संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जलवायु परिवर्तन को रोकने, प्रदूषण को कम करने, भुखमरी को खत्म करने के लिये वैश्विक स्तर पर शाकाहारी भोजन अपनाया जाना जरूरी है।
कई अखबारों में खबर छपी थी कि यदि लोग शाकाहार ज्यादा से ज्यादा करें और मांसाहार को त्याग दें तो न सिर्फ उन्हें इसका फायदा मिलेगा बल्कि पृथ्वी को भी लाभ पहुँचेगा। इससे धरती पर बढ़ रही गर्मी में तो कमी आएगी ही पर्यावरण को पहुँच रहे नुकसान में भी कमी आएगी। सबसे खास बात यह है कि इससे स्वास्थ्य सेवाओं पर जो खर्च लगातार बढ़ रहा है वह कम होगा। यह दावा ऑक्सफोर्ड मार्टिन प्रोग्राम के मार्को स्प्रिंगमैन ने अमेरिका के नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित अपने अध्ययन में किया है। दुनिया में शाकाहार और मांसाहार के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर होने वाले असर को लेकर किया गया यह ताजा अध्ययन है। इस अध्ययन में कहा गया है कि मांसाहार के लिये पशुओं को तैयार करते समय उनके भोजन तैयार करने, उन्हें काटने और पैकेटबंद स्थितियों में एक जगह से दूसरी जगह ले जाने तथा उन्हें पकाने से पर्यावरण पर विपरीत असर पड़ रहा है।
दरअसल शाकाहार के पक्ष में दुनियाभर में पिछले कुछ सालों से माहौल तेजी से बनने लगा है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि इसके जरिए प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुँचने की बजाय फायदा पहुँचता है। दुनियाभर में शाकाहार को बढ़ावा देने वाली प्रतिष्ठित संस्था ‘पेटा’ की प्रवक्ता बेनजीर सुरैया का कहना है कि भारत शाकाहार का जन्मस्थल रहा है। शाकाहार से हानिकारक गैसों का उत्पादन रुक सकता है और जलवायु परिवर्तन पर भी अंकुश लग सकता है। यह आम धारणा है कि शाकाहारी भोजन से मांसाहारी लोगों की तुलना में मोटापे का खतरा एक चौथाई ही रह जाता है लेकिन इसके बावजूद लोग मांसाहार से नहीं चूकते। बेनजीर का कहना है कि खाने के लिये पशुओं की आपूर्ति में बड़े पैमाने पर जमीन खाद्यान्न और पानी की जरूरत होती है। कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जलवायु परिवर्तन को रोकने, प्रदूषण को कम करने, जंगलों को काटे जाने से रोकने और दुनियाभर में भुखमरी को खत्म करने के लिये वैश्विक स्तर पर शाकाहारी भोजन अपनाया जाना जरूरी है।
भारत में हृदय से जुड़ी बीमारियाँ, डायबिटीज और कैंसर के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं और इसका सीधा सम्बन्ध मांस, अण्डे तथा डेयरी उत्पादों जैसे मक्खन, पनीर और आय.पी.एम. की बढ़ रही खपत से है। भारत में तेजी से बढ़ रहे डायबिटीज-2 से पीड़ित लोग शाकाहार अपनाकर इस बीमारी पर नियंत्रण पा सकते हैं। शाकाहारी खाने में कोलेस्ट्रॉल नहीं होता। बहुत कम वसा होती है और यह कैंसर के खतरे को 40 फीसदी तक कम करता है। ‘पेटा’ के वरिष्ठ समन्वयक निकुंज शर्मा ने आई.ए.एन.एस. को बताया कि संगठन का मानना है कि पर्यावरण के क्षरण के लिये मांस उद्योग जिम्मेदार है। मांसाहारी लोग पर्यावरणविद नहीं हो सकते। शर्मा का कहना है कि कारों, ट्रकों, जहाजों, रेलगाड़ियों और विमानों की अपेक्षा जानवरों की बलि ने ग्रीन हाउस गैसों का ज्यादा उत्सर्जन किया है। एक अन्य रिपोर्ट में जोर दिया गया है कि धरती को हानि पहुँचा रही ग्रीन हाउस गैसों का कम-से-कम 18 प्रतिशत भाग मांस व्यवसाय द्वारा फैलाया जा रहा है। इस रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण को 18 प्रतिशत पहुँचाने वाला यह व्यवसाय विश्व के सकल उत्पादन का केवल डेढ़ प्रतिशत है। इसके अलावा जंगली जानवरों के रहने योग्य धरती का एक बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे मांस के लिये पाले गये पशुओं के लिये छीना जा रहा है जिससे विश्व के अनेक अभ्यारण्य विनाश की कगार पर पहुँच रहे हैं।
मनुष्य के शरीर के लिये ऊर्जा शक्ति और पोषण हेतु प्रोटीन, शर्करा, वसा, विटामिन्स, खनिज एवं रेशे आदि पदार्थ उचित अनुपात में अत्यन्त आवश्यक हैं। साथ ही पोषक पदार्थों में शरीर और आहार के अनुकूल गुणवत्ता का होना भी इतना ही आवश्यक है। शाकाहार में सभी प्रकार के पौष्टिक और श्रेष्ठ गुणवत्ता युक्त तत्व पर्याप्त मात्रा में विद्यमान होते हैं। भारी-भरकम और कुपाच्य मांसाहार की तुलना में साधारण से न्यूनतम शाकाहारी पदार्थों से शरीर को आवश्यक पोषण और ऊर्जा प्रदान की जा सकती है। शाकाहारी संस्कृति में इन पोषक मूल्यों का प्रबन्धन युगों-युगों से चला आ रहा है। इतना ही नहीं बहुमूल्य खनिज का शाकाहार से ही प्राप्त होना अतिरिक्त संजीवनी बूटी के समान है, जो कि मांसाहारी पदार्थों में नदारद है।
भ्रांतियाँ पैदा करने वाले मांसाहार समर्थक अक्सर यह तर्क देते हैं कि यदि सभी शाकाहारी हो जाएँ तो सभी के लिये अन्न कहाँ से आएगा? इस प्रकार भविष्य में खाद्य अभाव का बहाना पैदा कर वर्तमान में ही सामूहिक पशु वध और हिंसा को उचित ठहराना दिमाग का दिवालियापन है, जबकि सच्चाई तो यह है कि अगर बहुसंख्य भी शाकाहारी हो जाएँ तो विश्व में अनाज की बहुतायत हो जाएगी। दुनिया में एक अनुमान के मुताबिक एक एकड़ भूमि में जहाँ 8 हजार किलोग्राम मटर, 24 हजार किलोग्राम गाजर और 32 हजार किलोग्राम टमाटर पैदा किए जा सकते हैं वहीं उतनी ही जमीन का उपयोग करके मात्र 200 किलोग्राम मांस पैदा किया जा सकता है। आधुनिक पशुपालन में लाखों पशुओं को पाला-पोषा जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस भी ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता है ताकि जल्द से जल्द ज्यादा से ज्यादा मांस हासिल किया जा सके। औसत उत्पादन का दो तिहाई अनाज एवं सोयाबीन पशुओं को खिला दिया जाता है।
विशेषज्ञों के अनुसार मांस की खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18 हजार बच्चों एवं 6 हजार वयस्कों का जीवन बचा सकती है। एक किलो मांस पैदा करने में 7 किलो अनाज या सोयाबीन का उपभोग होता है। अनाज को मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट तथा 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। एक किलो आलू पैदा करने में जहाँ मात्र 500 लीटर पानी की खपत होती है वहीं इतने ही मांस के लिये 10 हजार लीटर पानी लगता है। स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन तैयार करने के लिये कई गुना जमीन और दूसरे संसाधनों का अपव्यय होता है।
एक अमेरिकी अनुसंधान से जो आँकड़े प्रकाश में आए हैं उसके अनुसार अमेरिका में औसतन प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष अनाज की खपत ग्यारह सौ किलो है जबकि भारत में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत मात्र 150 किलो प्रतिवर्ष है जो कि सामान्य है। एक अमेरिकन इतनी विशाल मात्रा में अन्न का उपयोग आखिर कैसे कर लेता है? वस्तुतः उसका सीधा आहार तो मात्र 150 किलो ही है किन्तु एक अमेरिकन के ग्यारह सौ किलो अनाज के उपभोग में सीधे भोज्य अनाज की मात्रा 62 किलो ही होती है। बाकी का 88 किलो हिस्सा मांस होता है। भारत के संदर्भ में कहें तो 150 किलो आहार में यह अनुपात 146.6 किलो अनाज और 3.4 किलो मांस होता है। इन तथ्यों को देखते हुए ही कहा जाता है कि सभी शाकाहारी हो जाएँ तो निश्चित ही पृथ्वी पर इसकी बहुतायत हो जाएगी और शायद इसके भण्डारण के लिये हमारे संसाधन कम पड़ जाएँगे।
वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि धरती पर जीवन बनाए रखने में कोई भी चीज मनुष्य को उतना फायदा नहीं पहुँचाएगी जितना कि शाकाहार का विकास लेकिन आज दुनिया का अस्तित्व ही संकट में है और इसका कारण है बिगड़ता पर्यावरण तथा ग्लोबल वार्मिंग। माना जा रहा है कि ग्रीन हाउस ग्लोबल वार्मिंग की मुख्य कारक है और जानवर ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करते हैं। जब ग्लोबल वार्मिंग से दुनिया का अस्तित्व संकट में आ गया है तो इससे बचने के लिये जानवरों का खात्मा होना चाहिए लेकिन प्रकृति में जीवों की प्रत्येक प्रजाति का अस्तित्व बचा रहना आवश्यक होता है क्योंकि जीवों की प्रत्येक प्रजाति पृथ्वी का पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करती है। अतः इनके खात्मे की कल्पना यानी दुनिया के ग्लोबल वार्मिंग से पहले ही खत्म होने के हालात पैदा करने जैसी बात है। वास्तव में पशु-पक्षी हमारे अस्तित्व के लिये अनिवार्य हैं और इनका आहार के रूप में भक्षण प्रकृति विरोधी है। निश्चित तौर पर हर प्रकृति विरोधी बात पर्यावरण विरोधी होती है।
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