आज जलवायु जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कोई भी गंभीरता से नहीं सोच रहा है जबकि तमाम मुद्दों से कहीं ज्यादा जरूरी हमारे लिए जलवायु परिवर्तन का विषय है।
पर्यावरण के संबंध में क्या महज यह कह देने भर से हमारे कर्त्तव्यों की इतिश्री हो जाएगी कि यह ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन का असर है? भारत एक विशाल क्षेत्रफल वाला देश है, जहां पैदावार अच्छी होगी अथवा सूखा पड़ेगा, इसका पूरा दारोमदार गैर भरोसेमंद वर्षा जल पर निर्भर करता है। देश की कृषि योग्य जमीन का 85 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई के लिए या तो प्रत्यक्ष रूप से वर्षा जल पर निर्भर होता है या भूजल पर। भूजल का स्तर प्रतिवर्ष होने वाली बारिश से ही तय होता है।
हालांकि इस वर्ष मानसून की बारिश अपेक्षाकृत अच्छी हुई लेकिन बिगड़ते पर्यावरण के कारण बरसात की स्थिति हर साल अनियमित होती जा रही है जबकि घरेलू जरूरतों के साथ ही सिंचाई का पानी हमें बेहतर मौसमी बारिश से ही मिलता है। पशुओं की परवरिश का भी यह सबसे महत्वपूर्ण जरिया है। लेकिन लंबे समय से भूजल के दोहन से स्थितियां बेकाबू हुई हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा में उत्पन्न अनिश्चितता से लोग कैसे जूझ पाएंगे? फिर जिस तरह किसानों द्वारा गन्ना, गेहूं तथा चावल की फसलों की सिंचाई के लिए ट्यूबवैल के रूप में भूजल का दोहन किया जा रहा है तो इस बात की क्या गारंटी है कि जलस्तर भयावह स्थिति तक नहीं पहुंच जाएगा?
पर्यावरण संरक्षण एवं इसकी जागरूकता के लिए सरकार द्वारा काफी योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाता है लेकिन इसके अपेक्षाकृत परिणाम नहीं निकलते। पर्यावरण संरक्षण के प्रति जब तक लोग व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदारी नहीं लेंगे, तब हालात नहीं सुधरेंगे। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के हिवारे बाजार गांव का जिक्र करना बेहतर होगा। यहां 'चोर के हाथ में चाबी देने' वाली कहावत चरितार्थ होती प्रतीत होती है। 15 साल पहले तक सूखाग्रस्त इस गांव में सिवाए पलायन के लोगों के पास कोई दूसरा चारा नहीं था लेकिन 90 के दशक में वैज्ञानिक सोच और सरकारी योजनाओं के सही कार्यान्वयन के बाद बदलाव की बयार आई तो यह गांव आज समृद्ध दिखने लगा है।
सिंचाई के मामले में कहीं न कहीं सरकार की गलत नीतियां जिम्मेदार हैं और राज्य सरकारों ने नदियों पर बांध, नहरें वगैरह बनाकर सतह के पानी का प्रबंधन अपने पास रखा है और आज भी लोग सिंचाई के लिए सबसे ज्यादा भूजल का ही दोहन करते हैं। किसी की व्यक्तिगत जमीन का भूजल उसी की मिल्कियत माना जाता है। आज भी लगभग तीन चौथाइ हिस्से की सिंचाई भूजल से की जाती है। एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में लगभग 1.9 करोड़ ट्यूबवेल, कुएं जैसे भूजल के स्रोत हैं। सरकार को अपनी इस नीति पर पुनर्विचार करके सोचना चाहिए कि क्यों उसके प्रबंधन से केवल 35-40 प्रतिशत भूभाग की सिंचाई हो पाती है जबकि ग्राउंड वाटर से 65-70 प्रतिशत भूभाग की। जब हमने वर्षा जल संचयन के पारंपरिक तरीकों को छोड़कर नई तकनीकें अपना लीं तो उनकी कोई वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं की गई?
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से निपटने के लिए जब तक कोई वैश्विक नीति नहीं तैयार की जाती, तब तक इस समस्या से निपटना नामुमकिन होगा। कहने को तो पिछले 17 सालों से बड़ी-बड़ी संधियां होती हैं और वादे किए जाते हैं लेकिन रहती सब बेनतीजा ही हैं। इन सत्रह सालों में हमने इस मामले में एक इंच भी प्रगति नहीं की और आज भी वहीं खड़े हैं जहां उस समय थे। इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि ग्रीन हाउस गैसों तथा प्रदूषण नियंत्रण के वादे तो सब करते हैं मगर कोई पैमाना नहीं तय किया जाता कि कौन किस हद तक नियंत्रण करेगा? अमेरिका, जापान, कनाडा तथा न्यूजीलैंड जैसे कई विकसित देश यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि वे तब तक कुछ नहीं करेंगे जब तक चीन, भारत, ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देश प्रदूषण नियंत्रण के उपाय नहीं करते।
(सुश्री नारायण सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरन्मेंट की निदेशक हैं)
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