पर्यावरण शिक्षा और संचार माध्यम


पर्यावरण प्रदूषण के लिए उपभोग ढांचा भी काफी हद तक जिम्मेदार है।

पर्यावरण प्रदूषण के लिए उपभोग ढांचा भी काफी हद तक जिम्मेदार है। संयुक्त राष्ट्र के विश्व आर्थिक एवं सामाजिक सर्वे के अनुसार अगले 35 वर्षो में पर्यावरण के विनाश का कारण अधिक जनसंख्या नहीं बल्कि विभिन्न देशों के उत्पादन और उपभोग का ढांचा होगा क्योंकि ये दोनों पर्यावरण के विनाश का स्तर निर्धारित करते हैं। भौतिकवादी संस्कृति के प्रभाव के कारण मानव ने अपने सुख-साधन के लिए प्रकृति का भरपूर दोहन एवं शोषण किया है। यद्यपि प्रकृति में स्वयं को संतुलित रखने की क्षमता है किंतु अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि प्रकृति स्वयं को संतुलित रखने में असमर्थ है।

पर्यावरण इस हद तक प्रदूषित हो गया है कि स्थिति भयावह होती जा रही है। इसका अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में 1992 में ब्राजील के रियो डि जेनेरों में पर्यावरण प्रदूषण पर पृथ्वी सम्मेलन करना पड़ा। वैसे 1972 में स्टाकहोम में मानव पर्यावरण पर बहुत पहले ही अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन किया जा चुका है। सम्पूर्ण पर्यावरण दूषित होने के कारण शैक्षिक पारिस्थितिकी (एडयुको इकोलोजी) भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती।

प्रदूषित पर्यावरण में कितनी ही अच्छी शिक्षा क्यों न दी जाए, वह छात्रों के दिलोदिमाग पर खतरनाक प्रभाव डालती है जिससे बच्चे मानसिक रूप से मन्द, स्फूर्तिहीन एवं शारीरिक रूप से कमजोर हो जाते हैं। यदि अनियंत्रित औद्योगिक विकास, पर्यावरण प्रदूषण तथा जीवों, वनस्पतियों और जैव विविधता के विनाश की गति यही रही तो बहुत अधिक समय तक मानव जीवन का बने रहना असंभव होगा।

पर्यावरण असंतुलन के कारण आज मानव जीवन अत्यन्त व्यस्त एवं जटिल हो गया है। अत: वर्तमान में भावी पीढ़ी में पर्यावरण सम्बन्धी जागरूकता उत्पन्न करने की आवश्यकता महसूस हो रही है जिससे वे पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं एवं उसके परिणामों से अवगत हो सकें एवं इसमें सुधार हेतु प्रयासरत हों। इन परिस्थितियों में पर्यावरण शिक्षा की अनिवार्यता की जरूरत महसूस की जा रही है।

पर्यावरण शिक्षा की अनिवार्यता एक तो औपचारिकता शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर पाठ्यक्रम में शामिल करके की जा सकती है, दूसरे जनसंचार के माध्यमों से जनमानस में पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाकर। औपचारिक शिक्षा के अंतर्गत पर्यावरण प्रदूषण से संबंधित शिक्षण का पर्याप्त अवसर प्राप्त नहीं होता है क्योंकि औपचारिक शिक्षण में नमनीयता का अभाव होता है तथा शिक्षक एवं छात्र दोनों के सामने परीक्षा एवं पाठ्यक्रम संबंधी शिक्षण का भार अधिक होता है, जिससे पर्यावरण के विभिन्न पक्षों की अवहेलना हो जाती है।

जनसंचार माध्यम, विशेष रूप से दूरदर्शन द्वारा पर्यावरण से संबंधित अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते हैं। जैसे-खेती और पर्यावरण, रोग और प्रदूषण, औद्योगिक प्रदूषण, गांवों का परंपरागत परिवेश एवं पर्यावरण इत्यादि। यदि इन कार्यक्रमों का उचित शैक्षिक उपयोग किया जाए तो छात्रों में पर्यावरण से संबंधित समस्याओं को समझने और हल करने की योग्यता का विकास होगा।

(लेखांश 'राजभाषा भारती' से साभार)
 
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