पर्यावरण पर तेजाबी वर्षा के खतरे


लेखक का कहना है कि तेजाबी वर्षा प्राकृतिक पर्यावरण को नष्ट करने में प्रमुख भूमिका निभा रही है और इसका प्रभाव एक स्थान विशेष पर नहीं होता बल्कि पड़ोसी देशों का वायुमण्डल भी इससे प्रदूषित होता है। लेखक के अनुसार वातावरण में बढ़ती सल्फर डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड गैसों की सान्द्रता से उत्पन्न तेजाबी वर्षा की रोकथाम बेहद जरूरी हैं यदि शीघ्र इस दिशा में प्रयास नहीं किये गए तो वह दिन दूर नहीं जब तेजाबी वर्षा के प्रभाव से यह ग्रह झुलस चुका होगा। लेखक ने प्रस्तुत लेख में तेजाबी वर्षा के कारणों सहित इसकी रोकथाम के कुछ उपाय बताए हैं।

वर्षा जल संरक्षण विज्ञान और तकनीक के इस युग में जिस तेजी से मानव अपने सुख-सुविधा के नए-नए संसाधनों की खोज करता जा रहा है तथा विकास के नए रास्ते ढूँढता जा रहा है उसी तेजी से इसका प्राकृतिक परिवेश भी प्रदूषित हो चुका है। प्रदूषण चाहे हवा में हो या पानी का हो, विषैले रासायनिक अपशिष्ट हों, रेडियोधर्मी विकिरण हो या फिर अम्ल-वर्षा (तेजाबी वर्षा) के रूप में हो, इन सबका प्रतिकूल प्रभाव हमारी प्रकृति और पर्यावरण पर पड़ता है जिससे हम सभी का जन-जीवन प्रभावित होता है।

तेजाबी-वर्षा क्या है?


कल-कारखानों से निकली विषाक्त सल्फर डाइआॅक्साइड तथा नाइट्रोजन-आॅक्साइड गैसें वायुमण्डल में मिलकर वहाँ विद्यमान वाष्प के साथ क्रिया करके क्रमशः सल्फ्यूरिक अम्ल तथा नाइट्रिक अम्ल बनाती हैं। ये अम्ल जब वर्षा के पानी के साथ पृथ्वी पर गिरते हैं तो इसे तेजाबी-वर्षा, अम्ल वर्षा या एसिड-रेन कहते हैं। इन शब्दों का प्रयोग 1873 में सर्वप्रथम एक ब्रिटिश वैज्ञानिक ने किया था।

वातावरणीय प्रदूषण के विभिन्न कारकों में से अम्ल-वर्षा भी एक खतरनाक कारक है जिससे प्रदूषण उत्पन्न होता है। प्राकृतिक पर्यावरण को नष्ट करने में इसकी प्रमुख भूमिका है। यह स्वीडन, कनाडा, इटली, ब्रिटेन, ग्रीस, फ्रांस, जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, अमरीका तथा स्केंडीनेविया जैसे विकसित देशों की एक गम्भीर पर्यावरणीय समस्या बन गई है, जहाँ के लोग विगत 40 वर्षों से इसके खतरे झेल रहे हैं। इन देशों में प्रतिवर्ष एक वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में लगभग एक सौ टन तेजाबी-वर्षा रिकार्ड की जाती है। इसका प्रभाव एक स्थान विशेष पर ही नहीं होता बल्कि पड़ोसी देशों का वायुमण्डल भी इससे प्रदूषित होता है। हवा के माध्यम से अम्ल-वर्षा उत्पन्न करने वाली गैसें एक देश से दूसरे देश में पहुँचकर वहाँ भी अम्ल वर्षा करती हैं। उदाहरण के लिये ब्रिटेन में हुई तेजाबी वर्षा का प्रभाव स्वीडन में देखने को मिला है।

अब यह विकसित देशों की ही समस्या नहीं रही अपितु विकासशील देश भी इससे प्रभावित हैं। भारत में आगरा, दिल्ली, बम्बई शहरों के वायुमण्डल में तेजाबी-वर्षा उत्पन्न करने वाली विषाक्त सल्फर-डाइआॅक्साइड तथा नाइट्रोजन-आॅक्साइड गैसों की सान्द्रता काफी बढ़ गई है। मजे की बात है कि जुलाई 1982 में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में स्टाॅकहोम में ‘तेजाबी-वर्षा’ विषय पर आयोजित 33 राष्ट्रों के एक सम्मेलन के दौरान सम्मेलन स्थल में ही पूरे एक सप्ताह तक तेजाबी-वर्षा होती रही और वैज्ञानिक तेजाबी-वर्षा पर विचार-विमर्श करते रहे। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य स्केंडीनेविया तथा कनाडा में बढ़ते तेजाबी-वर्षा के खतरों की ओर विश्व-समुदाय का ध्यान आकर्षित करना था। इन देशों में तेजाबी वर्षा करने वाले प्रदूषक तत्व ब्रिटेन तथा अमरीका की वायु के सहारे पहुँचकर तेजाबी-वर्षा करते हैं। सम्मेलन-स्थल पर जो अमल वर्षा रिकार्ड की गई उसका विश्लेषण करने पर पाया गया कि उसमें सल्फर की मात्रा 3.5 ग्राम मीटर प्रतिवर्ष की दर से मौजूद थी, जबकि इसका हानिरहित स्तर 0.5 ग्राम मीटर प्रतिवर्ष का है। इस तेजाबी-वर्षा का 25 प्रतिशत भाग ब्रिटेन से प्राप्त हुआ था।

तेजाबी-वर्षा के कारण


तेजाबी-वर्षा का कारण है- वातावरण में बढ़ती सल्फर डाइआॅक्साइड तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड गैसों की सान्द्रता। ये विषाक्त गैसें उद्योगों की चिमनियों, मोटर-गाड़ियों व तेल से चलने वाली भट्टियों, कोयला, खदानों, विद्युत-गृहों तथा पेट्रोल-शोधक कारखानों के धुएँ से वायुमण्डल में पहुँच जाती हैं, जहाँ पानी के साथ क्रिया करके गन्धक का अम्ल (सल्फ्यूरिक-अम्ल) तथा नाइट्रिक-अम्ल बनाती है यहीं अम्ल जब वर्षा के रूप में धरती पर गिरता है तो उसे तेजाबी-वर्षा कहा जाता है।

सल्फर डाइआॅक्साइड प्रदूषण


प्रदूषण उत्पन्न करने में सल्फर डाइआॅक्साइड गैस की प्रमुख भूमिका है। यह रंगहीन, तीक्ष्ण गन्ध वाली, अज्वलनशील गैस है जिससे शरीर में जलन पैदा होती है। यह विषैली गैस सबसे अधिक मात्रा में तेल तथा कोयले के दहन से उत्पन्न होती है। कोयला-खानों तथा बिजली-घरों में कोयले के जलने से 60 प्रतिशत सल्फर डाइआॅक्साइड का प्रदूषण होता है। पेट्रोलियम पदार्थों के दहन से 20.7 प्रतिशत तथा काॅपर, जिंग लेड, निकिल तथा आयरन के आस्क शोधक कारखानों से 70 प्रतिशत वायु प्रदूषित होती है। झरिया (बिहार - वर्तमान में झारखण्ड) की कोयला-खानों के आसपास के वातावरण धुएँ के घने बादल छाये रहते हैं। इस धुएँ में सल्फर डाइआॅक्साइड तथा सल्फर यौगिक सबसे ज्यादा पाये जाते हैं, जो कोयले के आंशिक दहन से निकलते हैं।

दिल्ली में राजघाट, विजयघाट तथा शान्तिवन क्षेत्रों के वायुमण्डल में थर्मल-पावर स्टेशन से निकली 20 टन सल्फर डाइआॅक्साइड प्रतिदिन मिल रही है। दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ औद्योगिक क्षेत्र में इन्द्रप्रस्थ विद्युत-केन्द्र से 60 टन सल्फर डाइआॅक्साइड प्रतिदिन निकलकर वातावरण को विषाक्त कर रही है। आगरा शहर में काफी प्रदूषित हो चुका है। यहाँ के वायुमण्डल में प्रतिवर्ष औसत 17-25 माइक्रो ग्राम प्रति क्यूबिक मीटर के हिसाब से सल्फर डाइआॅक्साइड की सान्द्रता बढ़ रही है। इसके स्रोत हैं- 10 मेगावाट के दो थर्मल पावर प्लांट्स, रेलवे यार्ड के स्टीम इंजन तथा कई अन्य औद्योगिक प्रतिष्ठान। हाल में यहाँ के रेलवे यार्ड में कोयले के इंजनों के स्थान पर डीजल इंजनों का प्रयोग किये जाने से सल्फर डाइऑक्साइड की सान्द्रता में प्रतिवर्ष 6 माइक्रो ग्राम प्रति क्यूबिक मीटर की कमी आई है।

यूरोप के देशों में प्रतिवर्ष 70 मीट्रिक टन सल्फर डाइआॅक्साइड वायुमण्डल में मिल रही है। यहाँ की बर्फ में सल्फ्यूरिक अम्ल तथा कैडमियम और लेड की काफी मात्रा संग्रहित होती है। जब बर्फ पिघलती है तो पानी के साथ यही प्रदूषक तत्त्व नदियों तथा झीलों में पहुँचकर उनको खतरा पैदा करते हैं। इनसे सर्वाधिक नुकसान मछलियों को होता है। प्राकृतिक स्रोतों में ज्वालामुखी से सर्वाधिक 67 प्रतिशत सल्फर डाइआॅक्साइड निकलती है। मानव-निर्मित स्रोतों से सिर्फ 33 प्रतिशत सल्फर डाइआॅक्साइड की वायुमण्डल को प्रदूषित करती है। सभी स्रोतों से मिलाकर कुल 146 एवं 1.5×106 टन सल्फर डाइआॅक्साइड प्रतिवर्ष विश्व के समूचे वायुमण्डल में घुल रही है।

नाइट्रोजन आॅक्साइड प्रदूषण


यह भी तेजाबी वर्षा के कारण निर्माण का एक प्रमुख घटक है। यह कई रूपों में वायु प्रदूषित करता है। जैसे- नइट्रिक आॅक्साइड (NO) नाइट्रोजन डाइआॅक्साइड (NO2) नाइट्रोजन टेट्रॉक्साइड (N2O4) तथा नाइट्रोजन पेंटाआॅक्साइड (N2O5) इनके स्रोत हैं: - विभिन्न औद्योगिक प्रतिष्ठान, विद्युत गृह तथा कोयला खानें। इन स्रोतों से निकले धुएँ के साथ नाइट्रोजन आॅक्साइड की काफी मात्रा वायुमण्डल में पहुँच जाती है जो वहाँ मौजूद पानी के साथ क्रिया करके नाइट्रिक-अम्ल बना देता है। यही नाइट्रिक अम्ल तेजाबी वर्षा के रूप में पृथ्वी पर गिरता है।

राॅबिन्सन और राॅबिन्स


राॅबिन्सन और राॅबिन्स (1971) के एक अध्ययन के अनुसार नैसर्गिक जैविक-क्रियाओं से नाइट्रोजन आॅक्साइड का कुल उत्पादन प्रतिवर्ष एक बिलियन मीट्रिक टन होता है, जबकि कारखानों आदि में ईंधन की दहन प्रक्रिया से 40 मिलियन मीट्रिक टन नाइट्रोजन आॅक्साइड ही प्रतिवर्ष बनता है।

पर्यावरण पर तेजाबी वर्षा के खतरे


तेजाबी-वर्षा का पर्यावरण के सभी घटकों (जैविक एवं भौतिक) पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। चाहे वह हमारा जन्तु-जगत हो, वनस्पति-जगत तथा वन-सम्पदा हो, पानी के स्रोत झीलें, नदी-नाले, तालाब तथा इनमें रहने वाले छोटे-बड़े जीव-जन्तु जलीय पौधे तथा भू-संसाधन पत्थर, चट्टानें आदि हों, छोटे-बड़े भवन हों या फिर मनुष्य स्वयं हों, ये सभी अम्ल वर्षा की मार से बुरी तरह पीड़ित तथा प्रदूषित है। यह बीमारी सबसे ज्यादा यूरोपीय देशों में फैली है, जहाँ प्राकृतिक संसाधनों का सबसे अधिक विनाश हुआ है। पर्यावरण में जिन रूपों में इसका प्रभाव पड़ता है उसे निम्नलिखित विवरण से समझा जा सकता है-

1. तेजाबी-वर्षा से धरती की हरीतिमा नष्ट हो जाती है, पेड़ों की पत्तियाँ गिरने लगती हैं। तथा जड़ें सिकुड़ जाती हैं। पौधे की रोग-प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो जाती है जिससे पौधे रोगी हो जाते हैं। पौधे की सारी जैविक क्रियाएँ जैसे- प्रकाश-संश्लेषण, श्वसन, वाष्पोत्सर्जन, वृद्धि, जनन आदि मन्द पड़ जाती हैं जिससे कुछ समय बाद पौधा सूखने लगता है। स्वीडन, फ्रांस, कनाडा, जर्मनी में तेजाबी-वर्षा के प्रभाव से बड़ी मात्रा में वनों का सफाया हुआ है।

2. अम्ल के जमीन पर गिरते ही इसका अधिकांश भाग मिट्टी द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है, जिससे मिट्टी में अम्लीयता (एसीडिटी) बढ़ जाती है, फलस्वरूप मिट्टी की उर्वरा-शक्ति कम होने लगती है जिससे फसलों का उत्पादन प्रभावित होता है। 3. खेतों में खड़ी फसलों को भी इससे बहुत नुकसान पहुँचता है। इनमें कई तरह के रोगों का प्रकोप हो जाता है, पत्तियाँ झुलस जाती हैं। चूँकि पत्तियाँ ही पौधों में खाना बनाने की मशीनरी होती हैं इसलिये इनके नष्ट हो जाने से पौधे को भोजन (कार्बोहाइड्रेट) मिलना बन्द हो जाता है, परिणामस्वरूप पौधे की मृत्यु हो जाती है।

4. पीने के पानी तथा पानी के अन्य स्रोत तथा इनमें रहने वाले जीव-जन्तु नष्ट होने लगते हैं। केरल की ‘साइलेंट वैली’ को तेजाबी-वर्षा से खतरा हुआ है। तेजाबी-वर्षा के कुप्रभाव से स्वीडन की चार हजार झीलें पूर्णतया नष्ट हो चुकी हैं। वहाँ मीठे जल में पाली गई मछलियाँ बड़ी संख्या में मारी गई हैं। यहाँ की झीलों के फ्लोरा (वनस्पतियाँ) तथा फाॅना (जन्तु) के जीवन को भारी खतरा होते देख वैज्ञानिकों ने इन झीलों में चूना डालना शुरू किया। चूना (लाइम) पानी की अम्लीयता को सामान्य कर देता है जिससे जीव-जन्तु नष्ट होने से बच जाते हैं। कनाडा तथा अमरीका की कई झीलें भी इससे प्रभावित हुई हैं।

5. इसके दुष्प्रभाव से मनुष्य तथा पशु-पक्षी भी अछूते नहीं हैं। इनमें साँस तथा त्वचा की बीमारियाँ हो जाती हैं। आँखों तथा त्वचा में जलन होने लगती है। अम्ल की अधिक सान्द्रता से हृदय तथा फेफड़ों के रोग हो जाते हैं।

6. तेजाब की बूँदें बड़ी-बड़ी इमारतों, भवनों पर पड़कर उनमें लगी सामग्री चूना, सीमेंट, ईंट, पत्थर आदि से क्रिया करके उनका क्षरण कर देती हैं। तेजाबी-वर्षा के प्रभाव से ग्रीस तथा इटली में पत्थरों का क्षरण हुआ है। इस प्रदूषण से आगरा का सांस्कृतिक खजाना ‘ताजमहल’ अपना सौन्दर्य खोता जा रहा है। इसकी संगमरमर की दीवारें पीली पड़ती जा रही हैं। इसमें कई जगह दरारें भी पड़ गई हैं। दिल्ली में राजघाट, विजयघाट तथा शान्तिवन के स्मारकों का रंग भी उड़ने लगा है।

रोकथाम के उपाय


पर्यावरण में तेजाबीकरण की समस्या से छुटकारा तभी पाया जा सकता है जब प्रदूषण उत्पन्न करने वाले विभिन्न स्रोतों जैसे- कल-कारखानोें, बिजलीघर, ऑटोमोबाइल्स आदि से निकलने वाली जहरीली गैसें वायुमण्डल में न घुलने पाएँ। इसलिये इन स्रोतों से निकलने वाले धुएँ को प्रदूषण-रहित करना होगा जिसके लिये निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए-

सल्फर डाइआॅक्साइड की रोकथाम


1. धुएँ से सल्फर डाइआॅक्साइड को अलग कर लेना चाहिए। इसके लिये कई तरह के रसायन प्रयोग किये जाते हैं।
2. ईंधन के दहन से पूर्व ही उसके सल्फर यौगिकों को निकाल लेना चाहिए। जिससे ईंधन के जलने से सल्फर डाइआॅक्साइड गैस नहीं बनने पाती।
3. ऐसा ईंधन प्रयोग करना चाहिए जिसमें सल्फर की मात्रा बहुत ही कम हो।
4. परम्परागत ईंधन जैसे- सौर-ऊर्जा, पवन-ऊर्जा आदि के इस्तेमाल से वायुमण्डल में जहरीली गैसें नहीं घुलने पाएँगी जिससे वायुमण्डल में प्रदूषण कम होगा।

नाइट्रोजन आॅक्साइड की रोकथाम


1. ईंधन कोयला के गैस को अपेक्षाकृत अधिक ताप पर जलाना चाहिए।
2. कम तापक्रम पर धुएँ को बाहर, खुले वातावरण में निकालना चाहिए। धुएँ से विषाक्त सल्फर डाइआॅक्साइड तथा नाइट्रोजन डाइआॅक्साइड गैसों को अलग करने के लिये सल्फ्यूरिक अम्ल तथा कैल्शियम हाइड्राॅक्साइड एवं मैग्नीशियम हाइड्राक्साइड के क्षारीय विलयनों की धुएँ के साथ रासायनिक अभिक्रिया कराई जाती है।

उपर्युक्त इन उपायों को संरक्षण प्रदान करना चाहिए। कारखानों की ऊँची चिमनियों के मुँह पर जाली लगानी चाहिए तथा समय-समय पर वाहनों की जाँच कराते रहना चाहिए। इंजन में कोई तकनीकी खराबी हो तो उसे तुरन्त दूर कर लेना चाहिए। समय रहते यदि पर्यावरण के तेजाबीकरण को शीघ्र कम न किया गया तो वह दिन दूर नहीं होगा जब तेजाबी वर्षा के प्रभाव से यह ग्रह झुलस चुका होगा तथा प्रकृति विनाश का ताण्डव करती नजर आएगी।

सम्पर्क
वरिष्ठ अनुसन्धान अध्येता, भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण, इलाहाबाद, बी-63, गोविन्दपुर आवास योजना, गोविन्दपुर, इलाहाबाद-211004 (उ.प्र.)

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