पर्यावरण संरक्षक थे पूर्वज

हमने पर्यावरण के साथ खिलवाड़ तो किया ही, अपनी पुरातन पर्यावरण हितैषी परंपराओं को तिलांजलि दे दी। इसीलिए अब समय आ गया है कि सजग हुआ जाए। इसके लिए हमें जीवन में संयमी बनना पड़ेगा। अपनी तृष्णाओं पर अंकुश लगाकर प्राकृतिक संसाधनों यथा मिट्टी, जल, खनिज, वनस्पति आदि के उपयोग में पर्यावरण संरक्षण का ध्यान रखना पड़ेगा।

बेशक आजादी मिलने के बाद चहुंमुखी प्रगति के कारण हम विश्व के शक्तिशाली देशों में नाम दर्ज करवाने में कामयाब रहे हैं, लेकिन गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, लिंगभेद, जातिभेद, गैरबराबरी और सांप्रदायिक विद्वेष मिटाने में हम नाकाम रहे हैं। देश के भाग्य-विधाताओं ने विकास का ऐसा मॉडल अपनाया कि उसका सर्वाधिक नुकसान पर्यावरण को हुआ। हमारे पूर्वजों ने धर्म के माध्यम से पर्यावरण चेतना को जिस प्रकार जीवन से जोड़कर संरक्षण प्रदान किया, वह उनकी व्यापक दृष्टि का परिचायक है। वृक्ष पूजन की परंपरा पर्यावरण संरक्षण का ही तो प्रयास है। वट, पीपल, खेजड़ी, तुलसी आदि की उपादेयता-उपयोगिता इसका जीवंत प्रमाण है। देव पूजन में तुलसी पत्र का उपयोग आवश्यक कर उसको प्रतिष्ठा प्रदान करना पर्यावरण को स्वच्छ रखने के उद्देश्य से प्रेरित है। वनस्पति को पर्यावरण चेतना के अभिन्न अंश के रूप में प्रमुखता दी गई है। आयुर्वेद में वनस्पति के औषधीय गुण का वृतांत, उसके उपयोग और प्रभाव का स्पष्ट वर्णन है।

लेकिन अनियोजित विकास के कारण जंगल वीरान हुए, हरी-भरी पहाड़ियां नंगी हो गईं, जंगलों पर आश्रित आदिवासी रोजी-रोटी की खातिर शहरों की ओर पलायन करने लगे, पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा गया, वन्य जीव विलुप्ति के कगार पर पहुंच गए, जीवनदायिनी नदियां प्रदूषित हो गईं। विश्व के वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि तापमान में बदलाव का दुष्परिणाम सूखा, ग्लेशियरों के पिघलने, खाद्य संकट, पानी की कमी, फसलों की बर्बादी, मलेरिया, फ्लू, टीबी, यौन रोगों में वृद्धि के रूप में सामने आएगा। इसके अलावा उसकी मार से समाज का कोई वर्ग नहीं बचेगा। बिजली-पानी के लिए तरसते लोग संक्रामक बीमारियों के शिकार होकर मौत के मुंह में जाने को विवश होंगे। असल में तापमान में वृद्धि पर्यावरण प्रदूषण का ही परिणाम है। जलवायु में बदलाव के चलते सदानीरा गंगा और अन्य प्रमुख नदियों के आधार भागीरथी बेसिन के प्रमुख ग्लेशियारों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

सर्वाधिक संकट गोमुख ग्लेशियर को है, जिसकी बर्फ पिघलने की रफ्तार बीते 15 वर्षों में सबसे तेज है। अब तो हिमाच्छादित क्षेत्रों में हजारो-लाखों वर्षों से जमी बरफीली परत तक पिघलने लगी है। यदि यही स्थिति रही, तो अगले 50 वर्षों में गोमुख ग्लेशियर समाप्ति के कगार पर पहुंच जाएगा। गोमुख ग्लेशियर संसार के सबसे बड़े ग्लेशियरों में गिना जाता है। इसकी ऊपरी सतह पर ग्रेवासिस यानी दरारें बढ़ रही हैं, जो ग्लेशियर पर स्नोलाइन से नीचे ज्यादा मात्रा में बर्फ पिघलने और डेबरीज कहलाने वाली चट्टानों के पत्थरों तथा दूसरे अवशेषों के ढेर में बढ़ोतरी से हो रहा है। बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ने का नतीजा ग्लेशियरों के कमजोर होते जाने के रूप में सामने आया है।

यूएस सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च के वैज्ञानिकों ने इस तथ्य को प्रमाणित कर दिया है कि सूखे की समस्या के गंभीर होने के पीछे तापमान में बदलाव की खास भूमिका है। उसी के चलते आज भीषण सूखा पड़ रहा है। सतह के ऊपर के तापमान में हुई खतरनाक बढ़ोतरी से वाष्पीकरण की दर तेज हुई है। इससे कृषि भूमि सिकुड़ती जा रही है और खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं। बारिश की दर में गिरावट और मानसून की बिगड़ी चाल के चलते जहां देश सूखे के भयावह संकट से जूझ रहा है, वहीं उत्तर भारत में बिजली और राजस्थान में पानी का संकट गहरा गया है। महाराष्ट्र सरकार तो सवा करोड़ मुंबई वासियों की प्यास समुद्री पानी से बुझाने की योजना बना रही है।

इस तबाही के लिए देश के भाग्य-विधाताओं, योजनाकारों और नीति नियंताओं के साथ हम भी दोषी हैं। क्योंकि हमने पर्यावरण के साथ खिलवाड़ तो किया ही, अपनी पुरातन पर्यावरण हितैषी परंपराओं को तिलांजलि दे दी। इसीलिए अब समय आ गया है कि सजग हुआ जाए। इसके लिए हमें जीवन में संयमी बनना पड़ेगा। अपनी तृष्णाओं पर अंकुश लगाकर प्राकृतिक संसाधनों यथा मिट्टी, जल, खनिज, वनस्पति आदि के उपयोग में पर्यावरण संरक्षण का ध्यान रखना पड़ेगा। यदि हम समय रहते इस दिशा में कुछ कर पाने में नाकाम रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान, जीव-जंतु और प्राकृतिक धरोहरों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
 

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