पृथ्वी, प्रजा और पानी

धरती की ऊंची-नीची घाटियों में पानी सहज ही बह निकलता है। पानी बहता है तो उसके दो किनारे भी बन जाते हैं। इन किनारों पर पेड़-पौधे अपनी ज़ड़े जमाने लगते हैं। उनकी शाखाओं पर पक्षी बसेरा करते हैं, छांया में पशु बिलमते हैं, गांव बस जाता है और जिंदगी के मेले भरने लगते हैं। इस दुनिया में हम एक बहुरंगी मेला देखने को तो आते हैं और चले भी जाते हैं।

हम जिस धरती पर रहते हैं, अक्सर उसे याद नहीं करते। जो लोग सिर्फ मनुष्यों के द्वारा मनुष्यों के लिए गढ़े गए तंत्र को प्रजातंत्र मान बैठे हैं, वे ठीक रास्ते पर नहीं है। प्रजापति इस पृथ्वी पर सिर्फ मनुष्यों को ही नहीं गढ़ता। वह पशु-पक्षी, कीट-पतंगों और पेड़-पौधों की भी रचना करता है। ये सब मिलकर ही तो प्रजा कहलाते हैं। मनुष्यों सहित यह सारी प्रजा एक-दूसरे पर निर्भर है। तभी तो किसी एक का जीवन खतरे में पड़ जाने से सबके जीवन पर खतरा मंडराने लगता है।

पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और पेड़-पौधे मनुष्यों की तरह अपने लिए कोई विधान नहीं गढ़ते। वे तो अपने स्वभाव से ही संसार के पक्ष में अलिखित मर्यादाओं का पालन किया करते हैं। पशु-पक्षी ऋतु काल आने पर ही संतानों को जन्म देने के लिए उत्सुक होते हैं। वृक्ष पतझर आने पर खाद बन जाने के लिए अपने सारे पत्ते गिरा देते हैं और फिर बसंत ऋतु में पीक उठते हैं।

छोटे-छोटे कीट-पतंगों को गौर से देखें तो वे घास के तिनकों, फूलों, पत्तियों और जमीन पर किसी न किसी गतिविधि में संलग्न रहते हैं। हम भले ही उनके काम पर ध्यान न दे पर उनका कर्म किसी न किसी रूप में सबके जीवन में सहायक होता होगा। तितलियों और भौरों के शरीर में फूलों के परागकण अपने आप लिपट जाते हैं। वे इन परागकणों को एक फूल से दूसरे फूल तक पहुंचाया करते हैं और हमारे बिना जाने इस तरह फूलों से फ़ल बनते रहते है। भौरों को देखकर लगता है कि वे बाग-बगीचों में फूलों के अकेलेपन को दूर करने के लिए प्रकृति द्वारा नियुक्त संगीतकार हैं। हरे-भरे घास के मैदानों और वीरान धरती पर कई तरह की रंगबिरंगी चिड़िया अपने मन के कीड़े चुगा करती हैं। हो सकता है, ऐसा करके वे धरती की हरीतिमा की रक्षा करती हों।

प्रजापति द्वारा रची गई इस प्रजा का स्वभाव देखकर लगता है कि सब एक-दूसरे का शिकार करने के लिए बने हैं। पर इस शिकारीपन में एक अलिखित अनुशासन है। जाल में शेर हमेशा अपनी जरूरत का ही शिकार करता है, उससे ज्यादा नहीं। चिड़िया अपनी छोटी-सी चोंच से सिर्फ एक केंचुआ ही उठा पाती है या फिर अन्न का एक छोटा-सा दाना। तभी तो पशु-पक्षियों और वृक्षों के लिए मालगोदामों की जरूरत नहीं है। वे अपनी जरूरत भर लेते हैं और बाकीसबके लिए छोड़ देते हैं। फलों से लदे हुए वृक्ष सबके लिए झुक जाते हैं।

हिंसक जानवर न जाने कब से शिकार करते आ रहे हैं पर उनकी हिंसा से जंगल में जानवर कभी कम नहीं हुए। यह काम तो आदमियों का है जो मरी हुई खालों में भूसा भरकर अपने घर को सजाया करते हैं और व्यर्थ ही वीर कहलाते हैं। जो पशु-पक्षी और पेड़ आदमी को अपने अनुकूल नहीं जान पाते, वह उन्हें बिना यह जाने नष्ट करता आ रहा है कि उनकी भी कोई महत्वपूर्ण भूमिका इस पृथ्वी पर फैले व्यापक जीवन में होती होगी।

धरती पर अपनी बेमानी सुरक्षा के उपाय खोजते रहने की हड़बड़ी में हम पृथ्वी, पानी और प्रजापति द्वारा गढ़ी गई इस समग्र प्रजा से दूर होते चले गए हैं। हम सबके लिए तालाब नहीं बचाते पर अपना स्वीमिंग पूल सुरक्षित रखना चाहते हैं। हम सबके लिए छायादार वृक्ष नहीं बचाते पर अपनी छत पर बोनसाई सुरक्षित रखना चाहते हैं। हम खुले में खिलते निर्भय फूलों की बजाय घरों, अस्पतालों, दफ्तरों और होटलों में प्लास्टिक के गंधहीन फूल सजाकर रखते हैं।

यह दुनिया सिर्फ मनुष्यों के पक्ष में खड़ी होकर नहीं चल रही है। उसमें एक ऐसी अलिखित और आत्मीय परस्परता है, जहां पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे मनुष्यों के साथ रह कर एक-दूसरे के पक्ष में सहज ही सक्रिय है। संसार एक-दूसरे की जगह छीनने से नहीं, आपस में जगह बनाने से चलता है। बहुरंगें जीवधारियों और वनस्पतियों से हीन होती जा रही दुनिया में सिर्फ आदमी का रह पाना दूभर हो जाएगा। अब तो पृथ्वी की गहराइयों में भरा पानी का वह दर्पण भी मैला होता जा रहा है जिसमें कभी हम अपना उज्जवल प्रतिबिम्ब देख सकते थे।

धरती की ऊंची-नीची घाटियों में पानी सहज ही बह निकलता है। पानी बहता है तो उसके दो किनारे भी बन जाते हैं। इन किनारों पर पेड़-पौधे अपनी ज़ड़े जमाने लगते हैं। उनकी शाखाओं पर पक्षी बसेरा करते हैं, छांया में पशु बिलमते हैं, गांव बस जाता है और जिंदगी के मेले भरने लगते हैं। इस दुनिया में हम एक बहुरंगी मेला देखने को तो आते हैं और चले भी जाते हैं। इस मेले में सिर्फ शामिल हुआ जा सकता है। इसे उजाड़ने की सख्त मनाही है। इस मेले का अर्थ जाने बिना हमारी बनाई कोई भी अर्थव्यवस्था तब तक चल नहीं सकती जब तक हम किसी वृक्ष से एक टहनी लेते हुए उसी के जैसा वृक्ष रोपने का वचन नहीं देंगे।

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