पर्यावरण संरक्षण के लिए श्रेयस्कर है गांधी मार्ग

पर्यावरण संरक्षण के लिए श्रेयस्कर है गांधी मार्ग, Pc-NT
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वर्तमान में तथाकथित आधुनिक, विकसित और सुख सुविधा से पूर्ण जीवन जीने की कभी तृप्त न होने वाली लालसा के कारण पूरी पृथ्वी में पर्यावरण के विनाश की लीला खेली जा रही है। आर्थिक और भौतिक विकास की अंधी दौड़ के कारण, दुनिया में विज्ञान और तकनीकी के हर चार बढ़ते कदम के साथ प्रकृति एक कदम पीछे धकेली जाने लगी है। बढ़ती जनसंख्या, गरीबी शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और विकास संबंधी कार्य, वनोन्मूलन तीव्र यातायात के साधन, कृषि में रासायनिक पदार्थों के उपयोग, उपभोगवादी अर्थव्यवस्था के कारण जीवनशैली में आए बदलाव, नये बिजली और इलेक्ट्रानिक उपकरणों के अविवेकपूर्ण असीमित उपयोग से हमारे पर्यावरण का असंतुलन निरंतर बढ़ता जा रहा है। 

महात्मा गांधी के सत्तरवें जन्मदिवस के अवसर पर सन् 1939 में पूरी दुनिया के शीर्षस्थ राजनीतिज्ञों, दर्शनशास्त्रियों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, कलाकारों आदि ने अपने संदेशों में यह माना था कि महात्मा गांधी का जीवन दर्शन एक ऐसा आदर्श है जिसका अनुगमन कर संपूर्ण मानवता अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकती है। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि उन्होंने जो कुछ कहा उस पर अमल भी किया। पर्यावरण को बचाने के संदर्भ में महात्मा गांधी के सिद्धांतो के लिए प्रतिबद्धता प्रदर्शित करना और उनको अमल में लाना आज बेहद जरूरी हो गया है।

गांधी जी आधुनिक सभ्यता के कठोर आलोचक थे किन्तु उसके घनघोर विरोधी नहीं थे। उन्होंने 1909 में "हिन्द स्वराज" पुस्तक लिखी थी। "हिन्द स्वराज" में गांधी जी ने जिन तीन विषयों पर बार-बार विचार किया था, वे विषय थे – औपनिवेशिक साम्राज्यवाद, औद्योगिक पूंजीवाद और तर्कवादी भौतिकवाद। वे औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के पीछे पूंजीवाद को प्रेरक शक्ति मानते थे। उन्होंने यह भी माना था कि पूंजीवाद को बढ़ाने में तर्कवादी भौतिकवाद रहा और इसी कारण भौतिकवाद अधिक विध्वंसक बन गया। महात्मा गांधी का मत था कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से संपत्ति का केन्द्रीकरण होगा, समाज के अंदर तनाव और विग्रह बढ़ेगा, मानव जीवन के लिए आवश्यक प्राकृतिक वातावरण समाप्त होगा और सृजनशीलता मर जाएगी।

महात्मा गांधी ने जीवन जीने का ज्ञान देते हुए कहा था कि आज शुद्ध जल, शुद्ध पृथ्वी और शुद्ध वायु हमारे लिए अपरिचित हो गए हैं। हम आकाश और सूर्य के अपरिमेय मूल्य को नहीं पहचानते। अगर हम पंच तत्वों का बुद्धिमतापूर्ण उपयोग करें और सही तथा संतुलित भोजन करें तो हम युगों का काम पूरा कर सकेंगे। इस ज्ञान के अर्जन के लिए न डिग्रियों की आवश्यकता है, न करोंड़ो रूपयों की उनका मानना था कि कोई व्यक्ति जो लापरवाही से यहां-वहां थूककर कूड़ा-करकट फेंककर या किसी अन्य रूप में जमीन को गंदा करके वायु को दूषित करता है, वह मनुष्य और प्रकृति, दोनों के प्रति पाप करता है। मनुष्य का शरीर भगवान का मंदिर है। जो व्यक्ति इस मंदिर में प्रवेश करने वाली वायु को दूषित करता है, वह मंदिर को अपवित्र करता है, वह कितना ही रामनाम जपे, सब बेकार है। आपका पानी, भोजन और वायु स्वच्छ होने चाहिए और आपको केवल व्यक्तिगत स्वच्छता से ही संतोष नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि अपने चारों ओर भी वही त्रिविध स्वच्छता सुनिश्चित करनी चाहिए जैसी कि आप स्वयं अपने लिए चाहते है ।

गांधी जी को इस बात का खेद था कि राष्ट्रीय अथवा सामाजिक स्वच्छता की भावना हमारे गुणों में सम्मिलित नहीं है। उन्होंने कहा था कि "हम स्नान तो करते हैं, पर उस कुएं या तालाब अथवा नदी को गंदा करने से भी नहीं चूकते जिसके किनारे या जिसमें हम नहाते-धोते हैं। मैं इस दोष को बड़ी भारी बुराई मानता हूं जो हमारे गांवों और पवित्र नदियों के पवित्र तटों की दुर्दशा तथा गंदगी से पैदा होने वाली बीमारियों के लिए जिम्मेदार है।" महात्मा गांधी ने बड़े स्पष्ट शब्दों में यह चेतावनी दी कि "मैं जानता हूं कि समझदारी के साथ सादगी की ओर लौटे बिना हमारा ऐसा अधःपतन होगा कि हम पशुओं से भी गई-बीती हालत में पहुंच जाएंगे।"

गांधी जी के स्वराज और स्वदेशी संबंधी सिद्धांत भूमण्डलीकरण के विरोध में हैं। भू-मण्डलीकरण ने पर्यावरण संकट को बढ़ाया है, पर्यावरण संकट ने हमें यह सोचने के लिए बाध्य किया है कि हमारे पास एक ही पृथ्वी है, और कोई दूसरी नहीं है। इसी पृथ्वी को हमें सबके साथ साझा करना है और उसकी देखभाल करना है। पर्यावरण संकट ने गांधी के विचारों को पुनः स्वीकार करने को बाध्य किया है। गांधी जी की स्वदेशी संबंधी धारणा स्थानीयता को प्राथमिकता देती है। इसका अर्थ है कि हमें अपनी जरूरतों को सीमित करना होगा और प्रकृति को बचाकर रखना होगा। महात्मा गांधी एक ऐसी समाज व्यवस्था बनाना चाहते थे जो आर्थिक दृष्टि से स्वदेशी, विकेन्द्रीकरण, ग्रामोद्योग और ट्रस्टीशिप पर आधारित हो, और राजनीतिक जीवन में ग्राम स्वराज पर वे ऐसे स्वावलंबी व्यक्ति का निर्माण करना चाहते थे जिसका अपने प्राकृतिक और मानवीय परिवेश के साथ अहिंसात्मक और सृजनात्मक संबंध हो। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध और स्वार्थपूर्ण शोषण, घटते जलस्तर, तापमान की असहनीय वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, अनेक प्राणियों के विलोपन, जैव विविधता की क्षति से पर्यावरण का प्रदूषण मानव जाति के लिए आत्मघाती स्तर तक पहुंच गया है; यदि अभी उपाय नहीं किए गए तो मानव जाति का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। इसीलिए पर्यावरण नैतिकी को अपनाना होगा जो महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर आधारित होगी।

यह गौर करने की बात है कि वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद का प्राथमिक संबंध आर्थिक विकास के नियोजित प्रयासों से है। आर्थिक विकास के लिए प्राकृतिक एवं खनिज संसाधनों का जिस तरह दोहन किया जा रहा है वह पर्यावरण असंतुलन को निरंतर बढ़ा रहा है। इसी संदर्भ में यह बात स्पष्ट है कि हमारे ये संसाधन सीमित ही हैं और इनका अविवेकपूर्ण दोहन विकास की ओर नहीं बल्कि विनाश की ओर लेकर जा रहा है। इसी सिलसिले में टिकाऊ विकास की अवधारणा पर बात होती है किन्तु विकसित और विकासशील देशों के बीच पर्यावरण को बचाने के लिए किये जाने वाले उपायों को लेकर गहरा मतभेद है। इस मतभेद के चलते विनाशकारी विकास की दौड़ और पर्यावरण प्रदूषण जारी है। इस संकट का सामना करने के लिए ये देश नई तकनीकों का सहारा लेना चाहते हैं। लेकिन अगर हम महात्मा गांधी के सिद्धांतो का स्मरण करे तो हम पाते है कि वे ऐसे तकनीकी उपायों के पक्ष में नहीं थे।

वर्तमान पर्यावरण प्रदूषण का संकट किसी संभावित परमाणु बम विस्फोट से भी बड़ा संकट है। इस पर्यावरण प्रदूषण से उबरने का उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। इसका उत्तर महात्मा गांधी के संदेश में है कि जब तक हम अपने भोग-विलास पर संयम का अनुशासन नहीं लगाएंगे और अपने भौतिक विकास के लिए हर दिन बढ़ती मांग पर नियंत्रण नहीं लगाएंगे तो प्रकृति का अनुचित दोहन और विरूपण होता रहेगा और पर्यावरण का प्रदूषण बढ़ता रहेगा। प्रकृति का सम्मान और संसाधनों का संरक्षण करना हमारी परम्परा है और लालच नहीं, जरूरतें पूरी करना हमारा सिद्धांत है। इस लिहाज से शैक्षणिक मूल्यों, जीवनशैली और विकास की हमारी वर्तमान अवधारणा को महात्मा गांधी के जीवन दर्शन के अनुसार बदलना जरूरी है

महात्मा गांधी को सार्वजनिक जीवन में उच्च आसन पर प्रतिष्ठित करना जितना आसान है, उससे भी ज्यादा आसान है गांधी जी के उन सिद्धांतों को भुला देना जिन सिद्धांतों के लिए गांधी जी जिये थे और मरे थे । गांधी जी ने कभी यह नहीं चाहा था कि उनका गौरवगान किया जाये क्योंकि वे मानते थे कि वे जिस संदेश को अपने लोगों तक पहुंचा रहें है वह उतना ही पुराना हैं जितना कि हमारे पर्वत हैं। गांधी जी के जीवन जीने की शैली एक आम भारतीय व्यक्ति की जीवन शैली के समान थी और वे एक आम आदमी बने रहना चाहते थे।

गांधी जी के सिद्धांतों को अनसुना करने के कारण पर्यावरण असंतुलन की समस्या ने पूरी दुनिया में विकराल रूप धारण कर लिया है। इसका सबसे प्रमुख दुष्परिणाम जलवायु परिवर्तन के रूप में सामने आ रहा है, इससे वैश्विक तापमान बढ़ रहा है, अम्लीय वर्षा होने लगी है, ओजोन छतरी को क्षति पहुंच रही है। प्राकृतिक विपदाएं और मानव निर्मित आपदाएं बढ़ रही है।

महात्मा गांधी के चिंतन के केन्द्र में भारत के गांव थे लेकिन आज के गांव की जो स्थिति है उसे देखते हुए कोई भी वहां लौटना नहीं चाहेगा। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय समाज में जो बुराइयां आना शुरु हुई थी, उनकी और महात्मा गांधी ने अक्टूबर 1945 में जवाहर लाल नेहरू को एक पत्र लिखा था किन्तु नेहरू जी ने उस पत्र का उत्तर कभी नहीं दिया, यह ज्ञात है कि जवाहर लाल नेहरू महात्मा गांधी के आत्मिक चिंतन से सहमत नहीं थे। आजादी मिलने के समय महात्मा गांधी को इस बात की तकलीफ थी कि उनकी बात कोई नहीं सुनना चाहता । अर्थव्यवस्था के संबंध में उनका जो सपना था उसे कोई भी मानने को तैयार नहीं था। आज तो स्थितियां और भी बदल गई है ऐसे में यह विचारणीय है कि क्या गांधी जी के आर्थिक चिंतन और विकास की प्रक्रिया को इस समय अपनाया जा सकता है?

हमें पर्यावरण संकट से उबरने के लिए गांधी जी के सत्याग्रह के आधारभूत लोकाचार को कायम रखते हुए एक नया मार्ग बनाना होगा। उनकी चिंतन प्रणाली को वर्तमान समय की परिस्थिति के अनुसार अनुकूलित किया जा सकता है। उनके सत्य और अहिंसा के सिद्धांत को सामाजिक आधार नीति और नैतिकता के अनुसार अनुकूलित कर हम पर्यावरण संकट का सामना कर सकते है। महात्मा गांधी के इस अचूक मंत्र-" पृथ्वी सभी मनुष्यों की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन प्रदान करती है लेकिन लालच पूरा करने के लिए नहीं" को अनदेखा करने के कारण पृथ्वी पर संकट है। इस संकट का सामना करने के लिए सबसे पहले गांधी जी के इसी मंत्र को साधना होगा और फिर उनके दूसरे सबसे कठिन मंत्र- "स्वैच्छिक गरीबी, स्वैच्छिक सादगी और स्वैच्छिक धीमी गति को सिद्ध करना होगा। हमारे सामने विकल्प स्पष्ट है कि हम गांधी की ओर लौटें या महाविनाश का वरण करें।

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Post By: Shivendra
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