पर्यावरण से प्रतिद्वन्द्विता

केंद्र की नई सरकार में पर्यावरण की अनदेखी तो मन्त्रिमण्डल गठन से ही प्रारम्भ हो गई थी जब कोई पूर्णकालीन पर्यावरण व वन मन्त्री नहीं बनाया गया। प्रकाश जावड़ेकर को वन व पर्यावरण मन्त्रालय के साथ सूचना व प्रसारण दिया गया था। इसके बाद निर्धारित समय में सर्वोच्च न्यायालय में मन्त्रालय ने उत्तराखण्ड की जलविद्युत परियोजनाओं से जैव विविधता पर पड़ रहे प्रभाव की रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की। यह रिपोर्ट 10 अक्टूबर 2014 को न्यायालय में प्रस्तुत की जानी थी। इस लेटलतीफी से नाराज होकर न्यायालय ने सरकार से कहा कि वह कुम्भकर्ण जैसा व्यवहार कर रही है।

पिछली यूपीए सरकार में पर्यावरण सम्बन्धित काफी कठोर नियम कानून बनाए थे, जिससे कई उद्योगपति एवं औद्योगिक घराने नाराज थे। यह दलील दी जा रही थी कि कठोर नियम कानून से देश में पूँजी निवेश एवं आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। ऐसा लगता है कि एनडीए की सरकार उद्योगपतियों एवं उद्योग घरानों के दबाव में आ गई है एवं पर्यावरण सुरक्षा एवं सुपोषित विकास की बात छोड़कर नियम-कानून शिथिल या कमजोर करने का पुरजोर प्रयास कर रही है। वन व पर्यावरण मन्त्रालय से परियोजना मंजूरी की समय सीमा 105 दिनों से घटाकर 60 दिन कर दी गई।

किसी भी परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों के अध्ययन हेतु यह समय सीमा काफी कम है। वैसे भी हमारे देश में तीन प्रकार के मौसम होते हैं एवं यदि तीनों मौसम में अध्ययन किया जाए तो कम-से-कम 300 दिन लगते हैं। मौसम के अनुसार तापमान, आर्द्रता, वायु गति व दिशा आदि बदलते रहते हैं। अतः 60 दिनों में पूरा अध्ययन सम्भव ही नहीं है।

परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन भी परियोजना के कर्ताधर्ता द्वारा स्वयं की पसन्दीदा कम्पनी या एजेंसी द्वारा करवाये जाने के प्रस्ताव पर भी विचार जारी है। इसका परिणाम यह होगा कि परियोजना प्रबन्धक ऐसी एजेंसी या संस्था से अध्ययन करवाएंगे जिससे उनके अनुकूल रिपोर्ट दे। इससे भ्रष्टाचार बढ़ेगा एवं पर्यावरण का ज्यादा विनाश होगा। अभी तक मन्त्रालय स्वयं अपने विषय विशेषज्ञों से अध्ययन करवाकर परियोजना की समीक्षा करता था।

यह प्रस्ताव भी विचाराधीन है कि यदि किसी परियोजना की स्वीकृति के बाद दो माह में कोई संगठन या व्यक्ति उसका विरोध नहीं करता है तो यह मान लिया जाएगा कि इससे पर्यावरण को कोई हानि नहीं है। किसी भी परियोजना का विरोध विस्तृत रिपोर्ट के अध्ययन, सम्बन्धित लोगों से चर्चा एवं कानूनविदों तथा वैज्ञानिकों की राय के बाद किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में लम्बा समय लगता है अतः दो माह की अवधि काफी कम है। उदाहरणार्थ नर्मदा घाटी परियोजना जैसी विशाल परियोजना रिपोर्ट पढ़ने एवं समझने में ही लम्बा समय लग सकता है।

खनन्, ताप विद्युत कारखानें, नदी घाटी एवं अधोसंरचना आदि से जुड़ी लगभग 350 से अधिक विचाराधीन परियोजनाओं में से ज्यादातर को सरकार जल्द-से-जल्द स्वीकृति देने हेतु प्रयासरत है। पिछली सरकार द्वारा रोकी गई या अस्वीकृत परियोजनाओं को भी जैसे तैसे स्वीकृति दिए जाने के प्रयास भी जारी हैं। राष्ट्रीय उद्यानों, अभ्यारण्यों, संरक्षित वन क्षेत्र, वन्यजीव एवं संवेदनशील क्षेत्रों में या क्षेत्रों के आसपास बनने वाली टाउनशिप, इमारतों एवं पर्यटन रिसोर्ट आदि के मानकों को भी कमजोर किया जा रहा है।

नई सरकार पर्यावरण बाबत् बने कानूनों में फेरबदल हेतु भी प्रयासरत है। वन एवं पर्यावरण मन्त्रालय ने पिछले अगस्त के अन्त में पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमण्यम के नेतृत्व में एक चार सदस्यीय समिति बनाई है, जो पाँच कानूनों (वन्य संरक्षण 1972, जल प्रदूषण रोकथाम व नियन्त्रण 1974, वनसंरक्षण 1980, वायु प्रदूषण रोकथाम व नियन्त्रण 1981 तथा पर्यावरण संरक्षण 1986) की समीक्षा कर आवश्यक संशोधन प्रस्तुत करेगी।

इस कानूनों के सन्दर्भ में लोगों से भी 1000 शब्दों के सुझाव माँगे गए हैं। कितने लोग सुझाव देंगे और उनमें से कितने माने जाएँगे यह तो भविष्य में पता चलेगा परन्तु यह लगभग निश्चित लगता है कि सरकार अपनी इच्छा अनुसार समिति से कानूनों में संशोधन करवा लेगी।

सरकार द्वारा पर्यावरण कानूनों में संशोधन एवं बदलाव किए जाने के विरोध में आवाजें उठना भी प्रारम्भ हो गई है। पर्यावरणविदों का कहना है कि सरकारें चाहे किसी भी दल की हों वे हाल के वर्षों में घटित केदारनाथ त्रासदी, मालिण गाँव धँसान एवं कश्मीर में आई भारी बाढ़ से कोई सबक नहीं लेना चाहती हैं। जल्दबाजी में पर्यावरण कानूनों में बदलाव उचित नहीं है एवं कई बार तो बदलाव के बहाने कानून कमजोर बना दिए जाते हैं। अब कानूनों को कमजोर बनाकर यदि सरकार पर्यावरण विनाश की ओर बढ़ेगी तो न्यायालयों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाएगी। जैवविविधता से भरपूर छः राज्यों में फैले 1600 कि.मी. क्षेत्र के पश्चिमी घाटों पर भी सरकार ने अभी तक अपना नजरिया स्पष्ट नहीं किया है। इन घाटों के संरक्षण बाबत् सरकार का रवैया बदला नजर आ रहा है। सरकार प्रो. माधव गाडगिल एवं कस्तूरीरंजन समिति की रिपोर्ट एवं सुझावों पर भी ध्यान नहीं देने की मानसिकता बना रही है। इसके अतिरिक्त राज्यों को ज्यादा अधिकार देने पर विचार किया जा रहा है।

अभी तक बड़ी आवासीय योजना, बहुमंजिलें भवन, होटल, कॉलोनी, कारखाने व आय.टी.पार्क आदि की मंजूरी केन्द्र सरकार पर्यावरण संरक्षण कानून 1986 के तहत प्रदान करती थी। प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे भी प्रधानमन्त्री को पत्र लिखकर प्रो गाडगिल के सुझावोें को मानने हेतु कह चुके हैं। गौरतलब है सम्पूर्ण पश्चिमी घाट यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल है।

सरकार द्वारा पर्यावरण कानूनों में संशोधन एवं बदलाव किए जाने के विरोध में आवाजें उठना भी प्रारम्भ हो गई है। पर्यावरणविदों का कहना है कि सरकारें चाहे किसी भी दल की हों वे हाल के वर्षों में घटित केदारनाथ त्रासदी, मालिण गाँव धँसान (पुणे के पास) एवं कश्मीर में आई भारी बाढ़ से कोई सबक नहीं लेना चाहती हैं। जल्दबाजी में पर्यावरण कानूनों में बदलाव उचित नहीं है एवं कई बार तो बदलाव के बहाने कानून कमजोर बना दिए जाते हैं।

कई उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि पर्यावरण संरक्षण में न्यायालयों ने सशक्त भूमिका निभाई हैं। अब कानूनों को कमजोर बनाकर यदि सरकार पर्यावरण विनाश की ओर बढ़ेगी तो न्यायालयों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाएगी।

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Post By: Shivendra
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