खुली हुई आर्थिकी के यदि कुछ लाभ हैं तो खतरे भी कम नहीं। ये खतरे अलग-अलग रूप धरकर आ रहे हैं; आगे भी आते रहेंगे। जरूरत अंतरराष्ट्रीय संगठनों की गतिविधियों को पूरी सतर्कता व समग्रता के साथ पढ़ने और गुनने की है। इस समग्रता और सतर्कता के बगैर भ्रम भी होंगे और ग़लतियाँ भी। अतः अपनी जीडीपी का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक समरसता और ‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ जैसे समग्र विकास के संकेतकों को कभी नहीं भूलना चाहिए। पर्यावरण की चिंता करना पर्यावरणीय संगठनों का काम है और शिक्षा की चिंता करना शैक्षिक संगठनों का। किंतु क्या आपको यह देखकर ताज्जुब नहीं होता कि भारत में शैक्षिक संस्थानों की रैंकिंग का काम राजनीतिक पत्रिकाओं ने संभाल लिया है। औद्योगिक रैंकिंग करते ऐसे संगठन देखे गए हैं, जिन्होंने खुद कभी उद्योग नहीं चलाए। इसी तरह की उलटबांसी पर्यावरण के क्षेत्र में भी दिखाई दे रही है। पिछले दो दशक से कई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठन दुनिया भर की पर्यावरण रेटिंग करने में बड़ी शिद्दत से जुटे दिखाई दे रहे हैं।
क्या ये सब उलटबांसियां निरर्थक हैं? नहीं! गौर करें तो पता चलेगा कि इनका मकसद येन-केन-प्रकारेण सिर्फ और सिर्फ कमाना है। ये अंतरराष्ट्रीय संगठन कुछ देशों की सरकारों, बहुउद्देशीय कंपनियों और न्यासियों के गठजोड़ हैं, जो दूसरे देशों की पानी-हवा-मिट्टी की परवाह किए बगैर परियोजनाओं को कर्ज और सलाह मुहैया कराते हैं; निवेश करते हैं। ऐसी परियोजनाओं के जरिए पर्यावरण के सत्यानाश के उदाहरण भारत में कई हैं। उन्नत बीज, खरपतवार, कीटनाशक, उर्वरक और ’पैक्ड फूड’ के जरिए भारत की खेती, खाना और पानी इनके नए शिकार हैं। बीजों व उर्वरकों में मिलकर खरपतवार की ऐसी खेप आ रही है कि किसान उन्हें खोदते-खोदते परेशान है। उन्न्त बीज वाली फसलों.. खासकर सब्जियों में बीमारियों का प्रकोप इतना अधिक है कि न चाहते हुए भी किसान ‘कीटनाशकम् शरणम् गच्छामि’ को मजबूर हो रहा है। भारत की जलविद्युत, नहरी और शहरी जलापूर्ति परियोजनाओं में अंतरराष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी जगजाहिर है।
अपने पर्यावरण पार्टनरों द्वारा मचाए स्वच्छता, प्रदूषण मुक्ति और कुपोषण के हो-हल्ले के जरिए भी ये अंतरराष्ट्रीय संगठनों ‘आर ओ’, शौचालय, मलशोधन संयंत्र, दवाइयां और टीके ही बेचते हैं। ये कहते हैं कि कुपोषण मुक्ति के सारे नुस्खे इनके पास हैं। यह ‘हैंड वाश डे’ के जरिए ’ब्रेन वाश’ का काम करती हैं। ये तीन रुपए किलो वाले साधारण नमक को आयोडीन नमक का रूप देकर 16 रुपए किलो के भाव से बिकवाती हैं। हमारे कुरता-धोती और सलवार-साड़ी को पोंगा-पिछड़ा बताकर पुराने कपड़ों की खेप हमारे जैसे मुल्क में खपाती हैं। सीधे-सीधे कहूं तो ये ऐसी बाजारु ताकते हैं, जो अपना माल बेचने के लिए दुनिया भर में अफवाहों का विज्ञापन करती हैं। मौजूदा को नकारने-बिगाड़ने और नए को सर्वश्रेष्ठ समाधान बताना ही इनकी मार्केटिंग का आधार है।
गौर करने की बात है कि यह आधार हाल ही दावोस में जारी पर्यावरणीय प्रदर्शन सूचकांक का आधार से बहुत मेल खाता है। हम सब जानते हैं कि असल चिंता तो पर्यावरणीय क्षति की होनी चाहिए। मूल कारक तो वही है। जिन कारणों से पर्यावरणीय क्षति होती है, उन्हें रोकने के प्रयासों को आधार बनाना चाहिए था। लेकिन सूचकांक का आधार इसे न बनाकर पर्यावरणीय क्षति से मानव सेहत तथा पारिस्थितिकीय क्षति को रोकने के प्रयासों को बनाया गया है। हमने तो हमेशा यही पढ़ा था - “इलाज से बेहतर है रोग की रोकथाम।’’ उक्त आधार रोकथाम को पीछे और इलाज को आगे रखता है। क्या यह सही है?
इस आधार पर जारी पर्यावरणीय प्रदर्शन सूचकांक में शामिल कुल 178 देशों की सूची में भारत को 155वें पायदान पर रखकर फिसड्डी करार दिया गया है; पड़ोसी पाकिस्तान (148) और नेपाल (139) से भी पीछे। यह सूचकांक वर्ल्ड इकोनॉमी फोरम की पहल पर येल और कोलंबिया विश्वविद्यालय ने विशेषज्ञों ने तैयार किया है। सैमुअल फैमिली फाउंडेशन और कॉल मेकबेन फाउंडेशन ने इसमें मदद की हैं।
गौर करने की बात है कि सुधरती आर्थिकी वाले चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, रूस और भारत जैसे किसी भी देश को रैंकिंग में आगे नहीं रखा गया। ऐसे देशों में भी भारत को सभी से पीछे रखा गया है। दक्षिण अफ्रीका को 72, रूसी को 73, ब्राजील को 78 और चीन को 118 वें पायदान पर रखा गया है। भारत को मात्र 31.23 अंक दिए गए हैं। स्विटजरलैंड, लक्समबर्ग, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर और चेक रिपब्लिक के नाम प्रथम पांच के रूप में दर्ज किए गए हैं। उल्लेखनीय है कि उभरती आर्थिकी वाले देशों को खास तौर पर इंगित करते हुए सूचकांक रिपोर्ट कहती है कि ये वे देश हैं, 2009 से 2012 के बीच जिनकी आर्थिकी में 55 प्रतिशत तक तरक्की हुई।
यह बात ठीक है कि नई आर्थिक तरक्की वाले देशों में पर्यावरणीय क्षेत्र में काफी कुछ खोया है। खराब नीति और प्रदर्शन के लिए आंकड़ेबाजी और माप क्षमता में कमजोरी नीति, प्रदर्शन और प्रकृति पर खराब असर डाल सकती है। यह भी सही है कि हवा, जैव विविधता और मानव सेहत के लिए जरूरी इंतज़ाम किए बगैर शहरीकरण बढ़ाते जाना खतरनाक है; बावजूद इसके क्या यह सच नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास कार्यक्रमों की पूरी श्रृंखला दुनिया को शहरीकरण की तरफ ही ले धकेल रही है? गांव को गांव बना रहने देने का संयुक्त राष्ट्र संघ का एक कार्यक्रम हो तो बताइए। उक्त रिपोर्ट की सुनें तो यदि भारत इस सूचकांक में ऊपर स्थान चाहता है, तो उसे दुनिया भर की शोधन संयंत्रों, सूचना प्रणालियों और दवाओं को अपने यहां खपाने को तैयार रहना चाहिए। क्या हम ऐसा करें?
जरूरत यह है कि ऐसी रिपोर्टों की नीयत व हकीकत का विश्लेषण करते वक्त ‘विश्व इकोनॉमी फोरम रिपोर्ट-जनवरी 2013’ को पढ़ना कभी नहीं भूलना चाहिए। फोरम रिपोर्ट साफ कहती है कि आर्थिक और भौगोलिक शक्ति के उत्तरी अमेरिका और यूरोप जैसे परंपरागत केन्द्र अब बदल गए हैं। लेटिन अमेरिका, एशिया और दक्षिण अफ्रीका उभरती हुई आर्थिकी के नए केन्द्र हैं। तकनीक के कारण संचार, व्यापार और वित्तीय प्रबंधन के तौर-तरीके बदले हैं। अब हमें भी बदलना होगा। फोरम रिपोर्ट सरकारों, कारपोरेट समूहों और अंतरराष्ट्रीय न्यासियों के करीब 200 विशेषज्ञों ने तैयार की है। सरकार, कारपोरेट और अंतरराष्ट्रीय न्यासियों के इस त्रिगुट में गैर सरकारी संगठनों को शामिल करने का इरादा जाहिर करते हुए रिपोर्ट ‘एड’ के जरिए ‘ट्रेड’ के मंत्र सुझाती है।
फोरम रिपोर्ट कहती है कि रोज़गार विकसित करने के नाम पर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े जनाधार वाली संस्थाओं को सीधे मार्केटिंग में उतारा जाए। रिपोर्ट ने हैती में मर्सीकोर नामक संस्था द्वारा बीमा बेचने का जिक्र किया है। बांग्लादेश में केयर नामक संस्था बाटा व खाद्य समेत कई उत्पाद बेच रही हैं। भारत में टाटा कंपनी ने भी इसी तर्ज पर चाय बेचने का काम सामाजिक संस्थाओं को सौंप दिया है। रिपोर्ट बेहतर शासन व पारदर्शिता के नाम पर बौद्धिक क्षमता वाले संगठनों को संबंधित देशों की सत्ता में भी बैठाने का इरादा रखती है। दावोस में पेश रिपोर्ट हैती, सोमालिया, माली, लियोथो और अफगानिस्तान को ऐसे देशों के रूप में चिन्हित करती है, जहां अशांति और राजनीतिक उथल-पुथल है। पंडित नेहरु की पुस्तक ‘गिलम्पसिस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ इस बारे में बहुत पहले से सचेत करती आ रही है। वह कहती है कि दूसरे देश के संसाधनों पर कब्ज़ा करने के लिए शक्तिशाली देश उनकी राजनीतिक गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। मौका पाकर जब चाहें, सत्ता उलट देते हैं। भारतीय राजनीति में आई ताजा बयार में दावोस की दिलचस्पी का एक मतलब यह भी निकाला जा सकता है।
कुल मिलाकर कहना यह है कि खुली हुई आर्थिकी के यदि कुछ लाभ हैं तो खतरे भी कम नहीं। ये खतरे अलग-अलग रूप धरकर आ रहे हैं; आगे भी आते रहेंगे। जरूरत अंतरराष्ट्रीय संगठनों की गतिविधियों को पूरी सतर्कता व समग्रता के साथ पढ़ने और गुनने की है। इस समग्रता और सतर्कता के बगैर भ्रम भी होंगे और ग़लतियाँ भी। अतः अपनी जीडीपी का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक समरसता और ‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ जैसे समग्र विकास के संकेतकों को कभी नहीं भूलना चाहिए। स्वयंसेवी संगठनों को भी चाहिए कि सामाजिक/प्राकृतिक महत्व की परियोजनाओं को समाज तक ले जाने से पहले उनकी नीति और नीयत को अच्छी तरह जांच लें, तो बेहतर। ‘गांधी जी का जंतर’ याद रख सकें, तो सर्वश्रेष्ठ।
क्या ये सब उलटबांसियां निरर्थक हैं? नहीं! गौर करें तो पता चलेगा कि इनका मकसद येन-केन-प्रकारेण सिर्फ और सिर्फ कमाना है। ये अंतरराष्ट्रीय संगठन कुछ देशों की सरकारों, बहुउद्देशीय कंपनियों और न्यासियों के गठजोड़ हैं, जो दूसरे देशों की पानी-हवा-मिट्टी की परवाह किए बगैर परियोजनाओं को कर्ज और सलाह मुहैया कराते हैं; निवेश करते हैं। ऐसी परियोजनाओं के जरिए पर्यावरण के सत्यानाश के उदाहरण भारत में कई हैं। उन्नत बीज, खरपतवार, कीटनाशक, उर्वरक और ’पैक्ड फूड’ के जरिए भारत की खेती, खाना और पानी इनके नए शिकार हैं। बीजों व उर्वरकों में मिलकर खरपतवार की ऐसी खेप आ रही है कि किसान उन्हें खोदते-खोदते परेशान है। उन्न्त बीज वाली फसलों.. खासकर सब्जियों में बीमारियों का प्रकोप इतना अधिक है कि न चाहते हुए भी किसान ‘कीटनाशकम् शरणम् गच्छामि’ को मजबूर हो रहा है। भारत की जलविद्युत, नहरी और शहरी जलापूर्ति परियोजनाओं में अंतरराष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी जगजाहिर है।
अपने पर्यावरण पार्टनरों द्वारा मचाए स्वच्छता, प्रदूषण मुक्ति और कुपोषण के हो-हल्ले के जरिए भी ये अंतरराष्ट्रीय संगठनों ‘आर ओ’, शौचालय, मलशोधन संयंत्र, दवाइयां और टीके ही बेचते हैं। ये कहते हैं कि कुपोषण मुक्ति के सारे नुस्खे इनके पास हैं। यह ‘हैंड वाश डे’ के जरिए ’ब्रेन वाश’ का काम करती हैं। ये तीन रुपए किलो वाले साधारण नमक को आयोडीन नमक का रूप देकर 16 रुपए किलो के भाव से बिकवाती हैं। हमारे कुरता-धोती और सलवार-साड़ी को पोंगा-पिछड़ा बताकर पुराने कपड़ों की खेप हमारे जैसे मुल्क में खपाती हैं। सीधे-सीधे कहूं तो ये ऐसी बाजारु ताकते हैं, जो अपना माल बेचने के लिए दुनिया भर में अफवाहों का विज्ञापन करती हैं। मौजूदा को नकारने-बिगाड़ने और नए को सर्वश्रेष्ठ समाधान बताना ही इनकी मार्केटिंग का आधार है।
गौर करने की बात है कि यह आधार हाल ही दावोस में जारी पर्यावरणीय प्रदर्शन सूचकांक का आधार से बहुत मेल खाता है। हम सब जानते हैं कि असल चिंता तो पर्यावरणीय क्षति की होनी चाहिए। मूल कारक तो वही है। जिन कारणों से पर्यावरणीय क्षति होती है, उन्हें रोकने के प्रयासों को आधार बनाना चाहिए था। लेकिन सूचकांक का आधार इसे न बनाकर पर्यावरणीय क्षति से मानव सेहत तथा पारिस्थितिकीय क्षति को रोकने के प्रयासों को बनाया गया है। हमने तो हमेशा यही पढ़ा था - “इलाज से बेहतर है रोग की रोकथाम।’’ उक्त आधार रोकथाम को पीछे और इलाज को आगे रखता है। क्या यह सही है?
इस आधार पर जारी पर्यावरणीय प्रदर्शन सूचकांक में शामिल कुल 178 देशों की सूची में भारत को 155वें पायदान पर रखकर फिसड्डी करार दिया गया है; पड़ोसी पाकिस्तान (148) और नेपाल (139) से भी पीछे। यह सूचकांक वर्ल्ड इकोनॉमी फोरम की पहल पर येल और कोलंबिया विश्वविद्यालय ने विशेषज्ञों ने तैयार किया है। सैमुअल फैमिली फाउंडेशन और कॉल मेकबेन फाउंडेशन ने इसमें मदद की हैं।
गौर करने की बात है कि सुधरती आर्थिकी वाले चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, रूस और भारत जैसे किसी भी देश को रैंकिंग में आगे नहीं रखा गया। ऐसे देशों में भी भारत को सभी से पीछे रखा गया है। दक्षिण अफ्रीका को 72, रूसी को 73, ब्राजील को 78 और चीन को 118 वें पायदान पर रखा गया है। भारत को मात्र 31.23 अंक दिए गए हैं। स्विटजरलैंड, लक्समबर्ग, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर और चेक रिपब्लिक के नाम प्रथम पांच के रूप में दर्ज किए गए हैं। उल्लेखनीय है कि उभरती आर्थिकी वाले देशों को खास तौर पर इंगित करते हुए सूचकांक रिपोर्ट कहती है कि ये वे देश हैं, 2009 से 2012 के बीच जिनकी आर्थिकी में 55 प्रतिशत तक तरक्की हुई।
यह बात ठीक है कि नई आर्थिक तरक्की वाले देशों में पर्यावरणीय क्षेत्र में काफी कुछ खोया है। खराब नीति और प्रदर्शन के लिए आंकड़ेबाजी और माप क्षमता में कमजोरी नीति, प्रदर्शन और प्रकृति पर खराब असर डाल सकती है। यह भी सही है कि हवा, जैव विविधता और मानव सेहत के लिए जरूरी इंतज़ाम किए बगैर शहरीकरण बढ़ाते जाना खतरनाक है; बावजूद इसके क्या यह सच नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास कार्यक्रमों की पूरी श्रृंखला दुनिया को शहरीकरण की तरफ ही ले धकेल रही है? गांव को गांव बना रहने देने का संयुक्त राष्ट्र संघ का एक कार्यक्रम हो तो बताइए। उक्त रिपोर्ट की सुनें तो यदि भारत इस सूचकांक में ऊपर स्थान चाहता है, तो उसे दुनिया भर की शोधन संयंत्रों, सूचना प्रणालियों और दवाओं को अपने यहां खपाने को तैयार रहना चाहिए। क्या हम ऐसा करें?
जरूरत यह है कि ऐसी रिपोर्टों की नीयत व हकीकत का विश्लेषण करते वक्त ‘विश्व इकोनॉमी फोरम रिपोर्ट-जनवरी 2013’ को पढ़ना कभी नहीं भूलना चाहिए। फोरम रिपोर्ट साफ कहती है कि आर्थिक और भौगोलिक शक्ति के उत्तरी अमेरिका और यूरोप जैसे परंपरागत केन्द्र अब बदल गए हैं। लेटिन अमेरिका, एशिया और दक्षिण अफ्रीका उभरती हुई आर्थिकी के नए केन्द्र हैं। तकनीक के कारण संचार, व्यापार और वित्तीय प्रबंधन के तौर-तरीके बदले हैं। अब हमें भी बदलना होगा। फोरम रिपोर्ट सरकारों, कारपोरेट समूहों और अंतरराष्ट्रीय न्यासियों के करीब 200 विशेषज्ञों ने तैयार की है। सरकार, कारपोरेट और अंतरराष्ट्रीय न्यासियों के इस त्रिगुट में गैर सरकारी संगठनों को शामिल करने का इरादा जाहिर करते हुए रिपोर्ट ‘एड’ के जरिए ‘ट्रेड’ के मंत्र सुझाती है।
फोरम रिपोर्ट कहती है कि रोज़गार विकसित करने के नाम पर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े जनाधार वाली संस्थाओं को सीधे मार्केटिंग में उतारा जाए। रिपोर्ट ने हैती में मर्सीकोर नामक संस्था द्वारा बीमा बेचने का जिक्र किया है। बांग्लादेश में केयर नामक संस्था बाटा व खाद्य समेत कई उत्पाद बेच रही हैं। भारत में टाटा कंपनी ने भी इसी तर्ज पर चाय बेचने का काम सामाजिक संस्थाओं को सौंप दिया है। रिपोर्ट बेहतर शासन व पारदर्शिता के नाम पर बौद्धिक क्षमता वाले संगठनों को संबंधित देशों की सत्ता में भी बैठाने का इरादा रखती है। दावोस में पेश रिपोर्ट हैती, सोमालिया, माली, लियोथो और अफगानिस्तान को ऐसे देशों के रूप में चिन्हित करती है, जहां अशांति और राजनीतिक उथल-पुथल है। पंडित नेहरु की पुस्तक ‘गिलम्पसिस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ इस बारे में बहुत पहले से सचेत करती आ रही है। वह कहती है कि दूसरे देश के संसाधनों पर कब्ज़ा करने के लिए शक्तिशाली देश उनकी राजनीतिक गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। मौका पाकर जब चाहें, सत्ता उलट देते हैं। भारतीय राजनीति में आई ताजा बयार में दावोस की दिलचस्पी का एक मतलब यह भी निकाला जा सकता है।
कुल मिलाकर कहना यह है कि खुली हुई आर्थिकी के यदि कुछ लाभ हैं तो खतरे भी कम नहीं। ये खतरे अलग-अलग रूप धरकर आ रहे हैं; आगे भी आते रहेंगे। जरूरत अंतरराष्ट्रीय संगठनों की गतिविधियों को पूरी सतर्कता व समग्रता के साथ पढ़ने और गुनने की है। इस समग्रता और सतर्कता के बगैर भ्रम भी होंगे और ग़लतियाँ भी। अतः अपनी जीडीपी का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक समरसता और ‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ जैसे समग्र विकास के संकेतकों को कभी नहीं भूलना चाहिए। स्वयंसेवी संगठनों को भी चाहिए कि सामाजिक/प्राकृतिक महत्व की परियोजनाओं को समाज तक ले जाने से पहले उनकी नीति और नीयत को अच्छी तरह जांच लें, तो बेहतर। ‘गांधी जी का जंतर’ याद रख सकें, तो सर्वश्रेष्ठ।
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