पर्यावरण, विकास और आपदा नीति

Mangrove
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परियोजनाओं के ऊपर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। शक्तिशाली वर्ग पहाड़ों के ऊपर पर्यटन के नाम पर अचल संपत्ति उद्योग का धंधा गैरकानूनी तरीके संचालित कर रहे हैं। इस अचल संपत्ति निर्माण के तहत संरक्षित क्षेत्रों में भवन निर्माण कराए जा रहे हैं। फलस्वरूप शहरों के अंदर जल स्रोतों का संकुचन हुआ है। वेटलैंड क्षेत्रों के ऊपर मानवीय अतिक्रमण बढ़ा है। झीलों और तालाबों को शहर निर्माण के नाम पर मृत कर दिया जा रहा है। अगर कहें तो हिमालय के ऊपर एक पारिस्थितिकी संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है। विकास के एक ऐसे दौर से हम गुजर रहे हैं जो कालांतर में बाढ़, सुखाड़, चक्रवात, भू-स्खलन जैसी विभत्स आपदाओं को जन्म देगा। हमारे नीति-निर्धारकों को इस प्रकार की असंतुलित और असमतुल्य विकास की रफ्तार को बहुत पहले ही नियंत्रित करने की जरुरत थी। विकास एक जन - कल्याणकारी नीति है और जब हम अपनी पारस्थितिकी और प्राकृतिक संसाधनों का विकास के नाम पर अति-दोहन करते हैं तो यह जन-कल्याणकारी न होकर जन-विरोधी हो जाती हैं।

प्राकृतिक असंतुलन बाढ़, सुखाड़ और भू-स्खलन जैसी आपदाओं को बढ़ा देती है। प्रकृति प्रारंभ से मानव को आपदा जैसी संकटों से सुरक्षित करने का कार्य करती रही है। चाहे वो वन क्षेत्र हो, मैंग्रोव क्षेत्र हो या वेटलैंड क्षेत्र, झील, तालाब, जलप्रपात हो या घास के मैदानी भू-भाग हो पारस्थितिकी के ये विभिन्न स्वरूप हम मनुष्यों को आरंभ-काल से ही आपदाओं से लड़ने में सहयोग करते आएं हैं। सलीम अली सेंटर फॉर ओर्निथोलोग्य एंड नेचुरल हिस्ट्री के एक आंकड़े के अनुसार भारत ने 1991 से 2001 तक कुल 38 वेटलैंड क्षेत्रों को खोया है या नष्ट कर दिया है।

उद्योग और कृषि वेटलैंड क्षेत्रों के संकुचन के दो बड़े कारण हैं। हालांकि सबसे प्रमुख कारण इस पारितंत्र की सेवाओं के बारे में मानवीय अनभिज्ञता को माना जाता है। सलीम अली सेंटर फॉर ओर्निथोलोग्य एंड नेचुरल हिस्ट्री के ही आंकड़ों के अनुसार इन 10 सालों के अंदर 2.77 लाख तालाब और 2.92 लाख टैंक्स भी विलुप्त हुए हैं। ये आंकड़े 2001 तक ही हैं। अगर हम 2014 तक के आंकड़ों की कल्पना करें तो परिस्थिति और गंभीर होगी।

2008 की बिहार में भयंकर बाढ़ की त्रासदी, आसाम में हर साल बाढ़ का बढ़ता संकट, 2013 के उत्तराखंड की भू-स्खलन और बाढ़ की प्रलयंकारी त्रासदी, हिमाचल प्रदेश एवं सिक्किम में लगातार होती भू-स्खलन का संकट और अब जम्मू-कश्मीर के बाढ़ की भयंकर विपदा इस ओर इंगित कर रही हैं कि विकास और प्रकृति के बीच में संतुलन होना अनिवार्य है। वर्तमान में विकास को एक दूसरे नजरिए से देखा जा रहा है जहां ‘प्रति व्यक्ति आय और उर्जा का उपभोग’ और ‘प्रति व्यक्ति उत्पादन’ आदि अंतरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर मानव विकास सूचकांक को लेकर दुनिया में आर्थिक संपन्नता और उच्च विकास दर पर पहुंचने की होड़ मची है।

विकास की इस वैश्विक आपा-धापी ने विश्व के जलवायु को ही परिवर्तित कर दिया है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन ने पूरी दुनिया को कम-से-कम आगाह किया है कि आने वाली आपदाओं से निपटने के लिए एक प्रभावी आपदा प्रबंधन नीति हो। भारत ने 2005 में ही राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून संसद में पारित कराया था।

वर्ष 2013 में उत्तराखंड राज्य ने भू-स्खलन और बाढ़ का सबसे प्रलयंकारी रूप देखा था। यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं थी अपितु ये उस अंधी विकास का प्रतिफल था जिसका विरोध टिहरी डैम निर्माण को लेकर सुन्दर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट आदि लोगों ने 1972 में किया था। आज संपूर्ण उत्तराखंड के पहाड़ों को काटकर एक बड़े भू-भाग को वनरहित कर नदियों के ऊपर सैकड़ों विद्युत बांध निर्मित हैं या निर्माणाधीन हैं या निर्माण हेतु प्रस्तावित हैं। नदियों के ऊपर बहुत सारी ऐसी विद्युत परियोजनाएं हैं जो पूर्ण हो जाने के बाद भी ऊर्जा का संचरण नहीं कर सकी हैं।


संकट में वेटलैंडसंकट में वेटलैंडपरियोजनाओं के ऊपर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। शक्तिशाली वर्ग पहाड़ों के ऊपर पर्यटन के नाम पर अचल संपत्ति उद्योग का धंधा गैरकानूनी तरीके संचालित कर रहे हैं। इस अचल संपत्ति निर्माण के तहत संरक्षित क्षेत्रों में भवन निर्माण कराए जा रहे हैं। फलस्वरूप शहरों के अंदर जल स्रोतों का संकुचन हुआ है। वेटलैंड क्षेत्रों के ऊपर मानवीय अतिक्रमण बढ़ा है।

झीलों और तालाबों को शहर निर्माण के नाम पर मृत कर दिया जा रहा है। अगर कहें तो हिमालय के ऊपर एक पारिस्थितिकी संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है।

वर्ष 2013 में भारी वर्षा के बाद भू-स्खलन और प्रलयंकारी बाढ़ ने संपूर्ण उत्तराखंड में जान-माल की भयंकर क्षति पहुंचाई। इस विस्मयकारी आपदा के बाद लगा था की सरकार और समाज एक ऐसे विकास की ओर अग्रसर होंगे जहां फिर से हम लोग अपने प्राकृतिक पारितंत्र को पुनर्जीवित करने का प्रयास करेंगे। मगर ‘समय बिता बातें गई’ जैसी स्थितियां पुनः ज्यों की त्यों बन गई। आज फिर बाढ़ का 100 वर्षों में जम्मू-कश्मीर के अंदर एक सबसे वीभत्स रूप सामने खड़ा है। पुनः बतलाते चलूं की ये कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। कारण वहीं हैं जिनकी चर्चा हम हरेक विभस्तकारी आपदाओं के बाद करते हैं।

श्रीनगर और उसके आसपास के क्षेत्रों के एक आंकड़े के अनुसार खुली जल स्रोतों का संकुचन 1911 के कुल 4000.50 हेक्टेयर क्षेत्र से 2004 में 3065.88 हेक्टेयर हो गया है। वही वेटलैंड क्षेत्र 1911 के आकड़ों में कुल 13425.90 हेक्टेयर थी जो 2004 के आंकड़ों में संकुचित होकर 6407.14 हेक्टेयर हो गए हैं। 1911 में जहां निर्माण कुल 1745.73 हेक्टेयर क्षेत्र में हुआ था जो बढ़कर 2004 में 10791.60 हेक्टेयर हो गया।

1911 में जहां कुल अन्य उपयोग कुल 50505.90 हेक्टेयर क्षेत्र में हुआ वहीं 2004 में ये अन्य क्षेत्र का उपयोग 49426.70 हेक्टेयर हुआ। दुःख इस बात का है कि आपदाएं आती हैं, जान-माल का नुकसान करती हैं, सरकारें आपदाओं के बाद एक बड़े स्तर पर आपदा प्रबंधन का कार्य करती हैं। रिलीफ और रेस्क्यू के नाम पर सहानुभूति प्राप्त करना और फिर राजनीतिक जमीन बनाना ताकि जनता अगली सरकार का भविष्य तय कर सके। क्या बाढ़ और भू-स्खलन आपदाओं के प्रभाव से निपटने के लिए कोई कारगर नीति नहीं है? क्या आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को समय पर जरूरी सूचनाएं मुहैया नहीं कराई जाती हैं? कुछ हद तक हां।


मैंग्रोवमैंग्रोवराष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और राज्यों के आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों ने विगत वर्षों में आपदा से होने वाले जान-माल की क्षति को नियंत्रित करने में सक्षम भूमिका निभाई हैं। वर्ष 2013 में जब ‘फैलिन’ नाम का चक्रवात ओड़िशा और आंध्र प्रदेश के समुद्री तटों पर आया तो भारतीय मौसम विभाग, केंद्रीय जल आयोग और राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के बीच सायक्लोने ट्रेसिंग और मॉनिटरिंग सिस्टम के जरिए चक्रवात की वास्तविक स्थिति का आदान-प्रदान इतने प्रभावी तरीके से किया कि 10 घंटों के अंदर 7-8 लाख लोगों की निकासी कराकर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया गया। जम्मू-कश्मीर में मौसम विभाग ने भारी बारिश होने की चेतावनी जारी की थी। केंद्रीय जल आयोग ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। हालांकि जल आयोग ने दूसरे राज्यों के लिए बाढ़ की चेतावनी जारी की थी। मगर जम्मू-कश्मीर के मौसम विभाग के भारी बारिश होने की चेतावनी को अनदेखा किया गया।

यदि समय रहते बाढ़ की चेतावनी दे दी जाती तो आपदा विभाग बाढ़ से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार होता और समय रहते काफी लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया जाता। हमारे देश का सरकारी तंत्र इन महत्वपूर्ण सूचनाओं को एक सांकेतिक तरीके से लेता है। यह समय जले पर नमक छिड़कने का नहीं है।

आइए एक जुट होकर आज जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ अन्य प्रांतों में बाढ़ और संबंधित आपदाओं का सामना करें। अफवाह और गलत सूचनाओं को प्रसारित न करें। वैसे विकास का जन-विरोध करें जो प्रकृति के विरुद्ध हों। हिमालय के पारितंत्र और जैविक विविधताओं को हर हाल में संरक्षित करना होगा। विकास के प्रभाव को संतुलित करने के लिए विशेषज्ञों के द्वारा इ.ई.ए. (एनवायरनमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट) के ऊपर समुचित तरीके से कार्य करना होगा ताकि जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों के साथ अन्य उत्तर-पूर्व के राज्यों में विकास जनित आपदाओं की संभावनाओं को निरस्त किया जा सके।


जम्मू-कश्मीर का बाढ़जम्मू-कश्मीर का बाढ़केंद्र सरकार ने हिमालय के पर्यावरण को संरक्षित करने हेतु जो वित्तीय बजट में अनुमोदन किया है और साथ में एक राष्ट्रीय हिमालय शिक्षण संस्थान के निर्माण के लिए 100 करोड़ की राशि का अनुमोदन किया है उसका नीतिगत कार्यान्वयन करना होगा। हिमालय का संपूर्ण भूभाग भूकंप के उच्चतर प्रभाव वाले क्षेत्र में आता है। अगर आज हिमालय के पारितंत्र को संरक्षित करने में चूक करते हैं तो उत्तराखंड, असम, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और जम्मू कश्मीर जैसी त्रासदी अरुणाचल प्रदेश जैसे हिमालय के राज्यों के साथ-साथ उत्तर पूर्व के अन्य राज्यों में भी आ सकती हैं। समय आ गया है की एक व्यापक विकास नीति के साथ साथ पर्यावरण और पर्यटन की नीति निर्धारित हो और उसके संस्थागत कार्यान्वयन को सरकार सुनिश्चित करे।

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Post By: Shivendra
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