गंगा के किनारे अनेक गांव और छोटे-बड़े शहर मिले। मगर एक भी गांव ऐसा नहीं मिला, जिसका गंदा पानी गंगा की ओर जाता हो। वे पारंपरिक ढंग से इस प्रकार बने हैं कि उनकी ढलान गंगा की ओर न जाकर दूसरी तरफ को है, ताकि गंदा पानी गंगा में न जाए। मगर एक भी ऐसा शहर नहीं मिला, जिसकी गंदगी गंगा में न जाती हो। उत्तराखंड भारत के तीन सबसे नए राज्यों में से एक है। उत्तर प्रदेश से अलग होने का एक बड़ा कारण-यहां की भौगोलिक स्थिति का उत्तर प्रदेश की भौगोलिक स्थिति से भिन्न होना माना गया। पर अलग राज्य बनने के दस साल बाद भी ऐसा कहीं नहीं लगता कि यहां विकास का स्वरूप किसी प्रकार भी उत्तर प्रदेश या शेष मैदानी इलाके से भिन्न है या यहां के नेताओं, अफसरों और प्रभावशाली वर्ग के दिमाग में कोई अलग तरह की कल्पना है।
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पर्यटन को लेकर एक सम्मेलन में जाने का मौका मिला। वहां चाय के समय एक साधु से मुलाकात हुई। ‘विकास’ के मुद्दे पर बात होने लगी। सामान्य धारणा कि शहर विकसित और गांव पिछड़े क्यों, को लेकर चर्चा होने लगी। साधु ने बड़ी रोचक बात बताई कि उन्होंने गोमुख से लेकर गंगा सागर तक गंगा की दो बार परिक्रमा की है। यानी एक छोर से गंगा सागर तक पहुंचे हैं और दूसरे छोर से गोमुख वापस आए हैं। उन्होंने बताया कि गंगा कि किनारे अनेक गांव और छोटे-बड़े शहर मिले। मगर एक भी गांव ऐसा नहीं मिला, जिसका गंदा पानी गंगा की ओर जाता हो। वे पारंपरिक ढंग से इस प्रकार बने हैं कि उनकी ढलान गंगा की ओर न जाकर दूसरी तरफ को है, ताकि गंदा पानी गंगा में न जाए। मगर एक भी ऐसा शहर नहीं मिला जिसकी गंदगी गंगा में न जाती हो। उनका सवाल था, ‘फिर भी आप लोग शहर वालों को विकसित और गांव वालों को पिछड़ा कहते हैं और साथ ही गंगा की सफाई का अभियान चलातें है।’ इस छोटी-सी बात ने मुझे झकझोर दिया।
2006 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष भर में तकरीबन एक करोड़ पंडानबे लाख पर्यटक उत्तराखंड आए। आंकड़े अपने आप से प्रभावी होते हैं, पर बहुत सारी बातें छिपा भी जाते हैं। पर्यटकों को लेकर बड़ी योजनाएं बनाई जाती हैं- हवाई पट्टी, सड़के, नए-नए होटल वगैरह-वगैरह। सरकारों का सारा ध्यान ज्यादातर अमीर पर्यटकों की ओर ही रहता है। उन्हीं के लिए ज्यादातर सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती है। कहीं मन में यह बात रहती है कि पर्यटन एक व्यापार है और जहां बड़ा पैसा आता है वहां मुनाफा भी होता है। इसलिए अमीर पर्यटकों की ओर ध्यान अपने आप जाता है यह पिछले पचीस वर्षों में सरकारों और मीडिया के सोच में आए परिवर्तन को इंगित करता है।
पर इस बात की गहराई में जाने की और इस पर गंभीर शोध की भी जरूरत है। सरकार सामान्य व्यापारी की तरह सिर्फ मुनाफे को नहीं देख सकती और देखना भी है तो उसे समग्र दृष्टि से देखना होगा। देखना होगा कि पर्यटन का पैसा स्थानीय अर्थव्यवस्था को कितना लाभ पहुंचाता है और पर्यटन से कितना प्रदूषण फैलता है, उससे कितना नुकसान होता है, लोगों की मानसिक दशा पर बाहर से आए पर्यटकों का क्या असर होता है।
उत्तराखंड में मोटे तौर पर तीन प्रकार के पर्यटक आते हैं। सबसे बड़ी तादाद में साधारण साधु और फक्कड़ किस्म के बैरागी आते हैं। एक करोड़ पंचानबे लाख में से करीब एक करोड़ ऐसे ही लोग होंगे। ये हरिद्वार या ऋषिकेश से पैदल चल कर चार धाम की यात्रा करते है। इसमें इन्हें महीनों लग जाते हैं। इस दौरान इनका बसेरा किसी गांव के आसपास ही होता है, जहां लोग इनके भोजन और रहने का बंदोबस्त करते होंगे। बदले में ये उन्हें पैसे नहीं देते, पर गांव वालों के साथ इनकी गपशप, चर्चा, कथा, उपदेश आदि चलते रहते हैं। इस गपशप, चर्चा और कथा से गांव वालों का मन भी बहलता-बदलता है, कुछ उत्साह भी बढ़ता होगा, कुछ ढांढस भी मिलती होगी-कुल मिला कर गांव वालों को अच्छा ही लगता होगा। ये साधु प्रदूषण के नाम पर कुछ नहीं फैलाते-इनके पास बर्बाद करने को कुछ होता ही नहीं है। ये लोग पानी और बिजली का भी कम से कम उपयोग करते हैं। खुले में शौच जाते होंगे, जहां इनका मल चौबीस या अड़तालीस घंटे में मिट्टी बन जाता है।
दूसरी श्रेणी में पारंपरिक तीर्थ यात्री आते हैं। इनकी संख्या पचास-साठ लाख होगी। ये टैक्सी या बस से चारों धामों की यात्रा करते हैं और तकरीबन सात से दस दिन तक उत्तराखंड में रहते हैं। अमूमन स्थानीय धर्मशाला या चट्टियों में ही ये रहते हैं। खाना-पीना इनका स्थानीय ढाबों में होता है। ये टट्टुओं और डांडियों का इस्तेमाल करते हैं। मोटे अनुमान से ये यात्री एक दिन में पांच सौ से आठ सौ या हजार रुपए खर्च करते होंगे, पर इसका बड़ा हिस्सा स्थानीय लोगों को जाता है। ये जो पैसा खर्च करते हैं वह स्थानीय अर्थव्यवस्था में गहरे पैठता है। इनसे स्थानीय लोगों को ईर्ष्या नहीं होती। प्रदूषण के नाम पर ये कुछ प्रदूषण जरुर फैलाते हैं, जैसे कोकाकोला, बिसलरी की बोतलों का प्रदूषण या टैक्सी, बस का धुआं या प्लास्टिक की थैलियों का प्रदूषण, आदि।
अब उन पर्यटकों को ले जो आधुनिक किस्म के हैं और जिन पर सरकार अपना पूरा ध्यान केंद्रित किए हुए हैं। उनकी संख्या लगभग चालीस लाख होगी। ये पर्यटक आमतौर पर उत्तराखंड में दो दिन से ज्यादा नहीं टिकते। ये शुक्रवार की रात या शनिवार की सुबह यहां आते हैं और रविवार की रात को भाग जाते । इनके पास समय नहीं है। ये पर्यटक आधुनिक किस्म के हैं जो मसूरी, नैनीताल, रानीखेत आदि ज्यादा जाते हैं। कभी-कभी गंगोत्री और बदरीनाथ भी चले जाते हैं। ये धार्मिक भावना से प्रेरित होकर नहीं आते, इसलिए हो सकता है ये गंगोत्री न जाकर हरसिल का प्राकृतिक सौंदर्य देख कर ही वापस लौट जाएं।
यह अपने घर में जिस जीवनशैली का आदी है, जब घूमने जाता है तो उस जीवनशैली से ज्यादा बेहतर या सुविधाजनक जीवन शैली की तलाश में बड़े होटल ढूंढता है। तीर्थ यात्री और इनमें यह एक बड़ा फर्क है। पारंपरिक तीर्थ यात्री, तीर्थ यात्रा के दौरान सहजता से कष्ट झेलता है और अपनी जीवनशैली को या तो वैसे ही रखता है या जिस जीवनशैली का वह आदी है उससे कम सुविधा के लिए तैयार रहता है। जबकि आधुनिक पर्यटक अधिक से अधिक सुविधा ढूंढता है।
यह आधुनिक पर्यटक एक दिन में डेढ़ हजार से पांच-छह हजार रुपए खर्च करता है। यानी दो दिन में अमूमन सात हजार रुपए खर्च करता होगा। देखा जाए तो यह पर्यटक भी दो दिन में उतना ही पैसा खर्च करता है जितना कि एक पारंपरिक तीर्थ यात्री सात से दस दिन में खर्च करता है। लेकिन आधुनिक पर्यटक के पैसे का एक बड़ा हिस्सा स्थानीय अर्थव्यवस्था को नहीं पहुंचता। वह जहां टिकता है, जिस प्रकार का खाना खाता और सामान खरीदता है। (शराब आदि) उसका एक बड़ा हिस्सा पहले राज्य के बाहर चला जाता है। एक छोटा-सा हिस्सा स्थानीय अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचाता है। यह पर्यटक सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाता है, क्योंकि हर चीज, जिसे वह इस्तेमाल करता है ऐसे पैकेज में आती है जो प्रदूषण फैलाए बिना नहीं रहती।
यह पानी का इस्तेमाल करने से पहले सोचता भी नहीं है कि बरबादी हो रही है। आम साधु की तुलना में यह शायद चालीस गुना ज्यादा पानी खर्च करता होगा और तीर्थयात्री की तुलना में 10-15 गुना ज्यादा खर्च करता होगा। यही बात बिजली की खपत पर भी लागू होती है। यह जहां भी जाता है वहां सामाजिक प्रदूषण भी फैलाता है, क्योंकि इसको देख कर स्थानीय लोगों में एक तरफ ईर्ष्या और डाह उत्पन्न होती है तो दूसरी तरफ उनके ‘विकास’ के नकली प्रतिमान बनते हैं।
कई वर्ष पहले सरकार द्वारा बुलाए गए पर्यटन सम्मेलन में यह सुझाव रखा गया था कि पर्यटन को इस प्रकार तीन श्रेणियों में बांट कर चार आधारों पर तुलना की जाए कि किस पर्यटन से कितना लाभ और कितनी हानि होती है। ये आधार थे- एक, पर्यटक आमतौर पर अपने हर प्रवास पर कितना पैसा खर्च करता है और उसका कितना हिस्सा स्थानीय अर्थव्यवस्था को सीधे पहुंचता है और उसकी पैठ कितनी गहरी है? दो, इस पर्यटन से सामाजिक मनोवैज्ञानिक स्तर पर सामान्य लोगों की कितनी लाभ या हानि होती है? तीन, ये पर्यटक अपने प्रवास के दौरान आमतौर पर कितना प्रदूषण फैलाते हैं? और चार, प्रवास के दौरान पानी और बिजली का कितना इस्तेमाल करते हैं?
इस प्रकार के शोध से संभव है कि हमारी कई मान्यताएं टूटें और हम पर्यटन को विदेशी नजरों से न देख कर भारतीय दृष्टि से देखने लगें।
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पर्यटन को लेकर एक सम्मेलन में जाने का मौका मिला। वहां चाय के समय एक साधु से मुलाकात हुई। ‘विकास’ के मुद्दे पर बात होने लगी। सामान्य धारणा कि शहर विकसित और गांव पिछड़े क्यों, को लेकर चर्चा होने लगी। साधु ने बड़ी रोचक बात बताई कि उन्होंने गोमुख से लेकर गंगा सागर तक गंगा की दो बार परिक्रमा की है। यानी एक छोर से गंगा सागर तक पहुंचे हैं और दूसरे छोर से गोमुख वापस आए हैं। उन्होंने बताया कि गंगा कि किनारे अनेक गांव और छोटे-बड़े शहर मिले। मगर एक भी गांव ऐसा नहीं मिला, जिसका गंदा पानी गंगा की ओर जाता हो। वे पारंपरिक ढंग से इस प्रकार बने हैं कि उनकी ढलान गंगा की ओर न जाकर दूसरी तरफ को है, ताकि गंदा पानी गंगा में न जाए। मगर एक भी ऐसा शहर नहीं मिला जिसकी गंदगी गंगा में न जाती हो। उनका सवाल था, ‘फिर भी आप लोग शहर वालों को विकसित और गांव वालों को पिछड़ा कहते हैं और साथ ही गंगा की सफाई का अभियान चलातें है।’ इस छोटी-सी बात ने मुझे झकझोर दिया।
2006 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष भर में तकरीबन एक करोड़ पंडानबे लाख पर्यटक उत्तराखंड आए। आंकड़े अपने आप से प्रभावी होते हैं, पर बहुत सारी बातें छिपा भी जाते हैं। पर्यटकों को लेकर बड़ी योजनाएं बनाई जाती हैं- हवाई पट्टी, सड़के, नए-नए होटल वगैरह-वगैरह। सरकारों का सारा ध्यान ज्यादातर अमीर पर्यटकों की ओर ही रहता है। उन्हीं के लिए ज्यादातर सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती है। कहीं मन में यह बात रहती है कि पर्यटन एक व्यापार है और जहां बड़ा पैसा आता है वहां मुनाफा भी होता है। इसलिए अमीर पर्यटकों की ओर ध्यान अपने आप जाता है यह पिछले पचीस वर्षों में सरकारों और मीडिया के सोच में आए परिवर्तन को इंगित करता है।
पर इस बात की गहराई में जाने की और इस पर गंभीर शोध की भी जरूरत है। सरकार सामान्य व्यापारी की तरह सिर्फ मुनाफे को नहीं देख सकती और देखना भी है तो उसे समग्र दृष्टि से देखना होगा। देखना होगा कि पर्यटन का पैसा स्थानीय अर्थव्यवस्था को कितना लाभ पहुंचाता है और पर्यटन से कितना प्रदूषण फैलता है, उससे कितना नुकसान होता है, लोगों की मानसिक दशा पर बाहर से आए पर्यटकों का क्या असर होता है।
उत्तराखंड में मोटे तौर पर तीन प्रकार के पर्यटक आते हैं। सबसे बड़ी तादाद में साधारण साधु और फक्कड़ किस्म के बैरागी आते हैं। एक करोड़ पंचानबे लाख में से करीब एक करोड़ ऐसे ही लोग होंगे। ये हरिद्वार या ऋषिकेश से पैदल चल कर चार धाम की यात्रा करते है। इसमें इन्हें महीनों लग जाते हैं। इस दौरान इनका बसेरा किसी गांव के आसपास ही होता है, जहां लोग इनके भोजन और रहने का बंदोबस्त करते होंगे। बदले में ये उन्हें पैसे नहीं देते, पर गांव वालों के साथ इनकी गपशप, चर्चा, कथा, उपदेश आदि चलते रहते हैं। इस गपशप, चर्चा और कथा से गांव वालों का मन भी बहलता-बदलता है, कुछ उत्साह भी बढ़ता होगा, कुछ ढांढस भी मिलती होगी-कुल मिला कर गांव वालों को अच्छा ही लगता होगा। ये साधु प्रदूषण के नाम पर कुछ नहीं फैलाते-इनके पास बर्बाद करने को कुछ होता ही नहीं है। ये लोग पानी और बिजली का भी कम से कम उपयोग करते हैं। खुले में शौच जाते होंगे, जहां इनका मल चौबीस या अड़तालीस घंटे में मिट्टी बन जाता है।
दूसरी श्रेणी में पारंपरिक तीर्थ यात्री आते हैं। इनकी संख्या पचास-साठ लाख होगी। ये टैक्सी या बस से चारों धामों की यात्रा करते हैं और तकरीबन सात से दस दिन तक उत्तराखंड में रहते हैं। अमूमन स्थानीय धर्मशाला या चट्टियों में ही ये रहते हैं। खाना-पीना इनका स्थानीय ढाबों में होता है। ये टट्टुओं और डांडियों का इस्तेमाल करते हैं। मोटे अनुमान से ये यात्री एक दिन में पांच सौ से आठ सौ या हजार रुपए खर्च करते होंगे, पर इसका बड़ा हिस्सा स्थानीय लोगों को जाता है। ये जो पैसा खर्च करते हैं वह स्थानीय अर्थव्यवस्था में गहरे पैठता है। इनसे स्थानीय लोगों को ईर्ष्या नहीं होती। प्रदूषण के नाम पर ये कुछ प्रदूषण जरुर फैलाते हैं, जैसे कोकाकोला, बिसलरी की बोतलों का प्रदूषण या टैक्सी, बस का धुआं या प्लास्टिक की थैलियों का प्रदूषण, आदि।
अब उन पर्यटकों को ले जो आधुनिक किस्म के हैं और जिन पर सरकार अपना पूरा ध्यान केंद्रित किए हुए हैं। उनकी संख्या लगभग चालीस लाख होगी। ये पर्यटक आमतौर पर उत्तराखंड में दो दिन से ज्यादा नहीं टिकते। ये शुक्रवार की रात या शनिवार की सुबह यहां आते हैं और रविवार की रात को भाग जाते । इनके पास समय नहीं है। ये पर्यटक आधुनिक किस्म के हैं जो मसूरी, नैनीताल, रानीखेत आदि ज्यादा जाते हैं। कभी-कभी गंगोत्री और बदरीनाथ भी चले जाते हैं। ये धार्मिक भावना से प्रेरित होकर नहीं आते, इसलिए हो सकता है ये गंगोत्री न जाकर हरसिल का प्राकृतिक सौंदर्य देख कर ही वापस लौट जाएं।
यह अपने घर में जिस जीवनशैली का आदी है, जब घूमने जाता है तो उस जीवनशैली से ज्यादा बेहतर या सुविधाजनक जीवन शैली की तलाश में बड़े होटल ढूंढता है। तीर्थ यात्री और इनमें यह एक बड़ा फर्क है। पारंपरिक तीर्थ यात्री, तीर्थ यात्रा के दौरान सहजता से कष्ट झेलता है और अपनी जीवनशैली को या तो वैसे ही रखता है या जिस जीवनशैली का वह आदी है उससे कम सुविधा के लिए तैयार रहता है। जबकि आधुनिक पर्यटक अधिक से अधिक सुविधा ढूंढता है।
यह आधुनिक पर्यटक एक दिन में डेढ़ हजार से पांच-छह हजार रुपए खर्च करता है। यानी दो दिन में अमूमन सात हजार रुपए खर्च करता होगा। देखा जाए तो यह पर्यटक भी दो दिन में उतना ही पैसा खर्च करता है जितना कि एक पारंपरिक तीर्थ यात्री सात से दस दिन में खर्च करता है। लेकिन आधुनिक पर्यटक के पैसे का एक बड़ा हिस्सा स्थानीय अर्थव्यवस्था को नहीं पहुंचता। वह जहां टिकता है, जिस प्रकार का खाना खाता और सामान खरीदता है। (शराब आदि) उसका एक बड़ा हिस्सा पहले राज्य के बाहर चला जाता है। एक छोटा-सा हिस्सा स्थानीय अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचाता है। यह पर्यटक सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाता है, क्योंकि हर चीज, जिसे वह इस्तेमाल करता है ऐसे पैकेज में आती है जो प्रदूषण फैलाए बिना नहीं रहती।
यह पानी का इस्तेमाल करने से पहले सोचता भी नहीं है कि बरबादी हो रही है। आम साधु की तुलना में यह शायद चालीस गुना ज्यादा पानी खर्च करता होगा और तीर्थयात्री की तुलना में 10-15 गुना ज्यादा खर्च करता होगा। यही बात बिजली की खपत पर भी लागू होती है। यह जहां भी जाता है वहां सामाजिक प्रदूषण भी फैलाता है, क्योंकि इसको देख कर स्थानीय लोगों में एक तरफ ईर्ष्या और डाह उत्पन्न होती है तो दूसरी तरफ उनके ‘विकास’ के नकली प्रतिमान बनते हैं।
कई वर्ष पहले सरकार द्वारा बुलाए गए पर्यटन सम्मेलन में यह सुझाव रखा गया था कि पर्यटन को इस प्रकार तीन श्रेणियों में बांट कर चार आधारों पर तुलना की जाए कि किस पर्यटन से कितना लाभ और कितनी हानि होती है। ये आधार थे- एक, पर्यटक आमतौर पर अपने हर प्रवास पर कितना पैसा खर्च करता है और उसका कितना हिस्सा स्थानीय अर्थव्यवस्था को सीधे पहुंचता है और उसकी पैठ कितनी गहरी है? दो, इस पर्यटन से सामाजिक मनोवैज्ञानिक स्तर पर सामान्य लोगों की कितनी लाभ या हानि होती है? तीन, ये पर्यटक अपने प्रवास के दौरान आमतौर पर कितना प्रदूषण फैलाते हैं? और चार, प्रवास के दौरान पानी और बिजली का कितना इस्तेमाल करते हैं?
इस प्रकार के शोध से संभव है कि हमारी कई मान्यताएं टूटें और हम पर्यटन को विदेशी नजरों से न देख कर भारतीय दृष्टि से देखने लगें।
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