पर्यावरण क्रांति के प्रेरक थे श्रीकृष्ण

हमारे वेदों में ‘वनस्पति शांति:’ की बात की गयी है। हिमालय को देव मानकर उनकी पुत्री के रूप में पार्वती का जिक्र किया जाना पर्यावरण संतुलन एवं प्रमुख नदियों के स्रोत एवं अथाह वनस्पति के जनक हिमालय पर्वत को गरिमा प्रदान की गयी। इतनी ही नहीं वैराग्य के प्रतीक शुकदेव एवं काक भूशुण्ड जैसे महात्माओं का सम्बन्ध क्रमश: तोते और कौवे से बतलाकर ऐसे पक्षियों को भी महत्त्व दिया गया।इतिहास साक्षी है कि मनुष्य तब अधिक सुखी था जब वह प्रकृति के अधिक निकट था। आज विज्ञान और भौतिक विकास के नाम पर वह प्रकृति से दूर ही नहीं बल्कि उसका प्रबल शत्रु बन बैठा है। यही कारण है कि आज वैश्विक उष्णता (ग्लोबल वार्मिग) के कारण मनुष्य जाति प्रलय के कगार पर है। आज विश्व के वैज्ञानिकों की यह आम राय है कि जिस तेजी से हमारे उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पिघल रहे हैं उससे आने वाले 10-12 सालों के भीतर ही समुद्र का जल स्तर इतना बढ़ जाएगा कि समुद्र किनारे बसे देश और शहर जैसे बंगला देश,....न्यूयार्क, मुंबई एवं कोलकाता जल मग्न हो जाएंगे। इस देश के पर्यावरण के लिए वह दिन सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण होगा जब गंगा और यमुना जैसी प्राणदायी नदियाँ सूखने लगेगी। धरती और समुद्र के भीतर हो रहे आणविक परीक्षणों तथा भूमिगत जल, खनिज एवं अन्य दोहन से सुनामी एवं भूकम्प के खतरे बढ़ जाएंगे। औद्योगिक चिमनियों से उगलती आग व धुआँ, फ़ैक्टरियों से बहकर नदियों को प्रदूषित करता रसायन, तेजी से कटते जंगल के जंगल और उन्हीं के साथ तस्करों के हत्थे चढ़ते जंगली पशु पक्षी से त्रस्त हमारी प्यारी पृथ्वी आज आदमी के इस आत्मघाती रवैये पर आँसू बहा रही है।

वैसे तो वेद पुराण कुरान और बाइबल सभी शास्त्र प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षक के प्रबल पक्षधर रहे हैं लेकिन कृष्ण के जीवन चरित्र में उनके प्रकृति एवं पर्यावरण प्रेम की जो खुशबू हम पाते हैं वैसी अन्यत्र नहीं मिलती। वे सचमुच प्रकृति प्रेम और पर्यावरण क्रांति के प्रेरक युग पुरूष थे। साढ़े सात वर्ष की उम्र में उन्होंने प्रकृति के प्रति अद्भुत प्रेम और महत्त्व दर्शाते हुए वर्षा के लिए इन्द्रदेव की पूजा को अनावश्यक करार देते हुए गोवर्धन नामक दिव्य पर्वत की पूजा करने के लिए बृजवासियों को प्रेरित किया। गोवर्धन पर्वत की संरचना ही कुछ ऐसी रही है कि उसके करीब 22 वर्ग किलोमीटर के आकार में अधिक ऊंचाई न होकर समतल फैलाव अनेक स्थानों पर है जिससे उस पर गायों के लिए खूब घास, औषधिक वनस्पति एवं अनेक पेड़ पौधे उगे हुए हैं। कृष्ण ने कहा कि हमारे समस्त गोधन (तत्समय सम्पत्ति का सूचक) को यह चारा उपलब्ध कराता है। इसी से वर्षा का जल बहकर यमुना में जाता है। अत: गोवर्धन को पूजा जाय। उसके बाद इन्द्रकोप का सामना कर इन्द्र का मान मर्दन जिस प्रकार से उन्होंने गोवर्धन धारण कर किया वह जग जाहिर है। कदम्ब और करील के पेड़ों को जिस कदर उन्होंने संवर्धन एवं गरिमा प्रदान की उसका वर्णन श्रीमद्भागवत एवं गर्ग संहिता में विद्यमान है।

कालिया नाग की लीला की पृष्ठ भूमि में निहित दर्शन और पर्यावरण तत्व को समझने की जरूरत है। कृष्ण के लिए यह बर्दाश्त के बाहर था कि यमुना नदी का जल प्रदूषित हो जाए और ऐसा विषैला जल पीकर बृजवासी और उनका पशुधन मौत के मुंह में चला जाए। इसीलिए उन्होंने कालिया नाग को यमुना नदी छोड़ कर चले जाने को विवश किया और यमुना का जल उसके जहर से प्रदूषण मुक्त किया।

प्रारम्भ से गोपालन और गायें चराने के कारण उनका नाम गोपाल पड़ा। गाय के दूध, दही, मक्खन, घी से तन मन को बलिष्ठ बनाना, उसके गोबर से ईधन, आंगन एवं कुटि लेपन तथ गोमूत्र से नाना प्रकार के उपचार से लोगों को लाभान्वित होने के लिए उन्होंने प्रेरित किया। आज भी वैज्ञानिक मानते हैं कि गोबर से लेपित आंगन एवं दीवारों वाले मकान पर अणु परमाणु विकिरण का प्रभाव नहीं पड़ता। कृष्ण जब मधुर मुरली की तान छेड़ते थे तब गोपियों के अलावा तोतें, मोर, हिरण एवं अन्य पशु पक्षी तक उनके पास आ बैठते थे। कहते हैं कि त्रैतायुग में सीता वियोग में वन विचरण करते राम लक्ष्मण को एक मोर ने आगे -आगे चल कर किष्किन्धा पर्वत का रास्ता दिखाया था। उसी का आभार मानकर कृष्ण ने द्वापरयुग में अपने मुकुट में मोरपंख धारण किया कृष्ण को वासुदेव भी कहते हैं। वासुदेव का अर्थ वह देव जिसका कण-कण में वास हो। जब कृष्ण का कण-कण में वास है तो प्रकृति का वह कौन सा जर्रा हो सकता है जिसमें वे न हों और उस जर्रे तक के संरक्षण से उन्हें प्रेम न हो। ब्रह्मा जी को महामाया के प्रभाव से यह भ्रम हो गया कि कृष्ण जो एक साधारण ग्वाल बाल के रूप में गायें चराते हैं सर्वज्ञ ब्रह्म कैसे हो सकते हैं। इसकी परीक्षा के लिए जब उन्होंने एक बार कृष्ण के ग्वाल सखाओं और गाय बछड़ों का अपहरण कर एक गुफा में छुपा लिया तब कृष्ण ने ऐसी लीला रची कि ब्रह्माजी को सभी गाय बछड़ों तथा यहाँ तक कि हर पेड़ पौधे में कृष्ण की छवि नजर आने लगी। इस पर उन्होंने अपने इस कृत्य के लिए लज्जित होते हुए क्षमा याचना की।

मिट्टी पृथ्वी के पर्यावरण का प्रमुख अंग है। इसी के कारण खेती बाड़ी और पेड़ पौधों का अस्तित्व सम्भव है। इसीलिए उन्होंने ब्रज की रज का महत्त्व इतना अधिक बतलाया कि स्वयं मुक्ति का भी महत्त्व उसके आगे फीका पड़ गया।

उन्होंने गीता (3/13) में यज्ञ की अपनी निराली परिभाषा देते हुए ‘‘यज्ञ शिष्टा शिन: सन्तोमुच्यन्ते सर्व किल्विषै भुज्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्म् कारणात’’ की जो बात कही है उसमें प्रकृति के समस्त जीवों के संरक्षण एवं उनके पर्यावरण प्रेम की खुशबू आती हैं। उन्होंने यही कहा कि जो व्यक्ति अपनी आय के पाँच हिस्से कर केवल पांचवा हिस्सा स्वयं के पोषण पर तथा शेष चार भाग पृथ्वी के अन्य जीवों एवं पेड़ पौधों संरक्षण पर खर्च करता है वह पुण्यवान जीवन जीता है अन्यथा जो केवल अपने सुख और पेट को भरने पर ध्यान देता है वह साक्षात पाप को खाता है।

कृष्ण ने गीता में स्वयं अपना परिचय देते हुए यह स्पष्ट कहा कि वह देवो में इन्द्र, मुनियों में कपिल तथा पेड़ों में साक्षात पीपल है। यह वनस्पति विज्ञान का प्रामाणिक तथ्य है कि पेड़ों में सबसे अधिक प्राणवायु (ऑक्सीजन) देने वाला पेड़ पीपल ही है।

हमारे वेदों में ‘वनस्पति शांति:’ की बात की गयी है। हिमालय को देव मानकर उनकी पुत्री के रूप में पार्वती का जिक्र किया जाना पर्यावरण संतुलन एवं प्रमुख नदियों के स्रोत एवं अथाह वनस्पति के जनक हिमालय पर्वत को गरिमा प्रदान की गयी। इतनी ही नहीं वैराग्य के प्रतीक शुकदेव एवं काक भूशुण्ड जैसे महात्माओं का सम्बन्ध क्रमश: तोते और कौवे से बतलाकर ऐसे पक्षियों को भी महत्त्व दिया गया। विष्णु के अनेकों अवतार जैसे कच्छप अवतार, मत्सयावतार, वरहावतार तथा विभिन्न देवों की सवारियों के रूप में गरूड़ , हंस, मोर, हिरण, सिंह, बैल, भैंसे और यहां तक कि चूहे को भी गरिमा प्रदान कर यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया गया है कि इस संसार में हर पशु -पक्षी की अपनी सार्थकता, आवश्यकता और महत्त्व है।

हर पेड़ शिव का रूप है। फर्क इतना ही है कि शिव की जटाओं में जल (गंगा) संरक्षण हुआ और पेड़ अपनी जड़ों रूपी जटाओं के माध्यम से जल एवं उपजाऊ मिट्टी का संरक्षण करते हैं। मृत्यु के समय आदमी के दाह संस्कार हेतु कम से कम साढ़े तीन क्विंटल लकड़ी की आवश्यकता होती है। अत: हर व्यक्ति का धरती के प्रति कम से कम एक पेड़ उगाकर पोषित करने का ऋण तो हमेशा रहता ही है फिर आदमी ईंधन एवं इमारती लकड़ी का भी उपभोग करता है अत: धरती और पर्यावरण के प्रति उसके ऋण से वह तभी मुक्त हो सकता है जब जीवन भर वह पर्यावरण संरक्षण के प्रति समर्पित रहे।

विश्नोई जाति का पेड़ पौधों एवं पशु पक्षी संरक्षण में विशेष योगदान रहा है। अनाथ हरिण शिशु को विश्नोई जाति की औरतों द्वारा अपने बच्चों की तरह अपना स्तनपान कराना न केवल सुखद आश्चर्य है बल्कि ममत्व और करूणा की दिव्य घटना है।

सरकारी तंत्र करोड़ों खर्च करके भी हमारी नदियों को प्रदूषण मुक्त करने में असफल रहा है। विकास के नाम पर लाखों पेड़ कट रहे हैं टाइगर, शेर और हाथी जैसे शानदार जानवरों का बेरहमी से शिकार हो रहा है। इस सब को रोकने के लिए सरकार को कठोर कदम उठाने होंगे। प्रत्येक जन मन में पर्यावरण संरक्षण के प्रति चेतना उत्पन्न करनी होगी। तभी हम भविष्य के प्रति आशान्वित हो सकते हैं।

- गोकुल ए-77, रामेश्वर नगर, बासनी, प्रथम फेस, जोधपुर (राजस्थान) 202412

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