पर्यावरण से दुश्मनी निभाता विश्व बैंक

गुबैंक के आंतरिक अध्ययन उद्घाटित करते हैं कि इस शताब्दी में बैंक द्वारा ऋण देने के निर्णयों में पर्यावरणीय चिंताएं कम ही दिखाई देती हैं। पिछले दशक में अमेरिका एवं अन्य धनी देशों ने वैश्विक तापमान वृद्धि से निपटने हेतु इन संस्थाओं को अरबों डॉलर अतिरिक्त रूप से दिए। परंतु वास्तविकता यह है कि बैंक ने महाकाय ताप विद्युतगृहों एवं तेल विकास हेतु दिए जाने वाले ऋण में वृद्धि कर दी। ग़ौरतलब है कि ये दोनों उद्योग पृथ्वी पर सर्वाधिक ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन करने वाले 50 सबसे बड़े स्रोतों में से एक हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव बान की मून ने सन् 2011 में स्विट्जरलैंड के दावोस शहर में बैंकर्स एवं कारपोरेट जगत के वरिष्ठ अधिकारियों से भरे सभागृह में श्रोताओं को यह कहते हुए अचंभित कर दिया कि वर्तमान आर्थिक प्रणाली “विध्वंस का एक नुस्खा’’ एवं “वैश्विक आत्महत्या समझौता’’ है। पिछले दो दशकों में वैश्विक संस्थान जलवायु परिवर्तन से संबंधित पारिस्थितिकीय समस्याओं, प्रजातियों का विनाश एवं शुद्ध जल एवं समुद्रों का प्रदूषण से निपटने में असफल रहे हैं। इन असफलताओं के साथ ही साथ अनेक देशों में आर्थिक असमानता भी बढ़ती जा रही है। वैश्विक आर्थिक वृद्धि का बड़ा हिस्सा और पारिस्थितिकी विध्वंस अब विकासशील देशों में हो रहे हैं और व्यापक तौर से ये वही देश हैं जहां से दुनिया का पर्यावरणीय एवं आर्थिक भविष्य तय होगा। “जहां विश्व बैंक समूह के अलावा अन्य किसी ने अधिक प्रभावशाली भूमिका अदा नहीं की है। विश्व बैंक गर्व से घोषणा करता है, “हमारा सपना गरीबी रहित वाला विश्व है।’’ इसका दावा है कि वे जलवायु परिवर्तन का प्रभाव समाप्त करने हेतु यह विकास में पर्यावरणीय मानकों को प्रोत्साहन एवं पर्यावरणीय उद्देश्यों हेतु वित्तीय संसाधन प्रदान करते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि आर्थिक विकास की चुनौतियों से निपटने में इसके 188 सदस्य देश असफल रहे हैं।

बैंक के आंतरिक अध्ययन उद्घाटित करते हैं कि इस शताब्दी में बैंक द्वारा ऋण देने के निर्णयों में पर्यावरणीय चिंताएं कम ही दिखाई देती हैं। पिछले दशक में अमेरिका एवं अन्य धनी देशों ने वैश्विक तापमान वृद्धि से निपटने हेतु इन संस्थाओं को अरबों डॉलर अतिरिक्त रूप से दिए। परंतु वास्तविकता यह है कि बैंक ने महाकाय ताप विद्युतगृहों एवं तेल विकास हेतु दिए जाने वाले ऋण में वृद्धि कर दी। ग़ौरतलब है कि ये दोनों उद्योग पृथ्वी पर सर्वाधिक ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन करने वाले 50 सबसे बड़े स्रोतों में से एक हैं। सन् 2011 में बैंक के आंतरिक आंकलन से यह बात सामने आई थी कि विश्वबैंक समूह बहुत तेजी से निजी क्षेत्र को ऋण उपलब्ध करवाकर उस विश्व वित्त निगम को विस्तारित कर रहा है, जिसे हाल ही में बैंक के अध्यक्ष ने एक मानक बतलाया था। इसके संदर्भ में यह बात भी उभरी कि ये गरीबी के प्रभावों की पूर्ण अवहेलना कर अक्सर विश्व के सर्वाधिक धनी निगमों एवं बैंकों को जनता के धन से सब्सिडी प्रदान करता है।

इस शताब्दी के प्रारंभ से ही बैंक कई संदिग्ध योजनाओं जैसे नस्लीय तिब्बती इलाकों में चीनियों की पुनर्बसाहट एवं विशाल खनिज एवं तेल परियोजनाओं हेतु मदद करता रहा है। इन परियोजनाओं का विश्व के कुछ निर्धनतम एवं नागरिकता से वंचित तबकों के साथ ही साथ नोबल पुरस्कार से सम्मानित दलाई लामा एवं आर्कबिशप डेसमंड टुटु ने भी विरोध किया है। लेकिन बैंक ने इससे कोई सबक नहीं सीखा और इसकी वैश्विक समीक्षा रिपोर्टें बताती हैं कि वह तो बड़े बांधों एवं खुदाई करने वाली परियोजनाओं को ही लेकर सामने आया और इसके बाद उसने अधिकांश अनुशंसाओं को अपनाने से इंकार कर दिया।अनेक वर्षों तक बैंक ने अमेरिकी वित्त विभाग एवं अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर उदारीकृत व्यापार एवं उन्मुक्त पूंजी प्रवाह वाले एकपक्षीय वैश्वीकरण को प्रोत्साहित करने में मदद की थी। यह सबकुछ इस तरह के अप्रभावशाली व कुछ हद तक विपरीत असर वाले नियमन के माध्यम से हुआ कि ये राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण एवं सामाजिक दुर्व्यवहार को रोकने में निष्फल सिद्ध हुए। इसका एक अन्य प्रलयंकारी प्रभाव विकासशील देशों में भ्रष्टाचार में हुई अनुपातहीन वृद्धि भी है। निर्धनतम देशों से चुकाए गए इस धन को अंतरराष्ट्रीय कर स्वर्गों (टेक्सहेवन) में डाल दिया गया।

कुछ वर्ष पहले अमेरिकी सीनेट की विदेश संबंधी समिति में सुनवाई के दौरान सामने आया था कि बैंक द्वारा दिए गए ऋण में से तकरीबन 30 प्रतिशत या तो ऋण लेने वालों द्वारा भ्रष्ट कर दिया जाता है या बड़े बैंकों, निगमों एवं सूदखोरों के वैश्विक जाल द्वारा हड़प लिया जाता है। इसके बावजूद विश्वबैंक समूह खासकर अंतरराष्ट्रीय वित्त केंद्र आदतन उन कंपनियों की मदद करता है जो के मेन आइलैंड एवं बरमुडा जैसे समुद्रतटीय कर स्वर्गों का प्रयोग करतीं हैं।सन् 2011 में डेनमार्क के दो निगरानी समूहों ने आईएफसी के वित्तीय लेनदेन के परीक्षण में पाया कि वह उन सत्तर खुदाई परियोजनाओं (खनन, तेल, गैस) का वित्तपोषण कर रहा है। उन पचास निवेशों के आंकड़े प्राप्त हुए, जिनमें से अट्ठाइस यानि सत्तावन प्रतिशत कर स्वर्गों का इस्तेमाल करते थे। ये बैंक की उस घोषित नीति के तारतम्य में नहीं है जो कि प्रशासनिक व्यवस्था, पारदर्शिता एवं भ्रष्टाचार से लड़ने पर जोर देती है।

बैंक के पूर्व कर्मचारियों का भी मत है कि संभवतः बैंक स्वयं भ्रष्टाचार विरोधी कार्यक्रम चलाने की इच्छुक नहीं है। यहां कार्यरत अफसरशाही कमोवेश अक्षम होती जा रही है और यह इसके व्यवहार से साफ झलकता भी है, क्योंकि यहां प्रबंधकीय एवं सांस्थानिक जवाबदारियां कमोवेश नदारद हैं। यही वजह है कि बैंक की नीतियों में पर्यावरण, ग़रीबों का संरक्षण और बैंक ऋण की लूट को लेकर कोई पारदर्शिता नहीं है। विशेषज्ञों की राय में इसकी वजह राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और 188 सदस्य देशों के दबाव को न झेल पाने की चुनौती है। तकलीफ़ यह है कि वह दान देने वाले एवं लेने वाले दोनों को एक ही तराजू पर तौलते हैं। वर्षों से नहीं बल्कि दशकों से हो रहे अध्ययनों के हजारों-हजार पृष्ठ बता रहे हैं कि बैंक को अपनी आंतरिक प्रशासन व्यवस्था को बेहतर बनाना चाहिए अन्यथा इसके विध्वंसक परिणाम सामने आएंगे।

वैश्वीकरण के समकालीन आलोचकों का मत है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की मांग है एक न्यायोचित वैश्विक परियोजना को आरंभ करना जिसमें पृथ्वी को ग़रीबों एवं भविष्य की पीढ़ी हेतु संरक्षित रखा जा सके। विश्व बैंक ने अपनी प्राथमिकताओं को ठीक से क्रमबद्ध नहीं किया है। उसने उस पारिस्थितिकीय आधार की अनदेखी की है, जिस पर की संपूर्ण मानवता का भविष्य आधारित है। इसका परिणाम यह हुआ है कि वैश्विक ऋणग्रस्तता तेजी से भविष्य को धुंधला बना रही है।

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