आज का मानव मशीन की तरह कार्य करता है। उसने आणविक एवं जैविक हथियारों का विकास कर लिया है। वैज्ञानिकों ने इन अस्त्र-शस्त्रों के विकास के समय यह नहीं सोचा कि यदि इन विनाशकारी हथियारों का उपयोग किया जाएगा तो इस सृष्टि का क्या होगा? विश्व का तापक्रम बढ़ रहा है। जलवायु एवं मौसम में तेजी से परिवर्तन तथा समुद्री सतह ऊपर उठ रहा है। विज्ञान तो मानवीय मस्तिष्क की उपज है जो सही या गलत दिशा में कार्य कर सकती है। अगर विज्ञान को पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास की ओर उन्मुख करना है तो उसका समन्वय अध्यात्म से करना होगा।
विश्व में जहाँ तक जैव भंडार का प्रश्न है इसका अनुमान लगा पाना अत्यंत कठिन है। आज कितनी प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं या हो रही हैं यह भी कहना कठिन है। कई प्रजातियाँ तो उसकी खोज होने से पहले लुप्त हो चुकी हैं ऐसा अनुमान है कि पृथ्वी की सम्पूर्ण जैव विविधता का एक चौथाई भाग आने वाले 20-30 वर्षों में विलुप्त होने की सम्भावना है। इस प्रकार उष्ण कटिबन्धीय वन पृथ्वी के 7 प्रतिशत भू-भाग में फैला हुआ है परन्तु विश्व की आधे से अधिक प्रजातियाँ इन्हीं क्षेत्रों में मिलती हैं। एक अनुमान के अनुसार 2020 तक इन वनों के विनाश से 5-15 प्रतिशत प्रजातियाँ या 15,000-500,000 प्रजातियाँ प्रतिवर्ष या 40-140 प्रजातियाँ प्रतिदिन लुप्त होंगी। विश्व संरक्षण एवं अनुमापन केन्द्र कनाडा के अनुसार करीब 22,000 पादप तथा जीव-जन्तु वास्तव में विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गए हैं। जैव विविधता में कमी का मुख्य कारण मानवीय क्रिया-कलाप, कृत्रिम परिर्वतन एवं पर्यावरणीय विनाश है।पृथ्वी का तीन चौथाई भाग जल है, जिसमें 97 प्रतिशत सामुद्रिक खारा पानी तथा 3.00 प्रतिशत स्वच्छ जल है। इसका भी 77 प्रतिशत ध्रुवों एवं हिमानी के रूप में, 22 प्रतिशत भूमिगत जल और शेष एक प्रतिशत नदियों, झीलों तथा तालाबों में पाया जाता है।
स्वच्छ जल से पादपों, जीव-जन्तुओं का पोषक होता है एवं जलीय जीव-जन्तुओं एवं पादपों का आवास बनाता है। इसके अतिरिक्त यह कृषि उद्योग तथा दैनिक जीवन में भी काम आता है। वर्तमान समय में विश्व में कृषि के लिये 68 प्रतिशत उद्योगों के लिये 24 प्रतिशत तथा दैनिक उपयोग, पशुओं, मनोरंजन तथा अन्य कार्यों में 08 प्रतिशत जल का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार भारत में 93.37 प्रतिशत कृषि, 1.08 प्रतिशत पशुओं 1.26 प्रतिशत उद्योगों और 3.13 प्रतिशत नगर पालिकाओं एवं ग्रामीण जल आपूर्ति के लिये किया जाता है। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी शोध संस्थान नागपुर के अनुसार देश का 80 प्रतिशत जल पीने लायक नहीं है। इसी प्रकार इ.पी.ए. अमेरिका के अनुसार वहाँ के पेयजल में 700 घुलित रसायन मिलते हैं जिनमें 129 रसायन हानिकारक हैं। समुद्री, भूमिगत तथा स्वच्छ जल के प्रदूषण का प्रमुख स्रोत दैनिक एवं औद्योगिक उपयोग के बाद निकलने वाला अपशिष्ट जल है। इस अपशिष्ट जल की मात्रा तथा प्रकृति वहाँ की जनसंख्या के घनत्व, जीवन स्तर औद्योगीकरण तथा उद्योगों के प्रकार पर निर्भर करती है। ऐसा अनुमान है कि विश्व में लगभग 300 अरब घन मीटर अपशिष्ट जल समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाता है।
मानव अधिवास
प्राचीन काल में हमारे देश में मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल, तक्षशिला, पाटलीपुत्र एवं नालन्दा जैसे अद्वितीय शहर हुए जिनकी कला एवं गुणवत्ता विश्व के अन्य शहर यथा काहिरा, रोम, कान-स्टेटिनोपोल से कम नहीं थे। प्रारम्भ से ही हमारे यहाँ पर्यावरण को महत्त्वपूर्ण माना गया है। दिन का प्रारम्भ सूर्य आराधना से शुरू होता है जोकि विश्व में जीवन का प्रमुख आधार है देश में नदियों को माता तथा हिमालय पर्वत को देवता तथा वनों को भगवान शिव की जटायें मानकर पूजा जाता है। इसी प्रकार किसी भी नवनिर्माण से पूर्व धर्म-शास्त्रों के अनुसार शुभ मुहूर्त में भूमि पूजन किया जाता है।
मानव का आवासीय पर्यावरण गाँव एवं शहर दोनों है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिये रहने योग्य उचित आवासीय व्यवस्था होना अनिवार्य है। इसके साथ पीने के लिये पानी, पशुओं के लिये आहार, मकानों में उठने-बैठने, सोने स्वच्छ हवा हेतु खिड़कियाँ दरवाजे रोशनदान, आस-पास स्वस्च्छता, आंगन में तुलसी का पेड़ तथा बाहर की ओर वृक्ष लताएं लगी होनी चाहिए। जब तक ये सभी सुविधाएँ प्रत्येक परिवार को नहीं मिलेगी तब तक परिवार में अशांति का वातावरण बना रहेगा।
बढ़ती जनसंख्या
आज देश में 30 प्रतिशत व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं जो आज की प्रमुख चुनौती है। आज आवश्यकता है कि हम किस प्रकार का विकास मार्ग एवं आदर्श चुनें कि वह पर्यावरण संरक्षण एवं सतत विकास में सामाजिक रूप से न्याय मुक्त तथा सांस्कृतिक रूप से स्वीकार हो। गरीबी पर्यावरण के लिये एक चुनौती है परन्तु इन दोनों को हमें साथ-साथ लेकर चलना होगा क्योंकि ये दोनों सिक्के के दो पहलू हैं। बढ़ती जनसंख्या हमारे बढ़ते हुए उत्पादन को भी प्रभावित करती है। गरीब वर्ग लगभग 85 प्रतिशत अपनी आय का भोजन पर व्यय करता है। योजना आयोग द्वारा प्रस्तावित प्रत्येक मनुष्य को 2300 कैलोरी ऊर्जा भोजन से प्रतिदिन प्राप्त होना चाहिए परन्तु इन गरीबों में से 20 प्रतिशत को भी 1500 कैलोरी से अधिक का भोजन नहीं प्राप्त हो पाता।
नगरीकरण एवं औद्योगीकरण
भारतीय नगरों में देश की 27 प्रतिशत (21.7 करोड़) जनसंख्या निवास करती है। 1991 की जनगणना के अनुसार देश में 3,500 नगर हैं जिनकी आबादी 5,000 से लेकर 10 लाख के ऊपर की है। आधी नगरीय जनसंख्या 23 महानगरों तथा छठवां भाग चार वृहद शहरों यथा दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता, मद्रास में रहती है। ये बड़े नगरीय केन्द्र बहुत ही अमानवीय क्रियाकलापों एवं बीमारियों से ग्रसित गन्दी बस्तियों का विकास करते हैं। लगभग 27 प्रतिशत नगरीय जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन-यापन कर रही हैं। महानगरों की जनसंख्या का 30-40 प्रतिशत भाग गंदी बस्तियों में रहता है, जिनमें 27 प्रतिशत को शुद्ध जल, 75 प्रतिशत को जल निकास व्यवस्था तथा बड़े पैमाने पर वायु प्रदूषण के शिकार हैं।
गन्दी बस्तियाँ ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों के प्रवास का प्रतिफल होता है। ऐसा अनुमान है कि लगभग 13,500 व्यक्ति प्रतिदिन ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों में जाते हैं। ये प्रवासी ऐसा महसूस करते हैं कि “गाँव से गंदी बस्तियों में जाना एक समस्या नहीं बल्कि एक समाधान है,” जिसमें उन्हें सस्ते मकान, रोजगार एवं परिवहन के साधन मिल जाते हैं।
मानव का सुखद भविष्य, स्वस्थ पर्यावरण से सुनिश्चित होता है। हमें आज यह विचार करना है कि क्या सही है और क्या गलत? विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की समुचित दिशा क्या होनी चाहिए। इसके लिये किस पर विशेष बल दिया जाए
आज का भारत विश्व के 10 औद्योगिक देशों में है। जहाँ तरह-तरह की अव्यवस्था यथा मकान, उद्योगों का जमघट, पेयजल समस्या, नगरीय प्रदूषण में वृद्धि, बेरोजगारी, दंगे-फसाद, अशांति इत्यादि में बहुत तेजी के साथ वृद्धि हो रही है। देश मे भारी वाहनों मोटर-गाड़ियों द्वारा होने वाले प्रदूषण का 47 प्रतिशत होता है जबकि उनकी संख्या कुल चलने वाली मोटर-गाड़ियों की संख्या का केवल 8 प्रतिशत है। इतना ही नहीं आजकल वायु प्रदूषण की दुर्घटनायें भी आम हो गई है जिसमें 3 दिसम्बर, 1984 को भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कारखानों से मिथाइल आइसोसायनाइड गैस के रिसने से 5,000 व्यक्ति भयंकर बीमारियों के शिकार हो गए। आज देश में कई तरह की बीमारियाँ यथा सिलकोसिस चर्म रोग, एस्बेस्टोसिस, निमोनिया कैंसर एड्स क्षय रोग श्वसन की बीमारियाँ तीव्रता से फैल रही हैं।जैव विविधता
भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण (1890) ने 45,000 पादप प्रजातियों का देश में पाये जाने का अनुमान लगाया है, जिनमें 15,000 पुष्पीय पौधे, 5,000 शैवाल, 1,600 लाइकेंन, 20,000 कवक तथा 2,700 ब्रायोफाइटा की प्रजातियाँ हैं।
भारतीय जन्तु सर्वेक्षण (1981) के अनुसार देश में लगभग 75,000 जन्तुओं की प्रजातियाँ हैं जिनमें 50,000 कीट, 4,000 मोलस्क, 2,000 मछलियाँ, 140 उभयचर, 420 सरीसृप, 1200 पक्षियों, स्तनधारी तथा अन्य अकेशेरूकी जन्तुओं की प्रजातियाँ हैं।
ऐसा अनुमान लगाया गया है कि 79 स्तनधारी, 44 पक्षी, 15 सरीसृप, उभयचर तथा 1,500 पादपों की प्रजातियाँ निकट भविष्य में समाप्त हो जायेंगी। वर्तमान में हमारी समस्या जिन्तुओं के प्राकृतिक आवास को जीवन योग्य बनाने तथा वन्यजीव उत्पाद तथा हाथी दाँत, गैंड़े के सींग, फर, चमड़ा, कस्तूरी तथा मोर पंख के अतिक्रमण एवं व्यापार से बचाने की है।
भारत में पालतू पशुओं यथा गाय, भैंस, भेड़ बकरी, सूअर, कबूतर, घोड़े इत्यादि में प्रजनन की प्रथा रही है। ‘संकर’ प्रजनन द्वारा अधिक दुग्ध उत्पादन के हमारे प्रयास से पशुओं की कई मूल प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है। अतः देशी पशुओं की नस्ल की शुद्धता बनाये रखने की आवश्यकता है। इसी प्रकार देश में फसलों की संकर प्रजातियों का भी तेजी से विकास किया जा रहा है जिसके कारण अगले दशक तक देश में चावल की अनुमानित 50,000 किस्मों में से सिर्फ 300 किस्में ही बचेंगी।
ऊर्जा संरक्षण
भारत में प्रयुक्त होने वाले ऊर्जा का अधिकांश भाग समापनीय ऊर्जा स्रोतों तथा कुछ भाग जलाऊ लकड़ी, गोबर और चारे से प्राप्त होती है। 1947 में 1400 मेगावाट व्यापारिक ऊर्जा का उपयोग होता था जो 1990 में बढ़कर 64,000 मेगावाट हो गया। देश में कोयले का उत्पादन 200 मीट्रीक टन प्रतिवर्ष है तथा व्यापारिक ऊर्जा का 60 प्रतिशत इसी से प्राप्त होता है। कोयले के खनन से कई प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएं यथा खुली खदान, भूमिक्षय, निर्वानीकरण, मृदा-अपरदन में तेजी से वृद्धि हो रही है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि भारतीय कोयले में 30-40 प्रतिशत राख जो इसके जलाने से प्राप्त होती है तापीय विद्युत ग्रहों से उष्ण कटिबन्धीय वनों, उपजाऊ मिट्टी और स्वावलम्बी ग्रामों को भी तेजी से नष्ट कर रही हैं। गाँव के गाँव की मृदा, वायु एवं जल प्रदूषित हो गये हैं।
भारत में विद्युत ऊर्जा का 30 प्रतिशत जल विद्युत परियोजनाओं से उत्पन्न होती हैं जो सतत चलने वाली ऊर्जा का स्रोत हैं फिर भी बड़ी नदी परियोजनाओं से कई विवादास्पद समस्यायें उत्पन्न हुई हैं यथा जंगलों का डूबना, पारिस्थितिकी विस्थापन, निष्कासन एवं बसाव की समस्या, भूमि-क्षरण एवं भूकम्पीय प्रभाव इत्यादि।
इसी प्रकार व्यापारिक ऊर्जा का लगभग 2 से 2.5 प्रतिशत उत्पादन प्राकृतिक गैस एवं नाभिकीय ऊर्जा से प्राप्त होता है लेकिन नाभिकीय ऊर्जा से दुर्घटना होने पर काफी विनाशकारी प्रभाव छोड़ सकता है इसीलिये चैरनोबिल दुर्घटना के बाद नरोरा, ककरापार, कोडकुलम, ट्राम्बे इत्यादि परियोजनायें जिनकी क्षमता 1,500 मेगावाट है कभी भी जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों के लिये खतरनाक हो सकते हैं, विरोध का शिकार हो रहे हैं।
ग्रामीण पुनर्रचना के लिये समुचित प्रौद्योगिकी
आज गाँवों में लघु उद्योग स्थापित करने की आवश्यकता है जिससे ग्रामीण जनता का शहरों की तरफ पलायन को रोका जा सके इसके लिये ग्रामीण उद्योगों एवं तकनीकी की जानकारी स्थानीय लोगों को दी जानी चाहिए तथा नियोजन की ऐसी व्यवस्था का विकास करना होगा जो मूलभूत स्तर पर प्रशिक्षण सुधार, तकनीकी दक्षता, वित्तीय एवं कच्चा माल आदि उपलब्ध करा सके तथा ग्रामीण विपणन व्यवस्था को सुनिश्चित कर सके। इसके लिये हम गुड़ निर्माण, बांस उद्योग, उद्यान, दैनिक उपयोग के वस्तुओं के निर्माण, मशरूम, सोयाबीन पर आधारित उद्योग विकसित कर सकते हैं। जो कमजोर वर्ग के लोगों के विकास में मदद कर सकता है। इसके अतिरिक्त बीज उत्पादन, संसाधन संवर्धन, गृह का प्रबंधन, नर्सरी, मत्स्य बीज उत्पादन, मुर्गी एवं मधुमक्खी पालन, रेशम एवं लाख उत्पादन में प्रशिक्षण भी मदद कर सकता है।
भूमिहीनों के लिये बढ़ईगीरी, रस्सी, टोकरी, ईंट एवं बीड़ी बनाना वनोयज्ञ तथा तेंदू पत्ते का संग्रहण आदि भी उनके विकास में मददगार हो सकता है। ग्रामीण पुनर्रचना के लिये हथकरघा, सिलाई, ट्रैक्टर, साईकिल एवं जीप की मरम्मत, टंकण का कार्य भी उपयुक्त उद्यम है। बालवाड़ी के माध्यम से बच्चों की शिक्षा, राष्ट्रीय साक्षरता अभियान के द्वारा सफाई, स्वास्थ्य, संतुलित आहार की शिक्षा देनी चाहिए जोकि जीवन एवं कार्य क्षमता के लिये अत्यंत आवश्यक है। मानव एवं पशु शक्ति वायु, जल तथा बेकार पदार्थों के पुनः चक्रण एवं उपयोग से ग्रामीण क्षेत्रों की कई समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। इसके लिये प्राथमिक आधारभूत सुविधाओं और सरकारी सहायता प्राप्त नीतियों की आवश्यकता होगी। ये सभी कार्य क्षेत्रीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किये जा सकते हैं।
संचार तथा सम्प्रेषण माध्यम
संचार एवं सम्प्रेषण माध्यम यथा सड़क, दूरभाष, डाक-तार प्रदर्शन आदि ग्रामीण क्षेत्रों में सौहार्द्रता, जन जागृति, चेतना, ज्ञानवर्धन एवं पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।
समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें प्रत्येक व्यक्ति को घर बैठे जानकारी प्रदान करने के सबसे अच्छे माध्यम हैं। रेडियों, दूर-दर्शन, वीडियो कैसेट, प्रोजेक्टर तथा फिल्में भी मानव को राष्ट्र निर्माण के लिये प्रेरित कर सकती हैं। इन माध्यमों से लोगों में जल प्रदूषण, पर्यावरण संरक्षण, परिवार नियोजन, जैव संरक्षण , बायो गैस संयंत्र, कीटों पर जैविक एवं प्राकृतिक विधियों से नियंत्रण, भारतीय नस्ल के पशुओं एवं बीजों का प्रयोग, नुक्कड़ नाटक कत्थक, मेले, लोक नृत्य के द्वारा मनः स्थिति में परिवर्तन, विकास यथा पौधशाला, रोपण, कम कीमत के मकानों का निर्माण, छोटे बाँधों एवं लघु उद्योगों की स्थापना सूर्य, वायु, समुद्र एवं भूतापीय ऊर्जा का अधिकतम प्रयोग के प्रति जागरूकता आ सकती है।
परिकल्पना
देश के उच्चतम न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री पी.एन. भगवती के अनुसार पारिस्थितिकी का नुकसान त्रुटिपूर्ण परिकल्पनाओं के कारण हैं। लेकिन अधिकांशतः इसका कारण योजनाओं एवं नीति निर्धारकों के निजी स्वार्थ, अनुशासन-हीनता और कल की चिन्ता किये बिना आज की आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को पूरा करने पर आधारित है। इसके परिणाम-स्वरूप मानव एवं पृथ्वी का भविष्य अनिश्चित हो गया है तथा पर्यावरणीय श्रोत भी नष्ट हो गये हैं जिन पर पूरी अर्थव्यवस्था निर्भर है। आज यही प्रक्रिया विश्व के अधिकांश भागों में हो रही है।
मानव का सुखद भविष्य, स्वस्थ पर्यावरण से सुनिश्चित होता है। हमें आज यह विचार करना है कि क्या सही है और क्या गलत? विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की समुचित दिशा क्या होनी चाहिए। इसके लिये किस पर विशेष बल दिया जाए यथा-
1.देश के समन्वित विकास के लिये व्यापक वैज्ञानिक अभियान तथा स्वदेशी विचारों को विकसित करना, 2. भौतिक एवं आध्यात्मिक विज्ञान को एकीकृत करना, 3. राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिये विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा स्वदेशी अभियान में सुधार, 4. हमारे शोध पत्रों, पुस्तकों एवं पाठ्य-पुस्तकों में प्राचीन दर्शन एवं वैज्ञानिक सिद्धान्त, विधि एवं सुगम्यता को सभी क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशित करना, 5. औद्योगिक उत्पादन के लिये स्वदेशी प्रौद्योगिकी या ऐसी प्रौद्योगिकी को अपनाया जाए जो हमारे पर्यावरण के अनुकूल हो तथा जनसंख्या संकेन्द्रण को रोकने के लिये विकेन्द्रीकरण तकनीकी तथा लघु एवं छोटे उद्योगों को प्राथमिकता, 6. कृषि में परम्परागत बीजों का संरक्षण तथा अकार्बनिक खाद, कीटनाशक दवाओं के स्थान पर कार्बनिक खाद, हरी उर्वरक, नीली-हरी सैवाल तथा जैव नियंत्रण तकनीक प्रयोग करना 7. पारिस्थितिक विस्थापितों, निर्वनीकरण, क्षरण, भूकम्प, जैव-विविधता में कमी, विद्युत संचरण में हानियों को रोकने के लिये बड़े बाँधों की तुलना में छोटे बाँधों के निर्माण पर जोर। विश्वविद्यालय एवं शैक्षणिक संस्थानों में आधार पाठ्यक्रम, व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं पारिस्थितिकी के अनुकूल शोध कार्य करना, ग्रामीण पुनर्निर्माण के लिये परिवार को लघु इकाई एवं 10-15 ग्रामों के बीच “सेवा केन्द्र” तथा विकास खण्ड मुख्यालय के विकास केन्द्र के रूप में विकसित करना होगा। इसके अतिरिक्त नियोजन की सारी क्रियाकलाप का प्रारम्भ विकास खण्ड स्तर से प्रारम्भ होना चाहिए फिर स्वीकृति हेतु सीधे योजना आयोग को प्रेषित करना अर्थात सभी स्वदेशी नियम, शिक्षण, प्रशिक्षण, प्रौद्योगिकी, उद्योग, पर्यावरण संरक्षण की योजनायें ऐसी होनी चाहिए जो मानवता के विकास के लिये सदुपयोगी हों।
पर्यावरण विज्ञान अध्ययन केन्द्र, चित्रकूट- 485331
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