पर्यावरण प्रदूषण : प्रकार, नियंत्रण एवं उपाय

जैसे-जैसे विकास की रफ्तार बढ़ रही है, जीवनयापन भी कठिन होता जा रहा है, लेकिन फिर भी शरीर से नित नयी व्याधियां जन्म ले रही हैं। आश्चर्य तो यह है कि पुराने समय में जब सुबह से शाम तक लोग प्रत्येक काम अपने हाथों से करते थे, तब वातावरण कुछ और था, पर्यावरण संरक्षित था। इसी को हमें ध्यान में रखना होगा। प्रदूषण की मात्रा इतनी अधिक बढ़ती जा रही है कि इंसान चंद सांसें भी सुकून से लेने को तरसने लगा है। प्रकृति और मनुष्य का संबंध पुराना है। पर्यावरण और जीवन की अभिन्नता से सभी परिचित हैं। पर्यावरण की स्वच्छता, निर्मलता और संतुलन से ही संसार को बचाया जा सकता है। कोई भी कविता प्रकृति के बिना संभव नहीं है। प्राचीन साहित्य में कवियों की कविताओं में प्रकृति भरी पड़ी है। तुलसीदासजी की यह पंक्ति निरक्षरों तक को याद है-

बूंद अघात सहहिं गिरि कैसे
खल के बचन संत सहे जैसे।


प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों की जीवन में क्या उपयोगिता है? इसका ज्ञान वैदिककाल में ही हो गया था। उपनिषदों की एक कथा के अनुसार, ज्ञान-विज्ञान एवं विकसित संसाधनों के होने पर भी मनुष्य का चिंतित और दुखी रहना तथा ज्ञान विज्ञान संसाधनों के नितांत अभाव में मनुष्येतर जीवों का निश्चिंत एवं मस्त रहना एक ऐसा तथ्य था, जिसकी ओर ऋषियों का ध्यान आकृष्ट हुआ और उन्होंने इस पर गंभीरतापूर्वक चिंतन कर जो निष्कर्ष निकाले, उनका सार इस प्रकार है-

“धरती हमें मां के समान सुविधा एवं सुरक्षा देती है। अतः धरती मेरी मां है और मैं उसका पुत्र हूं।”
अथर्ववेद

“अग्नि, वायु, जल, आकाश, पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, औषधि एवं वनस्पति आदि सब देवता हैं। जो प्रत्युपकार की इच्छा के बिना सदा हमारी सहायता कर रहे हैं, वह देवता होता है। इन सभी देवताओं के साथ हमें भावनात्मक संबंध रखना चाहिए।”
यजुर्वेद

“इस ब्रह्मांड में प्रकृति सबसे शक्तिशाली है, क्योंकि यही सृजन एवं विकास और यही ह्रास तथा नाश करती है। अतः प्रकृति के विरुद्ध आचरण नहीं करना चाहिए।”
ऋग्वेद


प्राचीनकाल से हम यह चिंतन के अनुसार सुनते आए हैं कि जीव पंचभूतों (जल, पृथ्वी, वायु, आकाश, अग्नि) का सम्मिश्रण है। इस एक में से किसी की भी सत्ता डगमगा गई तो इसका हश्र क्या होगा, यह सभी जानते हैं। फिर यह अज्ञानता क्यों? पढ़-लिखकर भी मनुष्य अज्ञानी बनकर स्वार्थ तक सिमट गया है। वह इन तत्वों के प्रति छेड़छाड़ को गंभीरता से क्यों नहीं ले रहा है। जहां हम कहते जा रहे हैं कि हम भौतिक सुख-संपदा में आगे बढ़ रहे हैं, वहां उसके कुत्सित परिणाम का दमन क्यों भूल रहे हैं। जब तक किसी भी वस्तु, आविष्कार, खोज के गुण-दोष को नहीं टटोलेंगे, तब तक आगे बढ़ना हमारे लिए पीछे हटने के बराबर है। पर्यावरण का ध्यान रखते हुए हम आगे बढ़े, तभी वह हमारे लिए सही अर्थों में आगे बढ़ना है।

वैदिक ज्योतिश के प्रवर्तक महर्षि पाराशर के अनुसार, “मनुष्य और उसके जीवन में स्वार्थ की भूमिका होती है, किंतु व्यक्ति का स्वार्थ तभी कल्याणकारी होता है, जब वह सर्वार्थ का साधन बनकर उसमें विलीन हो जाए। स्वार्थ का सर्वार्थ में विलय होते ही रामराज्य का सपना साकार हो जाता है। इस भू-मंडल और मानव जाति को प्रदूषण से बचाने के लिए हमें अपने क्षुद्र स्वार्थ को छोड़कर सर्वार्थ की बांह थामनी होगी।

वैदिक चिंतनधारा के अनुसार भी हम पर्यावरण संरक्षण भौतिक या अजैविक एवं जैविक सीख पाते हैं। पर्यावरण के प्रकार को हम इस तरह अलग कर पाते हैं।

1. भौतिक या अजैविक- इसके अंतर्गत भौतिक शक्तियां आती हैं। जैसे-मिट्टी, पानी, रोशनी, तापक्रम, वायु, आर्द्रता, वर्षा आदि। भौतिक पर्यावरण की शक्तियां जीवों में बाह्य परिवर्तन करती हैं। मिट्टी, पानी, वायु अजैविक माध्यम के घटक हैं, जिनमें जीवन रहते हैं। वायु, तापमान, रोशनी की अवधि, आर्द्रता, वर्षा, बर्फ आदि किसी भी स्थान की जलवायु, उसकी भौगोलिक स्थिति प्रत्यक्ष उदाहरण है। यही भौतिक पर्यावरण है। सोचने का विषय है कि इन सब में किसी भी प्रकार का प्रदूषण पर्यावरण को प्रदूषित कर देता है, जो संपूर्ण प्राणी जगत् यहां तक कि वनस्पतियों के लिए भी हानिकारक सिद्ध होता है।

2. जैविक पर्यावरण- जैविक पर्यावरण के अंतर्गत अनेक जीव आते हैं। जो भौतिक पर्यावरण में रहते हैं। जीवों का आंतरिक वातावरण भी इसके अंतर्गत आता है। जैविक पर्यावरण का प्रारंभ प्रत्येक कोशिका की रासायनिक व आनुवांशिक संरचना से होता है। वृद्धि, विकास, प्रजनन आदि क्रियाएं जीव द्वारा नियंत्रित रहती हैं। इस आंतरिक वातावरण में कोई भी रूपांतरण अंतिम रूप से जीव की क्रियाओं को परिवर्तित करता है। सभी जीव तथा उनकी अंतरसंबंधी क्रियाएं एवं प्रतिक्रियाएं, जो प्रत्येक जीव एक –दूसरे पर अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त करते हैं, जैविक पर्यावरण के अंतर्गत आते हैं।“पृथ्वी का अस्तित्व बचाने के लिए जल तथा पर्यावरण प्रदूषण को हर तरह से रोकना होगा, नहीं तो लोगों के सामने इसका भयावह परिणाम आ सकता है। यह निष्कर्ष सिहावा भवन में हुई स्वयंसेवी संस्थाओं की विचार संगोष्ठी में निकला जो सन् 2007 में आयोजित की गई थी।”

भारतवर्ष में कभी गाय के दूध की नदियां बहा करती थीं या ‘गंगा तेरा पानी अमृत’ ये पौराणिक आख्यान दशकों से मुंबइया फिल्मों का स्थायी भाव बने हुए हैं, जबकि गत 25 वर्षों में हरिद्वार पहुंचते ही गंगा का जल जहरीले रसायन में बदल चुका है तो कानपुर तक आते-आते गंगा किसी भी शहर के गंदे नाले का रूप धारण कर चुकी है और गऊ माता कूड़े के ढेर में मुंह मार रही है। कभी जहां उसे खाने को प्रकृति की देन यानी दोने-पत्तल या फल सब्जियों के छिलके मिल जाया करते थे, उन ढेरों से अब उसे पॉलीथिन में भरा सामान खाने को मिल रहा है, जो अंतड़ियों में फंसकर उसे तड़प-तड़पकर मरने को मजबूर कर रहा है।

पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. अविनाश वोरा के मुताबिक, “जापान में हिरोशिमा और नागासाकी परमाणु दुर्घटना के बाद वहां के पर्यावरण से न केवल कीटों की, बल्कि पेड़-पौधों की सैकड़ों प्रजातियां लुप्त हो गई। परमाणु बम परीक्षण या विस्फोट से पृथ्वी के तापमान मे हजारों डिग्री तापमान का अंतर आ जाता है। जिस तरह इतने तापमान में मनुष्य और पशु-पक्षी अपना अस्तित्व नहीं बचा सकते, उसी तरह पेड़-पौधों पर भी इसका बहुत बुरा असर पड़ता है। उन्होंने बताया कि पेड़-पौधों पर भी इसका बुरा असर पड़ता है। हालांकि इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं जाता, लेकिन यह सच है कि जापान की त्रासदी के बाद वहां पेड़-पौधों की हजारों प्रजातियां लुप्त हो गई हैं।”

5 नवंबर, 2001 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हर साल 6 नवंबर को ‘इंटरनेशनल डे फॉर प्रिवेंटिंग द एक्सप्लॉयटेशन ऑफ द एनवायरमेंट इन वार एंड आर्म्ड कंफ्लिक्ट’ के रूप में मनाने की घोषणा की थी। इसका उद्देश्य युद्ध और सशस्त्र संघर्ष के दौरान पर्यावरण को होने वाले नुकसान को रोकना था।

विकास के पथ पर मानव जैसे-जैसे आगे बढ़ा है, सीख की बहुत-सी बातों को पीछे छोड़ता गया है। पर्यावरण के जितने भी प्रकार हैं, उनको कैसे बचाया जाए, यह समस्या आज ज्वलंत है। पृथ्वी का अस्तित्व बचाने के लिए जल-प्रदूषण को हर तरह से रोकना होगा। नहीं तो लोगों के सामने इसका भयावह परिणाम आ सकता है। पर्यावरण के लाभ और उसके महत्व को ध्यान में रखकर वनों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया है। यह राष्ट्रीय संपदा का मूल स्रोत है। साथ ही देश की अर्थव्यवस्था वनों से प्राप्त कच्चे माल पर निर्भर होती है। उनसे इमारती लकड़ी, आयुर्वेदिक औषधियां, पशुओं के लिए चारा, भूमि के कटाव पर रोक, शुद्ध व ताजी हवा, प्राकृतिक सुंदरता, वर्षा में सहायक एवं अतिवृष्टि के कारण नदियों में आई भयानक बाढ़ वनाच्छादित क्षेत्रों से होकर गुजरती है, उनका प्रलय वेग कम हो जाता है। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हम एकजुट होकर पर्यावरण का संरक्षण करें। पर्यावरण की समृद्धि में वृहद वृक्षारोपण करना होगा। इसके लिए नागरिकों को आर्थिक व तकनीकी सहायता दी जानी चाहिए।

आचार्य रजनीश ने कहा था, “मानव जीवन प्रकृति पर आश्रित है। प्रकृति के साथ दुश्मन की तरह नहीं, वरन् दोस्त की तरह काम करना शुरू करो और पर्यावरण फिर से सावयव एकता की भांति काम करने लगेगा।” हम दिनोंदिन पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप भविष्य में घातक परिणाम हो सकते हैं। पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होकर अगर ध्यान न दें तो जन-जीवन के लिए परिणाम घातक हो सकते हैं। इसके लिए निम्न कार्य किए जाने आवश्यक हैं।

1. वृक्षारोपण कार्यक्रम- वृक्षारोपण कार्यक्रम युद्धस्तर पर चलाना चाहिए। परती भूमि, पहाड़ी क्षेत्र, ढलान क्षेत्र सभी जगह पौधा रोपण जरूरी करना है। तभी लगातार जंगल कट रहे हैं, जिससे पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है, वह संतुलन बनेगा। तभी वनस्पति सुरक्षित रह सकती है। वन संपदा पर्यावरण के लिए आवश्यक है-

बूढ़े वृक्ष कट रहे हैं,
हमें काटो या छांटों,
लेकिन समूल नष्ट मत करो,
यूं बिखर जाएगी सृष्टि तुम्हारी
हमसे ही है जीवन तुम्हारा,
क्षणिक इस पर विचार करो।


2. प्रयोग की वस्तु दोबारा इस्तेमाल करें- डिस्पोजल, ग्लास, नैपकिन, रेजर आदि का उपयोग दुबारा किया जाना चाहिए, क्योंकि इसका दुष्परिणाम पर्यावरण पर पड़ता है। जहां तक संभव हो हम ऐसी वस्तु का प्रयोग न करें, जिसका बुरा प्रभाव जैविक हो। जिसके परिणामस्वरूप अनेक जीव-जंतु नष्ट हो जाएं एवं अनेक रोगाणु पनप जाएं।

3. भूजल संबंधी उपयोगिता का मापदंड- नगर विकास औद्योगिक शहरी विकास के चलते पिछले कुछ समय से नगर में भूजल स्रोतों का तेजी से दोहन हुआ। एक ओर जहां उपलब्ध भूजल स्तर में गिरावट आई है, वहीं उसमें गुणवत्ता की दृष्टि से भी अनेक हानिकारक अवयवों की मात्रा बढ़ी है।

पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि सिसक रहे हैं सभी
चहुं ओर प्रदूषण है, दैत्याकार पर्यावरण अभी।


शहर के अधिकतर क्षेत्रों के भूजल में विभिन्न अवयवों की मात्रा, मानक मात्रा से अधिक देखी गई है। 35.5 प्रतिशत नमूनों में कुल घुलनशील पदार्थों की मात्रा से अधिक देखी गई, इसकी मात्रा 900 मि.ग्रा. प्रतिलीटर अधिक देखी गई। इसमें 23.5 प्रतिशत क्लोराइड की मात्रा 250 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक थी। 50 प्रतिशत नमूनों में नाइट्रेट, 96.6 प्रतिशत नमूनों में अत्यधिक कठोरता विद्यमान थी।

4. पॉलीथिन का बहिष्कार करें- पर्यावरण संरक्षण के लिए पॉलीथिन का बहिष्कार आवश्यक है। दुकानदारों से पॉलीथिन पैकिंग मे सामान न लें। आस-पास के लोगों को पॉलीथिन से उत्पन्न खतरों से अवगत कराएं।

5. कूड़ा-कचरा जलाएं- कूड़ा कचरा एक जगह पर फेंके। ग्रामीण-जन के समान सब्जी, छिलके, अवशेष, सड़-गली चीजों को एक जगह एकत्र करके वानस्पतिक खाद तैयार करते थे। उसी तरह पेड़ की पत्तियों को जलाकर उर्वरक तैयार किया जा सकता है।

6. गंदगी न फैलाएं- रास्ते में कूड़ा-कचरा न फैलाएं। घर की स्वच्छता की तरह बाहर रास्ते की सफाई को भी अभिन्न अंग मानते हुए सफाई करें। प्रति सप्ताह सफाई अभियान को ध्यान में रखते हुए माहौल को साफ रखें।

7. कागज की कम खपत- रद्दी कागज को रफ कार्य करने, लिफाफे बनाने, पुनः कागज तैयार करने के काम में प्रयोग करें। अखबारों को रंगकर गिफ्ट पैक बना लें।

‘जैसे-जैसे विकास की रफ्तार बढ़ रही है, जीवनयापन भी कठिन होता जा रहा है, लेकिन फिर भी शरीर से नित नयी व्याधियां जन्म ले रही हैं। आश्चर्य तो यह है कि पुराने समय में जब सुबह से शाम तक लोग प्रत्येक काम अपने हाथों से करते थे, तब वातावरण कुछ और था, पर्यावरण संरक्षित था। इसी को हमें ध्यान में रखना होगा।’

प्रदूषण की मात्रा इतनी अधिक बढ़ती जा रही है कि इंसान चंद सांसें भी सुकून से लेने को तरसने लगा है।

संदर्भ


1. दैनिक भास्कर, 22 अप्रैल, 2007
2. हरिभूमि, 8 नवंबर, 2010
3. नवभारत, 20 अक्टूबर, 1992
4. पर्यावरण ऊर्जा टाइम्स, सितंबर, 2000, पृ. 431
5. पर्यावरण ऊर्जा टाइम्स, मार्च, 1999, पृ. 37

प्राध्यापक (हिंदी)
शा.दू.ब. महिला महाविद्यालय, रायपुर, (छ.ग.)

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