हिमखंडों के पिघलने से ताज़ा पानी की विशाल मात्रा समुद्र में नमक की मात्रा कम करती है जिससे समुद्री तूफान पैदा होते हैं। साथ ही, बर्फ की चादर कम होने और पानी के रूप में पृथ्वी का डार्क जोन बढ़ने से सूरज की किरणों का अवशोषण बढ़ जाएगा, जो अंतत: तापमान को और बढ़ाएगा। स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में हमें भीषण समुद्री चक्रवातों को झेलने के लिए तैयार रहना होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इन परिवर्तनों का सबसे ज्यादा ख़ामियाज़ा एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिका के देशों को भुगतना पड़ेगा। तेल-गैस की खोज और एशिया से यूरोप के बीच शॉर्टकट रास्ते की तलाश में दुनिया भर की अग्रणी कंपनियां आर्कटिक क्षेत्र की बर्फ को तोड़ने में जुट गई हैं। यही कारण है कि सील-वालरस जैसे जीवों के इलाकों में आजकल परमाणु पनडुब्बियों, समुद्री जहाज़ों, भारी मशीनरी और इंजीनियरों की आवाजाही बढ़ गई है, जिसके चलते बर्फ की चादर खतरनाक ढंग से पिघलती जा रही है। ग़ौरतलब है कि सितंबर 2012 में आर्कटिक का बर्फीला दायरा उसके औसत आकार का आधा रह गया। चूंकि आर्कटिक क्षेत्र के बर्फ की चादर तेजी से पिघल रही है इसलिए वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि 2020 तक गर्मी के मौसम में यह क्षेत्र पूरी तरह बर्फविहीन हो जाएगा। इतना ही नहीं वैज्ञानिक 2040 तक इस इलाके के पूरी तरह बर्फविहीन हो जाने का अनुमान व्यक्त कर रहे हैं।
चूंकि यहां के बर्फ की मोटी चादर के नीचे अरबों टन कार्बन जमी हुई है इसलिए बर्फ के पिघलने पर यह कार्बन डाइऑक्साइड व मीथेन वायुमंडल में पहुँचेगी। इससे न सिर्फ ग्लोबल वार्मिंग में इज़ाफा होगा बल्कि समुद्री तूफान, बाढ़-सूखा, तटीय इलाकों के डूबने जैसी घटनाएँ घटेगी। प्रसिद्ध पत्रिका नेचर के मुताबिक यदि यहां के विशाल इलाके से इसी तरह कार्बन का उत्सर्जन होता रहा तो इससे 2015-25 के बीच दुनिया की अर्थव्यवस्था को 600 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ेगा जो कि मौजूदा विश्व अर्थव्यवस्था के कुल आकार से भी ज्यादा है।
आर्कटिक क्षेत्र को पृथ्वी का जलवायु नियंत्रक भी कहा जाता है इसलिए इसके पिघलने का चौतरफा असर होगा। फिर पृथ्वी पर तापमान को संतुलित करने, बारिश, नदियों एवं समुद्रों में जल की पर्याप्त मात्रा बनाए रखने जैसी गतिविधियों में बर्फ के पिघलने-जमने की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके अलावा यह क्षेत्र पूरी दुनिया के 25 फीसदी कार्बन सोखने का काम करता है। ऐसे में ग्लेशियरों के पिघलने से कार्बन सोखने की क्षमता प्रभावित होगी, जिससे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा और बढ़ जाएगा।
हिमखंडों के पिघलने से ताज़ा पानी की विशाल मात्रा समुद्र में नमक की मात्रा कम करती है जिससे समुद्री तूफान पैदा होते हैं। साथ ही, बर्फ की चादर कम होने और पानी के रूप में पृथ्वी का डार्क जोन बढ़ने से सूरज की किरणों का अवशोषण बढ़ जाएगा, जो अंतत: तापमान को और बढ़ाएगा। स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में हमें भीषण समुद्री चक्रवातों को झेलने के लिए तैयार रहना होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इन परिवर्तनों का सबसे ज्यादा ख़ामियाज़ा एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिका के देशों को भुगतना पड़ेगा। इस प्रकार करे कोई भरे कोई वाली कहावत यहां भी चरितार्थ होगी।
आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ के पिघलने से जहां पर्यावरणविदों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई हैं, वहीं आर्कटिक को चारों ओर से घेरने वाले देशों (अमेरिका, कनाडा, रूस, नार्वे, डेनमार्क, स्वीडन और फिनलैंड) में यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की होड़ मच गई है। संयुक्त राष्ट्र के कन्वेंशन आन द लॉ ऑफ द सी के मुताबिक किसी देश का अपनी सीमा से जुड़े समुद्र पर 200 समुद्री मील तक के अंदर एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन (ईईजेड) में अधिकार होता है।
लेकिन यदि कोई देश यह साबित कर दे कि उसकी महाद्वीपीय चट्टान (शेल्फ) तट से बाहर निकली हुई है, तो उस देश की यह अधिकार सीमा 350 समुद्री मील तक बढ़ जाती है। यही कारण है कि विभिन्न देशों में पानी के अंदर मौजूद पहाड़ियों (रिज) को अपने-अपने महाद्वीपीय चट्टान का हिस्सा बताने की होड़ मच गई है। इस सिलसिले में कई बार हिंसक संघर्ष की भी नौबत आ चुकी है।
यह अनुमान है कि आर्कटिक क्षेत्र में दुनिया के अब तक न खोजे गए तेल का एक-चौथाई और गैस का एक-तिहाई भंडार है। यही कारण है कि कंपनियां यहां के शून्य से 20 डिग्री सेल्सियस नीचे के तापमान पर भी खुदाई करने में जुटी हुई हैं। प्रतिकूल मौसम, बर्फीले तूफान और दूरदराज का इलाका होने के कारण कंपनियों को तेल-गैस के उत्खनन में सबसे ज्यादा चुनौती यहीं झेलनी पड़ रही है। भारी नुकसान और लेटलतीफी के बावजूद डच शेल कदम वापस खींचने को तैयार नहीं है।
अमेरिका की एक्सान मोबिल कंपनी ने रूस के तटीय इलाकों में तेल की खोज के लिए एक समझौता किया है। इटली की एनी व नार्वे की स्टेट ऑयल भी नार्वे के आसपास के समुद्र में खुदाई कर रही हैं। कई जहाजरानी कंपनियां इस बात से खुश हैं कि एशिया और यूरोप के बीच एक सुरक्षित और कम दूरी का समुद्री मार्ग मिल जाएगा। आर्कटिक में ऊंचे मानक की ड्रिलिंग के लिए कंपनियों को भारी-भरकम राशि खर्च करनी पड़ रही है। उदाहरण के लिए शेल ऑयल ने सिर्फ उत्खनन की अनुमति हासिल करने के लिए 4.5 अरब डॉलर की राशि खर्च की है।
चूंकि यहां के बर्फ की मोटी चादर के नीचे अरबों टन कार्बन जमी हुई है इसलिए बर्फ के पिघलने पर यह कार्बन डाइऑक्साइड व मीथेन वायुमंडल में पहुँचेगी। इससे न सिर्फ ग्लोबल वार्मिंग में इज़ाफा होगा बल्कि समुद्री तूफान, बाढ़-सूखा, तटीय इलाकों के डूबने जैसी घटनाएँ घटेगी। प्रसिद्ध पत्रिका नेचर के मुताबिक यदि यहां के विशाल इलाके से इसी तरह कार्बन का उत्सर्जन होता रहा तो इससे 2015-25 के बीच दुनिया की अर्थव्यवस्था को 600 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ेगा जो कि मौजूदा विश्व अर्थव्यवस्था के कुल आकार से भी ज्यादा है।
आर्कटिक क्षेत्र को पृथ्वी का जलवायु नियंत्रक भी कहा जाता है इसलिए इसके पिघलने का चौतरफा असर होगा। फिर पृथ्वी पर तापमान को संतुलित करने, बारिश, नदियों एवं समुद्रों में जल की पर्याप्त मात्रा बनाए रखने जैसी गतिविधियों में बर्फ के पिघलने-जमने की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके अलावा यह क्षेत्र पूरी दुनिया के 25 फीसदी कार्बन सोखने का काम करता है। ऐसे में ग्लेशियरों के पिघलने से कार्बन सोखने की क्षमता प्रभावित होगी, जिससे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा और बढ़ जाएगा।
हिमखंडों के पिघलने से ताज़ा पानी की विशाल मात्रा समुद्र में नमक की मात्रा कम करती है जिससे समुद्री तूफान पैदा होते हैं। साथ ही, बर्फ की चादर कम होने और पानी के रूप में पृथ्वी का डार्क जोन बढ़ने से सूरज की किरणों का अवशोषण बढ़ जाएगा, जो अंतत: तापमान को और बढ़ाएगा। स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में हमें भीषण समुद्री चक्रवातों को झेलने के लिए तैयार रहना होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इन परिवर्तनों का सबसे ज्यादा ख़ामियाज़ा एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिका के देशों को भुगतना पड़ेगा। इस प्रकार करे कोई भरे कोई वाली कहावत यहां भी चरितार्थ होगी।
आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ के पिघलने से जहां पर्यावरणविदों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई हैं, वहीं आर्कटिक को चारों ओर से घेरने वाले देशों (अमेरिका, कनाडा, रूस, नार्वे, डेनमार्क, स्वीडन और फिनलैंड) में यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की होड़ मच गई है। संयुक्त राष्ट्र के कन्वेंशन आन द लॉ ऑफ द सी के मुताबिक किसी देश का अपनी सीमा से जुड़े समुद्र पर 200 समुद्री मील तक के अंदर एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन (ईईजेड) में अधिकार होता है।
लेकिन यदि कोई देश यह साबित कर दे कि उसकी महाद्वीपीय चट्टान (शेल्फ) तट से बाहर निकली हुई है, तो उस देश की यह अधिकार सीमा 350 समुद्री मील तक बढ़ जाती है। यही कारण है कि विभिन्न देशों में पानी के अंदर मौजूद पहाड़ियों (रिज) को अपने-अपने महाद्वीपीय चट्टान का हिस्सा बताने की होड़ मच गई है। इस सिलसिले में कई बार हिंसक संघर्ष की भी नौबत आ चुकी है।
यह अनुमान है कि आर्कटिक क्षेत्र में दुनिया के अब तक न खोजे गए तेल का एक-चौथाई और गैस का एक-तिहाई भंडार है। यही कारण है कि कंपनियां यहां के शून्य से 20 डिग्री सेल्सियस नीचे के तापमान पर भी खुदाई करने में जुटी हुई हैं। प्रतिकूल मौसम, बर्फीले तूफान और दूरदराज का इलाका होने के कारण कंपनियों को तेल-गैस के उत्खनन में सबसे ज्यादा चुनौती यहीं झेलनी पड़ रही है। भारी नुकसान और लेटलतीफी के बावजूद डच शेल कदम वापस खींचने को तैयार नहीं है।
अमेरिका की एक्सान मोबिल कंपनी ने रूस के तटीय इलाकों में तेल की खोज के लिए एक समझौता किया है। इटली की एनी व नार्वे की स्टेट ऑयल भी नार्वे के आसपास के समुद्र में खुदाई कर रही हैं। कई जहाजरानी कंपनियां इस बात से खुश हैं कि एशिया और यूरोप के बीच एक सुरक्षित और कम दूरी का समुद्री मार्ग मिल जाएगा। आर्कटिक में ऊंचे मानक की ड्रिलिंग के लिए कंपनियों को भारी-भरकम राशि खर्च करनी पड़ रही है। उदाहरण के लिए शेल ऑयल ने सिर्फ उत्खनन की अनुमति हासिल करने के लिए 4.5 अरब डॉलर की राशि खर्च की है।
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