पर्यावरण मंत्रालय नर्मदा नहर परियोजनाओं पर 4 हफ्ते में निर्णय ले: सर्वोच्च न्यायालय

यह 100 प्रतिशत पूर्व सिंचित जमीन है और इन गांवों में सरदार सरोवर और महेश्वर बांध के लिए भूमि का अधिग्रहण हुआ है। इन्हीं बांधों के जलग्रहण क्षेत्र में खुदाई करने से गंभीर नुकसान होगा, जिसे टालना पूर्णतः संभव और जरुरी है।

नईदिल्ली (सप्रेस)। न्यायमूर्ति जे. एम.पांचाल, न्या. बी.एस चैहान और न्या. दीपक वर्मा की एक विशेष खण्डपीठ ने इंदिरा सागर एवं ओंकारेश्वर नहर परियोजनाओं पर अपना फैसला देते हुए, विस्थापितों के पुर्नवास में एक और कदम आगे बढाया हैं। इन दोनों परियोजनाओं में नर्मदा किनारे और उसके नजदीक सिंचित क्षेत्र में हजारों हेक्टर जमीन और हजारों किसानों-आदिवासियों पर विनाश और विस्थापन का गंभीर असर होगा। म.प्र. उच्च न्यायालय ने नवम्बर, 2000 में एक फैसला देते हुए, लाभ क्षेत्र विकास योजना का पर्यावरणीय विशेषज्ञ समिति द्वारा रिपोर्ट मिलने तक और पुर्नवास नीति अनुसार सभी विस्थापितों का पुर्नवास होने तक नहर निर्माण कार्य पर रोक लगा दी। इस फैसले के विरुद्ध म.प्र. शासन ने सर्वोच्च अदालत में एक विशेष याचिका स्च्द्ध दायर की थी जिस पर 20 महीनों की सुनवाई के बाद 2 अगस्त को अदालत ने अपना फैसला दिया।

नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा जारी विज्ञप्ति में उक्त जानकारी देते हुए बताया गया है कि इस फैसले द्वारा सर्वोच्च अदालत ने अपने 5-5-10 के अंतरिम आदेश को कायम रखा, जिसमें 60 प्रतिशत से अधिक जमीन प्रभावित होने वाले सभी खातेदारों को खेती लायक, सिंचित जमीन गांव के समीप या लाभ क्षेत्र में देने का निर्देश था। इसके अतिरिक्त अभी अदालत ने निर्देश दिया है कि सभी नहर प्रभावितों को फैसले के लिये 2 अगस्त 2011 के आधार पर बाजार मूल्य की गणना कर, मुआवजा दिया जायेगा। पूर्व में जिन किसानों का बहुत कम मुआवजा देकर भू-अर्जन कर लिया गया था, ऐसे किसानों को इस आदेश से बहुत राहत मिलेगी। विज्ञप्ति में कहा गया है कि आंदोलन का मानना है कि ‘नहर-प्रभावितों‘ और ‘बांध-प्रभावितों‘ का विस्थापन एक सा ही असर लाता है। दोनों ही स्थितियों में परिवारों की आजीविका नष्ट होगी। इसलिये मध्यप्रदेश सरकार ने भी 1987 से 2003 तक की पुनर्वास नीतियों में नहर-प्रभावितों के लिये जमीन का अधिकार मंजूर किया था। मगर नहर कार्य शुरु होते ही इस प्रावधान को पुनर्वास नीति से हटाने की साजिश नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण ने की। जिसे आंदोलन ने चुनौती दी थी।

आंदोलन ने न्यायालय के समक्ष कई दस्तावेजों के आधार पर साबित किया कि पर्यावरणीय मंजूरी के 15-20 सालों के बाद भी, आज तक दोनों परियोजनाओं की लाभ क्षेत्र विकास योजना ना तो तैयार है और ना ही इसे मंजूरी मिली है। पर्यावरणीय शर्तों के अमल के बगैर नहर कार्य और खुदाई को आगे धकेलने से खेत-जमीनों और लोगो के आजीविका पर अपरिवर्तनीय असर हो रहा है। विशेषज्ञ समिति की तीन रिपोर्टो के बावजूद, पर्यावरण मंत्रालय ने आज तक नहर कार्य पर कोई फैसला नहीं लिया है। न्यायालय के समक्ष आंदोलन ने यह भी स्पष्ट किया कि नहर खुदाई, नर्मदा किनारे के करीब 80 गांवों में होना प्रस्तावित है। यह 100 प्रतिशत पूर्व सिंचित जमीन है और इन गांवों में सरदार सरोवर और महेश्वर बांध के लिए भूमि का अधिग्रहण हुआ है। इन्हीं बांधों के जलग्रहण क्षेत्र में खुदाई करने से गंभीर नुकसान होगा, जिसे टालना पूर्णतः संभव और जरुरी है। आंदोलन, मध्यप्रदेश सरकार और पर्यावरण मंत्रालय के पक्ष सुनकर, न्यायालय में आदेश पारित किया है कि पर्यावरण मंत्रालय 4 हफ्तों में नहर कार्य पर एक अंतिम फैसला लेगा, जो इसके द्वारा दी गई मंजूरी और पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम, 1986 के तहत होगा। जुलाई, 2011 में आंदोलन/नहर प्रभावितों और नघाविप्रा को सुनवाई का मौका देने के बाद मंत्रालय ने अदालत को अपनी मंशा व्यक्त की थी कि वो क्षेत्र भ्रमण करने के बाद ही फैसला लेगा।

उल्लेखनीय है कि कई सुनवाईयों के बाद, मार्च 2011 में नघाविप्रा ने कुछ नहर-गांवों का लाभ क्षेत्र योजना प्रस्तुत की थी, जिसमें भी कई त्रुटियां हैं जिसे आंदोलन सामने लाया है। मगर आज तक 602 गांवों की योजना भी प्रस्तुत नहीं की गई है। इस परिस्थिति में जब योजना तैयार ही नहीं है तब नहर कार्य को आगे बढ़ाने की अनुमति नही देनी चाहिए।

नर्मदा बचाओ आंदोलन की ओर से सुश्री मेधा पाटकर और अधिवक्ता संजय पारिख ने पैरवी की।

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