पर्यावरण भी हमारे परिवार का ही हिस्सा है

वर्षा हमारा जीवन रस है और पर्जन्य प्रसाद। पर्जन्य वर्षा कराने वाली प्रकृति की व्यवस्था है और ऐसी ही दिव्यशक्तियों को देवता कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान जिसे पर्यावरण चक्र या इकोसाइकिल कहता है ऋगवेद के ऋषि उसे पर्जन्य कहते हैं। हमारा पर्यावरण भी हमारे जीवन चक्र का एक अंग है समझा रहे हैं हृदय नारायण दीक्षित।

भारतीय संस्कृति ने वैदिक काल से ही संपूर्ण सृष्टि के प्रति परिवार भाव बनाया था। पर्यावरण वस्तुत: परिवार भाव ही है। लेकिन पश्चिम से आई हवा ने सब-कुछ तबाह कर दिया। विकास का अर्थ बदल गया।

आम-जामुन में रस नहीं। ताल-पोखर सूखे हैं। गौंए प्यासी हैं। सभी पशु-पक्षी भी। वृक्ष अपनी जिजीविषा में संघर्ष कर रहे हैं। वे अपनी प्यास बुझाने के लिए और गहरे अपनी जड़ें ले जाते हैं लेकिन भीषण गर्मी से डरे जलस्रोत भी पाताल की ओर भाग गए हैं। सरकारी हैंडपम्प भी गडबड़ा गए हैं।

मनुष्य और उसकी रची सरकारों ने ‘विकास’ के नाम पर पृथ्वी माता को घायल किया है। कहीं बालू खनन तो कहीं मौरंग, वनक्षेत्र कट गया है। यूकेलिप्टस हहरा रहे हैं। धरती का अणु-परमाणु उमस और बेचैनी में है। समूचा प्राणीजगत बिलबिला गया है। देव पर्जन्य भी कुपित दिखाई पड़ रहे हैं।

पर्जन्य वर्षा कराने वाली प्राकृतिक व्यवस्था हैं। वैदिक काल में प्रकृति की दिव्यशक्तियों को ही देवता कहा गया था। आधुनिक विज्ञान जिसे पर्यावरण चक्र या इकोलॉजिकल साइकिल कहता है। ऋग्वेद के ऋषि उसे पर्जन्य कहते हैं। ऋग्वेद के सातवें मंडल (सूक्त 101 व 102) में पर्जन्य सूक्त हैं। वर्षा के बिना जीवन असंभव है। इसलिए पर्जन्य को वि का सर्वस्व बताया गया है। (ऋ. 7.101.2) बताते हैं कि वे जलों के संवर्धक हैं और वनस्पतियों, औषधियों में वृद्धि करते हैं। वर्षा यों ही नहीं होती। दिव्य शक्तियां वनस्पतियों, औषधियों और संपूर्ण प्राणिजगत को प्यार करती हैं। वर्षा पर्जन्य आदि देवों की अनुकंपा है। आकाश पिता है, धरती माता। पर्जन्य पिता का अमृत रस है, माता पृथ्वी इस रस को प्राप्त करती है, खुशी में गदगद होती है। संतति प्रवाह बढ़ता है।

वर्षा हमारा जीवन रस है और पर्जन्य प्रसाद। लेकिन विकास के आधुनिक तरीकों से पृथ्वी और आकाश घायल हैं। विकास का मतलब धुआं उगलते ट्रक, गाड़ियां और टेम्पो हो गया है। वायु में जहरीली गैसे हैं। सांस लेने के लिए भी शुद्ध वायु का अकाल है। जंगल उजाड़े जा रहे हैं। मोबाइल के टावर खतरनाक विकिरण कर रहे हैं। पक्षियों की तमाम नस्लें समाप्त प्राय है।

तितलियां गायब हो रही हैं। गौरैया दिखाई नहीं पड़ती। नीलकंठ गायब हो चुके हैं। तुलसीदास ने लिखा था तुलसी पावस के समय, धरी कोकिला मौन/अब तो दादुर बोलि हैं, हमें पूछिहैं कौन? तब वर्षा आती थी झमाझम। वर्षा ऋतु देख कोयल चुप हो जाती थी। दादुर-मेढ़क बोलने लगते थे। अब पर्जन्य अपनी पूरी सेना के साथ आते नहीं। वे यों ही आते है कभी-कभार। मंत्री/राजनेता की तरह आसन की मुद्रा में। दिखावा ही करते हैं, बरसने का काम नहीं करते।

विकास का यह पैमाना प्रकृति विरोधी है। मार्क्सहवादी विचार में मनुष्य और प्रकृति के बीच अंतर्विरोध हैं। भारतीय चिंतन में हम मनुष्य प्रकृति के अविभाज्य घटक हैं। प्रकृति के सभी घटक, पशु, पक्षी, वनस्पति एक दूसरे पर निर्भर है। आवश्यकता और हवस मंम फर्क करना चाहिए। धरती के पास हरेक वनस्पति और जीव जगत की आवश्यकता पूरी करने की क्षमता है। सबके आश्रय, आवास और पोषण के साधन हैं। लेकिन मनुष्य की हवस-पिपासा का क्या करें? प्रकृति और उसके अंगभूत घटकों को नष्ट करते हुए विकास की कोई भी यात्रा संभव नहीं है।

तरक्की आधुनिक कल्पना से ही क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर आहत हैं। अथर्ववेद का भूमिसूक्त पृथ्वी को माता कहता है। यहां संवेदना का चरम है। अथर्वा कहते हैं- ‘हे पृथ्वी माता! यज्ञ और मंगलकार्यों के लिए हम आपको खोदते हैं। हे माता! आपके मर्मस्थल को चोट पहुंचाने के लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।’ विवाह आदि में बांस-मंडप के लिए जमीन खोदने के लिए क्षमा-याचना की भावना से ही हम पर्यावरण संरक्षक थे। अब हम सब बालू खनन आदि के लिए धरती के मर्मस्थल को घायल करते हैं।

भारतीय संस्कृति ने वैदिक काल से ही संपूर्ण सृष्टि के प्रति परिवार भाव बनाया था। पर्यावरण वस्तुत: परिवार भाव ही है। लेकिन पश्चिम से आई हवा ने सब-कुछ तबाह कर दिया। विकास का अर्थ बदल गया। पहले विकास का अर्थ मनुष्य के सर्वोत्तम का प्रकटीकरण था। अब विकास का अर्थ बदल गया। सो बादल नहीं आते। पर्जन्य आहत हैं। स्तुति है-‘आओ पर्जन्य! हे मेघ! आओ क्षमा करो भरतजनों को! बरसो झमाझम!’ इतना बरसो की विकास की बदल जाए परिभाषा।

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