पर्यावरण से रार, जीवन की हार

पर्यावरण से रार, जीवन की हार।
पर्यावरण से रार, जीवन की हार।

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् जान मुईर ने हम इंसानों के लिए क्या कहा था, याद रखें - ईश्वर ने वृक्षों को सम्भाला, उन्हें सूखे से, रोगों से, जलजलों से और तूफानों से बचाया, पर वह इन्हें मूर्खों से नही बचा सकता। अपनी मूर्खताओं को समझदारी समझने की भूल न करें हम और यह पर्यावरण दिवस पर ही नहीं, हर दिन करना होगा सांस लेने की तरह।

पाँच जून विश्व पर्यावरण दिवस अपने 38वें बरस में एक सार्थक पहल के रूप में और समर्पण के साथ मनाया गया। माँ-बाप-बहन-भाई स्त्री-पुरुष आदि मानवीय विशेषणों या सम्बन्धों के लिए मनाए जाने वाले दिवसों से यह दिवस इसलिए अलग है क्योंकि पर्यावरण सारे सम्बन्धों और लिंग भेद से परे पृथ्वी के सारे जीवों को नित छूता और उनके भीतर-बाहर रहता है। हमारी सांसों में बसता है और सांसों से निकल फिर हमारे परिवेश में घुलकर किन्हीं और सांसों में आता-जाता है। इस तरह हम पृथ्वी वासियों का आपस में यह सगापन सबसे नजदीकी रिश्ता है। खून के रिश्ते से भी पेशतर सांसों का रिश्ता हमारी नसों में दौड़ कर पूरी कायनात को एक बिरादरी बनाता है। इसलिए इसके प्रति हमारी चिन्ता सबसे अधिक होनी ही चाहिए। इस कुटुम्ब में सबकी खुराक एक-सी शुद्ध होनी चाहिए और पवित्र भी। हवा में विष घोलकर हम किसी और को नहीं अपने परिवार को ही धीरे-धीरे जहर से पल-पल मार सकते हैं क्या ? पर हम ऐसा करते चले आ रहे हैं। इस बरस का तो ध्येय वाक्य ही है - वायु प्रदूषण।
 
विश्व पर्यावरण दिवस का प्रारम्भ 1972 में स्वीडन के स्टॉकहोम में मानवीय पर्यावरण हेतु आयोजित सम्मेलन के पहले दिन हुआ था। एक ही पृथ्वी-इस ध्येय वाक्य से एक अभियान संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में प्रारम्भ हुआ। दुनिया भर में लगने वाले मेलों में एक्सपो 74 पहला ऐसा मेला था जो पर्यावरण जागरूकता पर आधारित था। अमरीका के स्पोकेन नामक स्थान को इसके लिए चुना गया, जो अब तक के दुनियाई मेलों में सबसे छोटी जगह है। इस छोटी-सी जगह से पृथ्वी के लिए एक पहल हुई जो सचमुच में एक विराट चिन्ता के लिए महती शुरुआत थी। 1987 से यह वार्षिक आयोजन अलग-अलग देशों में किया जाने लगा। बांग्लादेश में अब तक दस बार किया जा चुका है, हमारे यहाँ दो बार ही हुआ - दिल्ली में। 1993 और 2002 के बाद अब 2019 में चीन ने तीसरी बार इसकी मेजबानी की।
 
चीन का नाम सुनते ही कुछ त्यौरियाँ अक्सर चढ़ जाती हैं। इसलिए कि चीन एक चुनौती है। वह ऐसा देश है जिसके पास दुनिया की पचास प्रतिशत विद्युत चलित गाड़ियाँ और 99 प्रतिशत विद्युत बसें हैं। उसने कार्बन उत्सर्जन के ऐसे कठोर नियम लागू किए कि उसके कई उद्योग बन्द हो गए। हम इसमें खुश हैं कि इसके कारण हमारे यहाँ का कार्बन उद्योग चमक गया और हमारी कई कम्पनियों के शेयर रातों-रात कई सौ गुना बढ़ गए। यह वही चीन है, जिसने 1959 से 1961 तक एक भयावह अकाल का सामना किया था। इसके कारण जानना दिलचस्पी और भय दोनों पैदा करता है। 1958 से माओत्से तुंग ने ग्रेट लीप फॉरवर्ड की महत्वाकांक्षी सोच के अन्तर्गत चीन को फर्राटे से छलांग लगाकर आगे बढ़ने के कई उपक्रम किए। इनमें एक था फोर पेस्ट्स का उन्मूलन।
 
इनमें गोरैया बड़े पैमाने पर निशाने पर आ गई क्योंकि वे आसानी से लक्ष्य बनाई जा सकती थीं। यह कदम चीन को महंगा पड़ा। गोरैया पर्यावरण की मित्र थीं। कुछ दाने इस सिपाहीगिरी की पगार के रूप में चुग लेती थीं। हम दोस्त को दुश्मन मान और असली दुश्मन की गलबहियाँ करके कितने ही संकट मोल लेते जाते हैं। ऋतुएँ हमारी दुश्मन हैं क्योंकि वे ठंड, ताप और सैलाब देती हैं? यह नहीं समझते कि हमने ही इनके स्वाभाविक स्वरूप को ललकारा है। पिछले बरसों के ध्येय वाक्य हमें भुलाने नहीं चाहिए। दुनिया जंगल, जल, हवा के लिए हर पल सजग रहना होगा। अपने आविष्कारों को प्रकृति और पर्यावरण से ऊपर न मानें। यह एक दिन का आयोजन भले ही हैं, पर पर्यावरण का उतना ही निरन्तर ध्यान रखें जैसे अपनी सांसों का। प्रसिद्ध पर्यावरणविद जान मुईर ने हम इंसानों के लिए क्या कहा था, याद रखें ईश्वर ने वृक्षों को सम्भाला, उन्हें सूखे से, रोगों से, जलजलों से और तूफानों से बचाया, पर वह इन्हें मूर्खों से नहीं बचा सकता। मुईर की इस बात में वृक्षों की जगह कुछ भी लिख दें पर अपने को वहीं रखें। अपनी मूर्खताओं को समझदारी समझने की भूल न करें हम। और यह पर्यावरण दिवस पर ही नहीं, हर दिन करना होगा। सांस लेने की तरह।
 
दक्षिण पूर्वी एशिया के ये जंगल सोखते हैं बड़ी मात्रा में कार्बन डाइ ऑक्साइड
 
इंडोनेशिया में जंगलों की कटाई दुनिया भर में पर्यावरण विज्ञानियों के लिए चिन्ता का विषय रही है है। 21वीं सदी के पहले दशक में जहाँ इसका प्रमुख कारण पामऑयल के लिए प्लांटेशन था वहीं बीते कुछ वर्षों में अन्य कुछ प्राकृतिक और मानवीय कारण भी उभरे हैं। इसी साल फरवरी में आई ड्यूक यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट में शोध प्रमुख और ड्यूक्स निकोलस स्कूल ऑफ द इनवायरमेंट की डोक्टोरल ग्रेजुएट केमन जी.ऑस्टिन ने बताया कि जंगलों के ग्रासलैंड में बदलने की दर 2015-16 के दौरान तेजी से बढ़ी, जब अल-नीनो के कारण गम्भीर सूखा पड़ा और अधिकांश द्वीपों पर आग लगने से जंगलों के खत्म होने की घटनाएँ सामान्य से कहीं ज्यादा हो गई। इंडोनेशिया में राष्ट्रीय स्तर पर और स्थानीय स्तर पर हर प्रमुख विकसित द्वीप पर वन-कटाई के बदलते हुए कारणों की पड़ताल करने वाला यह पहला अध्ययन था।
 
ऑस्टिन के मुताबिक, अध्ययन में 15 सालों की हाई-स्पेशियल-रिजॉल्यूशन गूगल अर्थ इमेजरी और वन-कटाई के नवीनतम उपलब्ध वैश्विक आंकड़ों का इस्तेमाल कर कारणों की पड़ताल की गई और पाया कि पापुआ द्वीप पर अभी भी वनों की कटाई का प्रमुख कारण लकड़ी की माँग है, जबकि सुमात्रा और कलिमंतान में पाम ऑयल इंडस्ट्री और अल-नीनो के चलते आग लगने की घटनाएँ प्रमुख कारण रही हैं। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में हाल के वर्षों में इंडोनेशिया उन देशों में से है जहाँ प्राथमिक प्राकृतिक वन-हानि की दर सर्वोच्च रही है। ये जंगल न केवल जलवायु को गर्म करने वाली कार्बन डाइ ऑक्साइड बड़ी मात्रा में सोखते हैं, हजारों प्रजातियों का घर हैं, बल्कि भू-क्षरण और बाढ़ से भी बचाते हैं, इसीलिए इनकी तीव्र कटाई या दूसरे कारणों से हानि वैश्विक स्तर पर पर्यावरणीय चिन्ता का सबब बनी हुई है। इंडोनेशिया और मलेशिया मिलकर दुनिया के कुल पाम ऑयल उत्पादन के 80 फीसदी की आपूर्ति करते हैं। 2001 से लेकर 2017 तक इंडोनेशिया के कुल वन क्षेत्र में 244 लाख हेक्टेयर यानी 15 फीसदी की कमी आई, जिसके चलते 2.44 गीगाटन कार्बन डाइ ऑक्सिड का उत्सर्जन बढ़ा। हाल ही इंडोनेशियाई सरकार ने पाम ऑयल कम्पनियों को प्लांटेशन डेटा जारी करने से परहेज करने को कहा है, जबकि राउंडटेबल ऑन सस्टेनेबल पाम ऑयल (आरएसपीओ) के तहत आंकड़े जारी करना सस्टेनेबिलिटी सर्टिफिकेशन का अनिवार्य अंग है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि यदि आंकड़े छुपाए गए तो पाम ऑयल इंडस्ट्री को लेकर इंडोनेशिया की साख और धूमिल होगी।

विश्व मे सबसे ज्यादा प्रदूषित देश

देश  

  2018 (पीएम 2.5)

पीएम 2.5 का औसत स्तर माइक्रोग्राम/क्यूबिक मीटर में (ग्रीनपीस की रिपोर्ट के अनुसार)

बांग्लादेश     97.1
पाकिस्तान   74.3
भारत    72.5
अफगानिस्तान 61.8
बहरीन     59.8

 

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Post By: Shivendra
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