अभी तक चल रहे विज्ञान को सामूहिक, प्रायोगिक और बिना किसी चुनौती के विश्लेषण की जरूरत है। बाहरी लोगों के लिए इन संस्थाओं के दरवाज़े बंद हैं और यह अपने आप में नौकरशाही का शिकार है। ऐसे में किसी भी तरह का सार्वजनिक संवाद नहीं बन पाता। जलवायु विज्ञान नए दृष्टिकोण चाहता है। यह लीक से हटकर अनुसंधान की भी मांग करता है। यह उस सीमा को लांघने की भी मांग करता है जिससे सही अनुमान लगाए जा सकें और किसी नतीजे पर पहुंचा जा सके। इसके लिए वह बाहरी दुनिया के आम लोगों को अधिक से अधिक जागरूक बनाने की मांग करता है। इसके अलावा हर रोज घटने वाली सामान्य घटनाओं पर अधिक से अधिक ध्यान देने की मांग करता है, जिससे वैज्ञानिक प्रक्रिया के तहत बगीचे, कृषि भूमि और ग्लेशियर पर अति सावधानी से विचार हो। क्या हमारे वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को आंक पाएंगे? मैं यह सवाल इसलिए पूछ रही हूं क्योंकि मैं विज्ञान और अपने वैज्ञानिकों फितरत, दोनों को ही जानती हूं। पर्यावरण विज्ञान अभी आरंभिक अवस्था में है, इसमें अभी बहुत कुछ होना है। आज हम अच्छी तरह जानते हैं कि अगर प्रदूषण नहीं रुका तो भविष्य कैसा होगा। फिर भी हमारी जानकारी बहुत ज्यादा नहीं है। जलवायु परिवर्तन के मॉडल तैयार करना काफी संवेदनशील मसला है और यह उम्दा उपलब्ध सबूतों पर ही आधारित होना चाहिए। ऐसे मॉडल पूर्वधारणाओं के शिकार बन जाते हैं। ग्रीनहाउस गैसों के बादल हमें किस हद तक प्रभावित करेंगे, इस मामले में हमें काफी कम जानकारी है। सभी सवालों के जवाब मिलने तक हम कदापि इंतजार नहीं कर सकते। खासकर तब भी, जब हमें हमारा विज्ञान भी कोई पक्का जवाब न दे रहा हो। ग्लोशियर (हिमनद) को ही लें। हम जानते हैं कि ग्लेशियर पिघलते हैं और इसके कारण हमें पानी भी नसीब होता है लेकिन क्या ये ग्लेशियर अप्राकृतिक तेजी से पिघल रहे हैं? क्या इस तरह से इनके पिघलने से नदियों में अधिक पानी आ सकता है? इससे एक ओर जहां लोग बाढ़ को झेल रहे हैं, वहीं पानी की तंगी भी बढ़ रही है। वैज्ञानिक भाषा में कहें, तो संकट दरवाज़े पर खड़ा है।
पश्चिमी वैज्ञानिक इस आशंका पर एकमत हैं। वे जानते हैं क्योंकि उनके पास ग्लेशियरों के घटते आकार का नक्शा बनाने तक की पूरी सुविधाएँ हैं। वे लोग बर्फ की मोटाई के अलावा उनके पिघलने तक के आंकड़े रिकार्ड कर रहे हैं। साथ ही, कई प्रायोगिक डाटाशीट द्वारा तैयार जटिल सांख्यिकीय मॉडल की सहायता से कई तरह की संभावनाओं को लेकर भी अध्ययन कर रहे हैं।
ये मॉडल शुरू में ग्लेशियर के पिघलने वाले पानी के ग्लेशियर की दरारों में रिस जाने से पिघलाव में इजाफे और गलने में तेजी की भविष्यवाणी नहीं कर पा रहे थे। जब ये बातें पता लगीं, तो पहले के मुकाबले ज्यादा भरोसेमंद मॉडल तैयार हुए, लेकिन अभी भी कई सवाल अनुत्तरित हैं। मसलन, अंटार्टिका की बर्फ की चादरें चटखने का मामला। इसके टूटने को लेकर ढेर सारी आशंकाएं हैं। लेकिन इन ढेर सारी अनिश्चितताओं की वजह से ही विज्ञान हाथ पर हाथ धर कर तो नहीं बैठा रह सकता। विज्ञान को जो पता है वह उसे बताना ही होगा। इस बहस में उसे अपने आंकड़े और भरोसेमंद पैमाने भी उजागर करने होंगे। साथ ही यह भी बताना होगा कि क्या वह नहीं जानता है उसके आंकड़ों और समझ की क्या सीमाएं हैं। यह विज्ञान तेजी से विकसित हो रहा है, लेकिन है तो अभी अपने शैशवकाल में ही। भारत में हमने मानव के हस्तक्षेप का ग्लेशियरों पर पड़ने वाला असर अभी आंकना ही शुरू किया है। जो परिवर्तन हम महसूस कर रहे हैं उसे लेकर अनुमान लगाया जाना चाहिए और बाकी दुनिया को पहले से बताना चाहिए। प्राकृतिक बदलाव और जल संचय को लेकर ग्लेशियर के प्रभावित होने के मामलों को समझने के लिए हमें कई मूलभूत काम करने होंगे। लेकिन क्या ऐसा संभव है?
मैं यह सवाल इसलिए उठा रही हूं, क्योंकि पर्यावरण ने कई तरह से विज्ञान पर अपना असर डाला है। सारा मामला उस शतरंज के खेल की तरह है, जहां हमेशा सतर्कता के साथ-साथ अनुसंधान खोजी प्रवृत्ति की जरूरत है। वैज्ञानिकों को सूत्र की जरूरत होती है और परिस्थिति, सहज बुद्धि और वास्तविक दुनिया में हो रही घटनाएँ सारे सवालों का जवाब चुटकी में दे सकती है। कल्पनाशीलता और धुन के साथ शोध की आदत हमारे वैज्ञानिकों को नहीं है। वास्तविक तौर पर इस तरह के अनिश्चित माहौल में हमारा विज्ञान परिणाम को लेकर कुछ भी अनुमान नहीं लगाता। निश्चित समय के हिसाब से हमारे वैज्ञानिकों को इन सीमाओं को लांघना होगा, जो आने वाले समय में विज्ञान को बदल देंगी। हमारे वैज्ञानिक जितना जानते हैं, उसी सीमित दायरे में सुरक्षित तरीके से काम करना पसंद करते हैं। जलवायु विज्ञान के मामले में वे अपने शब्दों के प्रति जितनी सावधानियां बरतते हैं तने ही अपने काम को लेकर लकीर के फ़क़ीर बने रहते हैं।
उदाहरण के तौर पर देखें तो सामान्य विज्ञान के लिए यह कहना आसान है कि ग्लेशियर का पिघलना न तो नया है और न ही इसमें कोई आश्चर्य की बात है। वे इसे सामान्य चक्रीय प्रक्रिया का नाम देते हैं। यह भी संभव है (कुछ दिन पहले मैंने इसे सुना है) कि ग्लेशियर पिघलने की जानकारी होने के बावजूद हमारे हाइड्रोलॉजिकल सिस्टम पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर पुख्ता जानकारी नहीं है। ऐसा क्यों? क्योंकि वर्तमान के शोध असामान्य स्थिति नहीं दर्शाते। यह अलग है कि शोध के आंकड़े और ढंग पर्याप्त नहीं है। इसके अलावा प्रकृति खुद-ब-खुद जिन मुद्दों को लोगों के सामने रख रही है, उनको तुच्छ समझकर वैज्ञानिक शोध नहीं कर रहे हैं।
इन समस्याओं को हमें स्वीकार कर लेना चाहिए। भारतीय वैज्ञानिक अभी भी सटीक स्थापना से कोसों दूर है। अभी तक चल रहे विज्ञान को सामूहिक, प्रायोगिक और बिना किसी चुनौती के विश्लेषण की जरूरत है। बाहरी लोगों के लिए इन संस्थाओं के दरवाज़े बंद हैं और यह अपने आप में नौकरशाही का शिकार है। ऐसे में किसी भी तरह का सार्वजनिक संवाद नहीं बन पाता। जलवायु विज्ञान नए दृष्टिकोण चाहता है। यह लीक से हटकर अनुसंधान की भी मांग करता है। यह उस सीमा को लांघने की भी मांग करता है जिससे सही अनुमान लगाए जा सकें और किसी नतीजे पर पहुंचा जा सके। इसके लिए वह बाहरी दुनिया के आम लोगों को अधिक से अधिक जागरूक बनाने की मांग करता है। इसके अलावा हर रोज घटने वाली सामान्य घटनाओं पर अधिक से अधिक ध्यान देने की मांग करता है, जिससे वैज्ञानिक प्रक्रिया के तहत बगीचे, कृषि भूमि और ग्लेशियर पर अति सावधानी से विचार हो। किसी पर आरोप न लगाते हुए मैं कहने के लिए विवश हूं कि भारतीय वैज्ञानिकों को जलवायु परिवर्तन मामले में गंभीर होना चाहिए। इस मामले में अधिक संवेदनशील और प्रयोगधर्मी होने की जरूरत है। वैज्ञानिकों का पुरुषवादी चेहरा कभी भी पर्यावरण और प्रकृति जैसे नरम मुद्दों में रुचि नहीं लेता। ये मुद्दे न्यूक्लियर, अंतरिक्ष या रॉकेट तकनीक की दुनिया में गौण हैं। जलवायु परिवर्तन विज्ञान (और पूरी दुनिया) को एक बेचैनी और युवाओं जैसे साहस की जरूरत है।
पश्चिमी वैज्ञानिक इस आशंका पर एकमत हैं। वे जानते हैं क्योंकि उनके पास ग्लेशियरों के घटते आकार का नक्शा बनाने तक की पूरी सुविधाएँ हैं। वे लोग बर्फ की मोटाई के अलावा उनके पिघलने तक के आंकड़े रिकार्ड कर रहे हैं। साथ ही, कई प्रायोगिक डाटाशीट द्वारा तैयार जटिल सांख्यिकीय मॉडल की सहायता से कई तरह की संभावनाओं को लेकर भी अध्ययन कर रहे हैं।
ये मॉडल शुरू में ग्लेशियर के पिघलने वाले पानी के ग्लेशियर की दरारों में रिस जाने से पिघलाव में इजाफे और गलने में तेजी की भविष्यवाणी नहीं कर पा रहे थे। जब ये बातें पता लगीं, तो पहले के मुकाबले ज्यादा भरोसेमंद मॉडल तैयार हुए, लेकिन अभी भी कई सवाल अनुत्तरित हैं। मसलन, अंटार्टिका की बर्फ की चादरें चटखने का मामला। इसके टूटने को लेकर ढेर सारी आशंकाएं हैं। लेकिन इन ढेर सारी अनिश्चितताओं की वजह से ही विज्ञान हाथ पर हाथ धर कर तो नहीं बैठा रह सकता। विज्ञान को जो पता है वह उसे बताना ही होगा। इस बहस में उसे अपने आंकड़े और भरोसेमंद पैमाने भी उजागर करने होंगे। साथ ही यह भी बताना होगा कि क्या वह नहीं जानता है उसके आंकड़ों और समझ की क्या सीमाएं हैं। यह विज्ञान तेजी से विकसित हो रहा है, लेकिन है तो अभी अपने शैशवकाल में ही। भारत में हमने मानव के हस्तक्षेप का ग्लेशियरों पर पड़ने वाला असर अभी आंकना ही शुरू किया है। जो परिवर्तन हम महसूस कर रहे हैं उसे लेकर अनुमान लगाया जाना चाहिए और बाकी दुनिया को पहले से बताना चाहिए। प्राकृतिक बदलाव और जल संचय को लेकर ग्लेशियर के प्रभावित होने के मामलों को समझने के लिए हमें कई मूलभूत काम करने होंगे। लेकिन क्या ऐसा संभव है?
मैं यह सवाल इसलिए उठा रही हूं, क्योंकि पर्यावरण ने कई तरह से विज्ञान पर अपना असर डाला है। सारा मामला उस शतरंज के खेल की तरह है, जहां हमेशा सतर्कता के साथ-साथ अनुसंधान खोजी प्रवृत्ति की जरूरत है। वैज्ञानिकों को सूत्र की जरूरत होती है और परिस्थिति, सहज बुद्धि और वास्तविक दुनिया में हो रही घटनाएँ सारे सवालों का जवाब चुटकी में दे सकती है। कल्पनाशीलता और धुन के साथ शोध की आदत हमारे वैज्ञानिकों को नहीं है। वास्तविक तौर पर इस तरह के अनिश्चित माहौल में हमारा विज्ञान परिणाम को लेकर कुछ भी अनुमान नहीं लगाता। निश्चित समय के हिसाब से हमारे वैज्ञानिकों को इन सीमाओं को लांघना होगा, जो आने वाले समय में विज्ञान को बदल देंगी। हमारे वैज्ञानिक जितना जानते हैं, उसी सीमित दायरे में सुरक्षित तरीके से काम करना पसंद करते हैं। जलवायु विज्ञान के मामले में वे अपने शब्दों के प्रति जितनी सावधानियां बरतते हैं तने ही अपने काम को लेकर लकीर के फ़क़ीर बने रहते हैं।
उदाहरण के तौर पर देखें तो सामान्य विज्ञान के लिए यह कहना आसान है कि ग्लेशियर का पिघलना न तो नया है और न ही इसमें कोई आश्चर्य की बात है। वे इसे सामान्य चक्रीय प्रक्रिया का नाम देते हैं। यह भी संभव है (कुछ दिन पहले मैंने इसे सुना है) कि ग्लेशियर पिघलने की जानकारी होने के बावजूद हमारे हाइड्रोलॉजिकल सिस्टम पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर पुख्ता जानकारी नहीं है। ऐसा क्यों? क्योंकि वर्तमान के शोध असामान्य स्थिति नहीं दर्शाते। यह अलग है कि शोध के आंकड़े और ढंग पर्याप्त नहीं है। इसके अलावा प्रकृति खुद-ब-खुद जिन मुद्दों को लोगों के सामने रख रही है, उनको तुच्छ समझकर वैज्ञानिक शोध नहीं कर रहे हैं।
इन समस्याओं को हमें स्वीकार कर लेना चाहिए। भारतीय वैज्ञानिक अभी भी सटीक स्थापना से कोसों दूर है। अभी तक चल रहे विज्ञान को सामूहिक, प्रायोगिक और बिना किसी चुनौती के विश्लेषण की जरूरत है। बाहरी लोगों के लिए इन संस्थाओं के दरवाज़े बंद हैं और यह अपने आप में नौकरशाही का शिकार है। ऐसे में किसी भी तरह का सार्वजनिक संवाद नहीं बन पाता। जलवायु विज्ञान नए दृष्टिकोण चाहता है। यह लीक से हटकर अनुसंधान की भी मांग करता है। यह उस सीमा को लांघने की भी मांग करता है जिससे सही अनुमान लगाए जा सकें और किसी नतीजे पर पहुंचा जा सके। इसके लिए वह बाहरी दुनिया के आम लोगों को अधिक से अधिक जागरूक बनाने की मांग करता है। इसके अलावा हर रोज घटने वाली सामान्य घटनाओं पर अधिक से अधिक ध्यान देने की मांग करता है, जिससे वैज्ञानिक प्रक्रिया के तहत बगीचे, कृषि भूमि और ग्लेशियर पर अति सावधानी से विचार हो। किसी पर आरोप न लगाते हुए मैं कहने के लिए विवश हूं कि भारतीय वैज्ञानिकों को जलवायु परिवर्तन मामले में गंभीर होना चाहिए। इस मामले में अधिक संवेदनशील और प्रयोगधर्मी होने की जरूरत है। वैज्ञानिकों का पुरुषवादी चेहरा कभी भी पर्यावरण और प्रकृति जैसे नरम मुद्दों में रुचि नहीं लेता। ये मुद्दे न्यूक्लियर, अंतरिक्ष या रॉकेट तकनीक की दुनिया में गौण हैं। जलवायु परिवर्तन विज्ञान (और पूरी दुनिया) को एक बेचैनी और युवाओं जैसे साहस की जरूरत है।
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