 1:1 से 1:2 तक रखी जाती है। इसकी सार्थक गहराई भी 1.5 से 5.0 मी. के मध्य ही सर्वाधिक उपयुक्त रहती है। इस तरह से निर्मित तालाब उल्टे पिरामिड की तरह दिखने लगता है

(चित्र-1)। इस तरह के तालाब की क्षमता निर्धारण के लिए मुख्य सिद्धांत, इसमें स्त्रोत से आपूर्ति योग्य जल की मात्रा और भण्डारण क्षमता का योग जो कुल जल मांग के बराबर या अधिक हो, पर निर्भर करता है। समलम्ब आकार के तालाब (1:1 ढलान) की जल भण्डारण क्षमता (घ, घन मीटर) की गणना निम्नलिखित सूत्र द्वारा की जाती है:

(चित्र-1)
(चित्र-1)

घ=ग/2 [(ल-2 मु) (च-2मु) + (ल-2 ग-2 मु) (च-2ग-2 मु)]
ग = तालाब की सार्थक गहराई 
ल = ऊपरी सतह की लम्बाई 
च=  ऊपरी सतह की चौड़ाई 
मु = तालाब की मुक्त ऊँचाई 

समलम्ब आकार के तालाब की जल भण्डारण क्षमता (घ, घन मीटर) को मापने का साधारण एवं वैकल्पिक सूत्र (चित्र-2):

घ= [ल, च, ल, च, + (ल, च2 , ल2, च1)/2]ग/3
ल1 =  तालाब की ऊपरी सतह की लम्बाई 
च1=  तालाब की ऊपरी सतह की चौड़ाई 
ल2 = तालाब की निचली सतह की लम्बाई
च2 =  तालाब की निचली सतह की चौड़ाई
ग = तालाब की गहराई

3. प्रयुक्त सामग्री का ब्यौराः

तालाब के लिये प्रयुक्त पदार्थों की गणना निम्नलिखित प्रकार से की जाती है।

पॉलीथीन चादर (अस्तर) का क्षेत्रफलः [2√2 (ग+मु.) +1.0+ (ल-2ग-2मु.) X 2√2 (ग+मु.)+ 1.0+ (च-2ग-2मु.)] 

गोल पत्थर या ईंटें बिछाने हेतु क्षेत्रफलः [2√2 (ग+मु.) X (च+ल-2मु.-2ग.) + (ल-2ग-2मु.) X (च-2ग-2गु.)]

चादर के आकार की गणना के लिये अनुमानित ढंग:

1. चादर की लम्बाई (मी.): [2 X तालाब के चारों तरफ के रास्ते की चौड़ाइ (मी.) + 2 X कोने पर तिरछी गहराई (मी) धरातल की लम्बाई (मी.) + 2 (0.5 मी.) चादर को चारों तरफ खाई खोद कर जकड़ने हेतु]

2. चादर की चौड़ाई (मी.): [2X तालाब के चारों तरफ के रास्ते की चौड़ाई (मी.) + 2 X कोने पर तिरछी गहराई (मी.) + धरातल की चौड़ाई (मी.) + 2 (0.5 मी.) चादर को चारों तरफ खाई खोद कर जकड़ने हेतु]

नोटः परिमाप की इकाई मीटरों की समानुपात फुटों में भी निर्धारित की जा सकती है।

3. चादर का क्षेत्रफल: (वर्ग मीटर) चादर की लम्बाई X चौड़ाई

4. कम घनत्व वाली काली : चादर (एल.डी.पी.ई.) का भार (कि.ग्रा.)
चादर का क्षेत्रफल (वर्ग मीटर)/4.5

(250 माइक्रोन मोटाई की एल.डी.पी.ई. लगभग 4.5 वर्ग मीटर क्षेत्रफल की चादर का भार 1.0 कि.ग्रा. होता है)

5. सिल्पॉलिन (200 जी.एस.एम.):  चादर का भार (कि.ग्रा.): चादर का क्षेत्रफल (वर्ग मीटर) /5  (200 जी.एस.एम. सिल्पॉलिन की लगभग 5 वर्ग मीटर क्षेत्रफल की चादर का भार 1.0 कि. ग्रा. होता है)।

कम घनत्व वाली पॉलीथीन चादर की मोटाई 800 गेज (200-250 माइक्रोन /200 जी. एस. एम.) उत्तम रहती है। इस चादर की गुणवत्ता भारतीय मानक संस्थान मार्क 2508/1977 के अनुरूप ही होनी चाहिए। तालाब की भण्डारण क्षमता 1000 घन मीटर या इससे अधिक होने पर 1000 गेज मोटी चादर प्रयोग की जाती है।

चित्र- 2 प्रक्षेत्र तालाब की रूपरेखा
चित्र- 2 प्रक्षेत्र तालाब की रूपरेखा 

4. तालाब की निर्माण विधिः 

तालाब की निर्माण प्रक्रिया में निम्नलिखित कार्य किये जाते हैं

  1.  तालाब की खुदाई,
  2.  जल निकास नाली लगाना,
  3.  तालाब के तलीय भाग एवं ढालू किनारों को बनाना,
  4.  पॉलीथीन चादर को जोड़ना एवं तालाब में मडित करना,
  5.  पत्थर या ईंट को चादर से मंडित तालाब के ढलानदार किनारों पर बिछाना, एवं
  6.  प्रवाहित जल में उपस्थित गाद को रोकना।

1. तालाब की खुदाईः

सर्वप्रथम तालाब के परिमाप (ल., चौ., ग. और ढलान) निश्चित करने पर ऊपरी सतह (बाहरी आयाताकार /समलम्ब चतुर्भुज) और निचली सतह (आंतरिक आयाताकार /समलम्ब चतुर्भुज) की लम्बाई और चौड़ाई को भूक्षेत्र पर चिन्हित किया जाता है (चित्र - 2)। दोनों चतुर्भुजों के कोनों पर खुटियां लगाकर एक रस्सी को सीमाकित तालाब के किनारों पर बांधा जाता हैं। इसके बाद आंतरिक चतुर्भुज की खुदाई इच्छित गहराई तक करने पर गड्ढे को अनुमानित आकार दिया जाता है। खोदी हुई मिट्टी को भी गड्ढे के घेरे के आसपास रखकर उसे बाद में काटने एवं भरने के सिद्धांत के अनुसार, उपयोग में लाया जा सकता हैं। तालाब के किनारों की दीवारों को 1:1 से 1:2 ढलानदार (ढलान: फैलाव) बनाने के लिए बाहरी चतुर्भुज के दीवारों की तिरछी कटाई की जाती है। इससे ईटो / पत्थरों को उचित स्थिरता मिलती है। 1:1 ढलान को आसानी से लकड़ी की चौखट के साथ बाहरी चतुर्भुज के कोनों को आंतरिक चतुर्भुज के निचले कोनों से जोड़कर अभिनिश्चित किया जाता है। गड्ढे की पूर्णतया खुदाई के बाद किसी भी तरह के नुकीले पत्थर को समस्त किनारों एवं तल भाग से दुर्मुट द्वारा जमीन में ही दबा दिया जाता है या बाहर निकाल दिया जाता है। अन्त में तालाब के तलीय किनारों में एक नाली बनाई जाती है जो अंत में पॉलीथीन चादर को ईट या पत्थर से दृढ़ित करने में बुनियाद का कार्य करती है।

2. जल निकास नाली लगाना:

 तालाब से जल निकास के लिए अधिक घनत्व वाली काली पॉलीथीन या पी वी सी या जी आई पाईप का प्रयोग किया जाता है। उसके बाद सुविधानुसार किसी एक दीवार में खुदाई करके तालाब के धरातल से 30-45 सें.मी. ऊपर निकास नाली लगा दी जाती है। ज्ञात रहे कि इस निकास नाली को अच्छी तरह दीवार में सीमेंट: बजरी:रेत (1:3:6) द्वारा लगायें जिससे जल स्त्राव न हो। निकास नाली के अंदर जाली एवं बाहरी किनारे पर गेटबाल्व अवश्य लगायें।

3. तालाब के तलीय भाग एवं डालू किनारों को बनानाः

तालाब की खुदाई करने के बाद सर्वप्रथम ढालूदार किनारों से नुकीले अवशेषों को निकालते हुए समतल एवं दुर्गुट किया जाता है। पॉलीथीन चादर बिछाने से पूर्व तालाब की समस्त दीवारों एवं तलीय भाग में चिकनी मिट्टी एवं गाय के गोबर का लेप किया जाता है जिसके फलस्वरूप चादर को किसी भी तरह की क्षति पहुँचने से बचाया जाता है। घास, स्वरपतवार इत्यादि के सही नियन्त्रण के लिए तालाब की दिवारों पर एट्राजीन का 0.45 ग्रा./मी.' का छिड़काव किया जाता है।

4. पॉलीथीन चादर को जोड़ना एवं तालाब में मंडित करना:

प्रभावशाली ढंग से संचयित जल का रिसाव रोकने के लिए तालाब को पॉलीथीन की चादर से महित किया जाता है। रिसाव के लिए काली एल.डी.पी.ई. या सिल्पॉलिन चादर का प्रयोग किया जा सकता है परन्तु सिल्पॉलिन, काली एल.डी. पी.ई. की तुलना में मंहगी पड़ती है। काली एल.डी.पी.ई. चादर आमतौर पर 18 मी. से 14 मी. की चौड़ाई में उपलब्ध होती है। लेकिन जितनी आवश्यक हो उतनी ही परिमाप (बिना जोड़ वाली) की चादर स्वरीदनी चाहिए। इच्छित परिमाप की चादर न मिले तो इसे आसानी से जोड़ा जा सकता है। इसे जोड़ने के लिए तारकोल को 100° सेल्सियस तक गर्म किया जाता है। तापमान की ठीक स्थिति जानने के लिये गर्म तारकोल को चादर के ऊपर गिराया जाये तो चादर जलनी नहीं चाहिए और तारकोल चादर पर मुक्त रूप से बहने लगे। यह तरल तारकोल दोनों चादरों के इच्छित्त किनारों पर 30 सें.मी. चौड़ाई तक फैलाया जाता है। तदोपरान्त दूसरी चादर के 30 सें.मी. किनारे को उसके ऊपर डाल दिया जाता है। इसके ऊपर गोल बेलनाकार पत्थर या लकड़ी को घुमाया जाता है और इन जुड़ी हुई चादरों को ठण्डा किया जाता है। यदि पॉलीथीन कहीं से कट जाये तो एक पॉलीथीन के टुकड़े पर जो कि छेद से 2.5 सें.मी. बड़ा हो, गर्म तरल तारकोल या कृत्रिम रबड़ गोंद फैला कर उसे छेद पर चिपका दिया जाता है।

पॉलीथीन चादर को अधिक गर्मी या तेज हवा में नहीं बिछाया जाता है। खुदाई के तुरन्त बाद चादर को तैयार गड्ढे में बिछा दिया जाता है तथा किनारों पर अस्थायी रूप से चादर को सहारा दिया जाता है। निकास नाली को चादर से निकाल कर सीमेंट, कंकरीट द्वारा दृढ़ित किया जाता है। निकास नाली को निकालने के लिये चादर मे निकास नाली के व्यास (5 सें.मी.) से थोड़ा बड़ा छेद कर दिया जाता है फिर पॉलीथीन चादर को पाईप से सीमेंट, कांक्रीट द्वारा दृढ़ित किया जाता है। तालाब के तल भाग में बिछी चादर को 15 सें.मी. मोटी मिट्टी / ईटों / चपटे पत्थरों की तह से दबा दिया जाता है।

5. पत्थर या ईंट को चादर से मंडित तालाब के ढलानदार किनारों पर बिछाना:

ढलानदार किनारों पर लगी काली पॉलीथीन चादर को गोल पत्थरों या ईटों से ढक दिया जाता है। ध्यान रहे कि पत्वर या ईट बिठाते समय चादर को क्षति न पहुँचे। तालाब की ढलान के निचले किनारे से 20 सें.मी. अनुमानित व्यास के पत्थर लगाने शुरू किये जाते हैं। ज्यों-ज्यों चिनाई टैंक के शिवर की ओर बढ़ती जाये पत्थरों की गोलाई कम करते जायें और शिखर पर पहुँचे पत्थरों की मोटाई लगभग 10 सें.मी. हो। पत्थर इस प्रकार रखे जाते हैं कि वे एक दूसरे को उचित पकड़ दे सकें। तदोपरान्त पत्थरों के बीच की खाली जगह को साधारणतय कम सीमेंट ज्यादा रेत के मिश्रण (1:8) से भर दिया जाता है। अब शिखर की 30 सें.मी. चौड़ाई के पत्थरों पर सिमेंट रेत मिश्रण (1:4) से पलस्तर किया जाता है। यदि पत्थरों की जगह ईटों का इस्तेमाल करना हो तो ईटों के बीच की जगह पर भी सीमेंट का प्रयोग आवश्यक होता है। ईट व पत्थर बिछाने के उपरान्त तालाब के शिस्वर पर चारों ओर 25X25 सें.मी. नाली खोद कर पॉलीथीन चादर को उसमें मिट्टी से दबा दिया जाता है।

6. प्रवाहित जल में उपस्थित गाद को रोकना

यह सर्वविदित है कि प्रवाहित जल द्वारा बारीक मिट्टी, रेत, गाद, कंकड़ एवं अन्य पदार्थों का आगमन होने से मुख्य तालाब की क्षमता कम हो जाती है। अतः इन्हें रोकना अति आवश्यक होता है। इस प्रवाहित जल को पहले एक छोटे से हौद (2X1 मी.) में डाल दिया जाता है जहां पर समस्त गाद, मिट्टी इत्यादि बैठ जाती है तथा काफी हद तक गाद रहित जल तालाब में प्रवेश करता है। इस हौद से मुख्य तालाब में जल प्रवेश के लिये नाली बनाते हैं ताकि जल पॉलीथीन चादर के ऊपर से मुख्य तालाब में प्रवेश करे। जल प्रवेश द्वार पर पत्थरों की 30-40 सें.मी. पट्टी को सीमेंट से पलस्तर कर दिया जाता है।

7. तालाब की सिंचाई क्षमता

50 से 200 घन मीटर क्षमता वाले तालाब को किसान की व्यक्तिगत आवश्यकता के आधार पर आसानी से बनाया जा सकता है। 100 घन मीटर क्षमता का तालाब लगभग एक कनाल क्षेत्र (400 वर्ग मीटर) में सब्जी उत्पादन के लिए पर्याप्त होता हैं। एक बार पानी से भरने पर 100 घन मीटर तालाब से एक कनाल क्षेत्र में 5 सें. मी. की 05 सिंचाईयां की जा सकती है। यदि उच्च प्रौद्योगिक सिंचाई प्रणाली का इस्तेमाल किया जाये तो सम्भावित सिंचाईयां भी उच्च स्तर पर हो सकती है यानि उसी पानी से ज्यादा क्षेत्र में सिंचाई की जा सकती है। यहां यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि हिमाचल प्रदेश में पं. दीन दयाल उपाध्याय किसान एवं बागवान समृद्वियोजना के अर्न्तगत 16,000 पोलीहाऊस का निर्माण किया जा रहा है और यदि पोलीहाऊस की छत का क्षेत्र वर्षा जल संचयन के लिये प्रयोग किया जाए तथा पोलीहाऊस क्षेत्र में औसतन वार्षिक वर्षा लगभग 100 से.मी. हो तो एक पोलीहाऊस के 200 वर्ग मीटर वाले छत क्षेत्र से लगभग 160 घन मीटर जल इकट्ठा किया जा सकता है। जो काफी हद तक हरितगृह की जल आपूर्ति में सहायक हो सकता है।

8. जलभण्डारण तालाब की लागत एवं आयु

प्रक्षेत्र तालाब की लागत विभिन्न कारकों, जैसे की स्थान की स्थिति, खुदाई, रिसाव को कम करने और पॉलीथीन चादर को ढकने वाली सामग्री तथा स्थानीय परिस्थितियों इत्यादि पर निर्भर करती है। ऐसे स्थान जहाँ पर गड्ढे को मशीन द्वारा तैयार करना सम्भव हो, खुदाई की लागत मानवीय श्रम की लागत का एक तिहाई से भी कम रह जाती है। विभिन्न पदार्थों से निर्मित 50 घन मीटर क्षमता के क्षेत्र तालाब की लागत लगभग दस हजार रूपये से दो लाख रूपये तक आती है (सारणी 1)। काली एल.डी.पी.ई. चादर एवं ईटों से मंडित तालाब की लागत सिल्पॉलिन चादर की तुलना में कम आती है। पॉलीथीन चादर से र्निमित तालाब की लागत समान क्षमता वाले सीमेंट/सीमेंट कंकरीट से निर्मित तालाब की तुलना में लगभग 1/5 होती है। प्रदेश में विभिन्न संस्थानो द्वारा रिसाव रोकने वाले पदार्थों से निर्मित तालाब की लागत का मुल्यांकन करने पर ज्ञात हुआ है कि दोनों ही काली एल.डी.पी.ई. एवं सिल्पॉलिन चादर द्वारा निर्मित तालाब उत्तम हैं। तालाब की आयु पॉलीथिन चादर की गुणवता तथा तालाब की सुरक्षा एवं देखभाल पर निर्भर करती है। यदि तालाब का निर्माण उत्तम गुणवत्ता की सामग्री से कुशल कारीगरों द्वारा कराया जाये एवं उसका रख रखाव समुचित तरीके से हो तो तालाब की उपयोगी आयु 20 से 25 वर्ष तक हो सकती है।

सारणी : विभिन्न रिसाव रोकने वाली सामग्रियों द्वारा निर्मित 50 घन मीटर तालाब की अनुमानित लागत एवं आयु

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नोटः तालाब की अनुमानित लागत सन् 2009 के दौरान चल रही दरों के अनुसार है।

संचित जल का उचित उपयोग

सचित जल का क्षमताशाली उपयोग वर्षा जल संचयन का पहला कदम (निर्णय) है। सीमित मात्रा में संचयित जल का उचित उपयोग अधिक लाभ देने वाले फलों, सब्जियों और फूलों को उगाने के लिए किया जाना चाहिए। संचयित जल का उपयोग बुआई से पहले सिंचाई के लिए और फसलों की जीवन रक्षक सिंचाई के लिए किया जाना चाहिए। यदि संचित जल की मात्रा कम हो तो जल की उपयोग क्षमता आधुनिक सिंचाई तकनीक द्वारा लगभग तीन गुणा बढ़ाई जा सकती है। जिसके द्वारा अतिरिक्त क्षेत्र को सिंचित किया जा सकता है। यदि तालाब को प्रक्षेत्र/पोलीहाऊस से 25 मी. की ऊंचाई पर बनाया जाये तो बिना किसी अतिरिक्त शक्ति प्रयोग के टपक सिंचाई एवं सुक्ष्म फव्वारा सिंचाई का संचालन कम खर्च में किया जा सकता है।

तालाब की सुरक्षा एवं देखभाल

  • तालाब के सुचारू रूप से काम करने एवं इसके उत्तम उपयोग के लिये कुछ आवश्यक बातेंः
  • तालाब को शरारती तत्वों एवं जानवरों के अतिक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए कटीले तार द्वारा घेराबंदी आवश्यक है।
  • तालाब में वर्षा जल के अतिरिक्त अन्य अवांछनीय पदार्थो के प्रवेश को रोकें।
  • पॉलीथीन चादर में छेद होने पर इसे चादर के छोटे टुकड़े एवं तारकोल या कृत्रिम रबड़ गोंद की सहायता से तत्काल बंद करें।
  •  गाद भरे गड्ढे की समयानुसार सफाई अवश्य करें।
  • तालाब का लगातार निरीक्षण एवं सही रखरखाव इसकी लम्बी एवं उपयोगी अवधि के लिए आवश्यक है।

वांछनीय / अवांछनीय कार्य

वांछनीय कार्य

 

  •  पॉलीथीन चादर बिछाने से पहले तालाब की दीवारों एवं धरातल को नुकीले ककड़ पत्थर एवं जड़ों इत्यादि से मुक्त करें।
  • जहां तक सम्भव हो जोड़ वाली चादर प्रयोग ही न करें यदि जरूरत पड़े तो जोड़ को ऊपरी किनारे की तरफ रखें।
  • तालाब में जल प्रवेश एक ही दिशा में रखें।
  • ऊपरी तहों की ईटों को आपस में जोड़ने के लिए सीमेंट रेत को 1:4 के अनुपात में प्रयोग करें।
  • अच्छी गुणवता वाली सामग्री एवं कुशल कारीगरी को सुनिश्चित करें।

अवांछनीय कार्य

  • पॉलीथीन चादर की दुलाई एवं तालाब में बिछाते समय हुकों का प्रयोग न करें।
  • पॉलीथीन चादर को लगाते समय उस पर ज्यादा आवाजाही न करें तथा जूतों के साथ न चलें।
  • तेज धार व नुकीलें औजारों का प्रयोग सफाई में न करें।

लेखक "कृषक सहभागिता एवं व्यवहारिक शोध कार्यक्रम" के अन्तर्गत वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए केन्द्रीय जल आयोग, जल संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली का आभारी है। नैतिक सहायता प्रदान करने के लिए डा. आई.पी. शर्मा, डा जे.एन. रैना, डा. डी त्रिपाठी, डा. एस. वर्मा, श्रीमती सुमन बाला तथा सम्पादन एवं संशोधन के लिए डा. जी.पी. उपाध्याय, डा. के. राय शर्मा एवं ई. ओ.पी. शर्मा का सहर्ष धन्यवाद करता हूँ।

जल संग्रहण तकनीकी का प्रत्यक्ष प्रदर्शन एवं अधिक जानकारी के लिय मृदा विज्ञान एवं जल प्रबन्ध विभाग, डॉ यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी, सोलन (हि.प्र.) के अनुसंधान प्रक्षेत्र का भ्रमण तथा सम्पर्क भी कर सकते हैं।
दूरभाष: 01792-252328
Copies: 500
email: jes1963@rediffmail.com
फैक्स: 01792-252242
Year: 2009

स्रोत :- मृदा विज्ञान एवं जल प्रबन्ध विभाग

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Post By: Shivendra
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