द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात 80,000 नये रसायनों का आविष्कार हुआ है जिनमें से 15,000 का बहुतायत से उपयोग हो रहा है। यह गति बढ़ती ही जा रही है, और प्रति वर्ष 1,500 नये रसायन बाजार में आ जाते हैं। ये रसायन प्रयोग के पश्चात हवा और पानी में मिल जाते हैं और उनके माध्यम से विभिन्न प्राणियों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।स्वस्थ बच्चे का जन्म अनेक बातों पर निर्भर करता है। यदि माता-पिता दोनों स्वस्थ हों पर उनके बीच नजदीकी रक्त सम्बन्ध हो, जैसा कि मुस्लिम समाज में आम है तथा दक्षिण भारत के कतिपय हिन्दू समुदायों में भी देखा जाता है, तो आनुवंशिक कारणों से जन्मजात विकलाँगता की सम्भावना बढ़ जाती है।
इसी प्रकार स्वच्छ पर्यावरण भी स्वस्थ मनुष्य के जन्म के लिए अनिवार्य है। यदि हमारे जंगल, नदियाँ, खेत, झीलें, समुद्र स्वस्थ होंगे तभी स्वस्थ मनुष्य का अस्तित्व बना रहेगा। यदि इनमें प्रदूषण बढ़ेगा, तो उसका प्रभाव मनुष्यों पर भी पड़ेगा तथा सम्भव है कि इससे विकलाँगता भी बढ़े।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात 80,000 नये रसायनों का आविष्कार हुआ है जिनमें से 15,000 का बहुतायत से उपयोग हो रहा है। यह गति बढ़ती ही जा रही है, और प्रति वर्ष 1,500 नये रसायन बाजार में आ जाते हैं। ये रसायन प्रयोग के पश्चात हवा और पानी में मिल जाते हैं और उनके माध्यम से विभिन्न प्राणियों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। कृषि में प्रयुक्त कीटनाशक खाद्य पदार्थों के माध्यम से मनुष्य के शरीर में पहुँच जाते हैं। आजकल गाय, भैंसों का दूध भी प्रदूषण से मुक्त नहीं है।
उपर्युक्त प्रदूषण माता के गर्भ में पल रहे भ्रूण को भी प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त इसका अंश माता के दूध में भी पहुँच जाता है जिसे शिशु पीता है। इसके कारण मानसिक मन्दता, सेरेब्रल पाल्सी तथा अन्य प्रकार की विकलाँगता उत्पन्न होती है।
हर प्राणी के बच्चे अधिक संवेदनशील होते हैं। मानव शिशु भी अति संवेदनशील होता है। वह अपने शरीर के भार के अनुपात में औसत मनुष्य की तुलना में अधिक खाता है, अधिक पीता है तथा सांस लेता है। अपने शरीर के भार की तुलना में वह औसत मनुष्य से दोगुना सांस लेता है तथा सात गुना अधिक पेयपदार्थ जैसे— जल, दूध आदि पीता है।
इस कारण वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूमि प्रदूषण आदि का उन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। यही नहीं शिशु भूमि के अधिक निकट रहता है। उसके समय का बड़ा भाग फर्श, मिट्टी, कालीन आदि पर बीतता है और इस प्रकार वह प्रदूषण से बहुत अधिक प्रभावित होता है।
शिशु की प्रवृत्ति होती है अधिकाधिक चीजों को स्पर्श करना, और वह हर वस्तु को खाद्य-पदार्थ समझकर मुँह में लेने का प्रयास करता है। औसत परिवारों, विशेष रूप से गरीब परिवारों में सफाई के प्रति लोग उतने जागरूक नहीं होते जितना कि उन्हें होना चाहिए। इस कारण प्रदूषण का प्रभाव उन पर बढ़ता जाता है।
दूसरी ओर शिशु में रोग प्रतिरोधक क्षमता वयस्क की अपेक्षा कम होती है। उनके शरीर का ज्यों-ज्यों विकास होता है त्यों-त्यों उनका प्रतिरोधी तन्त्र सशक्त होता जाता है। उनका खान-पान व स्वभाव भी बदलता है। किशोरावस्था तक उसकी संवेदनशीलता सामान्य हो जाती है। यही कारण है कि अनेक बीमारियाँ जो विकलाँगता को जन्म देती हैं वे नवजात शिशुओं व बारह वर्ष तक की आयु के बच्चों को आसानी से अपना शिकार बना लेती हैं।
आज के युग में गर्भवती महिलाएँ हर तरफ प्रदूषण से घिरी हैं। कामगार महिलाएँ औद्योगिक प्रदूषण का भी सामना करती हैं और जब अस्पताल में भर्ती होती हैं तो चिकित्सा के उपरान्त के अवशिष्ट कचरे से भी प्रभावित होती हैं।हालाँकि पर्यावरण के कारण विकलाँगता के अधिकांश मामले शैशवावस्था व बाल्यावस्था में प्रारम्भ होते हैं पर वयस्क भी इससे अछूते नहीं हैं। हालाँकि वयस्कावस्था तक व्यक्ति का स्वभाव, खान-पान स्थिर हो जाता है तथा रोग प्रतिरोधक तन्त्र सशक्त हो जाता है परन्तु जिस गति से पर्यावरण प्रदूषण बढ़ रहा है, वयस्क भी तेजी से इसकी चपेट में आ रहे हैं। पारा, सीसा जैसी भारी धातुएँ तथा अन्य कीटनाशक दवाएँ जिस तेजी से पर्यावरण में फैल रहे हैं उनका सीधा प्रभाव मनुष्य के तन्त्रिका तन्त्र पर पड़ रहा है। इसके कारण बोलने, सीखने, पढ़ने, गणना करने, याद रखने, किसी विषय के बारे में समझ विकसित करने, संगठित करने, सामाजिक व्यवहार करने एवं आम व्यवहार या आदत से जुड़ी सामान्य गतिविधियाँ बाधित होती हैं।
पर्यावरण प्रदूषण प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों ही रूप से विकलाँगता को जन्म दे रहा है। अनेक मामलों में आनुवंशिक विकृतियां होती हैं पर ये इतनी प्रभावी नहीं होती हैं कि विकलाँगता को जन्म दें। किन्तु यदि पर्यावरण प्रदूषण भी प्रभावी हो जाए तो आनुवंशिक विकृतियाँ अन्ततः विकलाँगता को जन्म देती हैं, या उसे बहुत बढ़ा देती हैं और इसका प्रत्यक्ष उदाहरण दमा है। जिसकी उत्पत्ति तो आनुवंशिक कारणों से होती है परन्तु वायु प्रदूषण इसे भड़का देता है और व्यक्ति की स्थिति विकलाँग तुल्य हो जाती है। ज्यों ही व्यक्ति अनुकूल जलवायु में जाता है उसकी स्थिति सामान्य हो जाती है।
आज के युग में गर्भवती महिलाएँ हर तरफ प्रदूषण से घिरी हैं। कामगार महिलाएँ औद्योगिक प्रदूषण का भी सामना करती हैं और जब अस्पताल में भर्ती होती हैं तो चिकित्सा के उपरान्त के अवशिष्ट कचरे से भी प्रभावित होती हैं। घरों में भी आजकल खतरनाक कीटनाशकों का उपयोग मच्छरों, तिलचट्टों को मारने के लिए बहुतायात से होता है। हमारी दीवारों पर होने वाले पेंट में भी अल्प मात्रा में लेड (सीसा) होता है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में बड़े पैमाने पर पारा उपयोग होता है जो उपयोग के पश्चात भूमि व जल में मिल जाता है। घर, स्कूल, अस्पताल, कार्यालय सभी जगहों पर भवन निर्माण सामग्री से लेकर सजावटी सामग्री में प्रदूषणकारी सामग्री का उपयोग होता है जो गर्भवती महिलाओं, उसके गर्भ में पल रहे शिशुओं को प्रभावित करती है और जन्म के पश्चात जब शिशु माता का दूध पीता है तो उसके माध्यम से भी ये पदार्थ अल्प मात्रा में ही सही उनके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
ऑस्ट्रेलिया की ‘एक्सेस इकोनॉमिक्स’ नामक संस्था ने सेरेब्रल पाल्सी रोग से उत्पन्न आर्थिक प्रभावों की गणना की है जिसके अनुसार वर्ष 2007 में सेरेब्रल पाल्सी के कारण वहाँ 147 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त आर्थिक भार पड़ा जो कि ऑस्ट्रेलिया के सकल घरेलू उत्पाद का 0.14 प्रतिशत है।आज पूरे विश्व में वृद्धों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वृद्धावस्था अपने साथ विकलाँगता भी लाती है। पर्यावरण प्रदूषण इस विकलाँगता की स्थिति को और भयानक बना देता है। युवावस्था व प्रौढ़ावस्था में जब व्यक्ति प्रदूषण का सामना करता है तो अपनी उम्र की ऊर्जा शक्ति के कारण उसे अपने ऊपर हावी होने नहीं देता। परन्तु 50 वर्ष की आयु के पश्चात उसका मस्तिष्क एवं तन्त्रिका तन्त्र कमजोर पड़ने लगता है और वह विभिन्न प्रकार की विकलाँगताओं से ग्रसित हो जाता है। इनमें भूलने की समस्या, कम सुनना, अंगों में संवेदनशीलता का अभाव आदि आम हैं।
आज विकास बनाम पर्यावरण सुरक्षा का विषय जोरों पर है। लोग आर्थिक लाभ के कारण चकाचौन्ध की आड़ में छिपे पर्यावरण सम्बन्धी खतरों को अनदेखा कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में चन्द निम्न आँकड़े ही आँख खोलने के लिए पर्याप्त हैं :
1. नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट, अमेरिका के अध्ययन के अनुसार बचपन में होने वाले मस्तिष्क व तन्त्रिका तन्त्र के कैंसर के मामले प्रति वर्ष 1.8 प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं तथा 1973 से 1994 के मध्य इन मामलों में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
2. अमेरिकी मेडिकल एसोसिएशन की पत्रिका के अनुसार, 1980 की तुलना में ऑटिज्म के मामले दस गुना बढ़ चुके हैं।
3. एक अन्य अमेरिकी अध्ययन के अनुसार अमेरिका में जन्म लेने वाले बच्चों में से लगभग 17 प्रतिशत एक या अधिक प्रकार की विकलाँगता जैसे— सीखने सम्बन्धी विकलाँगता, विकास सम्बन्धी विकलाँगता, व्यवहार सम्बन्धी विकलाँगता के शिकार होते हैं।
4. सबसे अधिक गम्भीर बात यह है कि नवजात शिशुओं में मन्दबुद्धि शिशु के मामले दो प्रतिशत तक पहुँच चुके हैं।
लेकिन आर्थिक विकास की धुन में रोज नये-नये रसायन बाजार में उतर रहे हैं और पर्यावरण प्रदूषण के मामलों पर पर्दा डाला जा रहा है।
विकलाँगता मानव जीवन पर अनेक प्रकार के प्रभाव डालती है, जैसे— मनोवैज्ञानिक प्रभाव, आर्थिक प्रभाव, सामाजिक प्रभाव आदि। इनमें से आर्थिक प्रभाव की एक सीमा तक स्पष्ट गणना की जा सकती है और इसके लिए विभिन्न देशों में तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक प्रकार के प्रयास किए गए हैं जिनमें से कुछ के बारे में नीचे बताया जा रहा है :
ऑस्ट्रेलिया की ‘एक्सेस इकोनॉमिक्स’ नामक संस्था ने सेरेब्रल पाल्सी रोग से उत्पन्न आर्थिक प्रभावों की गणना की है जिसके अनुसार वर्ष 2007 में सेरेब्रल पाल्सी के कारण वहाँ 147 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त आर्थिक भार पड़ा जो कि ऑस्ट्रेलिया के सकल घरेलू उत्पाद का 0.14 प्रतिशत है।
इसी प्रकार अमेरिका स्थित सेण्टर फॉर डिजीज कण्ट्रोल एण्ड प्रीवेंशन ने वर्ष 2003 में विभिन्न विकलाँगताओं के कारण देश पर होने वाले आर्थिक प्रभाव की गणना की थी जिसके अनुसार, विभिन्न विकलाँगताओं के कारण आर्थिक भार इस प्रकार है :
श्रवण ह्रास : 4,17,000 डॉलर
दृष्टिबाधिता : 5,66,000 डॉलर
बौद्धिक विकलाँगता : 10,14,000 डॉलर
विभिन्न बीमारियों के कारण जो मृत्यु व विकलाँगता की स्थिति उत्पन्न होती है उसका विश्वव्यापी आकलन किया गया है। इसके अन्तर्गत बीमारियों का आर्थिक भार निकाला जाता है तथा देश की औसत आयु की गणना की जाती है और विभिन्न बीमारियों के कारण जीवन वर्षों में आने वाली कमी भी निकाली जाती है, तथा साथ में विकलाँग जीवन के वर्षों की भी गणना की जाती है।
आज विभिन्न बीमारियों के कारण डिसेबिलिटी एडजस्टेड लाइफ ईयर्स की गणना करके उत्पन्न बोझ निकाला जाता है जिसका सूत्र इस प्रकार है :
डीएएलएलवाई = वाईएलएल + वाईएलडी
यहाँ पर वाईएलएल (ईयर्स ऑफ लाइफ लॉस्ट) अर्थात बीमारी के कारण जीवन वर्षों में कमी है, वाईएलडी (ईयर्स लीव्ड विथ डिसेबिलिटी) अर्थात बीमारी के कारण विकलाँगता की स्थिति में बिताए गए वर्ष हैं।
उपर्युक्त आधार पर बीमारी व बीमारी के कारण उत्पन्न विकलाँगता का आर्थिक भार सरलता से निकाला जा सकता है। इस आधार पर विकास के खोखले दावों की भी पोल खोली जा सकती है। सबसे बड़ी बात यह है कि विकास का बड़ा लाभ ऊँचे तबकों को मिलता है और विकास के कारण उत्पन्न समस्याओं जैसे— प्रदूषण आदि का सर्वाधिक प्रभाव समाज के गरीब तबकों पर पड़ता है।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि गरीब तबका प्रकृति के अधिक निकट रहता है। प्रकृति की समृद्धि व प्रकृति को होने वाले नुकसान का सर्वाधिक प्रभाव उन पर ही पड़ता है। इसके प्रत्यक्ष प्रभाव का हम वर्तमान जलवायु परिवर्तन व उसके कारण उत्पन्न स्थिति के आकलन से अनुभव कर सकते हैं। जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव उन फसलों पर पड़ रहा है जिसका उपयोग गरीब तबका अधिक करता है। इन फसलों का आर्थिक लाभ पहले भी कम था और अब तो बहुत ही कम हो गया है।
एक ओर जहाँ समाधान के तौर पर सबसे सुरक्षित विकल्प के चयन पर बल दिया जाना चाहिए वहीं दूसरी ओर किसी रसायन या अन्य प्रदूषणकारी पदार्थ के निर्माता पर उत्पन्न प्रदूषण का पूरा भार डाला जाना चाहिए। इससे प्रदूषक पदार्थों के विनिर्माण व उपयोग पर पाबन्दी लगेगी।
हम स्वस्थ जीवन बिताएँ तथा हमारी आने वाली सन्तानें भी स्वस्थ रहें, यह हमारा मौलिक अधिकार है। ऐसी किसी भी स्थिति जो विकलाँगता को जन्म देती हैं, से हर सम्भव बचाव अनिवार्य है।
(लेखक पेशे से इंजीनियर हैं तथा प्रौद्योगिकी की सहायता से विकलाँगों का जीवन प्रबन्धन कैसे बेहतर हो, इस विषय पर पीएचडी कर रहे हैं)
ई-मेल : vinodmishra_60@yahoo.co.in
इसी प्रकार स्वच्छ पर्यावरण भी स्वस्थ मनुष्य के जन्म के लिए अनिवार्य है। यदि हमारे जंगल, नदियाँ, खेत, झीलें, समुद्र स्वस्थ होंगे तभी स्वस्थ मनुष्य का अस्तित्व बना रहेगा। यदि इनमें प्रदूषण बढ़ेगा, तो उसका प्रभाव मनुष्यों पर भी पड़ेगा तथा सम्भव है कि इससे विकलाँगता भी बढ़े।
बढ़ता प्रदूषण
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात 80,000 नये रसायनों का आविष्कार हुआ है जिनमें से 15,000 का बहुतायत से उपयोग हो रहा है। यह गति बढ़ती ही जा रही है, और प्रति वर्ष 1,500 नये रसायन बाजार में आ जाते हैं। ये रसायन प्रयोग के पश्चात हवा और पानी में मिल जाते हैं और उनके माध्यम से विभिन्न प्राणियों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। कृषि में प्रयुक्त कीटनाशक खाद्य पदार्थों के माध्यम से मनुष्य के शरीर में पहुँच जाते हैं। आजकल गाय, भैंसों का दूध भी प्रदूषण से मुक्त नहीं है।
उपर्युक्त प्रदूषण माता के गर्भ में पल रहे भ्रूण को भी प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त इसका अंश माता के दूध में भी पहुँच जाता है जिसे शिशु पीता है। इसके कारण मानसिक मन्दता, सेरेब्रल पाल्सी तथा अन्य प्रकार की विकलाँगता उत्पन्न होती है।
हर प्राणी के बच्चे अधिक संवेदनशील होते हैं। मानव शिशु भी अति संवेदनशील होता है। वह अपने शरीर के भार के अनुपात में औसत मनुष्य की तुलना में अधिक खाता है, अधिक पीता है तथा सांस लेता है। अपने शरीर के भार की तुलना में वह औसत मनुष्य से दोगुना सांस लेता है तथा सात गुना अधिक पेयपदार्थ जैसे— जल, दूध आदि पीता है।
इस कारण वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूमि प्रदूषण आदि का उन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। यही नहीं शिशु भूमि के अधिक निकट रहता है। उसके समय का बड़ा भाग फर्श, मिट्टी, कालीन आदि पर बीतता है और इस प्रकार वह प्रदूषण से बहुत अधिक प्रभावित होता है।
शिशु की प्रवृत्ति होती है अधिकाधिक चीजों को स्पर्श करना, और वह हर वस्तु को खाद्य-पदार्थ समझकर मुँह में लेने का प्रयास करता है। औसत परिवारों, विशेष रूप से गरीब परिवारों में सफाई के प्रति लोग उतने जागरूक नहीं होते जितना कि उन्हें होना चाहिए। इस कारण प्रदूषण का प्रभाव उन पर बढ़ता जाता है।
दूसरी ओर शिशु में रोग प्रतिरोधक क्षमता वयस्क की अपेक्षा कम होती है। उनके शरीर का ज्यों-ज्यों विकास होता है त्यों-त्यों उनका प्रतिरोधी तन्त्र सशक्त होता जाता है। उनका खान-पान व स्वभाव भी बदलता है। किशोरावस्था तक उसकी संवेदनशीलता सामान्य हो जाती है। यही कारण है कि अनेक बीमारियाँ जो विकलाँगता को जन्म देती हैं वे नवजात शिशुओं व बारह वर्ष तक की आयु के बच्चों को आसानी से अपना शिकार बना लेती हैं।
आज के युग में गर्भवती महिलाएँ हर तरफ प्रदूषण से घिरी हैं। कामगार महिलाएँ औद्योगिक प्रदूषण का भी सामना करती हैं और जब अस्पताल में भर्ती होती हैं तो चिकित्सा के उपरान्त के अवशिष्ट कचरे से भी प्रभावित होती हैं।हालाँकि पर्यावरण के कारण विकलाँगता के अधिकांश मामले शैशवावस्था व बाल्यावस्था में प्रारम्भ होते हैं पर वयस्क भी इससे अछूते नहीं हैं। हालाँकि वयस्कावस्था तक व्यक्ति का स्वभाव, खान-पान स्थिर हो जाता है तथा रोग प्रतिरोधक तन्त्र सशक्त हो जाता है परन्तु जिस गति से पर्यावरण प्रदूषण बढ़ रहा है, वयस्क भी तेजी से इसकी चपेट में आ रहे हैं। पारा, सीसा जैसी भारी धातुएँ तथा अन्य कीटनाशक दवाएँ जिस तेजी से पर्यावरण में फैल रहे हैं उनका सीधा प्रभाव मनुष्य के तन्त्रिका तन्त्र पर पड़ रहा है। इसके कारण बोलने, सीखने, पढ़ने, गणना करने, याद रखने, किसी विषय के बारे में समझ विकसित करने, संगठित करने, सामाजिक व्यवहार करने एवं आम व्यवहार या आदत से जुड़ी सामान्य गतिविधियाँ बाधित होती हैं।
अप्रत्यक्ष प्रभाव
पर्यावरण प्रदूषण प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों ही रूप से विकलाँगता को जन्म दे रहा है। अनेक मामलों में आनुवंशिक विकृतियां होती हैं पर ये इतनी प्रभावी नहीं होती हैं कि विकलाँगता को जन्म दें। किन्तु यदि पर्यावरण प्रदूषण भी प्रभावी हो जाए तो आनुवंशिक विकृतियाँ अन्ततः विकलाँगता को जन्म देती हैं, या उसे बहुत बढ़ा देती हैं और इसका प्रत्यक्ष उदाहरण दमा है। जिसकी उत्पत्ति तो आनुवंशिक कारणों से होती है परन्तु वायु प्रदूषण इसे भड़का देता है और व्यक्ति की स्थिति विकलाँग तुल्य हो जाती है। ज्यों ही व्यक्ति अनुकूल जलवायु में जाता है उसकी स्थिति सामान्य हो जाती है।
आज के युग में गर्भवती महिलाएँ हर तरफ प्रदूषण से घिरी हैं। कामगार महिलाएँ औद्योगिक प्रदूषण का भी सामना करती हैं और जब अस्पताल में भर्ती होती हैं तो चिकित्सा के उपरान्त के अवशिष्ट कचरे से भी प्रभावित होती हैं। घरों में भी आजकल खतरनाक कीटनाशकों का उपयोग मच्छरों, तिलचट्टों को मारने के लिए बहुतायात से होता है। हमारी दीवारों पर होने वाले पेंट में भी अल्प मात्रा में लेड (सीसा) होता है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में बड़े पैमाने पर पारा उपयोग होता है जो उपयोग के पश्चात भूमि व जल में मिल जाता है। घर, स्कूल, अस्पताल, कार्यालय सभी जगहों पर भवन निर्माण सामग्री से लेकर सजावटी सामग्री में प्रदूषणकारी सामग्री का उपयोग होता है जो गर्भवती महिलाओं, उसके गर्भ में पल रहे शिशुओं को प्रभावित करती है और जन्म के पश्चात जब शिशु माता का दूध पीता है तो उसके माध्यम से भी ये पदार्थ अल्प मात्रा में ही सही उनके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
ऑस्ट्रेलिया की ‘एक्सेस इकोनॉमिक्स’ नामक संस्था ने सेरेब्रल पाल्सी रोग से उत्पन्न आर्थिक प्रभावों की गणना की है जिसके अनुसार वर्ष 2007 में सेरेब्रल पाल्सी के कारण वहाँ 147 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त आर्थिक भार पड़ा जो कि ऑस्ट्रेलिया के सकल घरेलू उत्पाद का 0.14 प्रतिशत है।आज पूरे विश्व में वृद्धों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वृद्धावस्था अपने साथ विकलाँगता भी लाती है। पर्यावरण प्रदूषण इस विकलाँगता की स्थिति को और भयानक बना देता है। युवावस्था व प्रौढ़ावस्था में जब व्यक्ति प्रदूषण का सामना करता है तो अपनी उम्र की ऊर्जा शक्ति के कारण उसे अपने ऊपर हावी होने नहीं देता। परन्तु 50 वर्ष की आयु के पश्चात उसका मस्तिष्क एवं तन्त्रिका तन्त्र कमजोर पड़ने लगता है और वह विभिन्न प्रकार की विकलाँगताओं से ग्रसित हो जाता है। इनमें भूलने की समस्या, कम सुनना, अंगों में संवेदनशीलता का अभाव आदि आम हैं।
आज विकास बनाम पर्यावरण सुरक्षा का विषय जोरों पर है। लोग आर्थिक लाभ के कारण चकाचौन्ध की आड़ में छिपे पर्यावरण सम्बन्धी खतरों को अनदेखा कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में चन्द निम्न आँकड़े ही आँख खोलने के लिए पर्याप्त हैं :
1. नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट, अमेरिका के अध्ययन के अनुसार बचपन में होने वाले मस्तिष्क व तन्त्रिका तन्त्र के कैंसर के मामले प्रति वर्ष 1.8 प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं तथा 1973 से 1994 के मध्य इन मामलों में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
2. अमेरिकी मेडिकल एसोसिएशन की पत्रिका के अनुसार, 1980 की तुलना में ऑटिज्म के मामले दस गुना बढ़ चुके हैं।
3. एक अन्य अमेरिकी अध्ययन के अनुसार अमेरिका में जन्म लेने वाले बच्चों में से लगभग 17 प्रतिशत एक या अधिक प्रकार की विकलाँगता जैसे— सीखने सम्बन्धी विकलाँगता, विकास सम्बन्धी विकलाँगता, व्यवहार सम्बन्धी विकलाँगता के शिकार होते हैं।
4. सबसे अधिक गम्भीर बात यह है कि नवजात शिशुओं में मन्दबुद्धि शिशु के मामले दो प्रतिशत तक पहुँच चुके हैं।
लेकिन आर्थिक विकास की धुन में रोज नये-नये रसायन बाजार में उतर रहे हैं और पर्यावरण प्रदूषण के मामलों पर पर्दा डाला जा रहा है।
विकलाँगता का आर्थिक प्रभाव
विकलाँगता मानव जीवन पर अनेक प्रकार के प्रभाव डालती है, जैसे— मनोवैज्ञानिक प्रभाव, आर्थिक प्रभाव, सामाजिक प्रभाव आदि। इनमें से आर्थिक प्रभाव की एक सीमा तक स्पष्ट गणना की जा सकती है और इसके लिए विभिन्न देशों में तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक प्रकार के प्रयास किए गए हैं जिनमें से कुछ के बारे में नीचे बताया जा रहा है :
ऑस्ट्रेलिया की ‘एक्सेस इकोनॉमिक्स’ नामक संस्था ने सेरेब्रल पाल्सी रोग से उत्पन्न आर्थिक प्रभावों की गणना की है जिसके अनुसार वर्ष 2007 में सेरेब्रल पाल्सी के कारण वहाँ 147 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त आर्थिक भार पड़ा जो कि ऑस्ट्रेलिया के सकल घरेलू उत्पाद का 0.14 प्रतिशत है।
इसी प्रकार अमेरिका स्थित सेण्टर फॉर डिजीज कण्ट्रोल एण्ड प्रीवेंशन ने वर्ष 2003 में विभिन्न विकलाँगताओं के कारण देश पर होने वाले आर्थिक प्रभाव की गणना की थी जिसके अनुसार, विभिन्न विकलाँगताओं के कारण आर्थिक भार इस प्रकार है :
श्रवण ह्रास : 4,17,000 डॉलर
दृष्टिबाधिता : 5,66,000 डॉलर
बौद्धिक विकलाँगता : 10,14,000 डॉलर
विभिन्न बीमारियों के कारण जो मृत्यु व विकलाँगता की स्थिति उत्पन्न होती है उसका विश्वव्यापी आकलन किया गया है। इसके अन्तर्गत बीमारियों का आर्थिक भार निकाला जाता है तथा देश की औसत आयु की गणना की जाती है और विभिन्न बीमारियों के कारण जीवन वर्षों में आने वाली कमी भी निकाली जाती है, तथा साथ में विकलाँग जीवन के वर्षों की भी गणना की जाती है।
आज विभिन्न बीमारियों के कारण डिसेबिलिटी एडजस्टेड लाइफ ईयर्स की गणना करके उत्पन्न बोझ निकाला जाता है जिसका सूत्र इस प्रकार है :
डीएएलएलवाई = वाईएलएल + वाईएलडी
यहाँ पर वाईएलएल (ईयर्स ऑफ लाइफ लॉस्ट) अर्थात बीमारी के कारण जीवन वर्षों में कमी है, वाईएलडी (ईयर्स लीव्ड विथ डिसेबिलिटी) अर्थात बीमारी के कारण विकलाँगता की स्थिति में बिताए गए वर्ष हैं।
उपर्युक्त आधार पर बीमारी व बीमारी के कारण उत्पन्न विकलाँगता का आर्थिक भार सरलता से निकाला जा सकता है। इस आधार पर विकास के खोखले दावों की भी पोल खोली जा सकती है। सबसे बड़ी बात यह है कि विकास का बड़ा लाभ ऊँचे तबकों को मिलता है और विकास के कारण उत्पन्न समस्याओं जैसे— प्रदूषण आदि का सर्वाधिक प्रभाव समाज के गरीब तबकों पर पड़ता है।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि गरीब तबका प्रकृति के अधिक निकट रहता है। प्रकृति की समृद्धि व प्रकृति को होने वाले नुकसान का सर्वाधिक प्रभाव उन पर ही पड़ता है। इसके प्रत्यक्ष प्रभाव का हम वर्तमान जलवायु परिवर्तन व उसके कारण उत्पन्न स्थिति के आकलन से अनुभव कर सकते हैं। जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव उन फसलों पर पड़ रहा है जिसका उपयोग गरीब तबका अधिक करता है। इन फसलों का आर्थिक लाभ पहले भी कम था और अब तो बहुत ही कम हो गया है।
एक ओर जहाँ समाधान के तौर पर सबसे सुरक्षित विकल्प के चयन पर बल दिया जाना चाहिए वहीं दूसरी ओर किसी रसायन या अन्य प्रदूषणकारी पदार्थ के निर्माता पर उत्पन्न प्रदूषण का पूरा भार डाला जाना चाहिए। इससे प्रदूषक पदार्थों के विनिर्माण व उपयोग पर पाबन्दी लगेगी।
हम स्वस्थ जीवन बिताएँ तथा हमारी आने वाली सन्तानें भी स्वस्थ रहें, यह हमारा मौलिक अधिकार है। ऐसी किसी भी स्थिति जो विकलाँगता को जन्म देती हैं, से हर सम्भव बचाव अनिवार्य है।
(लेखक पेशे से इंजीनियर हैं तथा प्रौद्योगिकी की सहायता से विकलाँगों का जीवन प्रबन्धन कैसे बेहतर हो, इस विषय पर पीएचडी कर रहे हैं)
ई-मेल : vinodmishra_60@yahoo.co.in
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