भारतीय चिंतन परम्परा में पर्यावरण से प्रेम जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा रहा है। लेकिन, तथाकथित आधुनिकता और उपभोक्तावादी संस्कृति ने पर्यावरण को क्षति पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पर्यावरण-स्वच्छता की संकल्पना सीधे तौर पर मानवाधिकार से जुड़ी हुई है। ऐसी स्थिति में पर्यावरण के लिये कानून का संरक्षण भी महत्त्वपूर्ण है। कानून के द्वारा पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वालों को दंडित किया जा सकता है तथा पीड़ितों को क्षतिपूर्ति भी दिलवाई जा सकती है। भारत में पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित कानूनों का इतिहास 115 वर्ष पुराना है। इसमें वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भू-प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण रोकने के लिये अनेक अधिनियम हैं। इन्हें लागू करने में न्यायपालिका का विशेष योगदान है। न्यायपालिका के निर्णय सरकार और जनता, दोनों पर बाध्यकारी होने के कारण पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने में प्रभावी भूमिका निभाते हैं। इस दृष्टि से भारत का संविधान भी अनुपम है। यह विश्व का पहला ऐसा संविधान है जिसमें पर्यावरण-संरक्षण के लिये विशेष प्रावधान है।
जून 1972 में स्टॉकहोम में सम्पन्न मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन के अनुसार मनुष्य अपने पर्यावरण का निर्माता एवं शिल्पकार दोनों ही है जिससे उसे भौतिक स्थिरता मिली है। इस ग्रह पर मनुष्य जाति की एक लम्बी तथा पीड़ादायक उत्क्रमण यात्रा में एक ऐसी स्थिति आ गई है जब विज्ञान तथा तकनीकी के तीव्र विस्तार के द्वारा मनुष्य ने एक प्रकार से अभूतपूर्व स्तर पर अपने पर्यावरण की कायापलट करने की क्षमता प्राप्त कर ली है। पर्यावरण के प्रकृति प्रदत्त और मानव निर्मित दोनों पक्ष उसकी सलामती तथा उसके आधारभूत मानवाधिकार के लिये आवश्यक हैं। भारतीय समाज में आस्था और विश्वास का विशेष स्थान है और इसमें प्राकृतिक संसाधनों जैसे पौधों, जन्तुओं, नदियों आदि को भी पूजनीय माना जाता है। हमारी सांस्कृतिक परम्परा में पर्यावरण-संरक्षण की भावना पहले से निहित है। प्राचीन काल में भारत में प्रकृति को किसी भी प्रकार की छति नहीं पहुँचाई जाती थी, इसलिये यहाँ पर्यावरण संरक्षण के लिये किसी कानून की आवश्यकता नहीं थी। लेकिन अब पिछली सदी में पर्यावरण के संरक्षण के लिये बड़ी संख्या में कानून बनाए गए। ये सभी कानून तीन श्रेणियों में बाँटे जा सकते हैं-
(क) सामान्य कानून
(ख) विनियामक कानून और
(ग) विशेष विधान
(क) सामान्य कानून : अंग्रेजी का शब्द ‘कॉमन लॉ’ लैटिन शब्द ‘ex communis’ से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है ‘सामान्य कानून’। यह इंग्लैंड के परम्परागत कानून की संस्था है और यह न्यायिक निर्णयों पर आधारित है। भारतीय संविधान की अनुच्छेद 372 कॉमन लॉ पर आधारित है और यह अभी तक लागू है। पर्यावरण प्रदूषण के विरुद्ध कॉमन लॉ की सहायता लॉ आॅफ टोरट (सिविल राँग) के तहत उपलब्ध है।
ऐसे किसी भी कार्य के विरुद्ध जो सम्पत्ति या व्यक्ति के हानि का कारण बना हो, प्रभावित पक्ष क्षति-पूर्ति या निषेधाज्ञा या दोनों का दावा कर सकता है।
पर्यावरण प्रदूषण के लिये महत्त्वपूर्ण कारक हैं :
(1) व्यवधान (2) अतिक्रमण तथा (3) लापरवाही
(ख) विनियामक कानून-उपचार : विनियामक प्रावधान जो सभी प्रकार के प्रदूषण को रोकने तथा नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। वे इस प्रकार हैं-
- संवैधानिक प्रावधान
- नागरिक प्रक्रिया संहिता के प्रावधान
- फैक्टरीज एक्ट, 1948
- वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट, 1972 तथा
- मोटर वेहिकल एक्ट, 1988
(ग) विशेष विधान : जल एवं वायु प्रदूषण।
पर्यावरण कानून का मुख्य उद्देश्य वातावरण के प्राकृतिक उपचार को प्रदूषण से बचाना है। कानून पर्यावरण के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है इसकी मुख्य भूमिकाएँ हैं-
- कानून पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाले व्यक्ति को दंडित करता है।
- कानून पीड़ित को क्षतिपूर्ति दिलवाता है।
- कानून व्यक्ति को पर्यावरण पर दबाव बढ़ाने से वर्जित करता है।
- कानून पर्यावरण संरक्षण नीति को कार्य रूप में परिणत करता है।
- कानून विकास नीति को भी कार्य के रूप में परिणत करता है।
भारत में पर्यावरण कानून का इतिहास 115 वर्ष पुराना है। प्रथम कानून 1894 में पास हुआ था। सबसे पहले वायु प्रदूषण नियंत्रणकारी कानून थे। अब तक बनाए गए सभी कानूनी प्रावधानों को प्रभावशाली ढंग से लागू करने योग्य बनाने के लिये इन अधिनियमों में संशोधन किया गया। संशोधित अधिनियम इस प्रकार हैं –
(1) एन्वायरन्मेंट प्रोटेक्शन एक्ट, 1986
(2) वॉटर प्रिवेन्शन एंड कन्ट्रोल ऑफ पॉल्यूशन एक्ट-1974, 1988 में संशोधित।
(3) एयर प्रिवेन्शन एंड कन्ट्रोल ऑफ पॉल्यूशन एक्ट 1981, 1988 में संशोधित।
(4) पब्लिक लायबिलिटी इन्श्योरेंस एक्ट 1991
(5) द नेशनल एन्वायरन्मेंट ट्राब्यूनल एक्ट 1995
(6) वाइल्ड लाइफ एक्ट 1972, 1991 में संशोधित
(7) फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट, 1980, 1988 में संशोधित
(8) मोटर वेहिकल एक्ट 1988
(9) बायोमेडिकल वेस्ट
भारतीय संविधान एवं पर्यावरण संरक्षण
इतिहास गवाह है कि भारत में पर्यावरण की रखवाली बल्कि कहना चाहिए पर्यावरण से प्रेम जीवन की एक शैली थी। पेड़-पौधों की रक्षा के लिये लोगों ने अपने जीवन तक बलिदान कर दिया किंतु अब लोगों की प्राथमिकताएँ बदलने लगी हैं। वे आधुनिक युग के उपभोक्तावाद से प्रभावित हुये हैं। जहाँ एक ओर बढ़ती हुई जनसंख्या ने गरीबी को बढ़ाया है वहीं दूसरी ओर अमीरों के बढ़ते लालच ने वन्य जीवन को नष्ट किया है, वनों को समाप्त कर दिया है। पारम्परिक पौधों के स्थान पर सजावटी पौधों को स्थापित करके करोड़ों वर्षों की सहेजी हुई जैव विविधता को नष्ट किया है तथा भूमि, जल एवं वायु को प्रदूषित किया है। इन सबका परिणाम पारिस्थितिकीय असन्तुलन के रूप में सामने आया है तथा आज इस बात की आवश्यकता अनुभव की जा रही है कि संरक्षण की उसी पुरानी भावना को पुन: जगाया जाये।
भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका, विधायिका एवं कार्यपालिका शासन के तीन स्तंभ हैं। तीनों का ही अपना अलग-अलग कार्यक्षेत्र एवं महत्व है। विधायिका द्वारा जन अपेक्षानुसार विधानों का निर्माण किया जाता है। कार्यपालिका विधानों का पालन कराती है। कार्यपालिका के कार्यों का सुचारुपूर्ण एवं निष्पक्ष निष्पादन हो, इसलिये न्यायपालिका का एक सजग प्रहरी के रूप में अपने दायित्व का निर्वहन करती है।
हमारे देश में स्वतंत्रता-प्राप्ति के उपरांत न्यायपालिका को और अधिक महत्व दिया गया है। न्यायपालिका का निर्णय सरकार एवं जनता दोनों पर बाध्यकारी होने के कारण यह पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने एवं पर्यावरणीय मानवाधिकारों के संरक्षण में एक अहम भूमिका निभा रही है।
संवैधानिक प्रावधान
भारतीय संविधान विश्व का पहला संविधान है जिसमें पर्यावरण संरक्षण के लिये विशिष्ट प्रावधान हैं।
प्रस्तावना
भारतीय संविधान में निहित समाजवादी विचारधारा का मुख्य लक्ष्य है सभी को जीवन का सुखद स्तर उपलब्ध करवाना जो कि केवल एक प्रदूषण मुक्त वातावरण में ही सम्भव है। प्रस्तावना का अन्य उद्देश्य है ‘व्यक्ति की गरिमा’ को सुनिश्चित करना। कोई व्यक्ति गरिमा के साथ नहीं जी सकता है यदि उसे प्रदूषणमुक्त वातावरण न मिले।
मूल अधिकार
अनुच्छेद 19 (1 का) प्रत्येक नागरिक को बोलने तथा अभिव्यक्ति की मूलभूत स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इसमें प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है। यह अनियंत्रित नहीं है। इसे अनुच्छेद 19 (2) में वर्णित आधारों पर सीमित किया जा सकता है।
भारत में जनमत तथा संचार माध्यमों (मीडिया) ने जन सामान्य के पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों के बोध को आधार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका लगाई है। विभिन्न स्वैच्छिक संगठनों ने अनुच्छेद 19 (1) (क) में प्रदत्त मूलभूत स्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए पर्यावरण से जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों को उठाया है। जैसे केरल शास्त्र साहित्य परिषद तथा अन्य स्वैच्छिक संगठनों, पर्यावरणविदों एवं संचार माध्यमों (मीडिया) ने सरकार को साइलेन्ट वैली प्रोजेक्ट (समृद्ध सदाबहार वर्षा वनों का क्षेत्र) को छोड़ने के लिये बाध्य कर दिया। इसी प्रकार एन्वायरन्मेंट सोसाइटी ऑफ चंडीगढ़ एवं सेन्टर फॉर साइन्स एंड एन्वायरन्मेंट के प्रयास सराहनीय रहे हैं। मिनरल वॉटर एवं पेप्सी के विरुद्ध संघर्ष ने इन कम्पनियों को रासायनिक पदार्थ मुक्त जल अपने उत्पादों के लिये प्रयोग करने को बाध्य कर दिया है।
अनुच्छेद 19 (छ) सभी नागरिकों को व्यापार तथा धंधा करने की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। यह अधिकार भी उन्मुक्त नहीं है। इस पर अनुच्छेद 19 (6) के अन्तर्गत जनता के व्यापक हित में यथोचित प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं।
इसी अनुच्छेद के तहत एम.सी.मेहता. (1996) के केस में उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया था कि खतरनाक, हानिकारक तथा बड़े पैमाने पर दिल्ली में चल रहे उद्योगों को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अन्य उपनगरों में पुनर्स्थापित किया जाये। इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय ने 1996 में हरियाणा स्थित बडखल तथा सूरजकुंड के पर्यटन स्थल के दो किमी के दायरे में उत्खनन गतिविधियों पर रोक लगाने के आदेश दिये थे क्योंकि इसी प्रकार की गतिविधियाँ स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिये खतरनाक थीं।
न्यायमूर्ति श्री रंगनाथ मिश्र, उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं पूर्व अध्यक्ष, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार प्रदूषण और भूमंडलीय समस्याएँ संविधान के अनुच्छ्द 21 के अन्तर्गत आती हैं। यदि यह सत्य है तो पर्यावरण का मामला स्पष्ट रुप से मानवाधिकार में आता है। इसी आशय पर आयोग ने पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक से पानी के प्रदूषित होने के प्रकरण में हस्तक्षेप भी किया था।
अनुच्छेद (1) जीने के अधिकार तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है। न्यायाधिकरण द्वारा एक विस्तृत व्याख्या दी गई है जिसमें स्वच्छ पर्यावरण के मूलभूत अधिकार को सम्मिलित किया गया है।
सन 1976 में राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में 42वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 48 (क) जोड़ा गया है जो घोषणा करता है कि देश में सरकार पर्यावरण की रक्षा व संवर्धन के लिये एवं वनों तथा वन्य जीवन की सुरक्षा के लिये प्रयास करेगी। सन 1976 से पहले पर्यावरण राज्यों की सूची में था परन्तु 42वें संशोधन के बाद यह समवर्ती सूची में सम्मिलित कर लिया गया।
अनुच्छेद 51 (क) (छ) (मौलिक कर्तव्य) हर नागरिक पर यह उत्तरदायित्व डालता है कि वह वनों, झीलों, नदियों तथा वन्य जीवन सहित प्राकृतिक वातावरण का संरक्षण तथा सुधार करें तथा जीवित प्राणियों के प्रति करुणा रखें।
अनुच्छेद 47, 48 तथा 51 (क) (छ) के अनुसार राज्य का यह कर्तव्य है कि वह पर्यावरण तथा नागरिक स्वास्थ्य की रक्षा तथा सुधार करें और जनता के लिये प्रदूषण रहित जल, वायु तथा पर्यावरण सुलभ कराएँ।
अनुच्छेद 32 के तहत उच्चतम न्यायालय को तथा सभी उच्च न्यायालयों को अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत न्यायाधिकार प्रदान किये गए हैं। जनहित याचिकाओं ने भी पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी मुद्दों को लागू कराने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, जैसे कि –
(क) भारतीय संघ बनाम एम.सी. मेहता मामले (1991) में उच्चतम न्यायालय ने जनता में पर्यावरण सम्बन्धी जागरुकता बढ़ाने के उद्देश्य ने निम्नलिखित निर्देश जारी किये –
(1) सभी सिनेमा हॉल, वीडियो पार्लर्स अनिवार्य रूप से कम से कम हफ्ते में दो पर्यावरण एवं प्रदूषण सम्बन्धी फिल्मों को दिखाएँगे।
(2) दूरदर्शन एवं आकाशवाणी द्वारा पर्यावरण तथा प्रदूषण सम्बन्धी कार्यक्रम का प्रसारण प्रतिदिन 5 से 7 मिनट तथा सप्ताह में एक बार लम्बी अवधि का कार्यक्रम प्रसारित किया जायेगा।
(3) विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में छात्रों के लिये पर्यावरण को अनिवार्य विषय बनाया जाये।
(ख) उच्चतम न्यायालय ने आगरा स्थित विश्व विख्यात ऐतिहासिक धरोहर ताजमहल को बचाने के लिये 292 कोयला आधारित उद्योगों को बन्द करने तथा अन्यत्र ले जाने या गैस, ईंधन आधारित बनाने के उद्देश्य से आदेश पारित किये। न्यायालय ने 1997 में पर्यावरण तथा वन मंत्रालय एवं पर्यटन मंत्रालय के सचिवों को भी निर्देश दिये कि पर्यटकों से एकत्र किया गया कोष स्मारक के संरक्षण एवं सौंदर्यीकरण पर व्यय किया जाये।
(ग) उच्चतम न्यायालय ने वाहनों से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिये निम्नलिखित निर्देश जारी किये –
(1) सीसा रहित पेट्रोल का प्रयोग चार महानगरों (दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई) तथा सन 2000 तक पूरे देश में हो।
(2) नए पंजीकृत पेट्रोल वाहनों में केटालिटिक कन्वर्टर लगे होने चाहिए।
(3) दिल्ली में अप्रैल 2001 तक टैक्सियों, ऑटोरिक्शा तथा बसों में सी.एन.जी. का प्रयोग।
जून 1972 में स्टॉकहोम में सम्पन्न मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन के अनुसार मनुष्य अपने पर्यावरण का निर्माता एवं शिल्पकार दोनों ही है जिससे उसे भौतिक स्थिरता मिली है। इस ग्रह पर मनुष्य जाति की एक लम्बी तथा पीड़ादायक उत्क्रमण यात्रा में एक ऐसी स्थिति आ गई है जब विज्ञान तथा तकनीकी के तीव्र विस्तार के द्वारा मनुष्य ने एक प्रकार से अभूतपूर्व स्तर पर अपने पर्यावरण की कायापलट करने की क्षमता प्राप्त कर ली है। पर्यावरण के प्रकृति प्रदत्त और मानव निर्मित दोनों पक्ष उसकी सलामती तथा उसके आधारभूत मानवाधिकार के लिये आवश्यक हैं।
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