किसी विद्वान ने सत्य कहा है कि पर्यावरण को यथावत छोड़ दिया जाए तो वह निरंतर लाखों सालों तक जीवन का सहारा बन सकता है। इस योजना में एक मात्र सर्वाधिक अस्थिर और संभावित विनाशकारी शक्ति मानव प्रजाति है। मानव आधुनिक प्रौद्योगिकी की सहायता से पर्यावरण में जाने, अनजाने दूरगामी और अपरिवर्तनीय बदलाव लाने की क्षमता रखता है। इसलिए हम सबकी और हम सबमें आज जागरूकता बहुत आवश्यक है।
शून्य या खाली स्थान में जीवन संभव नहीं होता। जीवन की उत्पत्ति ही पर्यावरण में हुई है और पर्यावरण ही मानव जीवन को बनाए हुए है। पर्यावरण का अस्तित्व हम पर नहीं बल्कि हम पर्यावरण के अस्तित्व पर निर्भर हैं। मानव सभ्यता पर नजर डालें तो यह बात सामने आती है कि सभी सभ्यताएँ प्रायः नदी तटों पर, वनों की गोद में ही पली और बढ़ी हैं। यही कारण है कि जहाँ भी सभ्यताओं के भग्नावशेष मिले हैं वहीं आस-पास जलस्रोत भी अनिवार्य रूप से दिखे हैं। प्रारंभ में यद्यपि शिक्षा नहीं थी परंतु फिर भी लोग जलस्रोतों को गंदा नहीं करते थे। अशिक्षा के कारण सफाई आदि को धर्म से जोड़ दिया गया था, क्योंकि मानव जाति धर्म भीरू होती है। वह अन्य सभी वर्जनाएँ तोड़ सकती है परंतु धार्मिक वर्जनाओं को तोड़ने में उसे बड़ी मसक्कत करनी पड़ती है। ज्यादातर मामलों में धर्म की विजय होती है और व्यक्ति वर्जनाओं या फिर कभी-कभी अंध-विश्वासों को यथावत मान लेता है। परंतु सभी वर्जनाएँ, धर्मांधता से अच्छादित नहीं होती। धर्म ग्रंथों में भी मुनियों और साधु-संतों ने जीवन को सादगी से जीने की सलाह दी है। बढ़ती आबादी का एक कारण अशिक्षा भी रही है। अशिक्षित व्यक्ति इसे कुदरत की देन समझ कर इस पर चिंतन, मनन करने से कतराता है। परंतु यह उचित नहीं कहा जाता है।आज जैसे-जैसे शिक्षा का ग्राफ बढ़ रहा है जनसंख्या नियंत्रण में कुछ परिवर्तन दिखायी दे रहा है। परंतु शिक्षा का विकास काफी मंथर गति से हो रहा है इसलिये जनसंख्या का विकास द्रुत गति से हो रहा है और उसकी गति की मंदता दिखायी नहीं देती। देश का एक वर्ग ऐसा भी है जो अपनी सुख सुविधाओं के लालच में दूसरों को शिक्षित होता नहीं देखना चाहता। उसे लगता है कि यदि सभी शिक्षित हो गए तो इस देश में खेती और मज़दूरी का काम कौन करेगा? आज भी खेती को उत्तम धंधा या व्यवसाय नहीं माना जाता। संपन्न वर्ग यह चाहता है कि किसान अपने खेतों में अन्न तो अवश्य उगाए पर उतनी ही उसे छूट और सुविधाएँ दी जानी चाहिए जिससे वह संपन्न वर्ग का सदस्य न बन सके। वह अन्न का भडारण और विपणन खुद न कर सके। इस तरह किसान को उपज का बेहतर मूल्य कभी नहीं मिलता। वह खेत को पानी, खाद आदि देता है, निराई, गुड़ाई करता है, वहीं बिचौलिया कुछ भी नहीं करता पर वह किसान के हिस्से से ज्यादा रकम कमाता है। यह लंबी अवधि से चल रहा है और चलता रहेगा।
इस तरह के अनेक कारण हैं जिनके चलते आज का गरीब और आदिवासी, येन केन प्रकारेण अपना जीवन-यापन करता है। कुल मिलाकर देश की खुशहाली के लिये शिक्षा परम आवश्यक है, जिससे लोग न केवल अपने जीवन के बार में सोच सकेंगे बल्कि पर्यावरण और आस-पास की चीजों, अपने भावी जीवन के बारे में भी सोच सकेंगे। शिक्षित व्यक्ति को समझाना तुलनात्मक तौर पर आसान होता है, आज जीवन के उपयोग में आने वाली लगभग सभी वस्तुएँ प्रदूषण का शिकार हो रही हैं। क्या धरती क्या अंबर क्या जल आज सभी अपनी पवित्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं और धरती पर सबसे तेज दिमाग रखने वाला व्यक्ति अपने विकास के नाम पर अन्य प्राणियों के साथ-साथ अपने वजूद को खतरे में डालता जा रहा है।
पर्यावरण की कठोरता मानव को किस प्रकार प्रभावित करती है इसका हालिया उदाहरण मार्च 2011 में जापान में आयी प्राकृतिक आपदा है। वैश्विक मानव के रूप में यह संकट सिर्फ जापान का ही नहीं बल्कि समूची मानव जाति का है। पर्यावरण से हमारे रिश्तों की प्रकृति हमारे अस्तित्व को निर्धारित करती है।
पर्यावरण शब्द दो शब्दों परि एवं आवरण के योग से बना है जिसका अर्थ है वह वातावरण, जो हमें चारों ओर से ढके हुए हैं। पर्यावरण को समस्त भूमंडलीय विरासत और सभी संसाधनों की समग्रता के रूप में परिभाषित किया जाता है। इसमें वे सभी जैविक और अजैविक तत्व आते हैं जो एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।
‘आक्सफोर्ड’ शब्दकोश ने पर्यावरण के स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहा है कि- ‘‘वह प्राकृतिक संसार जो भूमि, वायु और जमीन के बीच अंतरसंबंधों के साथ-साथ अन्य जीवों, पौधों, सूक्ष्म जीवों और संपदाओं के बीच अंतर्संबंधों को सम्मिलित किए रहता है।’’
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पर्यावरण वह आवृत्त है जिससे जीवन घिरा है। प्रकृति को जहाँ ग्रह, नक्षत्र एवं संपूर्ण भौतिक एवं जैविक घटकों की आवृत्ति माना जाता है वहीं पर्यावरण को पृथ्वी के आवृत्त का ही प्रतिनिधि माना जाता है।पर्यावरण का प्रत्येक अवयव स्थलमंडल, जल मंडल, वायुमंडल और जैव मंडल एक दूसरे पर इस प्रकार आश्रित हैं कि उन्हें एक दूसरे से पृथक करना संभव नहीं है। मानव की पूर्णता प्रकृति पर निर्भर है अतः मानव ने प्रकृति को जानने के लिये कदम उठाए, उसने भूगर्भ को खोजा, समुद्र की गहराइयों को नापा और विज्ञापन के दुर्जय रथ पर सवार होकर अंतरिक्ष पर पहुँच गया। यहीं से आरंभ हुआ मानव और प्रकृति के समतोल के बिगड़ने का सिलसिला मानव ने गुफाओं से निकलकर अपने जीवन को आरामदायक और सुखद बनाने के प्रयासों में प्रकृति से छेड़छाड़ आरंभ कर दी।
विकास कार्यों ने प्राकृतिक संसाधनों की निश्चित परिभाषा पर दबाव डाला। इससे मानव स्वास्थ्य और सुख समृद्धि पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा भारत के पर्यावरण पर दो तरह के संकट मंडरा रहे हैं। पहला संकट निर्धनता जनित पर्यावरण क्षय का है और दूसरा संकट संपन्नता तथा तेजी से बढ़ते औद्योगिक क्षेत्र से हो रहे पर्यावरण प्रदूषण का है। मानव ने अत्यधिक उपयोग और दुरुपयोग के फलस्वरूप पर्यावरण को हर प्रकार से दूषित और दबावयुक्त बना दिया है। इस तरह हम प्रकृति का जितना दोहन करेंगे उतने ही हमारे विकल्प कम होते जाएँगे और हमारे पास जीवन के लिये मात्र संघर्ष के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं रह जाएगा।
पर्यावरण को बचाने के लिये वैश्विक और देश स्तर पर कई कदम उठाए गए। वैश्विक स्तर पर सर्वप्रथम 5 जून, 1972 में संयुक्त राष्ट्र ने स्टॉक होम में पर्यावरण से संबंधित एक सम्मेलन का आयोजन किया और उसके बाद पर्यावरण मुद्दा बन गया।
कानूनी रूप से पर्यावरण को बचाने के लिये पर्यावरण संरक्षण कानून 1986 में भारत में बना। इस कानून ने पर्यावरण को बचाने में अहम भूमिका निभाई। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा विभिन्न गैर सरकारी संगठनों और आंदोलनों ने पर्यावरण को बचाने में पहल की, किंतु पर्यावरण से संबंधित समस्याएँ इतनी गंभीर हैं कि इन सभी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यक्रमों द्वारा ऐसा कुछ ठोस नहीं हो पाया कि चिंतामुक्त हो जाया जाए।
पर्यावरण को बचाने के लिये विभिन्न रक्षा उपाय हैं जैसे प्रदूषण के खतरों को लोगों को बताना, पर्यावरण संरक्षण कानून 1986 को कड़ाई से लागू करना, जनसंख्या को नियंत्रित करना, जंगलों की कटाई को रोकना, विभिन्न प्रकार के अपशिष्ट पदार्थों का नियोजित प्रबंधन करना और इसके साथ-साथ धारणीय विकास की रणनीतियाँ बनाना एवं लागू करना, पर्यावरण संरक्षण के अन्य उपायों के साथ धारणीय विकास का मार्ग अपनाना। धरणीय विकास से तात्पर्य है- वर्तमान की आवश्यकताओं को इस प्रकार पूरा करना जिससे कि भविष्य की पीढ़ियों के लिये संकट न उत्पन्न हो। ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों का इस्तेमाल एल.पी.जी., गोबर गैस, उच्च दाब प्राकृतिक गैस, वायु शक्ति का उपयोग, सौर शक्ति का उपयोग, लघुजलीय प्लांट, जैविक खाद एवं जैविक कीटनाशकों जैसे विकल्पों को अपनाकर हम पर्यावरण की समस्याओं को कम करते हुए अपने विकास की गति को जारी रख सकते हैं। किंतु वर्तमान में इन उपायों पर बहुत कम पहल हुई है और पर्यावरण संरक्षण की समस्या बनी हुई है।
क्या धरती, क्या अंबर, क्या जल, आज सभी अपनी पवित्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं। जीवन दायिनी नदियों की दुर्दशा आज किससे छिपी है, माँ के नाम से सम्मान पाने वाली नदियाँ आज इतनी गंदी हो चुकी हैं कि आम आदमी उनके जल को नहाने आदि काम में लाने से भी कतराता है और शहरों के आस-पास की हालत तो यह है कि पानी गंदा होने के कारण किसान इस पानी से सिंचाई करने से भी डरता है, उसे लगता है कि इस पानी से न जाने त्वचा का कौन रोग उसे पकड़ ले। मानव की फितरत रही है कि वह हर अपने काम के लिये दूसरों को जिम्मेदार ठहराता है। हमें इस पलायनवादी नियति से आगे सोचना चाहिए। जो गलतियाँ हमने की हैं उनसे मुकरने की नहीं उनसे सीख लेने की आवश्यकता है। उन गलतियों को न दोहराया जाय यही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
नदियों की सफाई के लिये यद्यपि अनेक प्रयास सरकारी तौर पर किए जा रहे हैं पर इन प्रयासों की हकीकत अभी तक तो रंग नहीं ला पायी भविष्य के बारे में क्या कहा जाए। आम जन जब तक इस प्रयास और मुहिम में नहीं जुड़ेगा तब तक इस समस्या का समाधान नहीं मिलता दिखता। आज पानी प्रदूषण की हालत यह है कि पानी आज दूध के भाव बोतलों में बिकता है। यदि यही हालत रही तो वह दिन दूर नहीं जब सांस लेने के लिये ऑक्सीजन भी बोतलों में पानी की तरह बिकेगी, परंतु प्रभावित कौन होगा? जिसने इस प्रदूषण उत्पादन में हिस्सा ही नहीं लिया। आम गरीब आदमी के पास न कल कारखाने हैं न उद्योग-धंधे हैं जिनसे वातावरण प्रदूषित होता है परंतु इसका दर्प सबसे ज्यादा उसी के हिस्से में आ रहा है क्योंकि निर्धन के पास इतना पैसा नहीं है कि वह पीने के लिये बोतल का पानी या सांस लेने के लिये ऑक्सीजन खरीद सके, अतः उसकी नियति ही अल्प आयु को समर्पित होती चली जा रही है।
हालत यह है कि करे कौन और भोगे कौन। वातावरण में इतनी कार्बनडाइऑक्साइड और अन्य गैसें विचरण कर रही हैं कि जब बरसात होती है तो उसके साथ गैस के ये कण मिलकर धरती पर तेजाब बनकर बरसते हैं और आज यह बात आम होती जा रही है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जिन पाँच तत्व हमारे शरीर की रक्षा करते हैं, वह सभी आज प्रदूषित हो चुके हैं। यानी आज धरती, वायु, जल, आकाश और प्रकाश यानी रोशनी सभी कुछ प्रदूषित हो चुका है। आज विकास के नाम पर विनाश का साहित्य लिखने की आतुरता क्यों हो रही है यह समझ से परे की बात लगती है। आज फिर से किसी नानक या मोहम्मद साहब की आवश्यकता है जो इन भूले भटकों को राह दिखाए।
आर्थिक विकास से, जिसका लक्ष्य बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये वस्तुओं और सेवाओं को बढ़ाना है, पर्यावरण पर दबाव पड़ता है, क्योंकि मानव ने आर्थिक विकास और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पर्यावरण का दोहन अबौद्धिक और असंवेदनशील तरीके से किया है। स्वार्थ की पूर्ति और लालच ने र्पावरण का विनाश किया। विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में पर्यावरण संसाधनों की बढ़ती मांग पूर्ति से कम थी। अब विश्व के समक्ष पर्यावरण संसाधनों की बढ़ती मांग है लेकिन उनकी पूर्ति अत्यधिक सीमित है। यह जरूर है कि मानव की आवश्यकताएँ पर्यावरण से ही पूरी होने वाली हैं। किंतु इन आवश्यकताओं को पूरा करते समय यह समझ बनाए रखनी होगी कि हम पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं तथा हमारा विकास उसके साथ ही संभव है और धारणीय विकास का लक्ष्य उस प्रकार के विकास का संवर्धन है जो कि पर्यावरण की समस्याओं को कम करे, क्योंकि पर्यावरण को असंतुलित और दूषित कर हम स्वयं का जीवन तो संकट में डाल ही रहे हैं आने वाली पीढ़ियों के साथ भी घोर अन्याय कर रहे हैं।
धरती पर सबसे तेज दिमाग रखने वाला व्यक्ति अपने विकास के नाम पर अन्य प्राणियों के साथ-साथ अपने वजूद को खतरे में डालता जा रहा है। आज पृथ्वी की उर्वराशक्ति क्षीण होती जा रही है। आखिर इतनी बड़ी आबादी के लिये कहाँ से अन्न लाएँ तो दूसरी तरफ अधिक पैदावार लेने और लोगों का पेट भरने की मजबूरी में मानव आज धरती को, रासायनिक खादों के बेजा इस्तेमाल के द्वारा बंजर बनाने में लगा है। धरती सीमित है और जनसंख्या असीमित हर रोज पैदा होने वाले लोगों के लिये रहने और खाने की व्यवस्था धरती के द्वारा ही है। उधर रिहायश के नाम पर भी धरती का रकबा कम होता जा रहा है। खेती योग्य जमीन पर आए दिन महलनुमा कोठियां और अपार्टमेंट, कंकरीट के जंगलों की तरह बेतहासा बढ़ते जा रहे हैं। इसी प्रकार जल की आवश्यकता की बात कही जा सकती है।
पृथ्वी पर मात्र ढाई प्रतिशत जल ही पीने एवं खेती के लायक है। फिर भी हम जल का बेजा इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। अति सदा और सर्वदा वर्जित रही है, यह बात खेती और सिंचाई पर भी लागू होती है, अधिक पानी देने से अधिक पैदावार होगी के भ्रम में किसान पानी की जरूरत से ज्यादा मात्रा खेती में लगा रहा है। वहीं यह जल की ज्यादा मात्रा खेत से बहकर जलस्रोत में पुनः अनेक माध्यमों से मिल जाती है जिसमें अनेक रसायन और उर्वरक, कीटनाशक मिले होते हैं, यह पानी हमारे पीने के पानी के स्रोतों को अपवित्र करता है, पर इस पर आम तौर पर ध्यान दिया जाता है। इसके साथ ही हम जलस्रोतों तालाबों आदि में पशुओं को नहलाना, धुलाना नहीं भूलते उनके मल, मूत्र से भी जलस्रोत गंदे हो रहे हैं। जिस प्रकार शहरों में गंदी नालियां और फ़ैक्टरियों का गंदा जल नदियों में मिलकर नदी जल को गंदा करता है उसी प्रकार गाँव के घरेलू उपयोग के बाद का पानी गंदी नालियों या नापदान के माध्यम से तालाबों या पोखरों में मिलाया जाता है यह आदत भी उचित नहीं है। इसका निदान किया जाना चाहिए।
बरसात का ज्यादातर पानी नालियों और नालों के माध्यम से आबादी से बाहर निकल जाता है उसकी रोकथाम और रखरखाव की मुकम्मल व्यवस्था अभी गाँवों के पास नहीं हो पायी है। ग्राम पंचायतों को इस बारे में सोचना होगा। हर काम के लिये आज जनता सरकार और सरकार आम-जनता के सहयोग की गुहार अपना ध्येय न बनाए। सरकार और आम आदमी को अपनी नैतिक जिम्मेदारी का सावधानी पूर्वक निर्वाह करना चाहिए। जलस्रोत चाहे वे गाँव में हों या शहरों में उनकी पवित्रता बनाए रखी जानी चाहिए। इधर आर्थिक विपन्नता के नाम पर ग्रामवासियों ने नगर के आस-पास के पेड़ बाग, बगीचे बड़ी निर्ममता से काट डाले हैं और उसके चलते पर्यावरण में जलचक्र प्रभावित हुआ है। आज बरसात की मात्रा कम हो गई है या फिर कुछ इलाकों में यह न के बराबर चली गई है।
बरसात न होने के कारण वातावरण में गर्मी की अधिकता हो गई है और ऋतुएं प्रभावित हुई हैं। आधुनिकता के नाम पर आज जगह-जगह ईंट-भट्ठों की कतार बनती नजर आ रही है। इनकी चिमनी से निकलने वाले धुएँ ने आम जैसी फसल को बेकार कर दिया है। परंतु इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ध्यान कौन दे जिसको ध्यान देना है वह धनवान व्यक्ति है, वह हर काम व्यक्तिगत लाभ के लिये करता है। इसलिए वह अपना कारोबार तब तक नहीं बंद करेगा जब तक सरकारी तौर पर उसे मना न किया जाए और सरकारी तौर पर न मना करने के उपाय उसके पास होते हैं। अतः स्थितियाँ बद-से-बदतर होती रहती हैं।
आज बिलासिता के चलते अनेक उद्योग अपना कचरा, जो वायु और जल की गंदगी को बढ़ा रहा है, निर्बाध गति से वातावरण में बिना शोधित किए हुए छोड़ रहे हैं। उन्हें अपना और केवल अपना लाभ दिखायी देता है, पर शायद वह यह भूल जाते हैं कि आने वाले समय में उनकी भी संताने प्रदूषित वायु में सांस लेने को मजबूर होंगी और जब उन्हें यह पता चलेगा कि यह समस्या उनके दादा, परदादा की देन है तो वे लोग इन लोगों को अपना पूर्वज कहने में लज्जा महसूस करेंगे। इसलिए आने वाली पीढ़ियाँ हम पर यदि गर्व न कर सकें तो कम-से-कम हमें अपना पूर्वज मानने में संकोच न करें इस प्रकार का व्यवहार और उनकी धरोहरों को सहेजने का काम हमें मिलजुलकर करना ही होगा। जरूरत है कि हम अपने क्रियाकलापों और आर्थिक गतिविधियों को पर्यावरण के प्रति सकारात्मक बनाएँ और भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता से समझौता किए बिना वर्तमान पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करें।
किसी विद्वान ने सत्य कहा है कि पर्यावरण को यथावत छोड़ दिया जाए तो वह निरंतर लाखों सालों तक जीवन का सहारा बन सकता है। इस योजना में एक मात्र सर्वाधिक अस्थिर और संभावित विनाशकारी शक्ति मानव प्रजाति है। मानव आधुनिक प्रौद्योगिकी की सहायता से पर्यावरण में जाने, अनजाने दूरगामी और अपरिवर्तनीय बदलाव लाने की क्षमता रखता है। इसलिए हम सबकी और हम सबमें आज जागरूकता बहुत आवश्यक है।
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अभयना, मंगारी, वाराणसी, (उत्तर प्रदेश), पिन-221202
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