आन्ध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले का कोनासीमा इलाका गोदावरी नदी की दो शाखाओं के बीच बसा गहरी हरियाली, घने नारियल के पेड़ों और धान के खेतों का इलाक़ा है जिसके एक ओर बंगाल की खाड़ी है।
लेकिन धीरे-धीरे यहाँ की तस्वीर बदल रही है पिछले दो साल में बहुत से धान के खेत खारे पानी के जलाशयों में तब्दील हो गए हैं जिनमें समुद्री मछलियों, झींगा और समुद्री पौधों की खेती या अक्वा फार्मिंग की जा रही है।
हालांकि खेती के मुकाबले किसानों को ज्यादा आर्थिक लाभ भी हो रहा है, लेकिन इसके दूरगामी दुष्परिणाम होने वाले हैं। गोदावरी नदी का डेल्टा उर्वर भूभागों में से एक है, पूर्वी गोदावरी जिले को आन्ध्र प्रदेश का धान का कटोरा भी कहा जाता है।
जबकि कोनासीमा गोदावरी नदी के दोआब में होने के कारण और ज्यादा उपजाऊ भूभाग है, कोनासीमा के 16 मंडल अमलापूरम, नागुल्लंका, मुक्तेश्वरम, राजोले, कोठापेटा, मुम्मीदीवरम, उप्पालागुप्तम, कटरेनीकोना, नगरम, अप्पनापल्ली, अंभाजीपेटा, कोमारागिरिपटनम, गन्नावरम, मुंगंडा, चल्लापल्ली और पोलावरम के सभी गाँव धान की खेती वाले गाँव हैं लेकिन इनमें से ज्यादातर मंडलों के गाँवों में धान के खेत खारे पानी के जलाशय और टैंक बन रहे हैं।
जबकि कुछ साल पहले तक केवल उन गाँवों में ही अक्वा फार्मिंग की जा रही थी जो समुद्र से नज़दीक हैं।
दरअसल, मछलियों और पौधों का नियंत्रित दशाओं में पालन अक्वा फार्मिंग या जलकृषि कहलाती है, ये दो तरह की होती है मीठे पानी वाली जलकृषि या फ्रेशवाटर अक्वाफार्मिंग और समुद्री खारे पानी वाली जलकृषि जिसे ब्रैकिशवाटर अक्वाकल्चर भी कहा जाता है, तटीय इलाकों में या खुले समुद्र में एक निश्चित हिस्से को घेरकर समुद्री मछलियों, समुद्री झींगा, केकड़ा, शेलफिश, सीप, सी बास, ग्रे मुलेट, टाईगर श्रिम्प और मड क्रैब्स व घोंघों का पालन किया जाता है साथ ही समुद्री शैवाल और कई अन्य तरह के समुद्री पौधों की खेती की जाती है।
देश के अधिकांश हिस्सों में मीठे पानी की जलकृषि प्रत्यक्ष रूप से धान की खेती से जुड़ी हुई है, धान के इलाकों में खेतों के साथ पर्याप्त तालाब और पोखर होते हैं जिनमें मछलीपालन, झींगापालन के साथ कमल, सिंघाड़ा, तालमखाना भी उगा लिया जाता है।
लेकिन व्यावसायिक और वैकल्पिक खेती के तौर अक्वाफार्मिंग के प्रचलन के कारण पंजाब, हरियाणा और गुजरात जैसे राज्य देश के अग्रणी मछली उत्पादक राज्य बन गए हैं, आन्ध्र प्रदेश भी ताजे पानी की मछलियों का शीर्ष उत्पादक राज्य है लेकिन आन्ध्र प्रदेश में खपत भी लगभग उत्पादन के बराबर ही है सीमित मात्रा में ताजे पानी की मछलियाँ आन्ध्र प्रदेश बगल के पड़ोसी राज्यों, उत्तरपूर्व के राज्यों और नेपाल व भूटान जैसे देशों को भी भेजता है।
लेकिन तटीय अक्वाफार्मिंग में आन्ध्र प्रदेश देश में पहले स्थान पर आता है। समुद्री मछलियों के कुल निर्यात का अकेले चालीस प्रतिशत आन्ध्र से ही होता है। वैसे भी ताजे पानी में मिलने वाली मछलियों का पालन देश के सभी हिस्सों में हमेशा से होता आया है। लेकिन सत्तर के दशक के बाद मछलीपालन को कृषि के विकल्प के तौर पर लिये जाने के बाद इसे ज्यादा उन्नत और प्रति हेक्टेयर ज्यादा उत्पादन देने वाला बनाया गया।
जहाँ तक आन्ध्र प्रदेश की बात है तो यहाँ 102 जलाशय जिसमें 7 बहुत बड़े और 26 मध्यम आकार के व 69 छोटे आकार के हैं। ताजे पानी की कोल्लेरू झील, चौहत्तर हजार के करीब मौसमी, स्थायी, अस्थायी तालाब, टैंक बंध आदि हैं।
जाहिर है यहाँ के किसानों के पास शुरू से खेती के साथ मछलीपालन का भी विकल्प रहा है। दूसरी ओर 974 किलोमीटर लम्बी तटरेखा, लगभग 508 मछुआरों के गाँव और पुलिकट जैसी खारे पानी की बड़ी झील जहाँ प्राकृतिक रूप से खारे पानी में की जाने वाली अक्वाफार्मिंग की सभी दशाएँ मौजूद हों आन्ध्र प्रदेश को तटीय अक्वाफार्मिंग की अपार सम्भावनाएँ प्रदान करती हैं।
राज्य के तटीय इलाकों के गाँवों में हमेशा से लोगों के रोज़गार का एक जरिया फिश फार्मिंग भी रही है। राज्य के मत्स्य पालन विभाग के आँकड़ों के मुताबिक पूर्वी गोदावरी जिले के सोलह हजार हेक्टेयर भूमि पर झींगापालन या प्रानकल्चर किया जा रहा है और चार हजार पचपन हेक्टेयर ज़मीन पर फ्रेशवाटर अक्वाफार्मिंग की जा रही है।
जिले के ज्यादा-से-ज्यादा किसान अक्वाफार्मिंग का रूख कर रहे हैं। मत्स्य विकास अधिकारी संजीवा राय के मुताबिक जिले के 20 प्रतिशत से ज्यादा किसान अक्वा फार्मिंग में लग चुके हैं, इतने बड़े स्तर पर खारे पानी का इस्तेमाल करते हुए अक्वा फार्मिंग करने के कारण इलाके का भूजल भी निश्चित रूप से खारा हो रहा है।
आने वाले समय में बहुत सम्भव है कि यहाँ के किसानों के पास केवल अक्वाफार्मिंग का विकल्प ही बचे। संजीवा राय कहते हैं, 1980 और फिर 2008 में पूर्वी गोदावरी और पश्चिमी गोदावरी जिले के किसानों ने उपजाऊ खेती की ज़मीन के बहुत बड़े रकबे को तालाबों और अक्वाफार्मिंग जलाशयों में बदल दिया था और केवल टाइगर प्रॉन का मोनोकल्चर करने लगे,सात साल तक किसानों को प्रति एकड़ 3 से 7 लाख की आमदनी होती रही।
इस फायदे को देखते हुए ही कोनासीमा के सभी गाँवों के लगभग हर किसान ने अपनी 2 से 5 एकड़ जमीन पर टाइगर प्रॉन का मोनोकल्चर करना शुरू कर दिया। लेकिन इसके बाद झींगा मछलियों में सफेद दाग की बीमारी के कारण उन्हें नुकसान होना शुरू हो गया, 1997 से 2008 से पहले तक इस बीमारी के कारण अक्वा फार्मिंग करने वाले किसानों को भारी नुकसान हुआ, धान की खेती भी प्रभावित हुई और उसके लिये उनके पास ज़मीन भी कम बची।
इसलिये यहाँ के किसान जलाशयों के साथ नारियल के बागान लगाने लगे और तालाबों में पोली कल्चर करने लगे। 2008 के बाद से किसान फिर से ज्यादा जानकारी और तकनीकी सहयोग से लैस होकर अक्वा फार्मिंग की ओर मुड़े।
यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन पिछले कुछ सालों से खेती के मुकाबले मछली पालन में बहुत ज्यादा लाभ होने के कारण बहुत से किसानों ने खेती छोड़कर अक्वा फार्मिंग को अपनाया है और बहुतों ने अपने पारम्परिक धान के खेतों को भी अक्वा फार्मिंग के लिये छोटे जलाशय में बदल दिया।
दरअसल सारी समस्या यहीं से शुरू हुई है, धान और अन्य फसलों के लिये उपयुक्त खेती की ज़मीन को खारे पानी के जलाशयों में बदल देने के गम्भीर पर्यावरणीय दुष्परिणाम होंगे, सबसे ज्यादा असर पीने के पानी की उपलब्धता पर होगा। विशेषज्ञ इसके लिये चेतावनी देने भी लगे हैं। साथ ही मुनाफाखोर व्यवसायी झूठे किसान बनकर असली किसानों से उन्हें तत्काल ज्यादा पैसा का लालच देकर सैकड़ों एकड़ ज़मीन खरीद कर उसे जलाशयों में बदल रहे हैं। खुद किसान भी अपनी खेती की ज़मीन को जलाशय में बदल रहे हैं।
जबकि खेती की ज़मीन का कोई और इस्तेमाल को लेकर कानून भी हैं लेकिन अभी तक इस ओर सरकारों का ध्यान नहीं गया है। हालांकि संजीवा राव के मुताबिक जिलाधिकारी को इन बातों की जानकारी दे दी गई है। इसके अलावा अक्वा फार्मिंग के कारण स्थानीय लोगों को अनाज की उपलब्धता भी प्रभावित हो रही है। फिश फार्मिंग मछलियों को बाहर भेजने या निर्यात के लिये की जाती है और स्थानीय लोगों को अपनी स्थानीय मछलियाँ नहीं मिल रही हैं।
दरअसल, अक्वा फार्मिंग एक ओर अगर किसानों के लिये वैकल्पिक रोज़गार और ज्यादा आमदनी का जरिया है तो दूसरी ओर इससे होने वाला पर्यावरणीय नुकसान कहीं ज्यादा बड़ा और व्यापक है।
अक्वा फार्मिंग से पूर्वी गोदावरी जिले के धान के खेत, भूजल ही नहीं बल्कि तटीय इलाकों में किये जाने पर मैंग्रोव के जंगल और समुद्र तटीय पर्यावरण खतरे में पड़ जाएगा। और चक्रवात, हरिकेन और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं का असर कई गुना ज्यादा बढ़ जाएगा। चीन, जापान, थाईलैंड और मलेशिया में तटीय इलाकों में फिश फार्मिंग करने के दुष्परिणाम अब दुनिया के सामने है।
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