पर्यावरण शब्द का निर्माण दो शब्दों से मिलकर हुआ है। "परि" जो हमारे चारों ओर हैं और "आवरण-जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है। दूसरे शब्दों में यदि कहा जाए तो पर्यावरण मनुष्य के आसपास का वह भौतिक परिवेश है जिसका मनुष्य एक भाग है और वह अपने जैविक कार्यकलापों, भरण-पोषण और विकास के लिए उस पर निर्भर है। भौतिक पर्यावरण के अंतर्गत वायु, जल और भूमि जैसे प्राकृतिक संसाधनों से लेकर ऊर्जा वाहक, मृदा और पेड़-पौधे, पशु और पारिस्थितिकी तंत्र आदि जैसे तत्व शामिल हैं। भौतिक पर्यावरण मनुष्य और समाज के कल्याण के बीच बहुआयामी संबंध है।
भारतीय संस्कृति प्रकृति के साथ सहयोग व सह-अस्तित्व में विश्वास रखती है। उनके साथ संघर्ष में नहीं बल्कि प्रकृति के कण-कण के साथ एकात्मकता का अनुभव करना और उसे यथासंभव कम से कम हानि पहुंचाना चिरकाल से भारतीय जीवन दर्शन का आदर्श रहा है।
प्रकृति में पुर्ननवीकरण की अद्भुत क्षमता है परन्तु अगर उसका दोहन यथोचित सीमा में हो। आज वैश्वीकरण और पूरे विश्व में उपभोगवादी संस्कृति की ओर झुकाव से भारत भी अछूता नहीं है। आज विश्व में प्रकृति का तीव्र गति से दोहन हो रहा है जिससे प्राकृतिक संतुलन खराब हो रहा है और उसका परिणाम मानव को दिख रहा है। जलवायु परिवर्तन हो या बढ़ती हुई प्राकृतिक आपदायें ये सब मनुष्य की उपभोगवादी संस्कृति के कारण प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ का फल हैं।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार पर्यावरणीय अवक्रमण को आस-पास प्रदूषक तत्वों और / अन्य कार्यकलापों की सघनता तथा भूमि के अनुचित उपयोग और प्राकृतिक आपदाओं जैसी प्रक्रियाओं के माध्यम से पर्यावरण की गुणवत्ता के ह्रास के रूप में परिभाषित किया गया है सामाजिक-आर्थिक, संस्थागत और प्रौद्योगिकीय कार्यकलापों के कारण पर्यावरण का अवक्रमण होता है। आर्थिक विकास, जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, सघन कृषि, ऊर्जा के बढ़ते उपयोग और परिवहन सहित अनेक कारणों से पर्यावरण की स्थिति में परिवर्तन होता है।
पृथ्वी और प्राकृतिक संसाधनों का सतत प्रबंधन हमारे देश में आर्थिक विकास और मानवीय समृद्धि के लिए एक महती आवश्यकता है। पर्यावरण की सुरक्षा और उसके संरक्षण तथा प्राकृतिक संसाधनों के सतत उपयोग की आवश्यकता भारत के संवैधानिक ढांचे में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। हमारा संविधान देश के सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता और समानता का अधिकार सुनिश्चित करता है। अनुच्छेद 21 के अंतर्गत "जीवन का अधिकार' केवल जीवित रहने तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके अंतर्गत प्रदूषण मुक्त जल और वायु को समाहित करते हुए सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार भी सम्मिलित है। संविधान के भाग 4क के अंतर्गत अनुच्छेद 51 - क के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह दायित्व है कि वह वनों, झीलों, नदियों और वन्य जीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा करके और उसमें सुधार करे तथा प्राणीमात्र के प्रति दया का भाव रखे। इसके अतिरिक्त, राज्य की नीति के निदेशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद 48क में यह विहित किया गया है कि राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा। हमारे देश में समय-समय पर पर्यावरण की रक्षा और प्रदूषण को कम करने के कानून बने हैं।
पर्यावरण सुरक्षा के लिए हर स्तर पर भागीदारी का महत्व है। भारतीय संसद विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सर्वोच्च विधायी संस्था है, हमारा सतत प्रयास होता है कि यहां पर पर्यावरण संरक्षण और सुरक्षा हमारी प्राथमिकता हो, इसके लिए लोक सभा सचिवालय ने पिछले वर्षों में कई महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम उठाये हैं-
लोक सभा सचिवालय द्वारा पर्यावरणहित में किये गए उपाय -
- ई आफिस के प्रयोग से लोक सभा सचिवालय अब लगभग पेपरलेस हो गया है।
- संसद भवन परिसर में सिंगल यूज प्लास्टिक पर पूरा प्रतिबन्ध है।
- एल सी डी बल्बों को एल ई डी बल्बों से पूर्णतः बदला गया है।
- समय समय पर परिसर में वृक्षारोपण किया जाता है।
- जल संचयन को बढ़ावा दिया जाता है।
- संसद परिसर में सांसदों एवं सचिवालय के अन्य लोगों के प्रयोग हेतु बैटरी संचालित वाहन एवं बस की व्यवस्था है।
- माननीय सांसदों और अधिकारियों को पर्यावरण संरक्षण पर जागरूक करने हेतु समय-समय पर सम्मेलन भी करवाए जाते हैं।
निर्वाचित प्रतिनिधियों के ध्यान रखने योग्य बातें :-
1. प्राइमरी वृक्षों को बचाना बहुत आवश्यक है। सेकेंड जनरेशन प्लांटेशन इसकी क्षतिपूर्ति नहीं कर सकता है। ये पेड़ हमारी अगली जनरेशन की पढ़ाई व समझ के लिए भी आवश्यक है। एक वन मंत्री को मैंने सुना है जो कह रहे थे विकास के लिए पेड़ों की कटाई जरूरी है। उसके एवज में दुगने और तीन गुना पेड़ लगाना किसी भी दशा में प्राइमरी पेड़ों के लाभों को पुनर्जीवित नहीं कर सकता है। नये पेड़ों का जिंदा रहना और बड़े होने तक का समय एक पूरी जनरेशन का समय ले लेता है। अतः संतुलित तरीके से ही पर्यावरण एवं विकास के लिए जिम्मेदारी से काम किया जाना चाहिए।
2. पेड़ों को बचाने के लिए जिस जमीन के टुकड़े पर निर्माण होना है उसे आर्किटेक्ट एवं प्लानर को पहले से दिखा देना चाहिए ताकि बिल्डिंग का डिजाईन उन पेड़ों की कटाई को रोक सके।
3. कई बार योजना बनने के बाद निर्माण कार्यों में इतने सालों का अंतराल हो जाता है कि उस क्षेत्र में वनस्पति उग आती है। फिर उस हरे-भरे क्षेत्र को काट कर निर्माण कार्य होता देख पर्यावरणविद एवं प्रकृतिप्रेमी दुखी हो जाते हैं प्लानर एवं डिजाईनर को अपनी डिजाईन में पेड़ों को बचाने के लिए जिम्मेदारी से परिवर्तन करने चाहिए।
4.किसी भी निर्माण के शुरू होने के पहले ही पर्यावरण का ध्यान रखकर क्षेत्र को हरा-भरा करना शुरू कर देना चाहिए।
5. आजकल शहरों में ग्रीन टॉवर, बिल्डिंग की दीवारों पर वनस्पति लगाकर छत गार्डन लगाने जैसे उपाय भी योजना का अंग होना चाहिए।
6.तालाबों को काटकर खेती करना भी दण्डनीय होना चाहिए। हमें अपनी प्राकृतिक धरोहर को बचाना चाहिए।
7. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अनुसार पर्यावरण शब्द के अंतर्गत जल, वायु और (भूमि सहित जल, वायु और भूमि) तथा मनुष्य, अन्य जीवित प्राणियों, पेड़-पौधों, सूक्ष्म जीवाणुओं तथा संपत्ति के बीच मौजूदा पारस्परिक संबंध शामिल है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अंतर्गत पर्यावरणीय सुरक्षा की दीर्घावधि आवश्यकताओं संबंधी अध्ययन, नियोजन और उनके कार्यान्वयन की रूपरेखा निर्धारित की गयी है और पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाली स्थितियों के समाधान के लिए त्वरित और पर्याप्त कार्रवाई तंत्र की स्थापना की गयी है। यह एक समावेशी कानून है जो जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 और वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के अंतर्गत स्थापित केंद्रीय और राज्य स्तरीय प्राधिकरणों के बीच समन्वय तंत्र उपलब्ध कराता है। पर्यावरण अधिनियम के अंतर्गत केंद्र सरकार को किसी भी उद्योग अथवा कार्य में संलग्न व्यक्ति द्वारा वातावरण में प्रदूषक तत्वों के उत्सर्जन या प्रवाह के लिए मानक निर्धारित करके, उद्योगों की स्थापना का विनियमन करके, खतरनाक अपशिष्ट का प्रबंधन करके और सार्वजनिक स्वास्थ्य कल्याण की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पर्यावरण के संरक्षण और उसकी गुणवत्ता में सुधार के लिए आवश्यक उपाय करने की शक्ति प्रदान की गयी है।
8. आज पर्यावरण संतुलन का ह्रास होने से और प्रदूषण बढ़ने से विश्व का हर देश कई समस्याओं का सामना कर रहा है। इनमें सर्वप्रथम हैं- भूमण्डलीय तापमान और जलवायु परिवर्तन जिसका अर्थ है- पृथ्वी के वायुमण्डल तथा महासागरों के औसत तापमान में धीरे-धीरे वृद्धि होना। यह एक ऐसा परिवर्तन है जो कि धरती की जलवायु को स्थायी रूप से परिवर्तित कर रहा है। वैज्ञानिकों ने यह बात सिद्ध कर दी है कि पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। पृथ्वी का औसत वैश्विक तापमान, पिछली शताब्दी के दौरान रहे तापमान से अधिक है तथा वायुमण्डल में कार्बन डाई ऑक्साईड के स्तर ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। इस बारे में वैज्ञानिकों की सहमति है कि तापमान में यह वृद्धि मानवीय कार्यकलापों के कारण है। ग्रीन हाऊस गैसों की बढ़ती सघनता से होने वाले जलवायु परिवर्तन के कारण समाज और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है। विशेष रूप से कृषि, वानिकी, जल संसाधन, मानव स्वास्थ्य, तटीय बस्तियों तथा प्राकृतिक पारिस्थितिकीय तंत्र को या तो बदलती हुई जलवायु के अनुरूप स्वयं को ढालना होगा या इसके दुष्परिणामों का सामना करना होगा। जलवायु के बदलते पैटर्न, विशेष रूप से मौसम की विषम परिस्थितियों के परिणामस्वरूप सूखे, बाढ़ और चक्रवातों जैसी प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं में वृद्धि होगी ।
9. इससे निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर हो रहे प्रयासों में भारत की अहम भूमिका है। भारत जलवायु परिवर्तन संबधी संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा समझौते (यूएनएफसीसीसी), क्योटो प्रोटोकाल और पेरिस समझौते में शामिल है। पेरिस समझौते के अंतर्गत हमारे देश ने अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन सघनता को 2030 तक 2005 के स्तर की तुलना में 33 से 35 तक कम करने, 2030 तक ऊर्जा संसाधनों पर आधारित गैर जीवाश्म ईंधन से 40 प्रतिशत समग्र विद्युत शक्ति संस्थापित क्षमता और 2030 तक वन और पेड़ों का दायरा और बढ़ाकर 2.5 से 3 बिलियन टन कार्बन डाई ऑक्साईड के अतिरिक्त कार्बन सिंक का सृजन करने के लक्ष्य के साथ राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान प्रस्तुत किए हैं।
10. भारत एक कृषिप्रधान देश है। यहां की ज्यादा आबादी गांव में है और प्रकृति पर अपनी जीविका के लिए निर्भर है। वनों की यहां पर एक पर्यावरणीय भूमिका के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था में भी एक अहम भूमिका है । राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी में वनों की भूमिका को 1988 की राष्ट्रीय वन नीति में दोहराया गया जिसका उद्देश्य पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना, पारिस्थितिकीय संतुलन को पुनःस्थापित करना और वनों का दायरा बढ़ाना है। इस नीति के अन्य उद्देश्यों में वन संसाधनों के प्रबंधन में स्थानीय लोगों को सक्रिय रूप से भागीदार बनाने की आवश्यकता को मान्यता प्रदान करते हुए ग्रामीण और जनजातीय लोगों की ईंधन, चारे और छोटी-मोटी लकड़ी की जरूरतों को पूरा करना शामिल है। 1988 में ही भारत की संसद ने कड़े संरक्षण उपायों की जरूरतों को देखते हुए 1980 के वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन किया था। 2009 के भारतीय राष्ट्रीय वन नीति के दस्तावेज में सतत वन प्रबंधन के साथ वन संरक्षण की दिशा में भारत के द्वारा किए जा रहे प्रयासों को सम्मिलित करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। भारत ने वन प्रबंधन को इस प्रकार परिभाषित किया है जहां स्थानीय समुदायों की आर्थिक जरूरतों की अनदेखी नहीं की जाती है बल्कि इसमें वैज्ञानिक वानिकी के माध्यम से देश की आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करते हुए और स्थानीय मुद्दों पर ध्यान देते हुए वनों को संरक्षण किया जाता है। वर्तमान में संशोधित राष्ट्रीय वन नीति, 2019 का मसौदा विचाराधीन है।
11. भारत की गिनती दुनिया के कुछ ऐसे देशों में होती है जहां विकासात्मक प्रयासों के जारी रहते हुए भी वनों और पेड़ों का दायरा बहुत बढ़ा है। भारत में वनों की स्थिति संबंधी रिपोर्ट, 2019 के अनुसार वनों और पेड़ों का दायरा बढ़कर 80.73 मिलियन हेक्टेयर हो गया मंत्रालय ने नम भूमि के पुनरुद्धार के लिए एक चहुंमुखी नीति तैयार की है जिसमें आधारभूत आंकड़े तैयार करना, नम भूमि गुणवत्ता कार्ड बनाना, नम भूमि मित्रों की सूची बनाना और लक्षित समेकित प्रबंधन योजनाएं तैयार करना शामिल है। सरकार के विनियमों के अलावा प्रत्येक नम भूमि संसाधन की भौतिक और जैविक विशेषताओं की जानकारी बढ़ाने के लिए बेहतर निगरानी पद्धतियों का विकास करने और इस जानकारी का लाभ उठाने के लिए नम भूमि की विशेषता को बेहतर ढंग से समझने और उसे बेहतर ढंग से नियंत्रित करने की आवश्यकता है।
12 सितम्बर, 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा शिखर सम्मेलन में 193 सदस्य देशों द्वारा अंगीकृत 17 एसडीजी और 169 लक्ष्य, 01 जनवरी, 2016 को प्रभावी हुए ।
सतत विकास का अर्थ है- "भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं के साथ समझौता किए बिना वर्तमान पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करना। सतत विकास के समग्र उद्देश्य हैं :-
- आर्थिक विकास में तेजी लाना।
- बुनियादी जरूरतों को पूरा करना ।
- जीवनस्तर में सुधार करना ।
- सभी प्रकार के प्रदूषणों से मुक्त स्वच्छ वातावरण सुनिश्चित करने में सहायता करना ।
- आर्थिक विकास के अच्छे प्रभावों को अधिकतम करना ।
- पर्यावरण, मानव और भौतिक पूंजी का संरक्षण और संवर्धन।
- अंतर- पीढ़ीगत समानता, और-
- प्राकृतिक संसाधनों के सकल दोहन पर समग्र रूप से कड़ा नियंत्रण ।
13. भारत ने संयुक्त राष्ट्र सतत विकास एजेंडा, 2030 के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई है और देश के राष्ट्रीय विकास एजेंडा का अधिकांश हिस्सा सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में दिखाया गया है। एसडीजी अपने सभी आयामों से गरीबी समाप्त करने के लिए एक साहसिक, सार्वभौमिक समझौता है और 2030 तक लोगों और विश्व समृद्धि के लिए एक समान, न्यायसंगत और सुरक्षित विश्व के निर्माण का प्रयास करता है। राज्य और स्थानीय सरकारें भी विकास कार्यक्रम को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि उनका निवेश केंद्र सरकार से लगभग सत्तर प्रतिशत अधिक है। भारत के संघीय ढांचे को देखते हुए इसकी प्रगति राज्यों पर अधिक निर्भर है क्योंकि वे लोगों को प्रमुखता प्रदान करने और यह सुनिश्चित करने में बेहतर स्थिति में है कि, कोई भी पीछे न रहे।
14. कोई भी देश पर्यावरण संतुलन के बिना सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकता। भारत में वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, कचरा तथा प्राकृतिक पर्यावरण का प्रदूषण जैसी अनेक पर्यावरणीय समस्याएं विद्यमान हैं। भारत में रोगों, स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं और आजीविका पर दीर्घकालिक प्रभाव डालने वाले प्राथमिक कारणों में पर्यावरणीय मुद्दे भी शामिल हैं। पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के बीच सीधा संबंध है। पर्यावरण पर ध्यान दिए बिना आर्थिक विकास, पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान और भावी पीढ़ियों के जीवन की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए विश्व की समग्र प्रगति और समृद्धि के लिए सतत विकास पर ध्यान देने की आवश्यकता है। विश्व बैंक के विशेषज्ञों के अनुसार, भारत ने अपनी प्राकृतिक समस्याओं का समाधान करने और अपनी पारिस्थितिक गुणवत्ता में सुधार करने के लिए विश्व में सबसे तीव्र गति से कार्य किया है।
हमारी पर्यावरण संवर्धन और संरक्षण रणनीतियों में स्वच्छ और कुशल ऊर्जा प्रणाली, बेहतर ऊर्जा दक्षता, लचीला बुनियादी ढांचा, सुरक्षित स्मार्ट और टिकाऊ हरित परिवहन नेटवर्क, नियोजित वनीकरण, सतत जलवायु कृषि आदि पर जोर दिया गया है। परंतु इष्टतम स्तर की पर्यावरणीय गुणवत्ता प्राप्त करने हेतु हमें अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है जिसमें हर स्तर पर भागीदारी महत्वपूर्ण है।
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