पृथ्वी का जलमंडल: उद्भव एवं विकास

जलमंडल, फोटो : needpix.com
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पृथ्वी पर उपस्थित सभी प्रकार का जल जलमंडल में शामिल है। इसमें जल के तीनों रूप (ठोस, द्रव तथा गैस) शामिल हैं। जल के ठोस रूप में शामिल हैं स्थलीय एवं समुद्री क्षेत्र में मौजूद बर्फ, हिमनद एवं आइसबर्ग। भूसतह का लगभग 10 फीसदी भाग बर्फ से ढका हुआ है। इस बर्फ का अधिकांश भाग (लगभग 85 प्रतिशत) बर्फी ले महाद्वीप अंटार्कटिका में पाया जाता है जिसका क्षेत्रफल लगभग 75 लाख वर्ग किलोमीटर है। इसी प्रकार बर्फ का लगभग 11.4 प्रतिशत भाग ग्रीनलैंड में फैला हुआ है, जिसका क्षेत्राफल लगभग 10 लाख वर्ग किलोमीटर है। अभी तक लगाये गये अनुमान के अनुसार बर्फ एवं हिमनदों के रूप में जल की कुल मात्रा लगभग 22.83X1015 मीट्रिक टन है। यदि पृथ्वी पर उपस्थित पूरी बर्फ पिघल जाए तो समुद्रों की सतह 30 से 60 मीटर ऊँची हो जायेगी। 

जल के द्रव रूप में संसार के सभी समुद्र, नदियाँ, झील, जल प्रपात तथा भूमिगत जल शामिल हैं। पृथ्वी पर स्थित सभी सागरों एवं महासागरों का सम्पूर्ण क्षेत्राफल लगभग 361X106 वर्ग किलोमीटर या भूसतह का लगभग 70.8 प्रतिशत है। समुद्री जल का कुल आयतन लगभग 1.372X109 घन किलोमीटर है। हालाॅंकि समुद्र की सतह पर जल का घनत्व 1.028 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है, परन्तु सम्पूर्ण जल का औसत घनत्व 1.03 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है। इस हिसाब से संसार के सभी समुद्रों में स्थित जल का कुल पिंडमान लगभग 1413X1015 मीट्रिक टन होता है।

समुद्री जल के अतिरिक्त जाे भी जल पृथ्वी पर पाया जाता है उसे स्थलीय जल कहते हैं। हालाॅंकि जलमंडल में स्थलीय जल का प्रतिशत बहुत नगण्य है, फिर भी इसका महत्व भूरासायनिक कारणों से बहुत अधिक है। स्थलीय जल शैलों के अपक्षय में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

अतः इस जल की मात्रा और उसके संघटन का ज्ञान आवश्यक है। अंततः यह जल समुद्री जल में मिल कर उसके रासायनिक संघटन को भी प्रभावित करता है। स्थलीय जल का मुख्य स्रोत वर्षा है। एक अनुमान के अनुसार भूसतह पर होने वाली वर्षा की मात्रा लगभग 1.234X1014 मीट्रिक टन है। वर्षा का जल भूसतह पर गिरने के बाद कई भागों में बँट जाता है। कुछ भाग जमीन में रिस कर भूमिगत जल का अंग बन जाता है। कुछ जल वाष्प में बदल कर वायुमंडल में पहुँच जाता है, जिससे बादलों का निर्माण होता है। कुछ अंश नदियों द्वारा प्रवाहित होकर समुद्रों में पहुँच जाता है। अनुमान है कि लगभग 0.2735X1014 मीट्रिक टन जल प्रति वर्ष नदियों द्वारा प्रवाहित होकर समुद्रों में मिल जाता है। नदियों द्वारा प्रति वर्ष लगभग 0.2735X1010 मीट्रिक टन लवण स्थलीय भाग से घुलकर समुद्रों में पहुँचाया जाता है। अध्ययनों से पता चला है कि नदियों की औसत लवणता 0.01 प्रतिशत है। जल मंडल का कुछ भाग गैसीय अवस्था में जलवाष्प एवं बादलों के रूप में मौजूद है। एक अनुमान के अनुसार जलवाष्प तथा बादलों के रूप में जल की कुल समाहित मात्रा लगभग 0.15X1015 मीट्रिक टन है।

जल मंडल का रासायनिक संघटन वर्षा जल के विश्लेषण से पता चला है कि इसमें सिलिका 0.29 भाग प्रति दस लाख, कैल्शियम 0.77 भाग प्रति दस लाख, मैग्नीशियम 0.43 भाग प्रति दस लाख, सोडियम 2.24 भाग प्रति दस लाख, तथा पोटेशियम 0.35 भाग प्रति दस लाख है। नदी जल में औसत रूप से सिलिका 13.1 भाग प्रति दस लाख, लोहा 0.67 भाग प्रति दस लाख, कैल्शियम 11.5 भाग प्रति दस लाख, मैग्नीशियम 4.1 भाग प्रति दस लाख, सोडियम 6.3 भाग प्रति दस लाख तथा पोटेशियम 2.3 भाग प्रति दस लाख है।

समुद्री जल के रासायनिक संघटन के अध्ययन की दिशा में वैज्ञानिक लोग काफी लम्बे समय से प्रयासरत हैं। सन् 1872 से 1876 के बीच एच.एम.एसचैलेंजर नामक जहाज के द्वारा संसार के चारों ओर समुद्री यात्रा के दौरान डिटमार तथा कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने समुद्री जल के 77 नमूने एकत्र किये। इन नमूनों के विश्लेषण से पता चला कि प्रति किलाेग्राम समुद्री जल में लगभग 35 ग्राम लवण घुला हुआ है। इनमें शामिल हैं सोडियम, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम तथा स्ट्रौंशियम के लवण। इन लवणों में सर्वाधिक मात्रा सोडियम क्लोराइड की है। इनके अतिरिक्त कुछ गैसें भी घुली हुई हैं। इन गैसों में  ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड, आर्गन, हीलियम एवं हाइड्रोजन सल्फाइड मुख्य हैं।

उपर्युक्त विश्लेषणों से पता चला है कि नदी जल एवं समुद्री जल के रासायनिक गुणों में काफी अन्तर है। समुद्री पानी में जहां सोडियम की मात्रा मैग्नीशियम से अधिक तथा मैग्नीशियम की मात्रा कैल्शियम से अधिक है, वहीं नदी जल में कैल्शियम सोडियम से अधिक तथा सोडियम मैग्नीशियम से अधिक हैं इसी प्रकार समुद्री जल में क्लोराइड सल्फेट से अधिक तथा सल्फेट कार्बोनेट से अधिक है। इसके विपरीत नदी जल में कार्बोनेट सल्फेट से अधिक तथा सल्फेट क्लोराइड से अधिक है।

समुद्री जल का भूरासायनिक संतुलन

सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि समुद्री जल का संघटन एक सीमा तक यथा स्थिति में रहता आया है। समुद्री जल में प्रवेश करने वाला कोई तत्व उतनी ही मात्रा में अवसाद के रूप में जमा हो जाता है, जिसके कारण जल का संघटन स्थिर रहता है।

यदि इस यथा स्थिति परिकल्पना को मान लिया जाय, तो हम लोग प्रत्येक तत्व के लिये एक आवास काल को परिभाषित कर सकते हैं। इस परिभाषा के अनुसार समुद्री पानी में घुले किसी तत्व की कुल मात्रा को तत्व की उस मात्रा से विभाजित किया जाता है जो प्रतिवर्ष नदियों द्वारा समुद्र में लायी जाती हैं। परन्तु इसमें कठिनाई यह है कि बहुत से तत्व ऐसे हैं, जिनकी उपस्थिति नगण्य मात्रा में है और उनके संबंध में पर्याप्त आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी स्थिति में हम मान सकते हैं कि समुद्र में प्रवेश करने वाले प्रत्येक तत्व की मात्रा भूपटल में उसकी प्रचुरता की समानुपाती होगी। इस तरह से गणना करने पर कुछ प्रमुख तत्वों के आवास काल इस प्रकार हैं - चांदी 2.1X106 वर्ष, बेरियम 8.4X104 वर्ष, सोना 5.6X105 वर्ष, पारद 4.2X104 वर्ष तथा सोडियम 2.6X108 वर्ष।

उपर्युक्त सभी तत्वों में सोडियम का आवास काल सबसे लम्बा है तथा समुद्रों की आयु के लगभग समतुल्य है। यह सूचित करता है कि सोडियम की क्रियाशीलता समुद्री वातावरण में नगण्य है। सोडियम न तो अवसादी खनिजों में और न जैव क्रिया में उपयोग में आता है। अल्प प्रचुरता वाले तत्वों का आवास काल प्रायः छोटा होता है। सिलिका तथा अल्युमिनियम ऐसे तत्व हैं जिनका आवास काल छोटा है।

सिलिका तो जैव क्रिया में उपयोग में आ जाता है परन्तु अल्युमिनियम किसी जैव क्रिया में शामिल न होकर समुद्र के जलीय घोल से निकल कर मृत्तिका खनिज के रूप में अवक्षेपित हो जाता है।

जल की उत्पत्ति

जल मंडल की उत्पत्ति संबंधी परिकल्पनाओं को दो समूहों में बाँटा जा सकता है। एक मत के अनुसार जल मंडल का पूरा जल उस वायुमंडल से उत्पन्न हुआ जो पृथ्वी के चारों ओर उपस्थित था। दूसरे मत के अनुसार जल मंडल का पूरा जल पृथ्वी के आन्तरिक भाग से बाहर निकला।

प्रथम मत के समर्थकों का कहना है कि जब पृथ्वी द्रव अवस्था में थी तो इसके चारों ओर स्थित वायुमंडल में जलवाष्प भी शामिल था। जैसे-जैसे पृथ्वी ठंडी होती गयी वायुमंडल का तापमान भी कम हाेता गया तथा इसमें उपस्थित जलवाष्प जल की बूंदों में बदलने लगा तथा वर्षा के रूप में भूसतह पर गिरने लगा। परन्तु प्रारम्भ में भूपटल ठोस होने के बावजूद इतना अधिक गर्म था कि उस पर होने वाली वर्षा का जल अविलम्ब जलवाष्प के रूप में परिवर्तित होकर पुनः वायुमंडल का अंग बन जाता था। परन्तु इस वर्षा से एक लाभ यह हुआ कि भूसतह अतिशीघ्रता के साथ ठंडी होने लगी।

धीरे-धीरे पृथ्वी की सतह पर वर्षा के कारण गिरने वाले जल का वाष्पीकरण धीमा होने लगा तथा यह वर्षा जल भूसतह पर बने गड्ढों में एकत्र होने लगा। इसी प्रकार के गड्ढे कालक्रम में सागर एवं महासागर बने।

जल की उत्पत्ति से जुड़े दूसरे मत के समर्थकों का मानना है कि समय-समय पर पृथ्वी की सतह पर ज्वालामुखियों का विस्फोट होता रहा है। ज्वालामुखियों के द्वारा पृथ्वी के आंतरिक भाग से काफी मात्रा में लावा तथा विभिन्न प्रकार की गैसें बाहर निकलती रही हैं। इन्हीं गैसों में जलवाष्प भी शामिल रहता है, जिससे शनैःशनैः भूपटल की सतह पर जल एकत्र होता रहा है। पृथ्वी के आंतरिक भाग का जल गर्म झरनों के रूप में भी निकलता दिखायी देता है। अभी तक किये गये अध्ययनों से पता चला है कि स्थल तथा समुद्र में उपस्थित गर्म झरनों द्वारा लगभग 67x109 मीट्रिक टन जल प्रति वर्ष पृथ्वी के भीतरी भाग से बाहर निकलता है। रूबी नामक वैज्ञानिक के मतानुसार जल की उत्पत्ति पृथ्वी के भूपटल में उपस्थित जलयुक्त खनिजों तथा शैलों के निंरतर निर्जलन के द्वारा हुई। आग्नेय शैलों में मौजूद ऐंफीबोल तथा अभ्रक समूह के खनिजों में काफी रवा जल उपस्थित रहता है। निर्जलन किस हद तक होगा यह निर्भर करता है जल के ऊष्मा गतिक (थर्मोडाइनेमिक) दाब तथा जल की पलायनता पर। जल की पलायनता निर्भर करती है तापमान, दाब तथा उसकी शुद्धता पर।

अब मूल प्रश्न यह उठता है कि पृथ्वी के वायुमंडल या पृथ्वी के भीतर मौजूद मैगमा या खनिजों में जल कहाँ से आया? 

इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये हमें पृथ्वी की उत्पत्ति संबंधी परिकल्पनाओं का पुनरावलोकन करना हाेगा। पृथ्वी की उत्पत्ति के संबंध में दो प्रकार की परिकल्पनाओं का प्रतिपादन किया गया है। एक प्रकार की परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी का निर्माण सूर्य से छिटके टुकड़े के संकुचन से हुआ। यदि इस परिकल्पना को ग्रहण किया जाय तो निश्चित है कि प्रारम्भ में पृथ्वी पर सिर्फ दो तत्व हाइड्रोजन तथा हीलियम मौजूद रहे होंगे। इन्हीं दो तत्वों से अन्य तत्वों का निर्माण हुआ। फिर कालक्रम में हाइड्रोजन तथा नवनिर्मित  ऑक्सीजन के संयाेग से जलवाष्प का निर्माण हुआ। भूवैज्ञानिकों की धारणा है कि पृथ्वी ठंडी हाेकर जब 2000 डिग्री सेल्सियस से नीचे के तापमान पर पहुँची तो इसके वायुमंडल में मौजूद हाइड्रोजन तथा  ऑक्सीजन के संयोग से जलवाष्प का निर्माण होने लगा।

अधिकांश भूवैज्ञानिकाें की धारणा है कि पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से नहीं हुई। पृथ्वी की उत्पत्ति संबंधी दूसरे प्रकार की परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी का निर्माण ब्रह्माण्ड में उपस्थित छाेटे-छाेटे ग्रहाणुओं के आपस में संगठित हाेने से हुआ।

यदि इस परिकल्पना को ग्रहण किया जाय तो जल की उत्पत्ति की प्रक्रिया बिल्कुल ही भिन्न रही होगी। इसके अनुसार जलवाष्प के अणु मूल ग्रहाणुओं में मौजूद थे। जब ये ग्रहाणु एक दूसरे से सटकर बड़े होने लगे तो उनमें उपस्थित जल के अणु भी साथ-साथ शामिल हो गये तथा पृथ्वी का अंग बन गये। इस परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी के भीतर मैगमा तथा खनिज रवों (क्रिस्टल्स) में जल की उपस्थिति की व्याख्या भली-भाँति की जा सकती है।

संदर्भ : ‘पृथ्वीः उद्भव और विकास’ पृ.: 51-58, लेखकः डा. विजय कुमार उपाध्याय, प्रकाशकः वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयाेग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार, प्रथम संस्करण, 2003। (डाॅ. विजय कुमार उपाध्याय, राजेन्द्र नगर हाउसिंग काॅलोनी, के.के. सिंह काॅलोनी, पोस्ट-जमगोड़िया, वाया-जोधाडीह, चास, जिला-बोकारो, झारखंड, पिन कोड-827013, मो.नं. 8239604477)

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