पर्यावरण की संस्कृति

Environment
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प्रकृति के गर्भ से उत्पन्न मानव उसकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। किंतु प्रकृति का यह विशिष्ट जीव आज एक विचित्र-सी स्थिति में खड़ा है। विकास की सीमाओं को लांघता हुआ वह कहां से कहां पहुंच गया। विकास की यह गति प्रारंभिक काल में धीमी थी, किंतु आज़ आश्चर्यचकित कर देने वाली इसकी गति अब बेकाबू जा रही है। किसी भी देश या समाज की सभ्यता-संस्कृति उसकी प्रतिष्ठा का प्रतीक है। इसी सभ्यता-संस्कृति का एक आवश्यक अंग होता है पर्यावरण। पर्यावरण का कुछ अंश हमें प्रकृति से हस्तगत होता है और कुछ हम स्वयं निर्माण करते हैं।

प्रारंभ में मनुष्य को पूर्णत: पर्यावरण पर निर्भर रहना पड़ता था, किंतु धीरे-धीरे बुद्धि-संपन्न मनुष्य ने अपनी बढ़ती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी जीवन-शैली को भी नियंत्रित किया। शनै: - शनै: पर्यावरण को भी नियंत्रित करने का प्रयास आरंभ हुआ। अब तो स्थिति यह है कि मनुष्य प्रकृति का स्वामी बन बैठा है और निरंतर उसके शोषण में लगा हुआ है। जबकि भारतीय दृष्टिकोण प्रकृति पर विजय पाने का नहीं, बल्कि उसके संरक्षण और उसके प्रति श्रद्धा का रहा है। वस्तुत: भारत के सांस्कृतिक आदर्श और परंपराओं का आधार अध्यात्म है। देश की अथाह प्राकृतिक संपदा ने यहां के मनीषियों को अपने पर्यावरण के प्रति भावनात्मक रूप से अत्यंत संवेदनशील बना दिया था। जहां भावनात्मक संवेदनशील होती है, वहां बौद्धिक जिज्ञासा और सौंदर्य-बोध का जन्म होता है। एक सुसंस्कृत समाज के लिए ये दोनों ही आवश्यक तत्व है। बौद्धिक जिज्ञासा ज्ञान, चेतना तथा मूल्यों का विकास और विस्तार करती है, जब कि सौंदर्य-बोध से सृजनात्मक ललित-कलाओं का विकास होता है।

भारतीय प्रज्ञा के अनुसार मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं, उसकी संतान है। अपने पर्यावरण के प्रति ऋषि-मुनियों की भावुकता और उनका अनुराग इस धारणा को पुष्ट करता है। इसकी झलक वेद-उपनिषदों एवं अन्य पौराणिक साहित्यों में भी मिलती है। ऋग्वेद के पृथ्वी सूक्त में मानव और पृथ्वी के स्नेह बंधन अनेक रूपों में वर्णित है। 'माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्याः’, ‘विश्वंभरा बसुधानी प्रतिष्ठा हरिण्य वक्षा जगतो निवेशिनी'(ऋग्वेद 12.1.6.) इत्यादि ऐसी अनुभूति के द्योतक है। संतानोत्पत्ति से लेकर पालन-पोषण और संसार को अपने आसमानी आंचल से ढंके रखने के कारण प्रकृति को मनुष्य ने स्त्री रूप में देखा है। भूमि की उर्वरा शक्ति से प्रेरित होकर श्रद्धा और उपासना भाव की विशिष्टतम परिणति मातृ-भूमि की अवधारणा में हुई है। अथर्ववेद की (12.1.14) ऋचा में अक ओर उस शक्ति से अपार सुख पाने की आशा है तो दूसरी ओर उसकी रक्षा करने का भाव छलक उठता है।

वेद की अनेक ऋचाओं में प्रकृति के विभिन्न तत्वों - सूर्य, चांद, तारे, आकाश, पृथ्वी, जाल, अग्नि, वनस्पति इत्यादि की देव रूपों में उपासना की गई है। ये ऋचाएं प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति आभार व्यक्त करने का माध्यम है और इनमें आध्यात्मिक अनुभूतियां भी निहित हैं।

पर्यावरण में उपस्थित सभी तत्वों का आपस में विशेष सामंजस्य होता है, जो संपूर्ण प्रकृति में संतुलन बनाए रखता है। उन तत्वों के प्रति लापरवाह होने पर उनकी संगति बिगड़ जाती है और संतुलन भंग हो जाता है। आधुनिक युग में, एक ओर तो मानव विकास के शीर्ष पर पहुंच चुका है, दूसरी ओर अनेक प्राकृतिक विसंगतियां उत्पन्न हो गई हैं। फलतः प्रकृति अपना संतुलन खोती जा रही है।

कितना बड़ा विरोधाभास उत्पन्न हो गया है युगों के अंतराल में! कहां तो हमारे पूर्वज प्रकृति के प्रति इतने संवदेनशील थे कि श्रद्धा और आभार व्यक्त करते अघाते नहीं थे और कहां अब उनका वंशज, आज का मनुष्य मां के रूप में पूज्या प्रकृति और अपने आश्रय पर्यावरण के प्रति निर्दयता और बर्बरता का एक भी अवसर नहीं चूकता। प्रकृति भी अपने कुपुत्रों के दुर्व्यवहार से ऊब गई है, उसकी सहिष्णुता समाप्त हो गई है।

पर्यावरण के साथ मनुष्य का दुर्व्यवहार विकास का चोला पहनकर आया। भारत की सभ्यता और संस्कृति तो अति प्राचीन है और यह देश अपने विकास के अनेक स्वर्ण युग देख चुका है।

नि:संदेह इसे अपनी मूर्खताओं का भी मूल्य चुकाना पड़ा है - कभी आंभीक जैसे विद्वेषी राजाओं के कारण तो कभी ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से अपने लालच को संतुष्ट करने के क्रम में परतंत्र होकर। किंतु नए सभ्य और तथाकथित सुसंस्कृत हुए देशों को आधुनिक युग आते-आते विकास के अवसर मिलने लगे। विज्ञान का 'जिन्न' उनके हाथ जो लग गया था! यह सही है कि विज्ञान ने मानव जाति का बड़ा उपकार किया है, किंतु यदि ‘अलादीन का चिराग' किसी पागल या निर्दयी के हाथ लग जाए तो बेचारा ‘जिन्न' क्या करे? विज्ञान के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। स्वार्थी लोगों ने आधुनिक विकास के नाम पर इसका दुरुपयोग किया है। इसलिए उसका जितना हितकर प्रभाव हुआ, उससे कहीं अधिक उसके विनाशकारी प्रभाव ने रंग दिखाना आरंभ कर दिया। अणु-परमाणु का विध्वंसक उपयोग होने लगा है। देशों में होड़ लगी है कि कौन कितना विनाशकारी हो सकता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर अमरीका द्वारा किया गया अणुबम विस्फोट ऐसा हृदय-विदारक उदाहरण है जिसने वहां की कई पीढियों को अपाहिज बना दिया। 1927 में एच जे मूलर को आणविक विकिरण के आनुवांशिक प्रभाव को प्रमाणित करने के लिये नोबेल पुरस्कार दिया गया, किन्तु अमरीका के जिन दिग्गज नेताओं ने अणुबम के विस्फोट का निर्णय लिया, उन्हें आणविक विस्फोट के परिणामों की कोई जानकारी नहीं थी। वे केवल अपने स्वार्थ से परिचित थे।

इस संदर्भ में यदि 'महाभारत' का उल्लेख किया जाये, तो असंगत नहीँ होगा। 'महाभारत' के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास ने ऐसे विनाश की आशंका व्यक्त की थी। आदि पर्व (अ.139) में 'ब्रह्मास्त्र' के विषय में कहा गया है कि यह पूरी पृथ्वी को जलाकर राख कर सकता है। जब भीष्म और परशुराम ने एक-दूसरे के विरुद्ध ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो सारा संसार प्रज्वलित हो उठा और तब देवताओं को भागकर उनको रोकना पड़ा (उद्योग पर्व, अ. 187)। ‘पाशुपतास्त्र’ के विषय में अर्जुन बताते है कि यह तीनों लोकों के जीवित, निर्जीव - सभी वस्तुओं को नष्ट कर सकता है। एक युग का अंत होने पर पूरे ब्रह्माण्ड को समाप्त करने के लिये इसका उपयोग किया जाता है। इसलिये वे इसके स्थान पर सामान्य रूप से प्रचलित अस्त्र-शस्त्र का ही प्रयोग करते है (उद्योग पर्व, अ.196)। 'पाशुपतास्त्र' सबंधी इस उपाख्यान से यह पता चलता है कि भारत में भी प्राचीन काल में व्यापक रूप से विनाश करने वाले अस्त्र-शस्त्र विद्यमान थे, किंतु उनके प्रयोग का अधिकार रखने वाले व्यक्तियों को उन अस्त्र-शस्त्र के प्रभाव का पूरा ज्ञान था और साथ ही वे स्वार्थी या गैरजिम्मेदार नहीं थे। उनका निर्णय विवेकपूर्ण होता था। द्रोण पर्व ( अ .197) में 'नारायणास्त्र' को भी ऐसा अस्त्र बताया गया है जिसके प्रयोग से संपूर्ण पृथ्वी प्रकंपित हो उठती है, पर्वत मालाएं बिखने लगती हैं, विशाल संमुद्रों मेँ मंथन होने लगता है।

कुरुक्षेत्र युद्ध के प्राय: समाप्त होने पर जब कौरवों का पूरी तरह विनाश हो गया था, तो अश्वत्थामा का विवेक भी उसका साथ छोड़ गया और उस ने पांडवो के प्रति विद्वेष की भावना से प्रेरित होकर उत्तरा के गर्भ में पल रहे अभिमन्धु-पुत्र को समाप्त करने के लिये 'ब्रह्मास्त्र' का प्रयोग किया था। तब श्रीकृष्ण ने 'ब्रह्मास्त्र के प्रभाव को निरस्त करने के लिये अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग किया और उत्तरा के गर्भ की रक्षा की अर्थात उन अस्त्रों के मारक प्रभाव के निराकरण का उपाय उपलब्ध था। एक बार यधिष्ठिर ने इस प्रकार के किसी अस्त्र का संचालन देखने की इच्छा व्यक्त की थी, तो नारद ने ऐसा करने पर निषेेध लगा दिया था (वन पर्व अ. 175)।

मनुष्य होने के नाते अपनी चेतना, बुद्धि और विवेक का सदुपयोग करें। प्रकृति एवं पर्यावरण को पुन: उसकी शुद्धता और गरिमा में लौटा दे। उसे सुरक्षित रखने के लिये सामाजिक और सांस्कृतिक पर्यावरण की दृढता अनिवार्य है। स्वार्थ और लोभ ने दुष्प्रवृत्तियों का जो साम्राज्य खड़ा कर लिया है, उसे उखाड़ फेंकने की आवश्यकता हैं। इसके लिये मनुष्य को संयम का सहारा लेना होगा। भारतीय परंपरा के अनुरूप प्रेम, करुणा, दयालुता, सहृदयता जैसे उच्च मानवीय गुणों को पुन स्थापित करना होगा, ताकि सह-अस्तित्व की भावना के साथ प्रकृति और पर्यावरण को पुन: उसका वास्तविक स्वरूप प्राप्त हो सके। यह तभी संभव होगा, जब हम सजग, सतर्क और सक्रिय रहेंगे।पिछले कई दशकों से विश्व के विकसित और विकासशील देश पर्यावरण को लेकर चिंतित है, क्योंकि मानव के हाथों शोषित होती हुई प्रकृति कुपित हो गयी है और उसने अब पलटकर, चुनौती देना आरंभ कर दिया है। वैज्ञानिक विकास के दुष्प्रभाव का नमूना तो हम देख चुके, अब औद्योगिक विकास के दुष्चक़्र में फंसे हुए आम आदमी की त्राहि-त्राहि सुन रहे है। वैज्ञानिक या औद्योगिक विकास के विषय में सबने सोचा, लेकिन उसके साथ स्वत: उत्पन्न होने वाले हानिकारक तत्वों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। परमाणु ऊर्जा के अवशेषों को नदियों या समुद्रों में छोड़ दिया जाता है, जो धोरे-धीरे भूमिगत जल में मिल जाते है और अंतत: उसकी रेडियोधर्मिता मिट्टी का अंश बन जाती है। आज भारत विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित देशों की पंक्ति में खड़ा है। यहां की हवा, जल, मिट्टी इतनी अधिक प्रदूषित हो चुकी है कि तरह-तरह की भीषण बीमारियों ने जड़ पकड़ ली है। वर्तमान में प्रदूषित पर्यावरण के कारण जो परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है, वह मनुष्यों की विवेकहीनता की ओर इंगित करती है।

इस संदर्भ में एक दुखद, किंतु हास्यास्पद तथ्य का उल्लेख करना अनुपयुक्त नहीं होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण से संबद्ध विभाग ने अमरीका को अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले अपने कुछ उद्योगों को बंद करने का आग्रह किया था और उस प्रदूषणा से होने वाली क्षति के लिये हरजाना देने की मांग की थी। हस पर अमरीका की जो प्रतिक्रिया हुई वह उसके नेताओं की संवेदनशून्यता की परिचायक है। वहां के राष्ट्रपति ने कहा कि उद्योगों को तो बंद नहीं किया जायेगा, किंतु उनसे होने वाली क्षति के लिये हरजाना दिया जाता रहेगा।

भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के मूलभूत नियमों में सदा एक सुसंगति, एकात्मता और परस्पर आदर का भाव रहा है। किन्तु आज संपूर्ण समाज में भौतिकता का वर्चस्व हो गया है। अति भौतिकवादिता ने घृणा, द्वेष, छल, बल, भय, दुष्टता, स्वार्थ, असत्य, लोभ और निर्दयता को जीवन की वास्तविकताओं के रूप में स्थापित कर दिया है। भौतिक विकास की सफलताओं ने मनुष्य में अहंकार भर दिया है। इसी अहंकार और अविवेक के प्रमाद में वह निरंतर प्रकृति का तिरस्कार और शोषण करता जा रहा है।

आज हमारा देश जनसंख्या विस्फोट से संत्रस्त है। सारी की सारी योजनाएं व्यर्थ हो जाती है,विकास की चादर कभी पूरी नहीं पड़ती, कभी सिर बाहर तो कभी पैर बाहर। रक्तबीज की तरह फैलते हुए इन स्वार्थी मनुष्यों ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पहाड़ौं को तोड़- तोड़कर भूमिसात् कर दिया, जंगलों को काटकर समतल मैदान वना दिया। नदियों को बांधे तो कौन? पेड़ों के कट जाने से आये पहाड़ों पर भूमिस्खलन के समाचार आते रहते है। उस मिट्टी के नीचे दबा है कौन? वही स्वार्थी-लोभी मानव। नदियों में भयंकर बाढ़ का आना भी आम बात हो गयी है। बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र के लोग बेघर-बार होकर महीनों भटकते रहते है। एक ओर बाढ़ का प्रकोप तो दूसरी और भूखे की मार, क्योकि अब देश में वर्षा कम होने लगी है। बादलों को घेरकर लाने वाले गगनचुंबी पेड़ जो नहीँ रहे।

आजकल जंगली जानवर भी समाचारों की सुर्खियों में आने लगे हैं। प्राय: सुना जाता है कि लकड़बग्या गांव में घुसकर किसी बच्चे को उठा ले गया या एक बाघ किसी गांव में घुस आया या हाथियों के झुंड ने गांव के गांव रौंद डाले। आखिर इन सबका क्या कारण है ? फिर वही बात - जंगल कट गये, अब वहां खेत है। बढ़ती हुई जनसंख्या के पेट जो भरने हैं! अब वे बेचारे जानवर कहां जाए, अपनी भूख कहां मिटाएं, अपनी खीझ किस पर उतारें? जिस प्रकार मनुष्य प्रकृति का अंग है, उसी प्रकार जंगली जानवर भी प्रकृति के अभिन्न अंग है। मनुष्य तो प्रकृति से बहुत दूर चला गया है, किंतु ये जानवर प्रकृति के आंचल में ही छिपकर रहना पसंद करते है। मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि वह केवल अपने संरक्षण की बात सोचता है और इसी कम में उसने उन निरीह प्राणियों को असुरक्षित कर दिया है।

'महाभारत' का यह उपाख्यान पेडों, जंगलों के प्रसंग पर ध्यातव्य है। इस कथा में पर्यावरण के प्रति महर्षि व्यास की संवेदनशीलता और परोक्ष रूप से तत्कालीन मानवीय मूल्यों का दर्शन होता है। द्यूत क्रीड़ा में पराजय के बाद निर्वासित हुए पांडवों ने द्वैत वन में शरण ली। वहां वे लगभग एक वर्ष आठ महीनों तक रहे। प्रवास की उस अवधि में पांडवों के आखेट से वन के पशु धीरे-धीरे समाप्तप्राय हो गये। इसी बीच एक दिन युधिष्ठिर ने स्वप्न में देखा कि बचे हुए जानवर उनके सम्मुख विलाप कर रहे है कि इस प्रकार तो उनका समूल नाश हो जायेगा। वे उनसे निवेदन करते है कि मनुष्य जंगली जानवरों पर दया करे। तब युधिष्ठिर उस वन को छोड़कर काम्यक वन की ओर प्रस्थान करने का निर्णय लेते है (वन पर्व, अ 258)। यह कथा विभिन्न प्रकार के प्राणियों के बीच सह-अस्तित्व और उनके बीच प्राकृतिक संतुलन के भारतीय दृष्टिकोण को पुष्ट करती है। शान्ति पर्व (अ 282) में भीष्म एक कथा सुनाते है: जब इंद्र ने वृत्र (असुर) का वध कर दिया, तो ब्रह्महत्या उनके पीछे पड़ गयी। इंद्र भयभीत होकर ब्रह्मा के पास गए। तब ब्रह्मा ने ब्रह्महत्या को शांत करने के लिए कई स्थानों पर प्रश्रय दिया, उनमें से एक इस पृथ्वी का वनस्पतिजगत है। इस पर पेड़-पौधों ने ईश्वर से निवेदन किया कि ब्रह्महत्या का भाड़ वहन करना अत्यंत कठिन है, इसे किसी और को सौंप दें। तब ब्रह्मा ने वरदान दिया की जब भी मनुष्य बेमौसम या लोभवश पेड़ काटेगा, तो ब्रह्महत्या का भाड़ स्वतः उसपर चला जाएगा। इस प्रकार यह कथा वनस्पतियों के संरक्षण की अनिवार्यता की ओर इंगित करती है।

हजारों वर्ष पूर्व जब 'महाभारत' की रचना हुई थी, तब व्यास जैसे महान पुरुष ने मनुष्यों को प्रकृति के समस्त प्राणियों एवं वनस्पतियों के सरक्षण के प्रति जागरूक एबं सावधान करने का प्रयत्न किया था। यहां उद्योग पर्व (अ. 29) की एक घटना उल्लेखनीय है। जब कौरव-पांडवों के बीच युद्ध अश्ययंभाबी हो गया तो श्रीकृष्ण ने एक अंतिम संदेश दिया था। संदेश तो स्वय में महत्वपूर्ण है ही, किन्तु उसे जिस प्रकार की उपमा के आवरण में प्रस्तुत किया गया है वह अद्भुत है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब युद्ध होगा तब पांडव जंगली जानवरों के समान भयंकर हो जाएंगे। धृतराष्ट्र और उनके पुत्र जंगल के समान हैं, और पांडव उस जंगल में विचरने वाले बाघ के समान। इस जंगल को उसके बाघों के साथ नष्ट होने से बचाओ। जंगल के अभाव में बाघ असुरक्षित हो जाते हैं और बाघों से रहित जंगल असुरक्षित होता है। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे की रक्षा करते हैं। यही समृद्धि का मार्ग है। व्यास की कल्पनाशीलता यहां भी लाक्षणिक रूप में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक बनाने का प्रयास करती है।

इस प्रकार यदि हम भारतीयता के झरोखे से अतीत में झांककर देखे तो हमें ‘अरण्य संस्कृति' के दर्शन होंगे। विश्वकबि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारतीय संस्कृति को 'अरण्य’ की संस्कृति कहा है। हमारा इतिहास, दर्शन, हमारी पारम्परा, संस्कृति अरणयों में ही निहित और परिपोषित हुई है। यहां के ऋषि-मुनि, तपस्वी, दार्शनिक, विद्वान अरण्य की शरण में ही अपनी साधना करते रहे और उन्होंने अपने क्रिया- कलापों भारतीय जनमानस को प्रभावित किया। यही सही है कि एक लंबी अवधि तक परतंत्र रहने के कारण हमारे सोच में परवशता आ गयी है। अंग्रेजों ने अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये भारतीय ताने-बाने को नष्ट कर जो ढांचा बनाया, हम आज भी लगभग उसी को ढोये चले जा रहे है। चूंकि आधुनिकता की हवा पश्चिम से आयी तो हम आधुनिकीकरण के नाम पर भी उन्हीं का अंधानुकरण करते रहे है। इसी क्रम में प्रकृति से जुड़ी अपनी परंपरा और संस्कृति को हम भुला बैठे है। हमने प्रकृति और परंपरा के प्रति अपने उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ लिया है। आज सारा मानव समाज प्राकृतिक आपदाओं के रूप में इसका दंड भुगत रहा है। कम से कम अब तो हम चेत जाए। मनुष्य होने के नाते अपनी चेतना, बुद्धि और विवेक का सदुपयोग करें। प्रकृति एवं पर्यावरण को पुन: उसकी शुद्धता और गरिमा में लौटा दे। उसे सुरक्षित रखने के लिये सामाजिक और सांस्कृतिक पर्यावरण की दृढता अनिवार्य है। स्वार्थ और लोभ ने दुष्प्रवृत्तियों का जो साम्राज्य खड़ा कर लिया है, उसे उखाड़ फेंकने की आवश्यकता हैं। इसके लिये मनुष्य को संयम का सहारा लेना होगा। भारतीय परंपरा के अनुरूप प्रेम, करुणा, दयालुता, सहृदयता जैसे उच्च मानवीय गुणों को पुन स्थापित करना होगा, ताकि सह-अस्तित्व की भावना के साथ प्रकृति और पर्यावरण को पुन: उसका वास्तविक स्वरूप प्राप्त हो सके। यह तभी संभव होगा, जब हम सजग, सतर्क और सक्रिय रहेंगे।

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