पर्यावरण संकट : थोड़ा बदलो तो कोई बात बने

पर्यावरण का संकट आज एक ऐसे संकट के रूप में हमारे सामने आ खड़ा हुआ है कि यदि उसका कोई ठोस समाधान नहीं किया गया तो उसकी अन्तिम परिणति सामूहिक विनाश में होगी। एक ऐसा विनाश, जिसमें केवल मनुष्य का ही वजूद नहीं मिटेगा, अन्य प्राणी भी नेस्तनाबूत हो जाएँगे और यह धरती भी साबूत नहीं बचेगी। आँकड़ों और अनुपातों के सूची में गए बगैर यह स्वीकार लेने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि पर्यावरण का संकट आज एक ऐसे संकट के रूप में हमारे सामने आ खड़ा हुआ है कि यदि उसका कोई ठोस समाधान नहीं किया गया तो उसकी अन्तिम परिणति सामूहिक विनाश में होगी। एक ऐसा विनाश, जिसमें केवल मनुष्य का ही वजूद नहीं मिटेगा, अन्य प्राणी भी नेस्तनाबूत हो जाएँगे और यह धरती भी साबूत नहीं बचेगी। किसी को यह परिणति एक अतिश्योक्ति लग सकती है, लेकिन निकट अतीत में समय-समय पर आने वाले सुनामियों और भूकम्पों से होने वाले विनाश इसी भयावह भविष्य की बानगी है। यद्यपि कि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि आदमी इस विनाश-लीला से बचने के लिए कुछ नहीं कर रहा। समय-समय पर होने वाले पर्यावरण-विषयक सम्मेलन, पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले लेख, विभिन्न मुल्कों द्वारा बनाए गए कानून, दण्ड के प्रावधान तथा जन-आन्दोलन आदि इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि मनुष्य इस ओर से उदासीन नहीं हैं, लेकिन इतना कुछ करने और करते रहने के बावजूद यदि अपेक्षित परिणाम नहीं आए हैं तो सिर्फ इसलिए कि इसके लिए जो व्यावहारिक प्रयास किया जाना चाहिए वह नहीं हो पा रहा है।

इस प्रसंग में यह बात ख्याल में ले लेने जैसी है कि कोई भी समस्या अस्तित्वगत होती है, इसलिए उसका समाधान अस्तित्वगत हो सकता है। केवल वैचारिक अवगाहन और शाब्दिक जुमलेबाजी से कुछ नहीं होता मगर पर्यावरण के मसले पर ऐसा ही हुआ है। जल, जंगल, जमीन, हवा आदि प्रकृति के तमाम उपादान क्षरित और प्रदूषित होते जा रहे हैं; धरती से लेकर आकाश तक कचरों का ढेर लगता जा रहा है लेकिन हम केवल बहस करने में, कानून बनाने में और एक-दूसरे मुल्कों पर तोहमत लगाने में उलझे हैं। व्यावहारिक स्तर पर वह सब नहीं कर पा रहे, जो करना चाहिए। मसलन जीवन-शैली में बदलाव, विकास की अवधारणा में परिवर्तन, उपभोक्तावाद से परहेज, यन्त्रों और तकनीकों का सीमित उपयोग तथा अपनी लिप्साओं पर नियन्त्रण आदि नहीं कर पा रहे हैं जबकि ये सब ठोस उपाय हैं।

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस संकट की स्पष्ट पहचान हो पाई, लेकिन इसके बीज चार सौ साल पहले सोलहवीं शताब्दी में ही बो दिए गए थे। यह वह काल था जब इंग्लैण्ड का दार्शनिक बेकन ज्ञान के शक्ति होने की घोषणा कर रहा था और जर्मन साहित्य में ज्ञान, प्रभुत्व और यौवन के लिए अपनी आत्मा को शैतान के हाथों गिरवी रखने वाला डॉ. फास्ट का चरित्र नायक बन रहा था। इन सबकी पृष्ठभूमि कोलम्बस ने अमेरिका को ढूँढकर तैयार कर दी थी। वह इस प्रकार कि कोलम्बस ने अमेरिका को ढूँढकर उस रास्ते का पता बता दिया था जिस पर चलकर बाद में यूरोपियनों ने वहाँ के निवासियों को लूटा, वहाँ की पुरानी सभ्यताओं को नष्ट किया और वहाँ के बाशिन्दों को जंगलों में खदेड़कर उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया। इसी पृष्ठभूमि में ज्ञान को शक्ति और आत्मा को गिरवी रखने का विचार प्रचारित किया गया जिसका प्रभाव यह हुआ कि उस काल में एक ऐसी हवा चली जो हर यूरोपियनों के दिलों पर दस्तक देकर कान में सरगोशी से यह कहने लगी कि जीवन का एकमात्र लक्ष्य भोग है, क्योंकि कोलम्बस जैसे जहाजियों के ढूँढे गए रास्ते पर चलकर यूरोप द्वारा अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया तथा अमेरिका जैसे महादेशों को लूटने और एशिया तथा अन्य महादेशों में अपने उपनिवेश बनाने से वहाँ अतिरिक्त सम्पदा इकट्ठी होने लगी थी। इसी लूट की सम्पत्ति पर यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ। पर्यावरण संकट के तार इसी औद्योगिक क्रान्ति से जुड़े हैं।

इसलिए कि इसी औद्योगिक क्रान्ति ने आज की उस आधुनिक सभ्यता को जन्म दिया जिसका केन्द्रीय प्रतिपाद्य उपभोक्तावाद है। उपभोक्तावाद उस जीवन-शैली का हिमायती है जो बेतहाशा भोग को महिमामण्डित करती है। इसलिए यह जीवन के लिए आवश्यक-अनावश्यक जैसे विमर्श के पचड़े में नहीं पड़ती बल्कि इसके प्रतिकूल सिर्फ यह घोषित करती है कि संसार में जो कुछ है, जितना कुछ है, सब भोग के लिए है। इसलिए आदमी को सबका भोग कर लेना है, करते रहना है। भारतीय परम्परा में एक दार्शनिक चार्वाक हैं, जो इस तरह की घोषणाएँ करते हैं। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है—‘जब तक जीओ सुख से जीओ, कर्ज लेकर भी पीओ क्योंकि मरने के बाद देह का नाश हो जाता है, इसलिए कोई पुनर्जन्म नहीं होता।’ ऐसा कहकर चार्वाक यद्यपि कि तमाम संयम और नैतिकता को खारिज करते हैं, लेकिन इस सन्दर्भ में यह विशेष रूप से रेखांकित करने योग्य है कि यह दार्शनिक सम्प्रदाय कभी भी भारतीय दर्शन की मुख्यधारा नहीं बन पाया। इसलिए अन्य सभी दार्शनिक सम्प्रदायों ने इससे परहेज किया और कर्म, पुनर्जन्म तथा ईश्वर जैसी अवधारणाओं के सहारे नैतिक और संयमित जीवन जीने के विचार प्रस्तुत किए।

जल, जंगल, जमीन, हवा आदि प्रकृति के तमाम उपादान क्षरित और प्रदूषित होते जा रहे हैं; धरती से लेकर आकाश तक कचरों का ढेर लगता जा रहा है लेकिन हम केवल बहस करने में, कानून बनाने में और एक-दूसरे मुल्कों पर तोहमत लगाने में उलझे हैं। व्यावहारिक स्तर पर वह सब नहीं कर पा रहे, जो करना चाहिए। मसलन जीवन-शैली में बदलाव, विकास की अवधारणा में परिवर्तन, उपभोक्तावाद से परहेज, यन्त्रों और तकनीकों का सीमित उपयोग तथा अपनी लिप्साओं पर नियन्त्रण आदि नहीं कर पा रहे हैं जबकि ये सब ठोस उपाय हैं।परन्तु, पश्चिम में ऐसा नहीं हो सका। 16वीं सदी में जो भोगवाद की नींव पड़ी उसे और पुष्ट और विकसित करने के लिए 18वीं-19वीं शताब्दी में बेन्थम और मिल जैसे दार्शनिक आए जो अपने सुखवादी सिद्धान्तों द्वारा भोग को और प्रश्रय तथा बढ़ावा दिया। इन लोगों ने पुरजोर ढंग से यह प्रतिपादित किया कि सुख ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, इसलिए हर व्यक्ति को जीवन में केवल सुख प्राप्त करना चाहिए तथा प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। इसी का नतीजा हुआ कि संयम, सदाचार जैसे शब्द बेमानी हो गए और अर्थ अत्यधिक मनमानीखेज होकर जीवन के केन्द्र में आ गया। अब आदमी एक आर्थिक प्राणी हो गया और उसका कुल काम सुखभोग के लिए अर्थोपार्जन रह गया। इसमें उसे अन्य प्राणियों के लिए चिन्तित होने की गुंजाइश ही नहीं बची। उसे यह याद ही नहीं रहा कि वह पेड़-पौधों, पशु-पक्षी, नदी-पहाड़ तथा धरती-आकाश के बारे में सोच सके। उसे तो बस प्रकृति के इन तमाम उपादानों से अपने भोग के लिए सामग्री पैदा करनी थी। इनका नाश करके अपने लिए सुख के संसाधन जुटाना था। उसकी खोजों के बूते उसे ऐसे यन्त्र और तकनीक उपलब्ध हुए, ऐसे उद्योग लगाने की सुविधा हुई जिनके द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके अपने सुख के लिए भोग की सामग्री उत्पादित कर सके।

पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में एक दार्शनिक हुआ है प्रोटोगोरस। वह पाँचवीं शताब्दी का दार्शनिक था। उसी ने कहा था कि— ‘‘मनुष्य सभी वस्तुओं का मापदण्ड है।’’ यद्यपि कि इस कथन का ‘मनुष्य’ शब्द लगातार विवाद में बना रहा, कालान्तर में इस शब्द के अर्थ और उसकी व्याप्ति पर लगातार चर्चाएँ हुई, लेकिन इसके बावजूद कहीं-न-कहीं पाश्चात्य चिन्तन में यह बात घर कर गई कि संसार में जो कुछ भी है, वह मनुष्य के लिए ही है। अतः मनुष्य इसका उपभोग करने के लिए स्वच्छन्द है। हाँ! यह स्वच्छन्दता पन्द्रहवीं शताब्दी तक उतनी उच्छृंखल नहीं हो पाई क्योंकि इस बीच दर्शन पर धर्म का आधिपत्य रहा। मगर जब धर्म में कुरीतियाँ पैदा हुई और इस कारण दर्शन को उससे मुक्त कराने का प्रयास किया गया तो इसमें उसका सहयोगी विज्ञान बना। इसी विज्ञान की बदौलत सोलहवीं सदी में आधुनिक दर्शन की नींव रखी गई जिसका प्रस्तावक ज्ञान को शक्ति कहने वाला दार्शनिक बेकन बना।

इस प्रकार वैज्ञानिक आविष्कारों और दार्शनिक अवधारणाओं के समन्वय से वह औद्योगिक क्रान्ति हुई जिसमें उद्योग द्वारा अकूत सम्पदा पैदा करने की सुविधा हासिल हुई। इसका परिणाम यह हुआ कि मनुष्य अपने भोग के लिए नयी-नयी सामग्रियाँ पैदा करने लगा। अब चूँकि इन सामग्रियों के उत्पादन के लिए कच्चे माल की जरूरत थी जो प्रकृति से मिल सकती थी, इसलिए मनुष्य ने प्रकृति के संसाधनों का दोहन और उसे नष्ट करना शुरू किया। इस क्रम में उसने जल, जंगल, जमीन को तो नष्ट किया ही, नदी, पहाड़ का भी दोहन किया तथा अन्य प्राणियों को भी नहीं बख्शा। उसने सीधे-सीधे पशु-पक्षी समेत अन्य प्राणियों को तो मारा ही, जंगल, नदी, पहाड़ को नष्ट करके उनके बचे रहने की सम्भावना भी समाप्त कर दी। चूँकि इनके अभाव में ये प्राणी जीवित नहीं रह सकते थे, इसलिए जैसे-जैसे प्रकृति के उपादान नष्ट होते गए वैसे-वैसे इन प्राणियों का वजूद भी समाप्त होता गया। इसी कारण अब कई पशुओं और पक्षियों की प्रजातियाँ लुप्त हो गई और कई लुप्त होने के कगार पर हैं।

मनुष्य को अपने जीवनयापन के लिए पहले भी अपने उपयोग के लिए प्राकृतिक सम्पदाओं को नष्ट करना पड़ता था, लेकिन तब यह अनुपात सन्तुलित रहता था। आज वैज्ञानिक उपलब्धियों के आधार पर ऐसे-ऐसे यन्त्र और तकनीक विकसित हुए कि एक बार में ही बहुत बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का नाश और दोहन होने लगा। फिर आदमी की जरूरतें भी बढ़ीं और बढ़ा भी दी गई। इस प्रकार जरूरतों को पैदा करने और उन्हें पूरा करने का एक दुष्चक्र निर्मित हुआ, जिनके कारण प्राकृतिक सम्पदाओं का दोहन, क्षरण और प्रदूषण बड़ी मात्रा में हुआ। यही दोहन, क्षरण और प्रदूषण आज उस भयावह संकट का रूप ले चुका है जिससे सारी दुनिया चिन्तित है।

ताज्जुब इस बात का है कि इस चिन्ता के बावजूद अपने को सभी प्राणियों से श्रेष्ठ कहने वाला मनुष्य इससे निजात पाने के लिए सिर्फ वैचारिक जुगाली कर रहा है। इसलिए पर्यावरण संकट को लेकर जो कुछ भी होता है, वह चाहे सभा-सम्मेलन हो या लेखन-भाषण, सबमें सिर्फ आँकड़े गिनाए जाते हैं, अनुपात बतलाए जाते हैं, देश और सरकार द्वारा बनाए गए कानून और उसके उल्लंघन पर दिए जाने वाले दण्ड के प्रावधानों की चर्चा की जाती है, अपनी जीवन-शैली बदलने का कोई संकल्प नहीं लिया जाता। सब सिर्फ दूसरे को नसीहत देते हैं, अपने में कोई तब्दीली नहीं करते। न कोई व्यक्ति, न कोई मुल्क। जबकि इस भोगवादी जीवन-शैली को बदले बगैर, इन्हें संयमित किए बगैर, यन्त्र, उद्योग और तकनीक पर निर्भरता कम किए बगैर पर्यावरण संकट का समाधान नहीं निकल सकता है, उससे निजात नहीं पाया जा सकता है। बेशक इसके लिए विकास का पैमाना, जीवन का लक्ष्य, विज्ञान के उपयोग आदि में तब्दीली लानी पड़ेगी; लेकिन यह एक अनिवार्य सार्वभौमिक तार्किक सत्य है कि ऐसा किए बगैर पर्यावरण सुरक्षित नहीं रह सकता है, उस पर छाए संकट के बादल दूर नहीं हो सकते हैं और जब तक पर्यावरण सुरक्षित नहीं रहता तब तक अन्य प्राणियों समेत मनुष्य भी सुरक्षित नहीं रह सकता है।

भारत की परम्परागत जीवन-शैली को देखें तो यह साफ हो जाएगा कि यहाँ प्रकृति को नष्ट करके नहीं, उसे सुरक्षित रखकर जीवन जीने का प्रावधान है। इसीलिए यहाँ वृक्षों की पूजा होती है, नदियों-पहाड़ों की पूजा होती है, धरती की पूजा होती है, हवा-आग को देवता मानकर पूजा जाता है, साँप और बाघ की पूजा होती है। यहाँ पीपल जैसे पेड़ को नहीं काटने और नदियों में कूड़ा-कचरा नहीं डालने का प्रावधान है। यह सब प्रकृति और पर्यावरण को सुरक्षित रखने के ही उपक्रम हैं। इसका सूत्र भारतीय परम्परा से मिल सकता है, यदि भारत की परम्परागत जीवन-शैली को देखें तो यह साफ हो जाएगा कि यहाँ प्रकृति को नष्ट करके नहीं, उसे सुरक्षित रखकर जीवन जीने का प्रावधान है। इसीलिए यहाँ वृक्षों की पूजा होती है, नदियों-पहाड़ों की पूजा होती है, धरती की पूजा होती है, हवा-आग को देवता मानकर पूजा जाता है, साँप और बाघ की पूजा होती है। यहाँ पीपल जैसे पेड़ को नहीं काटने और नदियों में कूड़ा-कचरा नहीं डालने का प्रावधान है। यह सब प्रकृति और पर्यावरण को सुरक्षित रखने के ही उपक्रम हैं। इसके लिए यहाँ के शास्त्रों में इसका विधान भी किया गया है। वेदों में पृथ्वी, वनस्पति, अन्तरिक्ष आदि सबकी शान्ति की प्रार्थना की गई है तो उपनिषदों में अग्नि, जल आदि में व्याप्त देवताओं को नमस्कार किया गया है। गीता में कृष्ण का अपने को पेड़ों में पीपल बताने का उद्देश्य भी यही है। कुल मिलाकर यहाँ पर ऐसी जीवन-पद्धति की वकालत की गई है, जिसमें मनुष्य को केन्द्र में रखकर अन्य सभी वस्तुओं और प्राणियों का अपने लिए उपभोग की मनाही है। यहाँ यह माना गया है कि ईश्वर जैसी एक ही परम सत्ता का वास प्रकृति के कण-कण में है और सभी प्राणियों के अन्दर भी वही निवास करती है। इसलिए मनुष्य का यह दायित्व है कि वह इन सबकी सुरक्षा का भी ख्याल रखे और यह तभी हो सकता है जब सबका सिर्फ अपने भोग के लिए उपयोग नहीं किया जाए बल्कि उनके सहयोग के साथ जीवन जिया जाए। जब तक यहाँ का या कहीं का भी समाज कृषि व्यवस्था पर आधारित रहा तब तक पर्यावरण सुरक्षित रहा लेकिन जब से औद्योगिक व्यवस्था शुरू हुई तब से पर्यावरण असुरक्षित होने लगा। अतः पर्यावरण को सुरक्षित करने के लिए सबसे मूल काम अपनी व्यवस्था और जीवन-शैली में परिवर्तन लाना है, उसे संयमित कर प्रकृति के साथ सहयोग पर आधारित करना है।

इस दिशा में किए गए सम्मेलनों, प्रकाशनों और कानूनों आदि का भी महत्व है, आँकड़ों और अनुपातों की भी जरूरत है। इन्हीं सब की वजह से तो अब एक सम्पोषित विकास की अवधारणा अस्तित्व में आई है लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। यह सब परिधिगत हो रहा है, केन्द्रगत नहीं। अभी भी लगभग सारे देश, खासकर विकसित देश, अपनी जीवन-शैली बदलकर अपने जीवन का स्तर कम करने को राजी नहीं हैं, इसीलिए विकासशील देशों में भी कोई तब्दीली नहीं हो पा रही है। कोई प्रावधान प्रभावी नहीं हो पा रहे हैं, आन्दोलन अंजाम तक नहीं पहुँच पा रहे हैं। अतः इस दिशा में ठोस प्रयास करने की जरूरत है और यह किसी एक आदमी के प्रयास से सम्भव होने वाला नहीं है। पर्यावरण की सुरक्षा हर व्यक्ति का दायित्व है। इसलिए इसका अपेक्षित परिणाम सम्मिलित प्रयास से ही मिल सकता है। हम यह प्रयास जितने सघन और प्रामाणिक रूप से कर पाएँगे उतनी ही जल्दी इस संकट से उबर पाएँगे।

पृथ्वी दिवस पर आर.के. पचौरी, आईपीसीसी के चेयरमैन और टेरी के महानिदेशक ने भी अपने लेख में कहा है—‘‘1969 में जब जॉन मैक्कोनेले ने इसके नाम और अवधारणा के बारे में सोचा था, 1970 में जब इसे पहली बार मनाया गया और 1990 में जब 141 देश इस दिवस से सीधे तौर पर जुड़े, तो कहीं-न-कहीं यह ख्याल जेहन में रहा कि मानव समुदाय जिस तथाकथित विकास की राह पर है, वह विकास वास्तव में विनाश की ओर ले जाता है। इस विकास से हुए परिवर्तनों से पृथ्वी पर बोझ बढ़ता जा रहा है, जिसे समझने-जानने और उस बोझ को कम करने की जरूरत है। अब इधर जाकर हमें यह पता चला है कि इसमें जलवायु परिवर्तन एक बड़ी समस्या है, जो न केवल मानव समुदाय, बल्कि समस्त जीवों के लिए गम्भीर खतरा है। इसे हल करने के लिए मानव जाति को अपने विकास के सम्पूर्ण ढाँचे में थोड़े-बहुत परिवर्तन करने होंगे।’’ यह परिवर्तन जितनी जल्दी हो उतना ही बेहतर होगा। इसलिए इन पंक्तियों से बात समाप्त करना सार्थक होगा कि—‘‘सिर्फ कहने से कुछ नहीं होगा, थोड़ा बदलो तो कोई बात बने।’’

(लेखक बी.आर.ए., बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर के दर्शन विभाग में उपाचार्य हैं)

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