पृथ्वी बचाने की कवायद


दुनिया के तकरीबन 195 देशों ने पेरिस में पंचायत की। मसला जलवायु परिवर्तन का था। यह पंचायत 12 दिनों तक चली। कई दौर की वार्ता हुई। सबकी कोशिश थी कि इसका हाल कोपेनहेगन जैसा न हो। किसी सहमति पर पहुँचाया जाय। कोई रास्ता निकले धरती को बचाने का। प्रकृति के प्रकोप से मानव सभ्यता को निजात दिलाने का। हर सम्भव प्रयास हुआ। नोंकझोक का भी सिलसिला चला। पर हासिल क्या हुआ?

जलवायु परिवर्तनएक दौर था जब नवंबर का महीना जाते-जाते ठंड़ से हड्डियाँ काँप जाती थीं। शाम ढलने के बाद घर से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं होती थी। हालाँकि अभी ऐसा नहीं है। मौसम में फरवरी-मार्च वाली गर्माहट है। इस तरह की चर्चा दिल्ली में आम है। लोगबाग मौसम के बदलाव से हैरान हैं। वे समझना चाहते हैं कि हो क्या रहा हैं। हाँ, इतना जरूर सब समझ रहे हैं कि इंसान प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहा है। उसी को कम करने और पृथ्वी को प्रकृति के प्रकोप से बचाने के लिये पेरिस में पिछले दिनों जलवायु पर एक सम्मेलन हुआ।

यह न तो पहला सम्मेलन था और न ही आखिर। पिछले कई सालों से हो रहे जलवायु सम्मेलन का ही हिस्सा था। दुनिया के तमाम देशों ने उसमें शिरकत की। चर्चा इस बात पर चली कि पृथ्वी को गर्म होने से कैसे बचाया जाय? दुनिया भर से करीब 195 देशों के प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया। सम्मेलन का लक्ष्य दुनिया के तापमान को दो डिग्री कम करना था। वैसे 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल के बाद दुनिया दो भागों में बँट गयी थी।

एक खेमें में विकसित देश और दूसरे में विकासशील देश है। ग्रीनहाउस गैसों की कटौती को लेकर अमेरिका औरयूरोपियन यूनियन के देश भारत व चीन जैसे विकासशील देशों पर ज्यादा दबाव डाल रहे हैं। वे चाहते हैं कि विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। पर उन्हें इसके लिये कोई बाध्य न करें। विकासशील देशों का मानना है कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने की जिम्मेदारी विकसित देशों की है। उनका कहना है कि अगर उनपर ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में जरूरत से ज्यादा कटौती करने का दबाव होगा, तो अपने नागरिकों को मूलभूत सुविधा मुहैया नहीं करा पायेंगे।

इसके साथ ही ग्लोबल वार्मिंग से जूझने के लिये 100 बिलियन डॉलर का सालाना फंड बनाने की भी बात है, लेकिन अब विकसित देशों ने इसमें शर्त जोड़ दी है कि फंड में भारत जैसे विकासशील देशों को भी योगदान करना होगा, जिससे चीन और भारत जैसे देश नाख़ुश हैं। मसला कार्बन फुट प्रिंट का भी है। इसके लिये आधुनिक तकनीक देने में विकसित देश आनाकानी कर रहे हैं। उनका कहना है कि हरित प्रौद्यौगिक का विकास निजी क्षेत्र ने किया है। लिहाजा बौद्धिक सम्पदा का मामला है। इसलिए विकसित देश उस तकनीक को विकासशील देशों को देने में असमर्थ है। विकसित देशों का तो यही कहना है।

अमेरिका का रूख भी इस पूरे मसले में बाधा बनकर उभरा। अमेरिका अपने ऊपर किसी तरह का पाबंदी नहीं चाहता। अमेरिका के संसद के अंदर इस बात का विरोध है कि अमेरिका पर किसी तरह की सीमा लगाया जाय। हालाँकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि जलवायु परिवर्तन का मसला पेचीदा और गम्भीर है। दुनिया के लोग विकास की चाह में वातावरण में जितना कार्बन छोड़ रहे हैं उससे पृथ्वी गरमा रही है। वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का घनत्व 2014 में लगातार 30वें वर्ष रिकॉर्ड स्तर पर था।

खतरा है कि सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में 2 दशमलव 7 डिग्री से 4 डिग्री सेल्सियस के बीच बढ़े। इससेग्लेशियर पिघलेंगे। समुद्र में पानी का स्तर ऊँचा उठेगा और कई टापू देश डूबेंगे। जैसे मालदीव के पूरी तरह महासागर में डूबने का खतरा है। यदि कार्बन अभी जैसे छूटती रही तो जल्द 28 से 60 करोड़ लोगों के पाँवों के नीचे की जमीन पानी में डूबी होगी। इसलिए मसला पृथ्वी के अस्तित्व का भी है। यूँ तो इस बर्बादी की मूल वजह अमेरिका आदि का अंधाधुध विकास है। विकसित देशों ने कार्बन छोड़कर वातावरण बिगाड़ा। अब ये चाहते हैं कि भारत जैसे देश विकास में कोयले का जो उपयोग कर रहे हैं, ऊर्जा की जो खपत बना रहे हैं। उस पर रोक लगाये। मतलब विकास हुआ नहीं और भारत कोयला, थर्मल पॉवर आदि पर रोक लगाये। इसलिए लड़ाई विकसित बनाम विकासशील देशों के बीच है।

चीन तो बड़ी ही चतुराई से अमेरिकी खेमे में चला गया। उसने अमेरिका के साथ मिलकर पेरिस सम्मेलन में कार्बन फुटप्रिंट के सम्बन्ध में एक अहम घोषणा कर दी। इसके बाद सबकी निगाहें भारत की तरफ हो गई। विकसित देश पेटभर कर भारत की आलोचना करने लगे। लेकिन सम्मेलन के दौरान भारत के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर दुनिया के सामने अपना पक्ष रखा। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन भारत की देन नहीं है और न ही इसमें भारत का योगदान है। हम जैसे तो इसका खामियाजा भुगत रहे हैं।

भारत तो प्रकृति को माता मानने वाला देश है, ऐसे में भारत के ऊपर जलवायु परिवर्तन का दोष नहीं लगाया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया के लिये चुनौती है। लिहाजा मानवता और पर्यावरण में खोये संतुलन को वापस बनाने की जरूरत है। दुनिया को इस मामले को तुरन्त गम्भीरता से लेना चाहिए। ग्लेशियरों की चिन्ता करनी चाहिए। क्योंकि ग्लेशियर पिघल रहे हैं और यह पूरी दुनिया के लिये बेहद चिन्ताजनक है। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन पर पूरी दुनिया को मिल कर काम करना चाहिए ताकि इसका डट कर मुकाबला किया जा सके। इस मौके पर उन्होंने कहा, महात्मा गाँधी ने कहा था कि दुनिया में सबकी जरूरतें पूरी हो सकती हैं लेकिन लालच नहीं।

प्रधानमन्त्री मोदी ने कहा कि 2030 तक हमारी ऊर्जा जरूरतों का 40 प्रतिशत अक्षय ऊर्जा से पूरा होगा। उनके मुताबिक भारत कूड़े से ऊर्जा बनाने की दिशा में काम कर रहा है। असल में भारत में अब भी 30 करोड़ लोगों तक बिजली की पहुँच नहीं है। ऐसे में भारत अपने पारम्परिक ऊर्जा स्रोत में कटौती नहीं कर सकता है। लेकिन यह जरूर है कि भारत ने अपनी तरफ से पहल करके स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में कदम बढ़ाया है। कचरे से बिजली बनाने की परियोजना पर काम हो रहा है। पनबिजली, सौर ऊर्जा आदि को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। मोदी ने कहा कि भारत 176 गीगावाट स्वच्छ ऊर्जा तैयार करने के अपने लक्ष्य पर कायम है। जहाँ तक कार्बन उत्सर्जन का सवाल है तो भारत ने पहले ही बेहद महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य तय कर दिया है।

जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन शुरू होने से पहले इसकी तैयारियों के लिये चल रही बैठक के दौरान ही भारत ने कहा कि वह अपने कार्बन उत्सर्जन में 33 से 35 फीसदी तक की कटौती करेगा। सम्मेलन में मौजूद पर्यावरण मन्त्री ने पर्यावरण आकलन के लिये वेधशालाओं के निर्माण की घोषणा करके भारत के पक्ष को और मजबूत कर दिया। बावजूद इसके भारत पर विकसित देशों की तिरछी निगाह बनी रही। उनका मानना था कि भारत ही खेल बिगाड़ सकता है। पर उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। भारत ने अपनी तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं कि जिसके आधार पर उसे कटघरे में खड़ा किया जा सका। वह तो बस इतना चाहता था कि विकासशील देशों के हितों का ध्यान रखा जाय। विकसित देश अपने रसूख में उनके हितों की अनदेखी न कर दे। इसलिए भारत कई मसलों पर खड़ा रहा है। वह चाहता था कि वित्त को लेकर समझौते में स्पष्टता हो।

मसला सदी के अंत तक तापमान को 2डिग्री से. से कम करने का भी था। जिसके लिये तीन विकल्प प्रस्तुत किए गये। आम राय 1.5 डिग्री सें. पर ही बनती दिखी। वजह गरीब देश रहे। वे नहीं चाहते थे कि उनका विकास बाधित हो। मुद्दा तो एडापटेश्न का भी रहा। जिसे लेकर सहमति बनाने की कोशिश जारी रहेगी। आम सहमति पर पहुँचने के लिये कई विषयों को छोड़ा गया। मसलन डिकार्बनिकरण का मुद्दा। सारी कवायद का एक ध्येय रहा। किसी माकूल निर्णय पर पहुँचना।

बिजली बचाने की तैयारी


इस समय जब दुनिया के ज्यादातर देश धरती के तापमान में बढ़त को 2 डिग्री से नीचे बनाये रखने के मक्सद को लेकर एकजुट हो रहे हैं, ऐसे में सभी का ध्यान ऊर्जा संरक्षण पर बना हुआ है। ऊर्जा की बचत में स्मार्ट ग्रिड महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही हैं, खास तौर पर अमेरिका और यूरोप में। इसे एक किस्म का इलेक्ट्रिकल नक्शा कहा जा सकता है जिसमें लोगों तक बिजली पहुँचाने के लिये कम्प्यूटर आधारित रिमोट कन्ट्रोल और स्वचालित मशीनों की मदद से आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है।

भारत में वर्तमान में जिस इलेक्ट्रिक प्रणाली का इस्तेमाल किया जा रहा है वह बेहद पुरानी है। स्मार्ट ग्रिड बिजली वितरण और उसके इस्तेमाल के तरीके में महत्त्वपूर्ण बदलाव ला सकती है। यह स्मार्ट मीटर, स्मार्ट उपकरणों और अक्षय ऊर्जा स्रोतों के जरिये लोगों को बिजली का बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने में मदद देती है।

ऊर्जा संरक्षक बल्ब की ओर कदम


एलईडी लाइट या लाइट इमिटिंग डायोड (प्रकाश फैलाने वाले) सेमीकंडक्टर डिवाइस होते हैं जिनमें से जब इलेक्ट्रिक करंट दौड़ता है तो वे प्रकाश पैदा करते हैं। ये यहाँ नये नहीं हैं, कई सालों से रोशनी दे रहे हैं लेकिन डिजिटल घड़ियों, कम्प्यूटर स्क्रीन और यातायात के सिग्नल को। इन्हें प्रकाश के पारम्परिक स्रोत के रूप में नहीं देखा जाता था। बदलाव उस वक्त आया जब 2006 में नीदरलैंड की लेमनिस लाइटिंग एलईडी, एलईडी बल्बों का व्यावसायिक उत्पादन करने वाली दुनिया की पहली कम्पनी बनी। अमेरिका और ब्रिटेन सरीखे ज्यादातर विकसित देशों ने बड़े पैमाने पर एलईडी बल्बों को अपनाया है। अमेरिका के डिपार्टमेंट आॅफ एनर्जी के मुताबिक, ‘‘एलईडी लाइटिंग के व्यापक इस्तेमाल का अमेरिका में ऊर्जा बचत के क्षेत्र पर गहरा प्रभाव पड़ा है। एलईडी का इस्तेमाल किये जाने पर 2027 तक 348 टेरावॉट घंटे बिजली बचाई जा सकती है। यह 44 बड़े ऊर्जा संयन्त्रों से हर साल पैदा होने वाली बिजली के बराबर है और कुल बचत 30 अरब डॉलर से भी ज्यादा है।

भारत में पहला एलईडी बल्ब 2009 में एनटीएल इलेक्ट्रॉनिक्स ने लेमनिस की तकनीक का इस्तेमाल करके बनाया था। 2014 में, एनटीएल ने लेमनिस का अधिग्रहण कर लिया और दुनिया का सबसे बड़ा एलईडी बल्ब निर्माता बन गया। आज भारत में ही दर्जन भर से ज्यादा कम्पनियाँ एलईडी बल्ब बना रही हैं। केन्द्र भी इसे बढ़ावा दे रहा है। लक्ष्य 77 करोड इनकैंडेसेंट बल्बों की जगह एलईडी को लाना है।

कचरे का प्रयोग


कचरे को जैव र्इंधन में जिस तरह परिवर्तित किया जा सकता है, उसी तरह बॉयलर, डीजल इंजन और ताप संयन्त्रों जैसी भारी मशीनरी से पैदा होने वाली कचरे की ऊष्मा को अब बिजली में बदला जा रहा है। आर्गेनिक रैंकाइन साइकिल (ओआरसी) प्रौद्योगिकी निम्न श्रेणी की ऊष्मा को बिजली में बदल रही है। भारत के पुणे स्थित थर्मेक्स में 2008 से इस प्रौद्योगिकी पर काम चल रहा है और अगले तीन-चार साल के भीतर इसे व्यावसायिक स्तर पर लागू कर दिया जाएगा। फिलहाल, 100 केवी के लिये ओआरसी प्रौद्योगिकी की कीमत करीब 1.4 करोड़ रु. आती है, जिसे अगर बढ़ाया गया तो प्रति मेगावॉट इसकी कीमत 11-12 करोड़ रु. तक पहुँच जाएगी, जो ग्रिड ऊर्जा के दाम से थोड़ी ही ज्यादा होगी। थर्मेक्स का दावा है कि जैसे-जैसे यह प्रौद्योगिकी प्रसारित होगी, लागत पाँच वर्षों की अवधि में प्रति मेगावॉट 7 करोड़ रु . से भी नीचे आ जाएगी। इसके चलते यह ग्रिड की बिजली से सस्ती पड़ेगी।

सौर ऊर्जा पर दाँव


अस्सी के दशक की शुरूआत में सौर ताप से बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन का सपना साकार हो चुका था और इस क्षेत्र में अमेरिका तथा स्पेन ने अपनी धाक जमा ली थी। ग्रीनपीस इंटरनेशनल, यूरोपियन सोलर थर्मल इलेक्ट्रिसिटी ऐसोसिएशन और इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के सोलर पैकेज समूह की ओर से किया गया एक अध्ययन बताता है कि 2050 तक दुनिया की कुल ऊर्जा आवश्यकताओं का 25 फीसदी कंसंट्रेडेट ऊर्जा से पूरा किया जा सकता है, जिसकी उत्पादन लागत भी काफी तेजी से घटती जाएगी। अब भारत में भी इस पर काम शुरू हो चुका है। राजस्थान के आबू रोड में जर्मनी के साथ साझा गठजोड में और केन्द्रीय नवीकरणीय ऊर्जा मन्त्रालय के सहयोग से वर्ल्ड रिन्यूअल ट्रस्ट आॅफ ब्रह्म कुमार एक सोलर थर्मल पावर प्लांट लगा रहा है जिसका पेटेंट भी उसी के पास होगा। इसका नाम है ‘इंडिया सोलर वन प्रोजेक्ट’ जिसका कुल बजट करीब 1 करोड़ यूरो या 80 करोड़ रूपया से ज्यादा आँका गया है। मंजूरी मिलने के बाद इंडिया वन परियोजना में 770 पैराबोलिक डिशेंं होगी जिनका हरेक का क्षेत्रफल 60 वर्ग मीटर होगा। हरके पर 800 सोलर ग्रेड मिरर रखे होंगे जिनकी चमक इतनी तीव्र होती है कि उन्हें फोकस किये जाने पर घास, तार ट्यूब आदिपूरी तरह से जा सकते हैं।

क्लोरोफ्लरोकार्बन के लिये पहल


जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य को खतराआज ओजोन परत में लगातार हो रहे क्षय के प्रति चिन्ता जताते हुये पूरी दुनिया में विभिन्न देश ठंडा करने की ऐसी तकनीक की ओर बढ़ रहे हैं, जो जलवायु के लिहाज से ज्यादा उपयोगी हो। शुरूआत में ठंडा करने के लिये क्लोरोफ्लोरोकार्बन का प्रयोग किया जाता है, लेकिन 1995 के बाद से अमेरिका में उसका उत्पादन बंद हो गया। अब तकरीबन सभी एयर कंडीशनर में ठंडा करने के लिये हैलोजेनेटेड क्लोरोफ्लोरोकार्बन का प्रयोग किया जाता है। लेकिन अब वह भी धीरे-धीरे चलन के बाहर हो रहा है और उसकी जगह ओज़ोन सुरक्षित क्लोरोफ्लोरोकार्बन या फिर अमोनिया लेते जा रहे हैं।

भारत में ऊर्जा किफायती चीजों के लिये रास्ता उस वक्त खुला, जब 210 में ऊर्जा दक्षता ब्यूरो ने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिये ऊर्जा सक्षमता के आधार पर स्टार रेटिंग का प्रावधान किया। ऐसे में गोदरेज जैसी कम्पनियाँ पर्यावरण सन्तुलन को बचाने वाली बेहतरीन तकनीक लेकर आर्इ। गोदरेज ने ठंडा करने की पर्यावरण के लिहाज से दुनिया की सबसे बेहतरीन तकनीक आर 290 का प्रयोग किया। यह तकनीक जर्मनी की फेडरल मिनिस्ट्री फॉर द एन्वायरनमेंट, नेचर कन्जर्वेशन, बिल्डिंग और न्यूक्लियर सेफ्टी के साथ मिलकर तैयार की गई है। विशेषज्ञों का मानना है कि हालाँकि ऊर्जा दक्षता मन्त्रालय ने कम्पनियों को खुद को और ऊर्जा सक्षम बनाने के लिये बाध्य किया है, फिर भी वैश्विक मानकों के लिहाज से अभी हम बहुत पीछे हैं।

मौसदे के विवादित बिन्दु


12 दिनों तक चली लम्बी बहस के बाद पेरिस में एक सर्वमान्य समझौते पर सहमति बन गई। इस सम्मेलन को लेकर दुनियाभर की निगाहें पेरिस पर टिकी थी। पेरिस में मौजूद विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों पर दवाब भी था कि वह खाली हाथ न लौटे। मेजबान देश फ्रांस भी नहीं चाहता था कि पेरिस सम्मेलन का हाल कोपनहेगन जैसा हो। इसलिए वहाँ के विदेश मन्त्री हर हाल में सम्मेलन को सफल बनाने के लिये तत्पर थे। उन्होंने हर सम्भव कोशिश की। विकसित और विकासशील देशों के सरोकार को साधने का प्रयास किया। वे उसमें कितने सफल हुए यह तो विशेषज्ञ ही बताएंगे। लेकिन मोटेतौर पर जिन बिन्दुओं को लेकर रस्साकशी रही वे कुछ इस तरह हैं-

क्लाइमेट फाइनेंस- सम्मेलन में यह बहुत विवादित मसला रहा। विकसित देश इस कोष में धन डालने के नाम पर बस जुगाली कर रहे हैं। इसे इस ध्येय से बनाया गया है कि विकासशील देशों का वित्तीयन किया जा सके। लेकिन विकसित देश इसके वित्तीयन में भारत और चीन जैसे देशों को भी शामिल करना चाहते हैं। इसी वजह से इस पर कोई आम राय नहीं बन पा रही हैं। यह तय हुआ था कि जलवायु परिर्वतन का दंश झेल रहे विकासशील देशों के वित्तीयन के लिये 100 बिलियन डॉलर का कोष बनेगा जिसमें 2020 से हर साल 100 बिलियन डॉलर डाला जाएगा। मौजूदा समौझते में इस बाबत कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं हैं।

लॉस एंड डैमेज- भारत समेत जी-77 का कहना था कि इस मसले पर एक अलग अनुच्छेद होना चाहिए ताकि उन देशों की मदद की जा सके जो जलवायु आपदा का दंश झेल रहे हैं। मौजूदा डाफ्ट्र में लॉसऔर डैमेज को एडापटेशन में शामिल कर लिया गया।

एडापटेशन- भारत सहित जी-77 देशों की माँग है कि एडापटेशन (समायोजन) के प्रावधान को अधिक मजबूत किया जाना चाहिए ताकि जो विकासशील देश जलवायु परिर्वतन से निपटने के लिये नई तकनीक अपना रहे हैं उन्हें ज्यादा आर्थिक मदद मिल सके।

डिफरेंशिएशन- भारत चाहता है कि डिफरेंशिएशन के सभी पहलूओं को साफ तौर पर समझौते में शामिल किया जाय। उसमें किसी प्रकार का विराधाभास न हो। विकसित देश उर्त्सजन कम करने की जिम्मेदारी को गम्भीरता से लें। क्योंकि जलवायु परिर्वतन में उनकी हिस्सेदारी विकासशील देशों से कहीं अधिक है। लिहाजा वे अपने उत्तरदायित्व को समझे। उससे आँखे न चुराये। साथ एक ऐसी प्रक्रिया विकसित हो जिसके जरिये विकसित देशों के क्रियाकलाप की भी निगरानी रखी जा सके। हालाँकि इस मसले पर विकसित देशों का रवैया एकदम भिन्न रहा। वे खुद कोई जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते। कार्बन उत्सर्जन कम करने की शर्त तभी मानने को तैयार हैं जब भारत जैसे विकासशील देश भी साथ आए। यही नहीं वित्तीय सहायता में भी मदद करें।

एवरेज टेम्प्रेचर- सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान को कितना कम करना है? यह भी विवाद का मुद्दा रहा। विकासशील देशों का मत है कि औद्योगिकरण के बाद जो तापमान बढ़ा है उसमें 1.5 डिग्री सें. तापमान कम करने का लक्ष्य रखा जाय, 2डिग्री सें. का नहीं। मौसदे में बीच का रास्ता निकालने के लिये तीन विकल्प रखे गये हैं। पहला, 2 डिग्री सें.से कम। दूसरा, 1.5 डिग्री सें. का लक्ष्य हासिल करने के लिये तापमान को 2 डिग्री सें. से कम किया जाय। तीसरा,1.5 डिग्री सें. से कम।

हवा से बिजली


आम तौर पर विंड फार्म में इस्तेमाल की जाने वाली टर्बाइन तीन पंखों वाली मशीन होती है, जो कम्प्यूटर चालित मोटरों से चलती है, हवा इन पंखों को घुमाता है, जिसकी गति औसतन प्रति मिनट 10 से 22 चक्कर होती है। इससे एक शाफ्ट घूमता है, जो जनरेटर से जुडा होता है और बदले में बिजली पैदा करता है। विंड टर्बाइनों से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने की विधि एयरोडायनमिक्स यानी पवन गतिकी से जुड़ी है। कम्प्यूटेशनल द्रव्य गतिकी में सुधार और उसके सहारे रोटर की गति और पिच नियन्त्रण में होने वाला इजाफा ही टर्बाइनों समेत समूचे विंड पार्क के उत्पादन को बढ़ाने के काम आता है।

स्टील और काँच की बजाय अब कार्बन और फाइबर के कहीं ज्यादा हल्के और लम्बे पंखे बनाने का प्रयोग जारी है क्योंकि ये ज्यादा लचीले होते हैं ओर इनमें दरारें पड़ने की गुंजाईश भी कम होती है। पवन गतिकी के जानकार ज्यादा क्षमता के लिये छोटी टर्बाइनों पर भी काम कर रहे हैं। विकसित देशों में इस बात पर शोध हो रहे हैं कि विंड टर्बाइनों की विश्वसनीयता और क्षमता को बढ़ाते हुये उसकी लागत कैसे कम की जाय। मसलन, अमेरिकी सरकार का विंड प्रोग्राम उद्योगों के साथ मिलकर अगली पीढ़ी की टर्बाइनों की क्षमता को बढ़ाने और लागत कम करने की दिशा में काम कर रहा है। इन प्रयासों के सहारे 1998 से पहले लगाई गई विंड टर्बाइनों के औसत कैपेसिटी फैक्टर (ऊर्जा संयन्त्र की उत्पादकता का एक माप) को 22 फीसदी से बढ़ाकर मौजूदा33 फीसदी तक लाया जा सका है।

इस क्षेत्र में पुणे स्थित सुजलॉन एनर्जी लिमिटेड भारत की एक बड़ी कम्पनी है, जिसने छह महाद्वीपों में कुल 14 मेगावॉट की उत्पादन क्षमता वाली पवन चक्कियाँ लगाई हैं। कम हवा वाले क्षेत्रों का दोहन करने के लिये इसने नई प्रौद्योगिकियों को जन्म दिया है। पिछले साल नवंबर में इस कम्पनी ने गुजरात के कच्छ फार्म में अपनी क्षमता को बढ़ाकर 1,100 मेगावॉट पर पहुँचा दिया है। इसके लिये कम्पनी ने दुनिया के सबसे ऊँचे हाइब्रिड टावर एस 97-120 मीटर का इस्तेमाल किया।

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